वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 55
From जैनकोष
विकहाइ सुरुद्दट्टज्झाणेसु असुयगेसु दंडेसु।
सल्लेसु गारबेसु खाईसु जो बट्टए असुहभावो।।55।।
हिंसा झूठ चोरी व कुशील में प्रवर्तन का अशुभ भाव―अशुभ भाव क्या कहलाता है इसका वर्णन इन दो गाथाओं में किया गया है। हिंसा आदिक में प्रवृत्ति हो वह अशुभ भाव है। हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह आदि जितने भी खोंटे भाव हैं उनमें भावहिंसा होती है अर्थात् अपने चैतन्य स्वरूप का घात होता है, उसी कारण वह हिंसा है। दूसरे जीव के प्राण जाते हैं तो खोटे भाव किया दूसरे ने, मारने वाले ने और उससे प्रेरित होकर प्रवृत्ति बनी कि दूसरे की जान गई मगर हिंसा लगी भाव के खोंटे होने से। उसकी प्रवृत्ति से हिंसा नहीं है। देखिये किसी दूसरे जीव ने घात किया तो भाव बनाया तब घात हो पाया तो वहाँ हिंसा प्रकट है। किसी के बारे में झूठ बोला तो भाव खोंटा किया। उस परिग्रह से तृष्णा लगी या अन्य कोई स्वार्थ हुआ या अपना दिल बहलाने की चेष्टा की और उसमें झूठ बोलना पड़ा तो उस झूठ बोला जाने में जो भीतर का भाव स्वच्छंद हुआ और दूसरे को कष्ट का संकल्प हुआ उस भाव से उसको हिंसा हुई। तो झूठ बोलने में भी अशुभ भाव समझिये। किसी दूसरे की चीज चुरा ली तो उसमें पहले बहुत खोटा भाव बनाना पड़ा, और धन तो एक लोक में प्राण सा माना जाता है, तो किसी का धन चोरी से हरा तो मानो उस का प्राण ही हर लिया हो। खोटे भाव करना पड़ा तो उन खोटे भावों के कारण उसको पाप है और दुर्गति का वह पात्र है। कुशील सेवन, परस्त्री, वेश्या गमन, आदि ऐसी खोटी दुर्भावना करने वाले के खोटे भाव हुए। खोटे भाव यों हैं कि आत्मा का जो स्वभाव है केवल जाननहार उसकी उसे खबर नहीं, वह लग रहा बाह्य पदार्थों में और वे परस्त्रीगमन वेश्यागमन आदि ऐसे दुर्भाव हैं कि उनमें चित्त व्यवस्थित नहीं रहता। लोक में निंदा का भी डर रहता, पैसा भी अपना व्यर्थ जाता, वह धर्म कर्म का पात्र नहीं रह पाता। तो चूँकि उसमें खोटे भाव हुए तो वह अपनी हिंसा हुई और जो अपने भावों की हिंसा करता है वह दुर्गति प्राप्त करता है। परिग्रह पाप का अशुभ भाव―परिग्रह जोड़ने का भाव, तृष्णा, यह भी एक उतना बड़ा पाप है जैसे कि कुशील आदिक माने जाते मगर यहाँ चूँकि सभी तृष्णा वाले हैं तो कौन किसे बुरा कहे? जैसे एक कहावत है―चोर-चोर मौसेरे भाई। उन चोरों में कौन किसे बुरा देख सके। तो ऐसे ही जब सब तृष्णावान हैं संसार के लोग तो एक दूसरे को बुरा देख नहीं सकते। कोई तृष्णा करने वाला व्यक्ति अगर कुछ धनिक बन जाये तो उसकी प्रशंसा करने वाले तो बहुत मिलेंगे मगर उसकी तृष्णा की निंदा करने वाला कोई नहीं है इस तृष्णा भाव के अंदर भीतर में कितना क्लेश है इसको तो निरखिये। कल्पनावश तृष्णा बढ़ती है। मानो किसी को किसी काम में 5॰ हजार का फायदा हुआ और आशा यह कर रखा है कि अभी तो 2॰ हजार का फायदा होगा। मगर कुछ दिन बाद हुआ क्या कि फायदे में 1॰ हजार ही और रह गए तो वह वहाँ खेद मानता है। 1॰ हजार की हानि समझकर दुःखी होता है। अरे बताओ उसमें दुःख मानने की क्या बात? आखिर फायदा ही तो रहा, टोटा तो नहीं पड़ा, पर तृष्णा का भाव होने से वर्तमान में जितना जो कुछ मिला हुआ है उसका भी सुख नहीं लूट पाते। तो यह तृष्णा का भाव, परिग्रह का संरक्षण यह सब जीवों को दुर्गति का पात्र बनाने वाला है। ज्ञानी रहकर घर में रहे तो यह भव भी भला है और आगे भी उसके लिए भला रहेगा और तृष्णावी, आशक्त अन्यायी बनकर मौज भी पाये तो भी उसको न वर्तमान में शांति है और न आगे शांति है। तो ये हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह इन 5 पापों में जिनका मन लगा है समझिये वह अशुभ भाव है और अशुभ भाव का फल ऊपर बताया ही है कि नरक गति प्राप्त होती है। क्रोध कषाय में वर्तने का अशुभ भाव―क्रोध, मान, माया, लोभ इन चार प्रकार की कषायों में जो अपने को लगाता है सो वह अशुभ भाव है। क्रोध-(गुस्सा) जरा-जरा सी बात पर गुस्सा आना। गुस्सा किसे आती है? जिसको अनेक सुविधायें मिली हैं और कोई कमी रह जाय तो उसे गुस्सा आती है। और जिसके पास पहले से ही कुछ साधन नहीं वह गुस्सा काहे पर करेगा? जिसको