वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 71
From जैनकोष
‘‘पति भत्तिविहीण सदी भिच्चो य जिणभत्तिहीण जइणो।
गुरु भत्ति विहीण सिस्सो दुग्गइंमग्गाणुग्गओ णियमा।।71।।’’
पतिभक्ति विहीन सती एवं मृत्यु की तरह जिनगुरु भक्ति विहीन शिष्य की दुर्गति―गुरुभक्ति बिना गति नहीं है यह बात इस गाथा में कही जा रही है। जैसे पति की भक्ति से रहित सती स्त्री दुर्गति के मार्ग में संलग्न है और मालिक की भक्ति से रहित नौकर दुर्गति के मार्ग में संलग्न है इसी प्रकार जिनेंद्र देव की भक्ति से रहित पुरुष दुर्गति के मार्ग में संलग्न है और विशेषतया इस गाथा में जो बताया जा रहा कि गुरु की भक्ति से विहीन शिष्य नियम से दुर्गति के मार्ग में संलग्न है। एक गुण कल्याणार्थी में यह होना ही चाहिए कि वह अपने सिर पर किसी बड़े को माने और उसके निर्देश में अपनी धर्मव्यवस्था बनाये। इससे एक तो कभी असन्मार्ग नहीं बनता, दूसरे अपने में अभिमान नहीं जगता, तीसरे सही मार्ग का दर्शन होता, चित्त विनय से आद्र हो गया, नम्र हो गया तो उस नम्र उपयोग में ज्ञान, चारित्र, संयम सब समा जाता है। तो गुरुभक्ति से विहीन शिष्य दुर्गति गमन में संलग्न होता है। गुरुभक्ति का एक लौकिक उदाहरण एवं गुरु भक्ति में उत्साह का कर्तव्य―गुरु जी एक कथा सुनाते थे कि बनारस में एक गुरु के पास 1॰ लड़के पढ़ते थे। उन 1॰ लड़कों में एक लड़के पर गुरु की विशेष कृपा थी, तो उस गुरु की पत्नी ने एक बार पूछा कि पंडित जी आप इन सभी लड़कों में से एक इस लड़के पर क्यों इतनी अधिक दृष्टि रखते? तो गुरु जी बोले अच्छा समझा देंगे। सो क्या किया एक दिन की गुरु ने अपने हाथ की भुजा पर एक छोटा सा पका आम कपड़े में बाँध लिया और सबसे यह कह दिया कि हमारी भुजा पर एक बड़ा भारी फोड़ा हो गया है। कुछ उदास से बैठ गए, वे सब लड़के गुरू जी के पास आये और कहने लगे बताओ गुरूजी आप की क्या सेवा करें? हमारे लिए सेवाकार्य बताओ। तो गुरूजी बोले ‘देखो हमारी भुजा में यह फोड़ा हो गया है इसका इलाज वैद्य ने बनाया है कि कोई इसे मुख से चूस ले, इसका सारा खून, मवाद साफ हो जायगा तो ठीक हो जायगा नहीं तो इसका रूपक और भी खराब हो जायगा।’ तो गुरूजी की इस प्रकार की बात सुनकर 8 बालक तो बड़ी सोचा विचारी में पड़ गए, पीछे हट गए मगर उनमें से एक लड़का जिस पर गुरू की विशेष दृष्टि थी, वह उठा और फोड़े को मुख से चूस लिया। वहाँ क्या था? था तो आम पर उन बालकों में एक परीक्षा लेने की बात थी। वह दृश्य देखकर गुरूजी के स्त्री ने समझ लिया कि वास्तव में उस लड़के के प्रति गुरू जी की विशेष दृष्टि होने का क्या कारण था। तो जिसमें गुरू भक्ति होती उसके प्रति गुरू का विशेष अनुराग रहना प्राकृतिक बात है और फिर धर्म मार्ग में गुरूभक्ति, गुरूजनों की भक्ति की तो बात ही क्या कही जाय? कुछ अपनी साधना बनाना पूछ कर बनाना, कुछ मन में भाव रखना, कोई दोष न हो जाय, कुछ-कुछ बड़े का इस ढंग का भय रहना। यह अंदर में अनुराग है गुरू के प्रति, वह संसार से तिर जायगा। पर कोई स्वच्छंद हो, कोई कुछ नहीं और मन में जो आये सो करना और कोई भी जिसके सिर पर न हो, छत्र छाया जिस पर न हो तो उस पुरुष को सन्मार्ग नहीं मिल पाता। वह नम्रता नहीं आ पाती ऐसा आग्र नहीं बन पाता कि जिसमें धर्म के अंकुर उत्पन्न हो सकें। इस कारण इस गाथा में बतला रहे हैं कि गुरु की भक्ति के बिना यह शिष्य नियम से दुर्गति के मार्ग में संलग्न होता है।