वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 26
From जैनकोष
सप्पुरिसाणं दाणं कप्पतरूणं फलाण सोहं वा।
लोहीणं दाणं जइ विमाणसोहा-सवं जाणे।।26।।
सत्पुरुषों के व लोभी पुरुषों के दान में अंतर―सद̖पुरुषों का दान कल्पवृक्ष के फल की भाँति शोभा के समान है। और वही दान यदि लोभी पुरुष का है तो उसकी शोभा ठठरी की शोभा के समान है। यहाँ ज्ञानी और अज्ञानी का अंतर दिखाया गया है। जो उदात्त पुरुष हैं, सम्यग्दृष्टि हैं ज्ञानी हैं, जिन्होंने स्पष्ट समझ लिया है कि संसार में जो भी समागम आये हुए हैं वे मेरे हितरूप नहीं हैं, ऐसा जिन्होंने निर्णय किया है उन पुरुषों के द्वारा जो दान विधि चलती है वह निर्दोष चलती है। तो ज्ञानी पुरुष ने दान सेवा की वह तो कल्पवृक्ष के फलों की तरह उससे फल मिलेगा। मन चाहा सुख मिलेगा, ज्ञानी किसी लोभ से दान नहीं करता, किंतु उसको अपने रत्नत्रयभाव में प्रीति है, सो रत्नत्रय धारियों को देखकर वह अपने में नहीं समाता, इतना आनंदित होता है कि उनकी सेवा करके वह यह अपने में आनंद का अनुभव करता है। इसी प्रकार जो सत्पुरुषों को दान दिया जाता है वह महाफल देता है जिससे आगे भी सार सुख का अनुभव करता है। तो ज्ञानी जनों को तो कल्पतरु की तरह हुआ। और लोभी पुरुषों के द्वारा दिया गया दान शव की विमान शोभा की तरह जानना तथा लोभी पुरुषों का दिया गया दान की शवशोभा की तरह जानना शोभा की तरह जानना। जैसे शोभा तो उस ठठरी की भी बनायी जाती है मरे के बाद जैसे नसैनी पर लिटाकर ले जाते हैं, उसे ठठरी कहा करते तो उसकी भी लोग शोभा करते हैं। कितने ही लोग उसे लादकर ले जाते हैं। तो जैसे वह सार रहित है जलूस, लेकिन जनों ने जहाँ सार माना वह रंच भी नहीं है, वह मर गया, तो जैसे मुर्दा की शोभा बनती है ऐसे ही लोभी पुरुषों का दान उसके शव की शोभा की तरह है, क्योंकि ज्ञानी के तो भक्ति भाव हैं, पर अज्ञानी के भक्ति भाव नहीं है दान करने के प्रसंग में। तो भक्ति भाव से शून्य होने की तरह वे सब क्रियायें अज्ञानी की मृतक की शोभा के समान है।