प्यार करने वाले बहुत हैं घर में उसके प्रति अगर किसी दिन किसी का प्यार कम मिल पाये तो उसको उस पर गुस्सा आ जाती है। देखिये घर में जिस बच्चे को सभी से बहुत-बहुत प्यार मिलता, सभी लोग उसे अपनी गोद में लिए-लिए फिरते वह भी यदि देखता है कि मेरे से कोई प्यार कम कर रहा तो वह रूठ जाता है। या किसी ने अगर उसे गोद से नीचे उतार कर बैठा दिया तो वह रोने लगता है। भला बताओ क्या कोई कष्ट है उस बच्चे को? सब प्रकार के मौज हैं फिर भी वह अपने में ऐसी कल्पना करता कि मैं इतने ऊपर चढ़ा था पर अब इन्होंने मुझे नीचे पटक दिया। बस उसे उस कल्पना से गुस्सा सी आ जाती और-और रोने लगता है। अब बताओ गुस्सा करने से लाभ क्या मिलता है इस जीव को? अपने में एक गुण होना चाहिए सहनशीलता का। जब आप जानते हैं कि यहाँ पर किसी का किसी पर कुछ अधिकार नहीं तो फिर उनके पीछे अपने परिणाम बिगाड़ने से फायदा क्या। जब एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य पर कुछ अधिकार नहीं तब फिर दुनिया में किसी भी वस्तु का कुछ भी परिणमन हो, उससे मेरा क्या वास्ता? यों सहनशीलता होना और तत्त्वज्ञान सामने रहना, यह जीव को सुखी बनाती है। किसी भी प्रसंग में कष्ट न मानना चाहिए। जो होता है सो ठोक। आज मानो कुछ कानून बनते जिनमें यह समस्या सामने खड़ी हो जाती कि मेरा तो इतना वैभव कम हो जायगा तो उसके पीछे भी क्या कष्ट मानना? अरे उसे यों समझ लो कि जैसे मानो पहले से ही मुझे न मिला था, या पहले ही मिट चुका था। क्या ऐसा हो न सकता था? अर्थात् हो सकता था। बस इस प्रकार की दृष्टि बन जाने से हर स्थिति में यह चैन में रहता है। ज्ञान की बड़ी विचित्र लीलायें हैं। तो क्रोध भाव में जो जीव रहता है वह अशुभ भाव हैं। मान कषाय में वर्तने का अशुभ भाव―घमंड के भाव में जो जीव रहता है वह अशुभ भाव है। कितना अज्ञान है? काहे का घमंड? कुछ ज्ञान पा लिया तो पा लिया। अब इसमें किसी दूसरे पर एहसान क्या? और पा भी क्या लिया? केवल ज्ञान के समक्ष कुछ नहीं, श्रुतज्ञान के समक्ष कुछ नहीं और पा भी लिया कुछ तो उसका दूसरे पर एहसान अथवा उन पर गर्व करना और तुच्छ मानने का कौनसा तुक है? पाया है ज्ञान तो अपने में खुश रहो, प्रसन्न रहो, अपने को निरखो, तृप्त रहो, ऐसे ही धन रूप, बल आदिक सभी की बातें हैं। इन्हें पाया है तो किसी दूसरे पर रौब जमाने के लिए पाया है क्या? घमंड किस बात का? घमंड करने वाला दूसरों को तो तुच्छ मानता है मगर उसे यह पता नहीं कि ये सब दूसरे बहुसंख्या के लोग मुझको तुच्छ मान रहे। घमंड करने वाले को यह पता नहीं रहता। जैसे किसी 7-8 मंजिल के ऊपर की छत पर बैठा हुआ पुरुष नीचे चलने वाले हजारों लाखों लोगों को बहुत छोटा कीड़ों जैसा अनुभव करता है मगर उसे यह पता नहीं कि नीचे चलने वाले हजारों लाखों लोगों की दृष्टि में हम भी बहुत छोटे कीड़े की भाँति लग रहे होंगे। तो भाई घमंड करने से लाभ कुछ नहीं मिलता बल्कि दुर्गति ही होती है। अशुभ भावों का फल नरक गति है। सीता को रावण ने हर लिया, कुछ ऐसा ही बानक बना, पर रावण अपनी प्रतिज्ञा पर अडिग रहा। उसने यह प्रतिज्ञा ली थी अनंतवीर्य अरहंत भगवान के सामने कि दुनिया की जो नारी मुझे न चाहेगी, उसके साथ मैं बलात्कार नहीं करूँगा। उसको उस समय भी घमंड था कि मैं इतना रूपवान हूँ, वैभववान हूँ, भला जगत की ऐसी कौन सी नारी (स्त्री) होगी जो मुझे न चाहेगी। ऐसे भाव के कारण भी समझिये उसने प्रतिज्ञा ले ली मगर वह अडिग रहा। उसने सीता के साथ दुर्व्यवहार नहीं किया और अंत में यह मन में आ गया कि मैं सीता को यों ही वापिस न कर दूँगा। पहले राम लक्ष्मण को लड़ाई में जीत लूँ बाद में सीता वापिस कर दूँगा। यदि यों ही वापिस कर दिया तो दुनिया कहेगी कि रावण ने डर के मारे सीता को वापिस कर दिया। आखिर उसका यह एक घमंड ही तो था। उस घमंड के कारण ही उसकी दुर्गति हुई। तो यह मान कषाय एक अशुभ भाव है, उसमें जो रहता है वह दुर्गति का पात्र है। माया कषाय में वर्तने का अशुभ भाव―मायाचारी छल कपट, जिसके मन की बात सहसा समझी न जा सके, किया कुछ और है, मन में कुछ और है। वह कपटभाव अशुभ भाव है। संसार में कौन सी बात, कौन सा पदार्थ इस जीव को कल्याणकारी है जिसके