वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 84
From जैनकोष
‘‘अज्झयणमेव झाणं पंचेंदिय णिग्गहं कसायं पि।
तत्तो पंचमयाले पवयणसार बभास मेव कुज्जाओ।।84।।’’
पंचमकाल में हीन संहननादि के कारण ध्यान समता आदि में बाधा के अनेक अवसर―यह काल चल रहा है पंचम काल, इसमें हम आप मनुष्यों को जो संहनन मिला है वह है छठा संहनन, सबसे जघन्य संहनन। नसाजाल से हड्डियाँ जुड़ी हुई हैं और संहनन उपद्रव उपसर्ग सहना यहाँ बड़ा कठिन है। कोई कषायवश सह ले तो सह तो सकता है। कषायवश तो बहुत से लोग कुवें में गिरकर भी मर जाते हैं? मगर सहज सह लिया जाय, समता परिणाम में बिगाड़ न आये ऐसा सहन करने योग्य अब समय नहीं रहा, कठिन बात है। छोटे-छोटे उपद्रव उपसर्ग तो सहन करने लायक योग्यता है आजकल मगर बड़े उपसर्ग जैसे पुराणों में सुनने में आये कि अमुक मुनि को घर में कंडों से बेड़कर आग लगा दी, कोल्हू में पेल दिया, चक्कू से खाल छीली गई, उस पर नमक मिर्च बुरका गया, ऐसे-ऐसे उपसर्ग बहुत से मुनिराजों ने समता से सहे और अनेकों ने मुक्तिलाभ भी लिया, पर यह पंचम काल है, हीन संहनन है, कठिन उपद्रव उपसर्ग सहने लायक यहाँ हिम्मत नहीं है तो इतना साहस आये बिना निर्विघ्न ध्यान भी नहीं बन सकता है। थोड़ा अपने आप से भी अनुभव करें कि एक मक्खी ही बैठी हो नाक पर, कान पर तो वह मक्खी बेचारी काटती नहीं है फिर भी उसका बैठना सहा नहीं जाता। मच्छरों के संबंध में अपने अनुभव से विचार लो कि कितनी बाधा देते हैं ध्यान करने में बड़ी व्याकुलता उत्पन्न कर देते, जब इन मच्छरों का काटना भी सहन नहीं होता तब फिर अन्य उपद्रवों के सहने की तो बात ही क्या कही जाय? तो ऐसे इस काल के समय क्या करना? वह इस गाथा में बताया गया है। कि इस काल में तो ध्यान अध्ययन ही है। ध्यान करें पर प्रधान से मुख्यता से ध्यान होने की बात न बन पायेगी। कुछ बनेगी उसमें निषेध नहीं हैं मगर अनुभव बताता है कि ध्यान की मुख्यता अब नहीं बनायी जा पाती। तो अध्ययन ही किया जाये और जब अध्ययन में आपका उपयोग चलेगा, आप के 2-3-4 घंटे का समय भी आपसे जाना ही न जायेगा। और जो नाना प्रकार से उन तत्वों का परिज्ञान होगा, उससे जो आनंद पाया जायेगा उसको वही समझेगा। वह तो एक अलौकिक आनंद है। पंचमकाल में अध्ययन में ही ध्यानादि की पूर्ति की संभवता―आज के समय में यह अध्ययन ही ध्यान है और इस अध्ययन स पंचेंद्रिय का निग्रह होगा। जब अध्ययन कर रहे इस समय इंद्रिय विषयों का कहाँ ध्यान? अध्ययन करके जो भला संस्कार बनाया और उस तत्त्व की स्मृति रखे जो पंचेंद्रिय विषयों का कहाँ ध्यान? वह रुचिकर नहीं रहता। तो आज के समय में अध्ययन ही अपना शरण है सर्वस्व है। वह ज्ञान की वार्ता अगर उपदेश से ही सुनने को मिले वह एक अध्ययन है मनन तो चल रहा है अपने अंदर। अगर वीतराग भाव से तत्त्व चर्चा चले तो वह भी अध्ययन है, शास्त्र का अध्ययन किया जाय तो वह भी अध्ययन है। तो इन अध्ययनों की विधि से पंचेंद्रिय का निग्रह भी होगा। अध्ययन ही निग्रह है, अध्ययन ही कषाय का निग्रह है। ज्ञानार्जन में बहुत गुण हैं। तो जब ध्यान, कषायों का निग्रह, अध्ययन से बनता, अध्ययन ही मुख्य है तो हे कल्याण चाहने वाले पुरुषों इस पंचम काल में प्रवचनसार का अभ्यास ही बनाओ। प्रवचन मायने आगम। उसमें सारभूत जो तत्त्ववार्ता वाले ग्रंथ हैं उन ग्रंथों का अध्ययन करे अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग और कोई गृहस्थ अगर ज्ञानोपयोग निरंतर नहीं कर सकता तो निरंतर ज्ञानोपयोग रखने वाले पुरुषों के प्रति वात्सल्य जगे। यह उनके ज्ञान की योग्यता बनने का प्रारंभ है। ज्ञान के साधनों में प्रेम करें। दूसरे लोग ज्ञान सीखें तो उनके साधनों में अपना सहयोग दें। ये सब संस्कार बनाना है। उनके ज्ञानावरण के क्षयोपशम बनता है और अगले भव में भी इसे उसका फल मिल सकता है। जो आज ध्यान है थोड़े से ही अध्ययन से ज्ञान जगता है उन्होंने पूर्व भाव में ज्ञान और ज्ञान के साधनों में प्रीति की थी उसका फल है कि आज बुद्धि में स्पष्ट समझ बनती है। तो इस पंचम काल में ज्ञानाभ्यास करें जिसके प्रताप से जो बात मोक्षमार्ग के लिए चाहिए वह सब प्राप्त हो जायेगी।