वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 6
From जैनकोष
णियसुद्दप्पणुरत्तो वहिरप्पावच्छवज्जिओ णाणी।
जिणमुणिधम्मं मव्णईगय दुक्खो होइ सद्दिट्ठी ।।6।।
ज्ञानी की सार निजशुद्धात्मत्व की ओर दृष्टि―सम्यग्दृष्टि कैसा होता है यह वर्णन इस गाथा में आया है। सम्यग्दृष्टि निज शुद्ध आत्मा में अनुरक्त होता है, कहाँ उसकी धुन है, कहाँ लगन है? जो सारभूत है उसकी और ही लगन है। आत्मा का सहज स्वरूप अनादि अनंत अहेतुक मेरा ही सत्त्व, उसमें बुद्धि आये कि मैं यह हूँ, ऐसा ज्ञान प्रकाश बने, वही मेरे कल्याण का मार्ग है, सम्यग्दृष्टि जीव को अपने उस सहज शुद्ध आत्मतत्त्व में अनुराग है। इसको छोड़कर संसार की अन्य बातें उनमें कहाँ सार है? कुछ भी रहे, बाह्य धन वैभव इस जीव को भ्रम से लग रहे हैं सर्वस्व मगर स्वरूप देखो अत्यंत भिन्न, जिसके लगाव में जीव का नुकसान है, उन वैभवों का नुकसान नहीं और यह भी कह सकते हैं कि उन वैभवों का भी नुकसान। भोजन में लगाव है सो रागवश जीव की हानि है और देखो जिस साफ स्वच्छ लड्डू को लोग खाते वह कैसा पिच जाता है, काम भोग कथ कहते हैं ना, तो स्पर्शन रसना इंद्रिय के विषय इनको कहा काम और घ्राण चक्षु और कर्ण इन तीन को कहा भोग। तो फर्क क्या रहा कि स्पर्शन रसना के विषय चूर हो जाते और तीन के विषय, बस एक जान सा लिया, कुछ भी किया, मगर वहाँ न गंध को पिचकाया है न गंध द्रव्य को उसने चमीटा है, न रूपी द्रव्यों को इसने चमीटा है, न शब्द को चमीटा है, लेकिन वैभव की क्या हानि? जो चाहे अवस्था हो, जीव की हानि हुई, बाहरी पदार्थों के लगाव में आत्महिंसा है। अज्ञानी के लगन की दुःख हेतुता―अज्ञानी का कहाँ लगाव है? पुत्र पौत्रादिक संतान इनकी ओर दृष्टि होती मोही गृहस्थों की, ये हैं मेरे और ये मेरे कुल के चलाने वाले हैं। काहे का कुल? मेरा कुल तो चैतन्य कुल है। यहाँ का माना हुआ यह परिवार खंडेलवाल, पोरवाल, अग्रवाल आदि और उनमें भी मेरा धर, इस घर में चले संतति और यह घर सूना न हो उत्तरोत्तर पैदायश होती ही रहे, कुल चलेगा, फैलाने बाबा के हैं ये नाती पोते। इन बातों से तत्काल भी क्या मिलता और कुछ पीढ़ी में तो इनका नाम तक भी कोई नहीं जानेगा, जैसे बिना काम, बिना प्रयोजन कोई कहीं सिर पटके ऐसे ही इन समागमों के लगाव ये बिना प्रयोजन ही सिर पटकने की भाँति है। इन में सार कहाँ है? जीव कहाँ है? जीव का शरण स्वयं है अपने आप। सम्हाल सके तो सम्हाल ले, दूसरा साथी न होगा है परमार्थतः कोई साथी नहीं, क्योंकि सब अपने स्वरूप में रहते हैं, उनमें सर्व व्यवस्था है और एक का दूसरा कुछ कर सकता नहीं। तो कहाँ चित्त लगे कि इस जीव को शरण विदित हो? बाहर कहीं कुछ नहीं है। लगता है ऐसा कि अमुक की इस जिले में बड़ी प्रसिद्धि है, देश में प्रसिद्धि है, यह मिनिस्टर है, यह और ऊँचे हैं, ये बड़े आनंद में हैं। पर है क्या? उनके दुःख को वे ही भोगते हैं। उनकी शंका को वे ही भोगते हैं। एक बार हो गए ऊँचे तो अब सदा के लिए शल्य सी हो गई, आगे भी चुनाव में खड़े होना है, पता नहीं कैसा बीतेगा, क्या होगा? निरंतर उनको चिंता रहती। सहज परमात्मतत्त्व की साररूपता व शरण्यता―यहाँ कौन सुखी है, कौन सारभूत है, कौन पवित्र हो गया? बाहर में कहीं कुछ नहीं है। देखो शरण भीतर विधि पूर्वक ज्ञान की गति करके यह जो मैं सहज स्वरूप चैतन्य मात्र स्वयं अपने आप जो भी भाव हैं, स्वभाव हैं वह मैं हूँ, मैं पराश्रित नहीं। मैं तो वह हूँ जो सहज स्वरूप है चैतन्य मात्र। यह जिसकी दृढ़ता