लिए मायाचार किया जाय? कपट करने वाला सदा भयभीत रहता है और कितने ही गुंतारे लगाता रहता है। कपट अशुभ भाव है। पाप का बंध कराने वाला है, जिसका फल दुर्गति है। लोभ कषाय में वर्तने का अशुभ भाव―ऐसे ही लोभभाव पाप है लोग बोलते ही हैं लोभ पाप का बाप बखाना। बाप मायने जनक और लोभ मायने पाप का जनक। सारे पाप इस लोभ कषाय के मूल से हुआ करते हैं। तो जो लोभ भाव में रहता है वह भी दुर्गति का पात्र है। जैसे कोई बाजार गया और वहाँ से कोई सस्ती चीज खरीद लाया, मानो सस्ते वाले सेव ही खरीद लाया और वे निकल गए खराब तो उनको फेंकना ही पड़ा, या उनमें से कोई तिहाई चौथाई ही काम में आ सके, यह लोभ का ही तो फल है। अगर लोभ न करके अच्छे महँगे वाले सेब ले आता तो कम से कम वे सब काम में तो आते। जिसके लोभ कषाय है उसको आत्मतत्त्व का दर्शन नहीं होता। लोभी को कोई-कोई तो कहते हैं कंजूस, और कोई कहते हैं मक्खीचूस। कंजूस का अर्थ है कण-कण याने एक-एक दाने से सेवा करे, एक-एक दाना जोड़-जोड़कर रखता जाय, उसमें से कुछ खर्च न करें उसे कहते हैं कंजूस और मक्खीचूस किसे कहते? तो मान लो घी में मक्खी गिर गई तो उस मक्खी को पकड़कर उसमें से एक-एक बूँद घी जो टपका ले उसे कहते हैं मक्खीचूस। ये सब तृष्णा के भाव हैं। यही अशुभ भाव है। इन अशुभ भावों के फल में जीव को घोर दुःख उठाना पड़ता है। मिथ्याज्ञान में वर्तने का अशुभ भाव―इससे पहले की गाथा में यह बताया था कि अशुभभाव करने से नरकायु मिलती है और शुभ भाव करने से स्वर्गसुख मिलता है। तो यहाँ यह बतला रहे हैं कि वे अशुभ भाव क्या-क्या हैं? तो इसमें यह बात आती कि हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह इन 5 भावों में रमना यह अशुभ भाव है। क्रोध, मान, माया, लोभ इन चार कषायों में रमना अशुभ भाव है। अब कह रहे हैं कि मिथ्याज्ञान में रमना अशुभ भाव है। मिथ्याज्ञान, झूठा, ज्ञान, वस्तु है अन्य भाँति और मान रहे अन्य भाँति, इससे बड़ी अन्य कोई विपत्ति नहीं। इस जीव को कभी राज्य पद भी मिले, स्वर्ग सुख भी मिले। बड़े लौकिक जन भी मिले और हो मिथ्याज्ञान तो उसको आकुलता ही रहेगी, शांति न मिलेगी। और, जहाँ सही ज्ञान आ गया वहाँ शांति मिल जायगी। मिथ्याज्ञान क्या? जैसे शरीर आत्मा तो नहीं है, शरीर जुदी चीज है और आत्मा जुदी चीज है। मरने पर देखते हैं कि आत्मा चला जाता है और शरीर यहीं पड़ा रह जाता है। यह शरीर अचेतन है, आत्मा चेतन है, शरीर गलने सड़ने वाला है, आत्मा भगवान ज्ञान ज्योति है। अनंत शांति का धाम है, बड़ा अंतर है शरीर में और आत्मा में। अगर शरीर को ही समझे कि यह मैं हूँ तो यह मिथ्याज्ञान है। इसका फल क्या है? संसार में परिभ्रमण करते रहना। तो थोड़ा यह बात ध्यान में रखना चाहिए कि हम मनुष्य हुए हैं तो इसका सदुपयोग यही है कि अपने आत्मा को जानें कि इसका सही स्वरूप क्या है। और जो सही स्वरूप है वह मुझे रुचिकर हो, उस ही में मेरी स्थिरता हो तो यह मानव जीवन सफल है और एक आत्मा की ही बात न आये तो आप अन्य-अन्य बातें देख लो, वैभव खूब जोड़ लिया तो उससे आत्मा को क्या लाभ मिलेगा? जिन परिजनों से इतना मोह कर रहे हैं वे परिजन भी मानो पुष्ट हो गए तो उससे आपके आत्मा को क्या मिलेगा? इस लोग में सैकड़ों जीवों ने प्रशंसा कर दी तो आपके आत्मा को क्या मिलेगा? और यदि आत्मा का सही ज्ञान हो गया और उसकी ही दृष्टि हो गई कि यह मैं ज्ञानमात्र हूँ, अमूर्त हूँ, स्वयं ज्ञान दर्शन, आनंद शांति का भंडार हूँ। आखिर इसका विकसित रूप ही तो सिद्ध भगवान हैं। सिद्ध भगवान भी हम आप की ही तरह संसार में रुलने वाले जीव थे। जब उन्होंने अपने आत्मा को समझा, सत्य ज्ञान का आदर किया तब उनकी मुक्ति हुई। जीव का धन ज्ञान ही है। ज्ञान को छोड़कर अन्य कोई वैभव नहीं है इस आत्मा का। परभव में यह ज्ञानदृष्टि ही मदद करने वाली है। इसमें सम्यग्ज्ञान तो शुभ भाव है और मिथ्याज्ञान करना अशुभ भाव है जिसके मिथ्यात्वभाव बना हुआ है उसको सब कुछ पाप भाव है। मिथ्यादृष्टि के कदाचित् कुछ शुभ भाव होने पर भी सतत धर्म विमुखता―पाप भाव के करते हुए भी कुछ थोड़ा कभी दया, दान का शुभ भाव होता है तो उससे लौकिक वैभव आदिक का फल मिलता है, मगर मिथ्याज्ञान