वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 17
From जैनकोष
इह णियसुवित्तवीयं जो ववइ जिणुत्तसत्तखेत्तेसु।
सो तिहुवणरज्जफलं भुँजदि कल्लाणपंचफलं।।17।।
सप्तक्षेत्रों में सुवित्त बीज बोने का त्रिभुवन राज्यफल―जो भव्य पुरुष न्यायपूर्वक उपार्जित किए गए उत्तम धनरूपी बीज को जिनेंद्र देव द्वारा बताये गए 7 क्षेत्रों में बोता है वह तीनों लोक के राज्यफल को एवं पंचकल्याणकरूप फल को भोगता है। श्रावकों को दान देने के स्थान 7 प्रकार के बताये गए हैं। वे 7 क्षेत्र कौन से हैं? (1) प्रथम तो जिन पूजा, भक्ति, द्रव्यपूजा, संगीतपूजा और-और प्रकार से जिसमें जिनेंद्र देव के गुणों का स्मरण बने ऐसा आयोजन, (2) दूसरी बात मंदिर आदिक की प्रतिष्ठायें। यदि देवशास्त्र गुरु के स्थान न हों तो फिर मनुष्यों को आधार क्या रहा? जिससे धर्ममार्ग में चल सकें और तीर्थ प्रवृत्ति बनी रहे। (3) तीसरा―तीर्थयात्रा, वह भी यदि एक वीतराग भाव की उपासना सहित होती है तो वह भी बहुगुणा फल देती है अतएव तीर्थयात्रा हो तो कौन से प्रभु मोक्ष गए हैं, क्या उपाय उन्होंने किया था, उन सब बातों को ध्यान में रखते हुए तीर्थयात्रा होती है तो वह विशुद्धि को उत्पन्न करती है। (4) चौथा―मुनि आदिक पात्रों को दान देना। दान चार प्रकार के हैं―(1) आहार दान (2) शास्त्र दान (3) औषधि दान और (4) अभयदान। इन चारों प्रकार के दोनों से साधुवों का, श्रावकों का, अन्य जीवों का उस में उपकार होता है। (5) पाँचवां क्षेत्र बताया―महर्षियों को दान। पहले बहुत कुछ रिवाज था कि अगर कोई सहधर्मी किसी कारण थोड़ा दुःख पाता है, रहने का ड्खौर नहीं, खाने की व्यवस्था भी नहीं तो गुप्त रीति से किसी प्रकार वहाँ पहुँचा दिया करते थे और इस तरह साधर्मियों को एक गुप्त सहायता चला करती थी। उसमें भाव यह है कि यह भी मोक्षमार्ग में चलने की रुचि रखने वाला है। मोक्षमार्ग में प्यार है तो मोक्षमार्ग के रुचिया के प्रति भी अनुराग जगता है। (6) छठा क्षेत्र―भूखे प्यासे दुःखी जीवों को दान देना। जो उच्च पुरुष होते हैं, समर्थ पुरुष होते हैं उनका हृदय किसी को भूख से व्याकुल नहीं देख पाता है। ऐसे असहाय दीन दुःखी प्राणियों को मदद करना यह भी एक क्षेत्र है, और (7) सातवां क्षेत्र है अपने कुल व परिवार वालों को अपना सर्वस्व देना। आत्महित की प्रगति में सर्वसंन्यास का महत्त्व―अब कोई कहे कि यह तो हम खूब कर लेंगे। अपने बाल बच्चों को, परिजनों को तो हम सब कुछ दे जायेंगे याने अपने जीवन में कुछ खर्च न कर कृपण रहेंगे, जोड़ते जायेंगे और मरते समय उनको पूरा का पूरा धन दे जायेंगे, ऐसा दान तो बड़ा अच्छा बताया गया, कर लेंगे, पर इसका यह अर्थ नहीं है। उन 6 प्रकार के दानों को करता हुआ जीवन बिताकर अंत में अपने ही जीवन में सर्वपरिग्रहों का त्याग करना और जिनदीक्षा लेकर साधु होकर अपने आत्मा के ध्यान में लगना, यह उसमें संकेत है, मरकर सब कुछ दे जाना, यह कोई दान नहीं है। अपने आशय में त्याग बुद्धि आये तो वह दान कहलाता है। वैसे तो एक कवि ने एक चित्रण खींचा है कि लोक में सबसे बड़ा दानी होता है कंजूस पुरुष। कैसे कि वह अपने जीवन में कभी कुछ खर्च नहीं करता, अपने को जीवन भर कष्ट में रखता, जीवन भर जोड़ जोड़कर धर जाता और अंत में सारा का सारा धन छोड़कर परिजनों को देकर मरण को प्राप्त हो जाता। देखिये यह कोई दान नहीं है इसमें तो कंजूस लोगों की खिल्ली उड़ाया है। इस तरह से अपना सर्वस्व देने को दान नहीं कहते। अपने जीवन में सर्व प्रकार के दानों को करता हुआ अंत में अपना कुछ समय ऐसा बिताये कि निशल्य होकर धर्मध्यान करे। उसके लिए परिवार का मोह त्यागना और यों सर्वस्व छोड़ना जैसे कि राजा लोग अपने पुत्र को राजगद्दी देकर साधु हो जाया करते थे इस तरह सर्वस्व देकर साधु हो जाना और अपनी आत्म साधना में रहना यह मतलब है इस 7वें क्षेत्र का। तो इस तरह जो भव्य जीव न्याय से तो धन कमाये हुए धन को इन 7 क्षेत्रों में दान करे इसी को कहते हैं अपने उत्तम धन रूपी बीज को बो देना। उसका फल है कि वह तीन लोक के राज्य को प्राप्त करता है। कौन है ऐसा जो तीनों लोक का हो? तो ऐसा कोई राजा नहीं हुआ, पर जो प्रभु बन जाता है, जिसके ज्ञान में तीनों लोक प्रतिभासित होते हैं वह कहलाता है तीनों लोक का राजा, याने वह निर्वाण को प्राप्त होता है।