वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 24
From जैनकोष
हिय-मिय-मण्णं-पाणं णिखज्जोसहिं णिराउलं ठाणं।
सयणासणमुवयरणं जाणिज्जा देह मोक्खरओ।।24।।
पात्रदान में देय अन्न, पान, औषधि, स्थान, उपकरण आदि का विवेक―जो मोक्षमार्ग में रत है वह सत्पात्र को यथा समय क्या-क्या प्रदान करता है उसका वर्णन इस गाथा में किया है। वह हित मित अन्न पान को देता है। जो हित करे और परिमित हो गरिष्ट प्रमादकारक आहार साधुवों को नहीं देते, ऐसा निर्बाध अन्नपान और निर्दोष औषधि, निराकुल स्थान और शयन, आसन, उपकरण इनको समझकर देता है। यह और किस-किस प्रकार दिया जाय तो उनको बाधा न आये और अपने ध्यान में वे सफल होते रहें। अनेक पुराणों में चर्चायें मिलती हैं कि किसी को एक कड़वी लौकी का ही आहार दिया और उन्होंने ले लिया तो उसका फल ठीक नहीं निकला। क्या हुआ कि उनको कोई व्याधि बन गई, तो उसका आहार दान अयोग्य कहलाया। तो ऐसे ही जिस-जिस समय जैसा-जैसा अन्न पान देना चाहिए वैसा समझकर गृहस्थ देता है और औषधि निर्दोष देता है जिसमें कि मद्य, मांस, मधु अतिचार का भी दोष न लगे। निराकुल स्थान देता है जहाँ लोगों का विशेष आवागमन न हो। मच्छर आदिक की बाधायें जहाँ नहीं हो पातीं। सोने बैठने आदि का स्थान भी देता है और जो उनके उपकरण हैं उन उपकरणों को भी योग्य समझकर प्रदान करता है। कैसा क्या देना चाहिए इस प्रकार का विवेक रहता है सद्गृहस्थ को सो जो मोक्षरत हैं। मोक्ष मार्ग में अनुरागी है उस गृहस्थ को बड़े विवेक पूर्वक ये सब आवश्यकता वस्तुवें देना चाहिये।