वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 8
From जैनकोष
देवगुरुसमयभत्ता संसारशरीर भोग परिचत्ता।
रयणत्तयसंजु त्ताते मणु यासिवसुहं पत्ता।।8।।
देवभक्त मनुष्य की शिवसुखलाभ योग्यता―जो मनुष्य देव शास्त्र गुरु के भक्त हैं, संसार शरीर, भोगों से विरक्त हैं, रत्नत्रय से युक्त हैं वे मनुष्य मोक्ष सुख को प्राप्त करते हैं। देव की भक्ति से मोक्ष के मार्ग में चलने के लिए उत्साह किस तरह मिलता है वह बात आत्मा का स्वरूप और देव का स्वरूप जानने वाले को विदित होती है। देव का अर्थ है कि जैसा आत्मा का सहज स्वरूप है उस तरह से जिस आत्मा में प्रकट हो गया है उसका नाम देव है। आत्मा का सहज स्वरूप अविकार है, केवल जाननहार, सो केवल ज्ञातादृष्टा रहे, ऐसा जहाँ स्वभाव प्रकट है उसे कहते हैं देव। वह देव आराध्य क्यों हैं कि अपने को भी आवश्यकता है कि जो अपना सहज स्वरूप है वह यथार्थ प्रकट हो, क्योंकि इस ही स्थिति में शांति होती है और इसका विपरीत अर्थात् विकारभाव हों तो निरंतर अशांति रहती है। राग में क्या शांति है? नहीं! द्वेष में तो प्रकट अशांति है। रागभाव के रहते हुए जीव के चित्त में खलबली, क्षोभ, चिंता और एक अपूर्णता जैसा अनुभव ये सब आकुलतायें विकार मात्र में होती हैं। ऐसे विकार से रहित अपनी स्थिति चाहिए और वह स्थिति प्रभु में प्रकट है। सो प्रभु के स्वरूप का अनुराग कर के अपने आप में उत्साह जगाया जाता है कि प्रभु मुझे अन्य कुछ न चाहिए। एक अंतस्तत्त्व की दृष्टि चाहिए कि मैं ऐसा सहज चैतन्यमात्र हूँ। देव का जो भक्त है, सहज स्वरूप का जो भक्त है, वह मनुष्य मुक्ति सुख को अवश्य प्राप्त करेगा। गुरुशास्त्र भक्त मनुष्य की शिवसुखलाभयोग्यता―गुरु भक्ति का मोक्ष मार्ग में मदद मिलने का क्या संबंध है? जैसे कोई पुरुष किसी नगर से जाना चाहता है, पहली बार ही वह जा रहा है। यदि उसको कई बार गये हुये कुछ लोगों का संग मिल जाय तो उसकी उनमें प्रीति जगती है। उनके साथ में रहता है कि हम निर्वाध वहाँ पहुँच जायेंगे। तो ये गुरुजन, ये मोक्ष-मार्ग के अभ्यासी अपने आत्मा के स्वरूप का ध्यान रखने वाले इन गुरुजनों की सेवा में, इन गुरुवों के गुणों की स्तुति में, इनके सुंदर सहवास में आत्मा को मोक्षमार्ग के लिए उत्साह जगता है। जैसी संगति हो वैसा भाव बनता है। यदि रत्नत्रय धारी गुरुजनों का सत्संग मिलता रहे तो अपने भावों में भी इस ही प्रकार की भावना बनती है। एक नदी के उस पार (दूसरे किनारे पर) पहुंच गया, कुछ लोग उस नदी में जो सही रास्ता था उस रास्ते से जा रहे तो इस ओर रहने वाला पुरुष जो नदी के उस पार जाता है उसको उन दोनों से मदद मिलती है। रास्ते के जानने वाले लोग बताते हैं कि भाई डरो मत, इस रास्ते से आवो, उस किनारे पहुंच जावोगे। तो गुरुजन अपनी प्रवृत्ति से भव्य जनों को यह शिक्षा देते हैं कि घबड़ाओ मत। अज्ञानवश दुःखी मत होओ। इस रास्ते से चलो तो तुम उत्तम आनंद की छाया में पहुंच लोगे। जिन की मुद्रा, जिनकी चर्या, यह उपदेश देता है कि उन गुरुवों की भक्ति से मोक्ष मार्ग की प्रगति में सहयोग मिलता है। शास्त्र की भक्ति है वे अक्षर मगर उनका वाच्य अर्थ तो है सो कुछ शास्त्र पढ़ने से भी मदद मिलती है और मुख्यतया तो जिसने अपने आत्मा में थोड़ा बहुत स्वभाव परखा, अभ्यास किया, उसके लिए विशेषतया मदद मिलती है। तो ऐसे देव, गुरु, शास्त्र के भक्त मनुष्य मोक्ष सुख को प्राप्त करते हैं। संसारविरक्त मनुष्य की शिवसुखलाभयोग्यता―कैसे हैं वे मनुष्य जो मोक्ष