हो गई, जिसका यह अभ्यास बन गया, मुक्ति मार्ग तो उसका है, संकटों से छूटने का तो वह पात्र है और एक वह दृष्टि में नहीं है, अनुभूति में नहीं आया, परिचय में नहीं आया तो सब यहाँ वहाँ भ्रमण जाल है, भटकना है। कहाँ-कहाँ भटकता है यह जीव। जो ज्ञानी है, सम्यग्दृष्टि है वह निज शुद्ध आत्मा की ओर अनुरक्त है जैसे जिसके कठिन इष्ट वियोग हो गया उसका चित्त तो रात दिन उस ही ओर है। खाना भी पड़ता। कोई रिश्तेदार आ गया तो थोड़ी बात भी करनी पड़ती मगर चित्त जो कुछ करता उसमें इसका ध्यान नहीं है जिसका वियोग हुआ है उसका ध्यान है, जिसके बल पर इसने चोट मालूम की है ध्यान उसकी ओर है, ऐसे ही जिसको कोई प्रीतिपात्र मिल जाय, जो परमइष्ट हो, लाभ मिल गया तो उसका भी ध्यान उस ही ओर है। यही विधि सम्यदृष्टि की है। चूँकि उसने यह समझा कि मेरा सर्वस्व यह निज शुद्ध आत्मतत्त्व है, सहज परमात्मतत्त्व है, उसका अपने आप स्वयं में जो स्वरूप है बस वही मेरा शरण है ऐसी जिसकी धुन बनी, उसका आनंद पाया, स्वाद लिया तो कर्म वश कुछ भी स्थितियाँ आयी हैं, चल रही हैं व्यवहार में प्रवृत्ति हो रही है किंतु ज्ञानी का इनमें से किसी में चित्त नहीं है इसी को कहते हैं कि वह उदास होकर प्रवृत्ति करता है। वह है निज शुद्ध आत्मा की भावना, आराधना, अनुभूति का आनंद पाने का फल। सहजानंदमय अंतस्तत्त्व की उपलब्धि होने पर सुगम परिहार―किसी ने भिखारी से कहा कि तू ये चार-छह दिन की पुरानी रोटियाँ झोले में धरे हैं, इन्हें फेंक दे, मैं तुझे ताजी पूड़ियाँ दूँगा, तो वह नहीं फेंक पाता और उसे ताजी पूड़ी दे-दे और कहे कि देख ये रखी हैं तेरे सामने ताजी पूड़ियाँ, तू इन्हें खा ले या ले-ले और इन कई दिनों की बासी रोटियों को फेंक दे तो वह फेंक देता है। ऐसे ही इस जीव को बहुत समझाया जाता कि तू इन विषय सुखों में आसक्त मत हों, ये तेरे ज्ञान बल को मिटाते हैं, तेरे में दुःख का बीज बोते हैं तुझे कष्ट देते हैं, इन वैषयिक सुखों को तू छोड़ दे, पर यह विषयों का भिखारी उन वैषयिक सुखों को छोड़ता कहाँ है? बड़े-बड़े लोग समझाते हैं। हाँ किसी प्रकार इन वैषयिक सुखों से विलक्षण परम सहज वह आनंद की झलक आये और इसको यह विदित हो जाय कि यह स्थिति है आनंदमय तो उसको वैषयिक सुखों में फिर मोह नहीं होता, छोड़ देता है, तो अपना काम कोई उपलब्धि करने का है जिसके बल पर हेय चीज छूटती है, वह उपलब्धि है निज शुद्ध आत्मतत्त्व की भावना माना। मैं सहज परमात्मतत्त्व हूँ शुद्ध सबसे निराला हूँ सदा हूँ, बस केवल आत्म सत्ता में सहज स्वरूप हूँ मैं यही हूँ, मैं दूसरा नहीं हूँ, दूसरा तो यह नैमित्तिक है, भ्रम विकल्प कल्पना ये सब बातें यह जीव नहीं है, यह ही नहीं, मैं तो सहज चैतन्य स्वभाव मात्र हूँ। इस स्वभाव का परिचय पा लेना बस यह ही इस जीवन का सबसे बड़ा पौरुष है, रहेगा कुछ नहीं, वियोग सबका होगा, जिसके पीछे बहुत-बहुत विकल्प किया करते हैं वे कोई मददगार नहीं हैं कोई साथी नहीं है, केवल एक पाप विकल्प से हमारा साथ निभायेंगे दुःखी करने के लिए। बाकी कोई चीज हमारे लिए शरण नहीं। सहज परमात्मतत्त्व की ओर अभिमुख होना व्यवहार धर्म की प्रयोजकता―शरण है तो बस एक सहज परमात्मतत्त्व है, दूसरी बात ही नहीं। जो अन्य-अन्य काम किए जाते हैं व्यवहार धर्म पूजा वंदन आदि के वे सब एक इस आराधना के लक्ष्य से किए जाते हैं। इनमें न लगेगा तो क्या कुमार्ग में जायेगा, क्या व्यसनों में जाएगा? भैया जिसको अपने इस शुद्ध अंतस्तत्त्व का परिचय हुआ है वह जिन