वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 44
From जैनकोष
सम्मविणा सण्णाणं सच्चारित्तं ण होइ णियमेण।
तो रयणत्तयमज्झे सम्मगुणक्किट्ठमिदि जिणुद्दिट्ठं।।44।।
सम्यक्त्व गुण की उत्कृष्टता―सम्यग्दर्शन के बिना सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र न होगा। इसका कारण यह है कि सम्यग्दर्शन होता है स्वानुभवपूर्वक। तो जिसको स्वानुभव हुआ है उसे स्व का ज्ञान सम्यक है और जो स्वानुभव से हीन है वह आत्मा का ज्ञान पुस्तकों से करता, चर्चाओं से करता मगर उसका वह स्वाद नहीं पाता। तो सम्यग्दर्शन हो तो वह ज्ञान सम्यक् कहलाता है और सम्यक्चारित्र का लक्षण है कि अविकार निज सहज चैतन्य स्वरूप में रमना, जिसको इसका पता नहीं वह रमेगा ही क्या? और जिसको सम्यग्दर्शन हुआ है उसने परिचय पाया है उस सहज निज तत्त्व का कि जिसमें इसको रमना है। तो सम्यग्दर्शन के बिना न तो सम्यग्ज्ञान होता और न सम्यक्चारित्र होता। इसी कारण रत्नत्रय के पाठ में सम्यक्त्व गुण को उत्कृष्ट कहा है जिनेंद्र देव ने। यह तो मोक्ष महल की पहली सीढ़ी है। जैसे पहली सीढ़ी चढ़े बिना कोई ऊपर महल पर नहीं पहुँच सकता ऐसे ही सम्यग्दर्शन पाये बिना उन साधनों को भी न पालेगा और मोक्ष में न पहुँच सकेगा। तो सम्यग्दर्शन रत्नत्रय धर्म का सर्वोत्कृष्ट गुण हैं। सम्यग्दर्शन जिसके नहीं है वह मुनि होकर शुक्ल लेश्या करके अपने व्रत नियम को भली भाँति पाल करके स्वर्गों से भी ऊपर ग्रैवेयकों में उत्पन्न हो ले, जहाँ सब अहिमिंद्र हैं वहाँ कोई छोटा बड़ा नहीं है, सब एक ही समान ऐश्वर्य वाले हैं। बड़ी आयु 3॰ सागर तक की आयु, उत्कृष्ट 31 सागर तक भी चलती है। इतनी बड़ी आयु के होकर भी वह अहमिंद्र च्युत होता है, संसार में रुलता है, मोक्ष का मार्ग नहीं पाता, क्योंकि उसे सम्यक्त्व नहीं हुआ। आत्मा की पवित्रता सम्यग्दर्शन से है, और उस ही पवित्र आत्मा में सम्यग्दर्शन आता है। जिससे कि वह पूज्य होता है। सम्यग्दर्शनहीन साधुवों की क्या विडंबना होती है इसका चित्रण दर्शनपाहुड़ में कुंदकुंदस्वामी ने किया है कि वे स्वयं दुर्गति में जाते हैं और जो ऐसे लोगों की सेवा करते हैं वे भी दुर्गति में जाते हैं। मगर निश्चय सम्यक्त्व का तो कोई पता पाड़ नहीं सकता, पर व्यवहार सम्यक्त्व भी जिसके न जंचे ऐसे पुरुष खुद डूबते हैं और दूसरों को डुबाते हैं। तो सम्यक्त्व तो रत्नत्रय में सबसे प्रधान गुण है।