के रहते हुए संसार के संकटों से छुटकारा नहीं रहता। अपने आप पर कुछ दया करना चाहिए। दया यह है कि क्रोध, मान, माया, लोभ इनसे विरक्त होकर कुछ आत्मतत्त्व की साधना बनाना चाहिए। वही साधना तो क्षमा, मार्दव आदिक दशलक्षण धर्म में बतायी गई है, पर साधना करे उसका फल है और सिर्फ मुख से बोले उसका फल नहीं है꠰ एक बाबूजी कलकत्ता जा रहे थे तो पड़ोस की सेठानियाँ आयीं, एक सेठानी बोली--बाबूजी कलकत्ता से हमारे मुन्ने को खेलने की मोटर ले आना, दूसरी ने कहा हमारे मुन्ने को खेलने का हवाई जहाज ले आना, एक ने कहा रेलगाड़ी का इंजन ले आना और यह कहकर वापिस लौट गई, उसके बाद एक गरीब बुढ़िया अपने हाथ में दो पैसे लेकर आयी और बाबूजी के आगे रखकर कहा बाबूजी ये लीजिए, मेरे दो पैसे इनसे हमारे मुन्ने को खेलने का मिट्टी का खिलौना ले आना। तो बाबूजी बोले―बुढ़िया माँ मुन्ना तो तेरा ही खेलेगा, बाकी तो मुख से कह भर गई। तो ऐसे ही समझो कि जिसने अपने आत्मा को पहचाना, आत्मा को ग्रहण किया उसको ही मुक्तिलाभ शांतिलाभ होगा और जो सिर्फ मुख से कहता फिरेगा और हृदय में न उतारेगा उसे लाभ कुछ नहीं मिलने का। तो देखो अपनी एक सद्भावना ही बनाना है। सद्भावना के बनने पर आपका श्रम सफल हो जायगा और एक सद्भावना न रहे, आत्म-भावना न रहे तो यह श्रम थोड़ा बहुत कोई स्वर्ग मिल जाय या कुछ मिल जाय, पर उससे पूरा नहीं पड़ता। तो जो जीव मिथ्याज्ञान में रमता है वह अशुभ भाव है। पक्षपात में वर्तने का अशुभ भाव―जिसका चित्त पक्षपातों में लगा है वह अशुभ भाव है। पक्षपात क्या? किसी को मान लिया कि यह मित्र है, यह मेरा रिश्तेदार है तो कोई घटना आये निर्णय के लिए तो उसमें पक्ष अपने इष्ट का लेना, यह कहलाता है पक्षपात। जहाँ अपना कुछ संबंध हो, खुदगर्ज हो उसका पक्ष लेना यह है पक्षपात। जो पक्षपातों में रमता है वह अशुभभाव है। एक कथानक है कि एक बार एक हंस और हंसनी दोनों किसी सरोवर की ओर उड़ते हुए जा रहे थे। रास्ते में शाम हो गई, रात्रि भर ठहरना आवश्यक हो गया। वह स्थान था कौवों का। तो हंस कौवों से इजाजत लेने लगा वहाँ ठहरने के लिए। तो एक कौवे ने कहा―ठीक है आप लोग आराम से ठहर जाइये। सो रात्रि भर वे दोनों हंस हंसनी वहीं ठहरे रहे। जब प्रातः काल हुआ तो वे दोनों सरोवर की ओर उड़ने लगे। वहाँ उस कौवे ने रोक लिया ठहरो तुम मेरी स्त्री (हंसनी) को कहाँ लिए जा रहे हो। हंस यह बात सुनकर बड़ा हैरान हो गया। आखिर उसने पंचायत जोड़ा। पंचायत करने वाले पंच भी वहाँ कौवे थे। 4 कौवे तो बन गए पंच और एक कौवा बन गया सरपंच। वहाँ हंस ने अपनी बात रखी कि देखो यह कौवा मेरी स्त्री हंसनी को अपनी स्त्री बताता है। हमें इस हंसनी को लेकर जाने नहीं देता है आप लोग उसका निर्णय कर दें कि यह हंसनी वास्तव में किसकी स्त्री है। तो वहाँ उन पंचों ने पूछा उस कौवा से कि भाई किसकी स्त्री है? तो कौवा बोला―मेरी। तो फिर हंस बोला देखो अब तुम्हीं लोग समझ लो कि यह हंसनी इस कौवे की स्त्री कैसे हो सकती? यह कौवा तो है काला और यह हंसनी है हमारे जैसी सफेद तो वहाँ कौआ ने कहा कि यह कोई नियम तो नहीं कि काले की स्त्री काली ही हो, सफेद न हो। तो वहाँ दो कौवों ने अपना यह निर्णय दिया कि यह हंसनी उस कौवा की स्त्री है और दो ने यह निर्णय दिया कि यह हंसनी उस हंस की स्त्री है। अब तो रह गया निर्णय सरपंच साहब के ऊपर। तो सरपंच साहब ने (कौवा ने) अपना यह निर्णय दिया कि यह हंसनी तो इस कौवा की स्त्री है। उसने अपनी जाति का पक्ष लिया तो इस प्रकार का जातीय पक्ष लिये जाने पर उस कौवे के हृदय में एक बहुत बड़ी चोट पहुँची और उसे गश आ गया, बेहोश हो गया, कुछ बेहोशी दूर होने पर उस सरपंच कौवे ने पूछा―भाई तुम्हारे माफिक ही तो निर्णय दिया गया फिर भी तुमको मूर्छा किस बात की आयी। तो वह कौवा बोला―देखो हमें मूर्छा इस बात से आयी कि सरपंच तो एक परमेश्वर सारिखे होता है, वही अगर अन्याय करे तो फिर अन्य जगत के जीवों का क्या हाल होगा। यह हंसनी हमारी स्त्री नहीं फिर भी तुमने अपना जातीय पक्ष लेकर निर्णय दिया तो यह कितना महान अन्याय है। तो भाई यह पक्षपात का भाव एक अशुभ भाव है। इसका फल है दुर्गति। मात्सर्य मदिरादिसेवन व मद में