जिनके प्रकट हुआ उनकी बातें जानता है, सुनता है, तो उनको तो उमंग से देखता है, धन्य हो। सो सब कुछ जो धर्ममार्ग में किया जाता है वह एक निज शुद्ध आत्मा की आराधना के लिए ही है। उनका और कोई दूसरा प्रयोजन नहीं। यह तो ज्ञानी सम्यग्दृष्टि निज शुद्ध आत्मतत्त्व में अनुरक्त है। सम्यग्दृष्टि की बहिरात्मा व स्थवर्जितिता―सम्यग्दृष्टि और कैसा है? बहिरात्मा की अवस्था से दूर है। बहिरात्मा क्या? बाह्य पदार्थों में आत्म श्रद्धा उनमें अंतस्तत्त्व की श्रद्धा स्वीकारता। वह अवस्था अब इसके यहाँ रही? बहिरात्मा मायने मूढ़। बाहरी पदार्थों में यह मैं हूँ इस प्रकार की जिसके आस्था है उसे कहते हैं बहिरात्मा। तो यह बहिरात्मा की अवस्था से वर्जित है अंतरात्मा। अपने अंतः सहज स्वरूप में हूँ यह मैं हूँ ऐसा इसको स्वीकार है, इसी को कहते हैं ज्ञानी। जो जैसा है वह अपने आप में अंतः स्वरूप को जानता है तो यही है सम्यग्दृष्टि ज्ञानी। ज्ञानी को देव, शास्त्र, गुरु का यथार्थ परिचय―ज्ञानी जानता है कि देव क्या, शास्त्र या धर्म क्या, गुरु क्या? देव वीतराग सर्वज्ञ ऐसा जो आत्मा है, शास्त्र या धर्म जो वीतरागता की शिक्षा दे, राग से हटाये और मुनि याने गुरु निर्ग्रंथ, निरारंभ ज्ञान ध्यान तपोनुरक्त। विषयों की आशा से रहित, एक इस निज शुद्ध आत्मा की साधना की धुन में जो भव्य जीव है वह साधु है, देखिये कोई भी काम हो, उसमें उस ढंग के देव, शास्त्र, गुरु का आधार होता है मानो कोई संगीत सीख रहा है तो संगीत सीखने वाले के चित्त में कोई एक विशिष्ट पुरुष जो संगीत में अधिक कुशल हो वह ध्यान में रहता है कि मुझे ऐसा बनना है और फिर पास में तो मिल जाये उस्ताद वगैरह सिखाने वाले वे संगीत के गुरु हैं, क्योंकि जिसको अपना आदर्श माना वह कहाँ उपलब्ध है। वह बड़ा नायक जो भारतवर्ष में प्रसिद्ध हो वह कहाँ नसीब हैं? उसके तो जो अपने ही गाँव के, मोहल्ले के, आसपास के जो संगीत के जानकार हैं वे गुरु बन गए और फिर संगीत सीखने के जो संकेत हैं, पुस्तक हैं, चिन्ह हैं, सरगम हैं विधान है वही शास्त्र हो गए। तो संगीत सीखने वाले को इस तरह से तीन का काम पड़ा। इस तरह से वह चलता है और जितना सफल होना है हो जाता है। तो धर्म के काम में तो चलना चाहे―मुझे धर्म मूर्ति बनना है, धर्मविकास स्वरूप सहज स्वरूप प्रकट होवे ऐसी जिसकी भावना है उसके लिए देव, शास्त्र, गुरु कौन कहलायेंगे? जिसके धर्म विकास हो चुका है, जिसको आदर्श समझा एक मन में बात आयी है कि मुझे यह होना है, ऐसी उत्कृष्टता का जिसके प्रतिबोध आया उसे कहते हैं देव और गुरु कौन? जो ऐसा कार्य करने में लगे हैं, जैसा कि आदर्श देव है वैसे ही मार्ग में जो लगे हों साधना कर रहे हों वे गुरु हैं, वे उपलब्ध हो जाते, मिल भी जाते, उनसे हमको एक साक्षात चर्चा वार्ता, उमंग, प्रेरणा, उपदेश सर्व कुछ प्राप्त हो सकते। और आदर्श जो देव है वह कहाँ मिलते हैं मगर उसका स्वरूप जाना है और ऐसी स्थिति में ही जीव का कल्याण है, यह ज्ञानी ने समझा है तो ये ज्ञानीजन जिन, मुनि और धर्म को समझते हैं अथवा कहो इसी शब्द का द्वितीय अर्थ कि वीतराग मुनि धर्म को, उस प्रवृत्ति को, उस चारित्र को जानते हैं उस गली को समझते हैं जो अपने आप में हैं। सद̖दृष्टि की दुःख रहितता―ज्ञानी ज्ञान से चलता है, ज्ञान ही गली है, ज्ञान ही पाया जाएगा, यह सब उसकी समझ में स्पष्ट हैं, ऐसा जो सद्दृष्टि है वह दुःख रहित है। दुःख किसे हैं? जो बाह्य वस्तुओं में अपना लगाव करता है उसे है दुःख और जिसने