सुख को प्राप्त करते हैं? संसार शरीर भोगों के परित्यागी हैं। संसार मायने यह जगह नहीं। जगह छोड़कर कहाँ जायेंगे? तीन लोक को छोड़कर जीव कहाँ जायेंगे? अलोकाकाश में अवगाह अवस्थान ही नहीं हैं। तो संसार मायने आत्मा के मिथ्यात्व, अविरति, कषाय रूप परिणाम, यह ही संसार हैं। संसार दुःख से भरा हुआ है। ऐसा लोग कहते हैं मगर बाहर में जगह को देखें कि यह संसार है और दुःख से भरा हुआ है तो यह बात समझ में न आयेगी। जब अपने विभावों को तकेंगे और जानेंगे कि ये रागद्वेष विषय कषाय संसार हैं और यह संसार दुःख से भरा हुआ है, तो बात प्रकट समझ में आयेगी। इस संसार से मुक्ति चाहिये हो तो यहाँ का जो विकाररूप संसार है उसकी उपेक्षा करनी होगी। हमारा संसार बाहर नहीं किंतु मेरा ही दुर्भाव विकार यह ही संसार है। जो दुर्भाव 6 भागों में बटते हैं―मोह, काम, क्रोध, मान, माया, लोभ, स्व और पर का विवेक न होना, देह और आत्मा का भेद न जानना, अपनी और पर ही स्वतंत्र सत्ता न समझना, यह है मोह। यह हैं संसार, यह दुःख से भरा हुआ है। बाह्य पदार्थों पर दृष्टि जाय, उसका लगाव लगाये तो उसमें दुःख नियम से हैं। भले ही कभी कल्पना से सुख मान लें मगर सुख नहीं हैं। यह ही संसार है अपना विकार। उससे ज्ञानी पुरुष विरक्त रहता है। बाहर कहीं उद्यम नहीं करना है। अपने आप में अपने ही विकार से हटकर अपने में ही तन्मय चैतन्य स्वभाव में उपयोग को लगाना है। यह है परमार्थ तपश्चरण। जीवों का मन अनियंत्रित है, उनको विषय कषाय बड़े सस्ते लग रहे हैं। और वैराग्य संयम ध्यान ज्ञान की बातें उनको बड़ी कठिन लग रही हैं तो ऐसी स्थिति में विचारे कि जो पुरुष विषय कषायों के विकल्प छोड़कर चैतन्यस्वरूप निज अंतस्तत्त्व में उपयोग को रमाते हैं, स्थिर करते हैं, वह एक बहुत बड़ा काम है और परम तपश्चरण है। विकार से विरक्त होकर अपने स्वभाव में उपयोग को लगाना। अन्य बातें तो बहुत हैं मगर मूल बात जिसको गुप्त ही गुप्त करना है, दिखाकर की जाने वाली बात नहीं, अपने में ही गुप्त रहकर इस गुप्त स्वभाव में उपयोग लगाकर जो अपने को सबसे निराला अनुभवता है वह पुरुष मोक्षसुख को अवश्य प्राप्त करेगा। शरीरविरक्त संतों की शिवसुखलाभयोग्यता―शरीर के परित्यागी याने दे हमें जिनको अनुराग नहीं, शरीर कैसा ही रहे, मलिन रह रहा, कुछ लग रहा कोई शौक नहीं। कहीं भी बैठे हैं, ज्ञानी पुरुष को इस संबंध में कोई शोक नहीं होता। बल्कि बनावट की बात करनी पड़े तो उसमें वे कष्ट मानते हैं, उन्हें अटपट लगता है और स्वाभाविक साधारण जैसा हो रहा सहज वह हो रहा है। दिखावट, बनावट, सजावट ये तीन बातें ज्ञानी जनों में नहीं हुआ करती। इन तीन बातों का प्रेमी वही हो सकता है जिसको अपने ज्ञान से अनुराग नहीं है। तो शरीर की क्या दिखावट, क्या श्रंगार। उसको तक कर अपने में क्या मौज मानना? मैं बहुत तंदुरुस्त हूँ, मेरे को बहुत आराम है, अथवा इस देह को ही निरखकर मन में आये कि यह मैं हूँ, मेरी बहुत बड़ी कीर्ति हो रही है, मेरा बहुत बड़ा सत्कार लोग करते हैं, इन सब बातों में उसी का ही ध्यान बनेगा जो देह का अनुरागी है। ज्ञानी जीव देह के अनुरागी नहीं होते। वे जानते हैं कि यह देह पौद̖गलिक पिंड है। यह देह अपवित्र तत्वों से भरा हुआ है। देह और शरीर ये दो बातें एक ही हैं कि अलग-अलग? हैं तो एक ही, मगर जब बढ़ोतरी की ओर चलता है तब तो उसका नाम देह और काय कहलाता है और जब घटती की ओर चलता है तो इस ही का नाम शरीर कहलाता है। जो सड़े गले शीर्ण हो वह तो कहलाता है शरीर