वर्तने के अशुभ भाव―एक अपनी उन्नति की बात विचारें वह तो सही बात है। लौकिक भी उन्नति बनायें और पारलौकिक भी। अगर कोई दूसरे लोग विशेष उन्नति में पहुंच रहे हैं तो उनके प्रति ईर्ष्याभाव रखना यह एक अशुभ भाव है। इस अशुभ भाव का फल खोटा ही होता है। और देखिये जितने खोटे भाव हैं चाहे उनकी विपत्ति आज पुण्योदय वश न मालूम पड़े किंतु जैसा भाव है, जैसा कर्मबंधन है वैसा उदय में आता है और उस विपत्ति से छुटकारा पाना कठिन है। इससे मनुष्य का धन है सदाचार। आचरण से गिर गये तो उसका भला नहीं होने का। यदि कोई बड़े शुद्ध आचरण से रह रहा, शुद्ध खानपान, भक्ष्य का त्याग, मद्य, मांस, मधु आदिक की तो चर्चा ही क्या करे, जैसे गोभी का फूल, बाजार का दही, बाजार की सड़ी गली मिठाइयाँ जलेबी वगैरह। इन सब अभक्ष्य पदार्थों का परित्याग हो और अपना शुद्ध सात्विक भोजन रहे तो इसमें कुछ हानि है क्या? किसके लिए बुरे ऐब लगाये जाते? शराब तो बुरा ऐब है ही मगर उसकी छोटी सहेली है बीड़ी, सिगरेट। बस आप खूब अंदाज कर लो कि जो तंबाकू बीड़ी या शराब आदि नशीली चीजों के व्यसन में रहता है उसका कलेजा जलता है। हाथ भी खराब होता है। मुख भी खराब होता है, स्वास्थ्य भी ठीक नहीं रहता। बुद्धि भी व्यवस्थित नहीं रहती। तो ऐसी अभक्ष्य चीजों का सेवन न करें जिससे स्वास्थ्य गिरे और पापों का बंध हो, भावना भी बिगड़े। इससे इन अभक्ष्य पदार्थों से दूर रहना चाहिए। और यदि मालूम पड़ जाय कि इस उच्च कुल वाले अमुक व्यक्ति में मदिरा पीने या किसी नशीली चीज का सेवन करने की लत पड़ गई है तो पड़ौसियों का कर्तव्य है कि उसको भली भाँति समझा बुझा कर सही रास्ते पर लायें। वैसे तो कुछ बड़ी अवस्था होने पर उसे खुद पता पड़ जाता कि उसका क्या बुरा परिणाम होता है। तो ऐसे अभक्ष्य पदार्थों का सेवन करना यह भी अशुभ भाव हैं। दुरभिप्राय में रहने का अशुभ भाव―खोटा अभिप्राय है, इसमें बहुत बड़ी विपत्ति है किसी के प्रति हानि का अभिप्राय रखने में। उसकी हानि का, विपत्ति का अभिप्राय रखना, द्वेष रखना वे सब खोटे अभिप्राय कहलाते हैं। खोटा अभिप्राय किया कि तत्काल ही कर्मबंध हुआ। कर्मबंध तो तत्काल होता रहता है। चाहे एकांत में पाप करे कोई चाहे यह समझे कि मेरे खोटे अभिप्राय को जान कौन रहा है, मैं तो दूसरों को मूर्ख बना रहा हूँ, लोग मेरी इस दुर्भावना को नहीं समझते.....। अरे कोई चाहे मत जानों मगर कर्मबंध को और आत्मा के विकार भाव को, निमित्त नैमित्तिक भाव को कौन रोक सकता है? जैसा भाव किया वैसा ही कर्मबंध होता है। कर्म-कर्म तो सभी लोग बोलते हैं मगर कर्म चीज क्या है? एक ऐसी सूक्ष्म धूल रज समझिये। पुद्गल कर्मवर्गणायें समझिये जो किसी से छिड़ती नहीं वे कर्म वर्गणायें इस जीव के साथ लगी हैं। और जैसे ही जीव ने भले बुरे भाव किया वैसे ही वे कार्माणवर्गणायें कर्मरूप बन जाती हैं और उन कर्मों का जग उदय होता है तो इस जीव की बड़ी विडंबना बनती है। लौकिक आराम सुख संपदा समृद्धि जो कुछ भी जिसको प्राप्त है उसका वह मौज न माने, उसका ज्ञात दृष्टा रहे कि कर्मोदय होने पर ऐसी-ऐसी स्थितियाँ मिलती हैं, और आनंद माने अपने स्वरूप की दृष्टि में। एक अपना प्रोग्राम होना चाहिए कि मेरे को तो निर्विकार पवित्र बनना है। आज यहाँ माना कि ये मेरे हैं और मरकर जहाँ भी गए वहाँ मान लेंगे कि ये मेरे हैं तो यह तो भूत पिशाच लगने जैसा बकवाद है। वस्तुतः तो विचारिये कि गृहस्थावस्था में गुजारा करने के लिए कमायी भी करना चाहिए, प्रीति का व्यवहार भी करना चाहिए। ये सब कर्तव्य हैं मगर अंदर में ऐसा मिथ्या विश्वास न रहे कि ये सब मेरे हैं। यदि ऐसा विश्वास रहा कि ये सब तो मेरे हैं, मेरा ही यह सब कुछ है तो यह मिथ्याभाव है। इस के फल में बड़े खोटे पापकर्म का बंध होता है। इन खोटे अभिप्रायों में जो रमता है वह अशुभभाव है। अशुभ लेश्यावों में रमने का अशुभ भाव―अशुभ लेश्यायें भी अशुभ भाव हैं, खोटे भाव हैं। कृष्ण, नील, कापोत ये तीन लेश्यायें अशुभ लेश्यायें कहलाती हैं और पीत, पù, शुक्ल ये तीन लेश्यायें शुभ लेश्या कहलाती हैं। लेश्यावों के बारे में अनेकों जगह चित्र भी बने मिलते हैं। कहीं-कहीं तो भींट पर चित्र बने होते, कहीं-कहीं कागजों पर, उनमें यह दिग्दर्शन कराया जाता कि देखो 6 आदमी कहीं परदेश को चले तो रास्ते में उन्हें एक जगह जामुन का वृक्ष मिला। उस वृक्ष में जामुन बहुत अच्छे पके हुए लदे थे। वे भूखे तो थे ही सो उस वृक्ष को देखकर उनके मन में भिन्न-भिन्न प्रकार के भाव उत्पन्न हुए--एक के मन में यह भाव जगा कि मैं इस वृक्ष को नीचे से काट गिराऊँ फिर मनमाने जामुन के फल तोड़-तोड़ खाऊँ। दूसरे के मन में यह भाव आया कि मैं इस वृक्ष की एक मोटी साखा काटकर नीचे गिरा लूँ फिर मनमाने फल तोड़कर खाऊँ। तीसरे के मन में यह भाव आया कि मैं इस वृक्ष की एक उपशाखा, छोटी टहनी काटकर गिरा लूँ, फिर मनमाने फल खाऊँ, चौथे के मन में ऐसा भाव आया कि इस वृक्ष में से एक फलों का गुच्छा तोड़ लूँ, फिर मन चाहे फल खाऊँ। 5वें के मन में यह भाव आया कि मैं इस वृक्ष पर चढ़कर पके-पके फल तोड़कर उन्हें खाकर अपनी भूख मिटाऊँ, और छठे के मन में यह भाव आया कि कितने ही फल इस वृक्ष के नीचे पड़े हैं उन्हें बीनकर खाऊँ और अपनी भूख मिटाऊँ। ऐसा विचार कर वे सब वैसी ही प्रवृत्ति करने लगे। तो उदाहरण दिया है कि जो जड़ से वृक्ष को काटकर गिराना चाहता है उसके तो कृष्ण लेश्या होती है। जिसके कृष्ण लेश्या होती है वह बड़ा वैरी, क्रोधी, दुष्ट पुरुष होता है। जो एक शाखा को ही गिराकर खाना चाह रहा था वह नील लेश्या का दृष्टांत है। कृष्ण लेश्या से कम खोटे भाव इसमें हैं। जो छोटी डाली को गिराने का भाव रखे था उसके उससे भी कम खोटे भाव हैं। तो ये तीन (कृष्ण, नील, कापोत) लेश्यायें खोटी है। बाकी तीन लेश्यायें (पीत, पù, शुक्ल) उत्तरोत्तर शुभ हैं। जो अशुभ लेश्यायों में रहता है वह अशुभ भाव है और उस अशुभ भाव के फल में वह नारकादिक दुर्गतियों को पाता है। विकथावों में रमने का अशुभ भाव―विकथायें, खोटी कथायें, गप्प सप्प बहुत पसंद होना अशुभ भाव है। प्रायः दुनिया के लोगों को इन गप्प सप्पों में बड़ा आनंद आता है, पर सही बात कुछ नहीं आती। दिल में एक मौज सा मान लिया और गप्प चक्र में पड़ गए। कहीं-कहीं तो उन गप्पों के फल में लड़ाइयाँ भी हो जाती हैं, बुराइयाँ भी हो जाती हैं और ये विकथायें और गप्प सप्प तब तक नहीं खत्म होतीं, जब तक कि उनमें कुछ परस्पर में अनबन न हो जाय। जैसे बच्चों का खेल तब तक नहीं खत्म होता जब कि उनमें कुछ न कुछ लड़ाई न हो जाय, इसी तरह गप्पें तब तक चलती रहतीं जब तक कि कुछ बुराई या कुछ अनबन सी न हो जाय। ये विकथायें चार तरह की होती हैं―(1) राज कथा, (2) राष्ट्र कथा, (3) भोजन कथा और (4) स्त्री कथा। राज कथा―अमुक राजा ऐसा था अमुक राजा वैसा था, यों राजाओं की बुराई संबंधी कथा करना राज कथा है। राष्ट्र कथा―देश की बुराई संबंधी कथायें करना राष्ट्र कथा है, भोजन कथा―खाने पीने के भोजन संबंधी कथायें में करना भोजन कथा है। और स्त्री कथा―जिससे राग बढ़े ऐसी स्त्री संबंधी वार्ता करना स्त्री कथा है। इन विकथाओं में जो रमता है वह अशुभ भाव है। आर अशुभ भावों का फल है नारकादिक दुर्गति का पाना। रौद्र आर्तध्यानों में वर्तने का अशुभ भाव―कुछ पीड़ा वाला ध्यान अथवा पाप में आनंद मानने वाला ध्यान यह आर्तध्यान है। 4 आर्तध्यान 4 रौद्रध्यान ये बड़े दुर्ध्यान हैं। देखिये हम आप जीव वास्तव में क्या करते हैं? दुनिया में? भाव करते हैं, ज्ञान करते हैं। कषाय करते हैं। सोचते हैं, इसके अलावा अन्य कुछ नहीं कर पाते। तो कोई सोचेगा कि दुकान बनाया, मकान बनाया, अन्य-अन्य बातें भी करते, क्या इनको नहीं करते? हाँ इनको नहीं करते, पर इस आत्मा ने पहले जो पुण्यबंध किया भावों द्वारा, उस पुण्योदय का फल है कि ऐसी-ऐसी सामग्रियाँ मिलती हैं। पर जो भाव कर रहा वर्तमान में उसका फल नहीं, उसका काम नहीं है कि संपदा मिले। वह तो कर्मविपाक है। खूब सोच लो, चाहे मंदिर में हो, चाहे घर में हो, चाहे जंगल में हो, एक अपनी भावनाओं के सिवाय अन्य कुछ नहीं करते। बाकी तो हो जाता है तो उसे बोलते हैं निमित्त नैमित्तिक योग। कर्म उदय का योग। पर जीव का अधिकार सिर्फ भावना पर है। सद्भाव में वर्तने का अनुरोध―जब भाव ही हम कर पाते, अन्य कुछ नहीं कर पाते तो फिर अच्छे भाव करें, बुरे भाव क्यों करें? जैसे बच्चों का एक पंगत