कृतकृत्यता का स्वरूप समझ लिया कि मेरे को बाह्य पदार्थों में करने को है ही क्या। कुछ किया ही नहीं जा सकता है ऐसा अपने को कृतार्थ स्वरूप कृतकृत्य स्वरूप मान लिया वह पुरुष दुःख से दूर है, यह जीव बाह्य पदार्थों के बारे में विकल्प ही तो किया करता है कि बाह्य पदार्थों का भी कुछ कर पाता? और साथ ही इन विकल्पों में ऐसा प्रभाव हैं कि यह कष्ट पाता है। दूसरा क्या करता? कोई देहाती आदमी तो कभी कचहरी न गया हो और जाना पड़े कचहरी, और सुन रखा कि बड़ी कठिन होती है कचहरी वहाँ ऐसे-ऐसे बड़े लोग होते बड़ा प्रबंध होता, बड़े बुद्धिमान लोग वहाँ होते हैं एक डरावनी जैसी बात सुन रखी तो जब वह वहाँ जाता है तो उसका दिल घबड़ाता है, उसके हाथ पैर काँपते हैं या जो-जो भी और बातें कह लो तो उसको कोई दूसरा करने आया क्या? वह सब किसका प्रभाव है? खुद में जो विकल्प बने खुद की जो कल्पना है, खुद की जो बात है, उसका ही यह प्रभाव है कि जिससे वह काँप रहा, डर रहा, दुःखी हो रहा, बाकी तो अनेक लोग जज, वकील, क्लर्क वगैरह वहाँ खूब आ जा रहे पर उनको किसी को डर नहीं। तो जिसके अंदर कुछ डरावनी बात संकल्प की विकल्प की पड़ी है कुछ उसकी ही तो बात बनी कष्ट की ऐसी, तो ऐसी ही समझिये कि जिस अज्ञानी के चित्त में सभी अज्ञानियों के चित्त में बाह्य पदार्थों के प्रति संबंध का विकल्प बन रहा कि ये मेरे हैं, मैं इनका हूँ, मैं ही यों कर दूँगा और इससे ही मेरा महत्त्व है मेरा यों घर बन गया, यों वैभव बन गया, यों इज्जत बन गई तो इसमें ही मेरी महिमा है ऐसा जिसने संबंध जोड़ा है उसको सुख का मार्ग न मिलेगा। अनेक शल्य, अनेक विकल्प, अनेक बाधायें जिनका वह कष्ट ही कष्ट मानता रहेगा। कुछ अपने आप पर करुणा करके थोड़ा तो कुछ निहारना चाहिए अपने आनंद का उपाय बनाना चाहिये। बाह्यार्थ विषय के उद्भूत विकल्पों की अनर्थकारिता―बाह्य में जो जितने भी जीव हैं, जितना भी जो कुछ संग हैं वह इस जीव से अत्यंत भिन्न है। गृहस्थ हैं तो धर्म, अर्थ और काम इन तीन वर्गों का पालन करना होता है, लगे हैं बात है सब मगर वही सर्वस्व है और उस ही में मेरी महिमा है, उस ही से जीवन है, ऐसा जो अपने को मानता है उसे पद-पद पर क्लेश होता है। तो ज्ञानी जीव दुःखी नहीं है क्योंकि उनका निर्णय है कि यह मैं हूँ, पूरा हूँ, यही मेरा सर्वस्व है, यह ही लोक यह ही परलोक, यही मेरा सर्वस्व है, यहीं मैं रहता हूँ, इसे कोई दूसरा छोड़ता नहीं और यह मैं नहीं बाहर कहीं, इतने में ही मेरा सर्वस्व है, बाहर मैं कुछ नहीं करता, कुछ संबंध नहीं। जो हो सो हो, वह मेरा क्या, तो ऐसी ही कृतकृत्यता उन ज्ञानियों के चित्त में हैं इस कारण वे दुःख रहित होते हैं। यहाँ भी अनेक प्रकार के मनुष्य दिखते हैं। चाहे वे ज्ञानी भी नहीं फिर भी जो यह भेद नजर आता कि यह ज्यादा दुःखी, यह कम दुःखी, यह कम दुःखी, यह और कम दुःखी, चर्चा भी अधिक नहीं जानता फिर भी किसी में धीरता, गंभीरता, उपेक्षा, क्षमाशीलता हो गई ऐसे भी कई पुरुष पाये जाते हैं, तो वे दुःखी कम हैं और कितने ही लोग ऐसे कि जिन्होंने यह समझ रखा कि यह संसार तो मेरे पर ही टिका है, मैं करूँगा तो होवेगा, मेरे बिना कुछ न होगा, सारी जिम्मेदारी मुझ पर है तो वह दुःख पायगा। गृहस्थी में रहते हुए जिसका यह ध्यान है कि ये परिवार के लोग ये मेरे बल पर ही तो खा पाते हैं मैं करूँ तो इनका गुजारा हो, मेरे पर सारा बोझ, मैं ही इनका ईश्वर, मेरे से ही ये सुखी हो सकते हैं ऐसा जिसको प्रेम है। वहाँ दृष्टि है, वहाँ कष्ट ही तो मिल रहा। बात तो सबकी चलेगी मगर जो लोग ऐसा ध्यान रखते हैं कि जितने घर में लोग हैं ये जीव हैं, इनके साथ कर्म हैं, इनके उदय के अनुसार इनकी सांसारिक स्थितियाँ हैं। इनका सुख दुःख इनके कर्मोदयाधीन है इनके विचाराधीन है, उनको मैं कुछ नहीं करता और प्रकट बात है अगर बच्चों और स्त्री का तेज पुण्य न हो तो यह मनुष्य नौकर की तरह क्यों अधिक परिश्रम करता? व्यर्थ अनर्थ विकल्पजाल को त्याग कर सहजसिद्ध परमात्म स्वरूप में अनुरक्त होने का संदेश―भैया प्रकट तो सिद्ध है कि उनका पुण्य ज्यादह है जिनके लिए हम पद-पद पर कष्ट करके हैरान होते रहते हैं और फिर भी यह बुद्धि रखते हैं कि मैं खिलाऊं तो इन्हें खाना मिलेगा मैं इनको सम्हलाऊं तो ये ठीक रह पायेंगे। इन विकल्पों को अनर्थकारी कहा गया है। लोग ऐसा सोचते हैं कि मैं इनको बड़ा सुखी कर दूँगा लेकिन उनका उदय खराब है, कोई रोग लग गया, कोई बाधा हो गई, कुछ भी हो गया, उनका उनमें चल रहा और यह सोच रहा कि मैं इनको सुखी करूँगा तो इसके सोचने से हो गए क्या सुखी? अरे सब जीव अपने-अपने कर्मोदय से यहाँ सुखी दुःखी होते हैं, ऐसा स्पष्ट समझाया, और हे जीव फिर तू क्यों उनको सुखी दुःखी करने का विकल्प करता। मैं इसको सुखी करूँगा इसको दुःखी करूँगा, हैरान कर दूँगा, क्यों व्यर्थ के विकल्प करता? दूसरों को तू क्या कर सकता है? इसको कहा है अनर्थक्रियाकारी, स्वार्थ क्रियाकारी नहीं। ये व्यर्थ के विकल्प तो किसी समय एक बार तो 24 घंटे में ऐसा ध्यान जाना चाहिए कि यदि मैं अपना उद्धार न बना सकूँ, मैं अपने ज्ञानस्वरूप को निखारकर उसमें मग्न होने का अमृत न पी सकूँ तो फिर मेरा जीवन किसलिए है। यह काम तो नितांत आवश्यक है। बाकी काम जैसे घर को सजाना, खासा काम कर लिया और काम पड़े रहें होते रहेंगे जैसे चाहे पड़े हैं तो किसी मुख्य काम पर दृष्टि होती हैं जिसके बिना गुजारा नहीं चलता है तो ऐसे ही इस जीव को शुद्ध आत्मा की अनुरक्ति बिना काम नहीं चलता कहीं भी चित्त लगा दो उससे इस जीव का भला नहीं होने का। दुःख ही पायेगा। तो यह सम्यग्दृष्टि जीव अपने शुद्ध आत्मा में अनुरक्त है बहिरात्मापन की अवस्था से दूर है, आत्मा में अनुरक्त है, देव, शास्त्र, गुरु की ठीक पहिचान है अपने आपके उद्धार के मार्ग का सही परिचय है। बाह्य पदार्थों में लगाव है नहीं इस कारण से यह जीव दुःख से रहित है। अपने को भी दुःख रहित होना है तो एक ही बात करें क्या कि अपने सहज स्वरूप पहिचानें और उस ही की गोद में बसे रहें ज्ञान उस ही में बना रहे जितना बन सके यही काम करें तो हम लोगों के उद्धार का उपाय मिलेगा। सम्यग्दृष्टि का प्रथम परिचय―सम्यग्दृष्टि कौन होता है, यह बात इस गाथा में कही गई है। चूँकि सम्यग्दर्शन बिना श्रावकव्रत नहीं हो सकता, देशविरत गुणस्थान सम्यक्त्व बिना बनता, इस कारण सम्यक्त्व की बात पहले कही जा रही है। इस रयणसार में श्रावकों के धर्म का वर्णन है और श्री अध्यात्मयोगी पूज्य श्री कुंदकुंदाचार्य ने इस ग्रंथ को रचा है। तो जितने भी श्रावक हैं सही मायने में करणानुयोग के अनुसार वे सम्यग्दृष्टि ही होते हैं। तो सम्यग्दृष्टि की पहिचान क्या है, सम्यग्दृष्टि कौन जीव होता है उसका थोड़ा विवरण इस गाथा में है। जो अपने शुद्ध आत्मा में अनुरक्त हो वह सम्यग्दृष्टि होता है। शुद्ध आत्मा के मायने अपने आपका सहज स्वरूप याने केवल आत्मा ही आत्मा हो, उसके साथ अन्य द्रव्य का संयोग न हो तो स्वयं यह किस रूप में रहेगा, वह स्थिति स्वभाव की पहिचान