और जो एकत्रित हो, उन्नति की ओर हो वह कहलाता है देह और काय। हैं बात एक ही मगर वृद्ध पुरुषों को देखकर कहो कि यह शरीर है, बच्चे को देखकर कहो कि यह काय है, देह हैं। शब्द की व्युत्पत्ति से कह रहे हैं। तो क्या हैं शरीर? पुद̖गल स्कंध का यह पिंड है, यह कभी बढ़ गया कभी घट गया, किसी भी पर वस्तु से मेरे आत्मा का संबंध नहीं है न उसके कारण कोई सुख होता है, इसलिए देह पूरा मेरे लिए बेकार है। इस देह को देखकर मौज मानना या दुःखी होना योग्य नहीं। यदि मेरे आत्मा के साथ यह देह न लगा होता तो मैं पूरा पवित्र आनंदमय होता। यह तो कलंक लगा है। इस देह में मौज मानेगा क्या ज्ञानी? ज्ञानी जीव स्वरूपतः स्वभावतः इस शरीर से विरक्त रहता है। भोगविरक्त संतों की शिवसुखलाभयोग्यता―ज्ञानी मनुष्य भोगों से भी विरक्त हैं। तभी तो कवि लोग कहते हैं कि―‘‘भोगे तो भोग क्या हैं, भोगों ने भोगा हम को’’ अर्थात् मैंने भोग नहीं भोगा किंतु इन भोगों ने मुझे भोग डाला। अपने जीवन में ध्यान दें तब बात समझ में आती है। जब उम्र बढ़ती है, अनुभव बनता है वहाँ झट बात समझ में आती है कि मैंने व्यर्थ ही इतना जीवन खोया। मैंने भोग नहीं भोगा नहीं तो उसका संचित सुख मेरे आत्मा में तो होता। सुख की बात जाने दो और दुःख ही बढ़ गया है। भोग भोगना बड़ा आसान, भोग तजना शुरों का काम। बात सीधी सी है। यह उपयोग जहाँ से उठा है वहाँ ही आ जाय बस यह ही समाधि है। मेरा ज्ञान, मेरा उपयोग मेरे स्वभाव के परिणमन है, मेरे ही स्वरूप से उठे हुए हैं, बस मेरे में आ जायें तो मेरा भला हो गया। जैसे समूह का पानी आखिर समुद्र में ही पहुंचता है। बैसाख जेठ में सूर्य संताप के कारण भाप बनकर समुद्र का पानी बादल बन गया। कुछ काल बाद योग पाकर पानी बरस गया। बरस कर नदियों में गया, नदियाँ समुद्र में गई, जहाँ से पानी उठा था वहीं का वहीं पहुंच गया, ऐसे ही हमारा उपयोग हमारे इस ज्ञान सागर से उठा है और उठकर बहुत ऊँचे चला गया है और छितर बितर उड़-उड़कर कहीं का कहीं पहुंच रहा है। कभी सुयोग मिले कि यह छितर बितर हुआ उपयोग घनभूत होकर नम बन जाय, यह बरस जाय और बहकर यह उपयोग मेरे ज्ञानसागर में ही आ जाय तो यह कहलायेगा एक समाधि। इतना काम किये बिना यह जीव संसार में चतुर्गतियों में भटकता फिरता है। भोगपरिहारी मनुष्यों की शिवसुखलाभ योग्यता―ज्ञानी जन भोगों के भी त्यागी होते हैं और सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र से संयुक्त होते हैं। खुद को जाना, खुद में प्रीति उमड़ी, खुद के स्वरूप में मग्न हो गए, यह कला जिन्होंने पायी वे पुरुष पवित्र हैं। वे संसार संकटों से निकट काल में छूट जाने वाले हैं। जीवन उनका ही सफल है जिन्होंने इस कला पर अधिकार पाया है अपने सहज स्वरूप को जानना, उस ही में प्रीति जगना और उस ही में मग्न होने का प्रयत्न होना, न हो सके यह काम तो यह श्रद्धा निरंतर रहे कि बस कर्तव्य तो यह ही एक मात्र है। बाकी तो सब बेकार बात हैं। तो जो रत्नत्रय से संयुक्त हैं वे मनुष्य मोक्ष सुख को प्राप्त करते हैं। इस प्रकार भूमिका में एक सम्यग्दर्शन से संबंधित कुछ बात कही गई कि जिससे श्रावक अपने आचार को निभाने के लिए सुदृढ़ रहे, सो प्रस्तावना में सम्यक्त्व की मुख्यता से वर्णन किया। यदि कल्याण चाहिये हो तो सर्वप्रथम सम्यक्त्व का लाभ प्राप्त करें। तो अब यह सम्यग्दृष्टि पुरुष इस देशविरत गुणस्थान में आया, श्रावकव्रत पालन करने में आया तो उसका क्या कर्तव्य है, यह बात अब अगली गाथा में कहेंगे।