वाला खेल देखा होगा। पंगत का अर्थ है प्रीतिभोज। बच्चे लोग कुछ पत्तियाँ तोड़ लावे, कुछ कंकड़ बीन लाते और प्रीतिभोज का खेल खेलते, कहते लो रोटी, लो गुड़...। तो उनमें से कोई चतुर बालक बोलता--अरे भाई यह तो केवल भावभाव का ही प्रीतिभोज है। यहाँ कुछ परोसा तो नहीं जा रहा जब भाव-भाव की ही बात है तो फिर भावों में कंजूसी क्यों करते? अरे रोटियों को पूड़ी कहकर परोसो और गुड़ को लड्डू कहकर परोसो। याने ऊँची बात बोलो, छोटी बात क्यों बोलते? ठीक यही बात अपने आप पर घटावें कि हम जगत में कुछ भी दूसरा काम नहीं कर सकते, सिवाय भावना के। भावना एक ऐसा आधार है कि जैसी भावना हम रखते हैं उसके अनुरूप हमारा काम बनता है। तो जब हम भावना के ही अधिकारी हैं तो फिर अपने भावों में उच्चता, उदारता क्यों न रखें? देखिये सबसे बड़ा ज्ञानप्रकाश यही है कि यह बात ज्ञान में समायी रहे कि ये जो मायामय पदार्थ मिले हैं मकान, परिजन, धन वैभव आदिक, इनसे मेरा कोई संबंध नहीं। मेरा आत्मा इनसे बिल्कुल जुदा है। केवल ज्ञानस्वरूप है। और इसके स्वरूप में ही ऐसी महिमा है कि विकास होवे तो अनंत ज्ञान उत्पन्न हो, अनंत आनंद उत्पन्न हो। अगर इन पदार्थों में लगाव रखकर हम संसार का बढ़ावा ही करते रहे, सुख शांति का उपाय नहीं है तो बाह्य पदार्थों को अपने से भिन्न समझना, असार समझना, इनके लगाव को पाप समझना यह बात चित्त में जम जाय तो करना तो गृहस्थी में यह ही पड़ेगा जो कर रहे हैं मगर ज्ञान जग जाने पर जो आत्मा में पवित्रता आयगी और पाप के बजाय उसके पुण्य बंध विशेष होगा। काम वही है जो गृहस्थी में करते आये मगर सच्चा ज्ञान रखते हुए काम बने तो उसमें इस लोक का भी फायदा है और परलोक का भी फायदा है और यदि मिथ्याबुद्धि रखकर लिपटे रहे तो यहाँ भी अशांति है और परलोक में भी अशांति रहेगी। इससे अशुभ भावों से दूर रहना और शुभ भावों में आना इसका मुख्य ध्यान रखना चाहिए। सम्यग्दृष्टि के ही प्रशस्त शुभभाव की संभवता―प्रकरण यह चल रहा है कि अशुभ भाव का फल है नारकादिक दुर्गतियों में जाना और शुभ भावों का फल है स्वर्ग सुखों का पाना। एक बात बहुत से संबंध रखकर जानना चाहिए कि वास्तव में शुभभाव सम्यग्दृष्टि के हो पाते हैं जो कि मोक्षमार्ग में चलते हुए होते हैं। जिन को अपने सहज अविकार आत्मस्वरूप का अनुभव है। सो जब तक इन भावों में स्थिरता नहीं होती तब तक जो उसके बाह्य पदार्थों के प्रसंग में भाव होंगे तो वे ज्ञानमय भाव होंगे। भले ही विषय बाह्य पदार्थ हैं, पर अज्ञानपने को लिए हुए नहीं हैं। एक बार की एक घटना सुनो―श्रीमती चिरौंजाबाई जी जिन्होंने गुरु गणेशप्रसाद वर्णी जी को पढ़वाया था, उनकी एक ललिता नाम की ननद थी, वह पढ़ी लिखी न थी। तो बाई जी ने यह कह रखा था उस ललिता से कि तुम्हें कोई कागज पड़ा हुआ दिख जाय तो उसे उठाकर अलमारी में धर देना, कहीं बाहर कूड़े वगैरह में न फेंक देना, क्योंकि तुम पढ़ी लिखी नहीं हो। न जाने उसमें कौन सी धर्म की बात लिखी हो। खैर कुछ दिन ऐसा चलता रहा पर एक दिन कोई कागज बाई जी को कहीं कूड़े में पड़ा हुआ दिख गया, उसे उठाकर देखा तो उसमें भक्तामर का एक काव्य लिखा था। उस समय बाई जी को कुछ गुस्सा सा आया और ऊपर पहुँचकर ललिता की चोटी पकड़ा और भींट पर अपना हाथ रखकर उस पर ललिता का सिर जोर से मारा। अब भला बताओ―ऐसा करने पर चोट किसके लगेगी? बाई जी को खुद को। अब देखो गुस्सा के वेग ने तो अपना काम किया, पर विवेक ने भी वहाँ अपना काम किया। वहाँ ज्यादा चोट लगेगी तो बाई जी को खुद को ही लगेगी। क्योंकि भींट पर पहले खुद का हाथ धरा बाद में उस पर ललिता का सिर मारा। तो ऐसी ही बात आप सर्वत्र जानना कि जिसने अंतस्तत्त्व का अनुभव पाया है उसका भाव अज्ञानमय न चलेगा। चाहे किसी भी प्रमाद में रहे, पर ज्ञान विवेक का संसर्ग कुछ जरूर ही रहेगा। हाँ तो अशुभ भाव का फल है दुर्गति और शुभ भाव का फल है सुमति। तो उन अशुभ भावों का वर्णन चल रहा था कि अशुभ भाव क्या-क्या कहलाते हैं? असंयम भाव में वर्तने का अशुभ भाव―असंयम रूप प्रवृत्ति भी अशुभ भाव है। मन, वचन, काय का संयम न होना, स्वच्छंद विचार, स्वच्छंद बोलचाल, स्वच्छंद का चेष्टा ये अशुभ भाव हैं और इनका फल दुर्गति