कराती है। वह स्वभाव तो सदैव रहता है। चाहे संसार के जीव हों चाहे मुक्त जीव हों, चाहे एकेंद्रिय हों, चाहे अरहंत भगवान हों, स्वभाव तो जब जीवों में शाश्वत है मगर पर्याय का अंतर होता है। स्वभाव चैतन्यस्वरूप होने पर भी संसारी जीवों में तो विकार की परिणति है, औपाधिक परिणति है, मुक्त जीवों में स्वाभाविक परिणति है, पर स्वभाव तो सब में एक समान है। अगर स्वभाव में फर्क होवे कि संसारी जीवों के आत्मा का स्वभाव अन्य है तो एक कहावत चलती है कि जिसका जौन स्वभाव जाय नहिं जीसो..... जिसका जो स्वभाव होता है वह कभी मिटता नहीं है। वही रहता है यदि संसारी जीवों का विकारी रहने का या दुःखी रहने का स्वभाव हो तो तीन काल में कभी भी विकार और दुःख मिट नहीं सकते तो इस समय विकृत अवस्था में हैं संसारी जीव, लेकिन स्वभाव तो उनका एक चैतन्य मात्र है। अपने स्वभाव पर दृष्टि जाय कि मैं चित् स्वभावमात्र हूँ। इस ही के आलंबन से मोक्षमार्ग बनता है। किसके आश्रय से मोक्ष मार्ग में प्रगति होती हैं?―भैया, यदि निजशुद्धात्मत्व रति से प्रगति न मानो जो जब एक समस्या रख दी जायेगी कि बतलाओ पर का आलंबन लेने से तो आत्मा की शुद्ध परिणति होती नहीं तो शुद्ध तो हैं अरहंत और सिद्ध भगवान लेकिन वे पर हैं, स्व नहीं हैं और यह मैं आत्मा और हूं, अरहंत और सिद्ध भगवान का आत्मा और है। शुद्ध हैं वे जरूर मगर परके आलंबन से विशुद्धि नहीं बढ़ती, अनुभूति नहीं जगती। याने अरहंत भगवान और सिद्ध भगवान, इनको बाहर में निरखकर उनका आश्रय, आलंबन लेकर मोक्षमार्ग में न बढ़ेगा जीव। इस बात को सुनने में जरा कुछ अचक हो रही होगी, पर अचक यों नहीं है कि भगवान के आश्रय से शुद्धोपयोग तो नहीं होता, मगर भगवान के स्वरूप को निरखकर अपने स्वभाव की सुध हो जाती है और इसीलिए प्रभुभक्ति की जाती है कहीं ऐसा नहीं है कि जैसे लौकिकजन कहते हैं कि प्रभु को प्रसन्न कर लो तो दुःख दूर हो जायगा और सुख मिलेगा, ऐसा यहाँ जैन शासन में नहीं बनता। प्रभु किसी पर प्रसन्न नहीं होते और न क्रुद्ध होते हैं। वे तो अपने आनंद में लीन हैं जैसे बोलते हैं ना, ‘‘सकल ज्ञेय ज्ञायक तदपि निजानंद रस लीन’’ प्रभु वीतराग सर्वज्ञदेव समस्त ज्ञेय के जाननहार हैं पर अपने आनंदरस में लीन हैं। वे किसी पर क्रोध नहीं करते किसी पर प्रेम नहीं करते। तो वे तो हमें सुख देने आयेंगे नहीं, वे तो मुक्ति देने आयेंगे नहीं, वे अपनी ही परिणति में रहेंगे। और यहाँ ये हैं हमारे अधिकारी अरहंत, ये हैं हमारे स्वामी सिद्ध, इनका ही आश्रय करने से मुक्ति मिलेगी। तो प्रथम मो अंतस्तत्त्व नहीं समझा अतएव अज्ञान है। दूसरे-परकी ओर बुद्धि जगने से पुण्यबंध होगा और वह निर्वाण का परंपरा कारण भी बनेगा, मगर साक्षात शुद्ध परिणति नहीं बनती। फिर उपयोग है प्रभुभक्ति का। उपयोग यह है कि प्रभु एक आदर्श है, पूज्य श्री अमृतचंद्र सूरि ने कहा है कि ये प्रभु प्रतिबिंब के समान हैं। दर्पण के समान हैं। जैसे―दर्पण को निरखने पर अपनी मूर्ति का दर्शन हो जाता है ऐसे ही प्रभु के गुणों को निरखने से अपने आत्मा के स्वभाव की सुध हो जाती है और प्रभु की निष्कपट भक्ति करने से भीतर में आत्मस्वभाव का स्पर्श होता रहता है, इसके कारण एक अलौकिक आल्हाद जगता है, जिस आल्हाद में भव-भव के कर्मबंधन काटने का सामर्थ्य है। इसलिए प्रभुभक्ति का उपयोग तो अच्छा है, करते ही हैं। उसके किए बिना गुजारा भी न चलेगा, मगर तथ्य यह है कि प्रभुभक्ति करते समय भी जितने अंश में अपने आत्मा का स्पर्श होता है उतने अंश में शुद्धि बढ़ती रहती है। आत्मा का आश्रय हुए बिना प्रभुभक्ति में विशुद्धि न बढ़ेगी, शुद्धि न बढ़ेगी। पुण्याश्रव होगा मगर शुद्धोपयोग न होगा तो एक समस्या सामने आती है कि भगवान के आश्रय से तो शुद्ध परिणति हुई नहीं क्योंकि वे प्रभु हैं, और स्वयं हैं वे शुद्ध, अशुद्ध हैं नहीं। किंतु है तो परद्रव्य। निश्चयतः पर का आश्रय करना भी अशक्य है। और अपने को देखो इस समय आत्मा अशुद्ध है, और अशुद्ध आत्मा का आलंबन लेने से मुक्ति होती नहीं है तो मुक्ति का मार्ग फिर कैसे मिलेगा? परके आलंबन से मुक्ति नहीं, अपने अशुद्ध पर्याय के आलंबन से मुक्ति नहीं, फिर मोक्षमार्ग का प्रारंभ कहाँ से हो? तो उसका उत्तर है यह कि अपना जो स्वभाव है चैतन्यमात्र उस स्वभाव के आलंबन से मोक्षमार्ग होता है। सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है। अनुभूयमान आत्म स्वभाव―वह आत्मस्वभाव क्या है? जिसके आश्रय से मोक्षमार्ग में प्रगति होती है? सुनो जैसे दर्पण में घटित करो कि दर्पण में प्रतिबिंब आया है, सामने लेकर बोलो चीज का वहाँ प्रतिबिंब आया है या नहीं, आया है, मगर दर्पण का स्वरूप स्वभाव क्या है? वह प्रतिबिंब होना स्वभाव है क्या? दर्पण में निज में अपने आप अकेले ही अकेले जो चकमकाहट है, चकचकाहट है, स्वच्छता है, झिलझिलाहट है वह है दर्पण का स्वरूप और उस ही स्वरूप के कारण मानो प्रतिबिंब वहाँ आया है। प्रतिबिंब स्वरूप नहीं है किंतु वह झिलझिलाहट स्वरूप है, ऐसे ही अपने आत्मा का यह प्रतिबिंब विविध ज्ञान या विकार या विचार, यह स्वरूप नहीं है, इस चैतन्यमात्र आत्मा में एक भी विकल्प नहीं, उसका स्वभाव केवल एक प्रतिभास स्वरूप है। उसका स्वभाव उससे बाहर कहीं गया नहीं है। यद्यपि उसमें विषय कषाय के परिणाम भी बन रहे हैं, विकृत हो गया है फिर भी उसका स्वभाव कहीं गया नहीं है। उसका स्वभाव अपने आत्मा में है। तो ऐसे अपने आत्मा का जो शुद्ध स्वरूप हैं उसमें जो अनुरक्त है वह है सम्यग्दृष्टि। सम्यग्दृष्टि को बाहर में किसी भी जगह प्रतीति नहीं होती, हितरूप से विश्वास नहीं होता कि यह कुटुंब, यह दुकान, यह वैभव, यह समागम मेरा भला कर देगा, मेरा उद्धार कर देगा। उसका एक यह स्पष्ट निर्णय रहता है, कि मेरे आत्मा का उद्धार मेरे शुद्ध अंतस्तत्त्व का आलंबन ही कर सकेगा। और, इस कार्य के लिए साधक है प्रभुभक्ति। प्रभुभक्ति में भी इतना अतिशय है कि वह बाहर के सब ख्यालातों को हटा देती है और चूँकि वे प्रभु विकसित स्वभाव वाले हैं याने जो उनका चैतन्यस्वरूप है वही प्रकट हुआ है और उस चैतन्य स्वभाव वाले को यह देख रहा है। तो जैसे दर्पण के सामने एक दर्पण और आ जाय तो उस दूसरे दर्पण का प्रतिबिंब भी तो आयगा उस दर्पण में। जो भी लाल, पीली चीज धरी हो उसके सामने, उसका फोटो आता है इस दर्पण में, और अगर उस दर्पण के सामने एक दर्पण और रख दिया जाय तो उस दर्पण का फोटो न आयगा क्या? आयगा, मगर वह एकतान हो जाता है। उसका अलग से परिचय नहीं हो पाता, क्योंकि वह समान है। समान का समान में प्रतिबिंब है। तो ऐसे ही यह ज्ञानी पुरुष अपने आप के उस चैतन्य स्वरूप के दर्शन में अपने को रखता है। उसको अभ्यास है कि वह अपने सही स्वरूप के पहिचान का अभ्यास बनाये रखे। ऐसा ज्ञानी पुरुष जब उस शुद्ध स्वभाव को निरख रहा है प्रभु में तो वहाँ एकतान हो जाता है। उपयोग के नाते से नहीं तक रहा वह, स्वरूप के नाते से तक रहा है। तो जैसे दर्पण में दर्पण का फोटो एक विलीन हो जाता है ऐसे ही ज्ञानी पुरुष का