है। कोई लोग तो इतना तक स्वच्छंद हो जाते हैं कि असंयम की प्रशंसा करेंगे और व्रत, तप, संयम आदि की मजाक उड़ायेंगे। ऐसे अनेक तरह के शब्दजाल हैं कि जिनमें अपने असंयमपाने की तो महिमा बढ़ायेंगे और संयमभाव की निंदा करेंगे। तो ये सब भाव अशुभ भाव हैं और उन अशुभ भावों का फल खोटा है। शल्य भी अशुभ भाव हैं मिथ्यादर्शन, मायाचार और निदान ये शल्य कहलाते हैं। मिथ्याभाव क्या कि बाह्य पदार्थों में यह मेरा है यह मैं हूँ ऐसा आशक्तिपूर्वक लगना यह मिथ्याभाव है। और, मायाचार क्या, छल कपट। धर्म के प्रसंग में कपट होना यह शल्य है और निदान―अगले भव के लिए कोई आशा बनाना कि मैं ऐसा राजा बनूँ, धनी बनूँ, ऐसी इच्छायें रखना यह निदान है। जब तक अज्ञानभाव नहीं मिटता और यह असार है, इसका अच्छी तरह अनुभव नहीं होता और उसका स्वयं का सहज स्वरूप ही स्वयं सार है, इसका आलंबन लेंगे तो पार होंगे, इसका जिसे अनुभव न हो उसको बाह्य अर्थों से प्रीति होती है और उस प्रीति में इसे मायाचार करना पड़ता है और निदान भी रखना पड़ता है। ये सब अशुभ भाव है। गर्व में वर्तने का अशुभ भाव―घमंड (गारव) भी अशुभ भाव है क्योंकि उसे तो अपनी कुछ सुध नहीं है तब ही तो उसे घमंड आ रहा है। अपनी सुध होने के मायने है कि उपयोग झुककर अपने आप में लीन हुआ है, तो जहाँ उपयोग अपने आपकी ओर नम्र बन गया तो उसके भावों में कठोरता आ ही नहीं सकती। कठोरता आती है, घमंड होता है तो मिथ्याभाव में। जिसने देह को माना है कि यह मैं हूँ और यह मेरा है सब कुछ तो उस देह को निरख निरखकर उसको मद आ गया, तो घमंड करना भी अशुभ भाव है। घमंड किन-किन विषयों में होता है यह पहले किसी प्रकरण में विस्तार से बताया गया था कि ज्ञान, प्रतिष्ठा, कुल जाति, बल, ऐश्वर्य, तपश्चरण आदिक ये अभिमान के आश्रय होते हैं। तो अभिमान करना भी एक दुर्भाव है। अभिमान करना यह अपने आप की अशांति के लिए है और जिन लोगों के बीच अभिमान करेंगे उन लोगों को भी कष्ट होगा, क्योंकि वे भी तो कुछ क्लेश मानते हैं। उन्हें अरुचिकर होता है। तो अभिमान में खुद भी दुःखी होंगे और दूसरे भी कष्ट मानेंगे। ख्याति कामना में वर्तने का अशुभ भाव―इसी प्रकार ख्याति भी प्राप्त हुई है, ख्याति की वा´छा, नाम की वा´छा नाम का मोह। अभी कोई फर्श बन रहा है तो उसमें लोग जहाँ से पैर रखकर चलते वहाँ अपना नाम लिखवाते हैं। उन्हें यह पता नहीं कि उन पर पैर रखकर चलने से कितना अविनय होती है। आखिर उस नाम में जो अक्षर लिखे जाते वे आगम के ही तो एक अंग है। उन्हीं अक्षरों पर लोगों के पैर पड़ते तो फिर यह अविनय ही तो कहलाया। देखिये--जितने भी अक्षर हैं वे सब एक यंत्र के अंग है। आप लोग यंत्र बनाते हैं। कोई सा भी यंत्र हो उस यंत्र में सिद्धचक्र यंत्र भी है। स्वर और व्यंजन ये सब उनमें लिखना होता है। ये ही तो मंत्र में अक्षर लिखे होते हैं। मगर अपनी ख्याति का इतना अधिक व्यामोह है कि बस मेरा नाम तो ऐसी जगह में आना चाहिए कि लोगों को कमरे के अंदर घुसते ही पहले मेरा नाम दिख जाय। लोग चलेंगे तो नीची निगाह करके चलने पर नीचे फर्श पर लिखे हुए नाम पर निगाह पड़ेगी और ऊपर निगाह करके चलने पर भींट पर लिखे हुए नाम पर निगाह पड़ेगी, तो अपने नाम की ख्याति का उद्देश्य रखकर कहीं पर अपना नाम लिखाना यह सब अशुभ भाव है। अपना नाम लिखवाने में पैसा भी खर्च किया और पाप भी बाँधा। किसी भी प्रकार हो, अपनी ख्याति की चाह बनाना यह सब अशुभ भाव है क्योंकि इसका मिथ्या अभिप्राय से संबंध है। जिसमें इसकी विशेष ख्याति हो उस काम को तो छोड़ बैठे, उसके लिए तो उत्साह न जगे और जिन कामों से पापकर्मों का बंध हो उनको करने के लिए उमंग बढ़े तो ये सब अशुभ भाव हैं। एक मिथ्याभाव में ये सब अशुभ भाव हैं। पहले जमाने में गुप्त त्याग करने की बड़ी महिमा थी। एक दूसरे की मदद करना, उपकार करना, धार्मिक कार्यों में दान देना, ये सब गुप्त रूप में हुआ करते थे और अब भी कुछ ऐसे लोग होते हैं कि जिनको अपनी ख्याति की भी कुछ वांछा नहीं होती। ख्याति भी एक अशुभ भाव है। इस प्रकार इस अशुभ भाव में जो बर्तता है उसका फल है संसार परिभ्रमण। अब इसके आगे शुभ भावों का वर्णन करते हैं कि शुभ भाव क्या-क्या होते हैं।