उपयोग प्रभु के स्वरूप को निरखते-निरखते विलीन हो जाता है ‘अपने आप में ही’ तो सम्यग्दृष्टि का परिचय दिया है इस गाथा में कि जो ज्ञानी पुरुष है वह अपने शुद्ध आत्मा में अनुरक्त है। सम्यग्दृष्टि बहिर्मुखी अवस्था से दूर है। उपयोग बाहर को जाय, ऐसी स्थिति ज्ञानी की नहीं होती। जाता है उपयोग, अन्य काम भी करना है, मगर वह बाहर में टिक नहीं पाता। परिस्थिति के कारण जाना पड़ता है। जैसे कोई ज्ञानी गृहस्थ है तो कमाये बिना, परिवार से अच्छा बोले बिना, पड़ोसियों से अनुराग बनाये बिना गुजारा तो नहीं होता, सो करता है। करते हुए भी यह जानता है कि मेरे आत्मा का उत्थान इन किन्हीं भी बातों से नहीं होने का। मैं अपने स्वरूप को जानूँ, और अपने स्वरूप में ही मग्न होऊँ। बस इस अंतः क्रिया से मैं निराकुल हो सकूँगा। तो सम्यग्दृष्टि का बाहर में अवस्थान नहीं होता। दूसरी पहिचान उसकी यह है। सम्यग्दृष्टि का तृतीय और चतुर्थ परिचय―तीसरी बात―वह वीतराग साधु धर्म को ही चाहता है, उसकी ही सराहना करता है। धर्म तो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र है और इसकी मूर्ति साधु पुरुष है। तो जिन मुनि का, वीतराग मुनि का जो धर्म है उसका यह अनुमोदता है। यह ही मेरे को प्राप्त हो। मैं अन्य कुछ नहीं चाहता। तीसरी पहिचान सम्यग्दृष्टि की यह है और, चौथी पहिचान यह है कि वह दुःख से अलग रहता है। किसी भी परिस्थिति में ज्ञानी पुरुष अपने को दुःखी अनुभव नहीं करता, क्योंकि दुःख तो अज्ञान का था, वह अब रहा नहीं। अब बाहर में जिस पदार्थ का संयोग मिला है वह रहा नहीं। बाहरी पदार्थ कैसा ही परिणमे, वह जानता है कि यह बाहरी पदार्थ की परिणति है, इस पर मेरा कुछ अधिकार नहीं है, कुछ करतूत नहीं, कुछ संबंध नहीं। ये पदार्थ कैसा ही परिणमे, उससे मेरे को कोई हानि या कोई लाभ नहीं। सम्यग्दृष्टि जीव अपनी निर्मलता को तो लाभ समझता है और अपने परिणामों की मलिनता को अपनी हानि समझता है। जिसका अज्ञान पर्याय दूर हो गया उसको अब दुःख किस बात का रहा? बाहर में कुछ भी गुजरे, वह जानता है कि ये सब बाहरी तत्त्व हैं, उनसे मेरे में कोई हानि लाभ नहीं होता। तो जो ज्ञानी पुरुष है वह दुःखरहित होता है। इस तरह सम्यग्दृष्टि का थोड़ा परिचय दिया है कि ऐसा जीव श्रावक व्रत का अधिकारी होता है और जो श्रावकव्रत पा लेता वह सद्गति पाता है और निकट काल में वह मनुष्यभव पाकर मोक्ष को प्राप्त करता है। सम्यक्त्व लाभ के पौरुष का अनुरोध―भैया, सम्यक्त्व एक ऐसा वैभव है कि इस दुर्लभ मनुष्य जन्म को पाकर यदि अपने इस सम्यक्त्व प्रकाश को न पा सके तो जिंदगी भर जो कुछ कर रहे हैं लोग, परिग्रह (धन) संबंधी कार्य उससे इनका क्या पूरा पड़ेगा? मरणकाल आता है, सब छोड़कर जाना पड़ता है। यहाँ का संयोग इस जीव को क्या मदद करने वाला है? यह तो एक परिचित जीवों का समागम मिला है। चाहे वह स्त्री हो, पुत्र हो, सब एक दूसरे से अपरिचित हैं। एक कल्पना भर बना रखी है, पर अपना मानने से कहीं वे अपने हो सकते हैं। वस्तु का स्वरूप है, उनकी उनमें सत्ता है, वे खुद-खुद में रहते हैं, मानने से क्या फर्क पड़ता? वस्तु तो जैसी है वैसी ही रहेगी। तो इन समागमों में आशक्ति रखने से इस मनुष्य जन्म का बहुत बड़ा दुरुपयोग है। यहाँ तो केवल एक ही भावना रहे कि मेरे को मेरे भगवान आत्मा का स्वरूप दृष्टि में आये। मैं यह हूँ, बस उस के सारे दुःख दूर हो जाते हैं। तो सम्यग्दृष्टि की पहिचान में इस गाथा में कुछ ये लक्षण बताये हैं, शेष आगे कहेंगे।