वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 91
From जैनकोष
‘‘तिव्वं कायाकिलेसं कुव्वंतो मिच्छभावसंजुत्तो।
सव्ववण्हूवएसो सो णिव्वाणसुहं ण गच्छेई।।91।।’’
मिथ्याभावसंयुक्त जीव को तीव्र कायक्लेश से निर्वाणसुखलाभ की असंभवता―बाहर बड़े घोर तपश्चरण करते हुए भी शीघ्र कायक्लेश को दूर करते हुए भी मिथ्यात्व भाव से युक्त है वह निर्वाण सुख को प्राप्त नहीं कर सकता, ऐसा सर्वज्ञ देव का उपदेश है, उन पर कुछ बीते इससे कहीं कर्मनिर्जरा नहीं होती किंतु अपने उपयोग में रागादिक भाव न समायें। उन विषय कषायों से उपयोग हटा हुआ रहे इस वृत्ति से निर्वाणसुख का मार्ग बनता है। तो जो जीव मिथ्यात्वभाव से तो सहित हैं, शरीर को अपना आत्मा मानते हैं, कर्मों के फल को, विकार को रागद्वेषादिक भावों को अपना स्वरूप जानते हैं। ऐसे मिथ्यादृष्टि जीव कितने ही कायक्लेश कर लें पर वे निर्वाण का सुख नहीं प्राप्त कर सकते फिर तपश्चरण किसलिए किया जाता? तपश्चरण से मुक्ति नहीं किंतु भीतर में इच्छा निरोध हो आत्मतत्त्व का बोध हो तो ज्ञान दृष्टि का अवसर मिलने से मोक्ष का मार्ग मिलेगा तो जिस काम की जो विधि है वह विधि तो की न जाय, अन्य प्रकार की विधि बने तो उसका कार्य नहीं बनता। संसार और मोक्ष की ये दो विधियाँ हैं। संसार में रुलना है, जन्म मरण करना है तो उसकी बहुत अच्छी तरकीब है कि मान जावें कि यह मैं हूँ, ज्यादह और कुछ तकलीफ नहीं करना है, बस शरीर को मान लिया कि यह मैं हूँ, फिर मनमाने जन्म मरण खूब मिलते रहेंगे, अगर जन्म मरण चाहिये तो उसकी यह विधि है, और यदि जन्म मरण से छूटना चाहते हैं और अपने आत्मा का सहज आनंद प्राप्त करना चाहते हैं तो उसकी विधि यह है कि बैर को विकार को परभाव अपना स्वरूप न समझें, इन्हें भिन्न जानें और अपने में अपना जो सहज ज्ञानस्वरूप है, सहज ज्ञानभाव है उसमें आत्मतत्त्व का श्रद्धान हो कि यह मैं हूँ तो कैवल्य की ओर जो रहेगा सो केवल बन जायेगा और जो संयोग की ओर रहेगा सो संसार पायेगा, तो विधियाँ दोनों की ये हैं अज्ञानी जीव साधु भेष को रखकर भी विधि संसार की बनाता रहता है। तो कर्म साधु के भेष को देखकर न डरेंगे कि इसने मुनि का पद लिया है, अब यहाँ न बँधें अरे वे तो निमित्त और ज्ञान का विभिन्न पायें तो डरते हैं, झड़ते हैं, मिटते हैं और जहाँ अज्ञान और रागभाव मिला कि कर्म की संतति बनती रहती है, इसी कारण इस गाथा में कहा है कि तीव्र कायक्लेश भी करे, बड़े दुर्धर तपश्चरण भी करे तो भी मिथ्यात्व भाव से जो युक्त है वह निर्वाण का सुख नहीं प्राप्त कर सकता है। अंतस्तत्त्व आत्मसर्वस्वता―देखो सब कुछ अपने आप में नजर आयेगा। धर्म आत्मा का होता है और आत्मा के स्वभाव में मिलता है। कोई जीव आत्मा का कल्याण भी चाहे और मुनि भी हो जाय तो उसे एक कठिनाई जीवन में यह है कि जो जिस कुल में, संप्रदाय में उत्पन्न हुआ है उसे अपने ही उस मजहब में श्रद्धा रहती हैं। कि बस यह ही धर्म हैं, इसी से ही मुक्ति है, पर उन्हें इस तरह से आत्मा का नाता नहीं मिल सकता। यदि बाहरी लोक पर दृष्टि है तो आत्मद्रव्य का नाता नहीं बन सकता। तो कोई भी पुरुष हो उसको तो लौकिक नाते को तो गौण करना चाहिए और अपने आत्मा को निरखें कि मेरे में क्या स्वभाव है, क्या स्वरूप है, क्या मेरा स्वरूप आकुलतामय है? तो कैवल्य की दृष्टि करके देखेंगे तो सब समस्याओं का समाधान मिल जायेगा। मैं हूँ सहज ज्ञानमात्र जो दुर्दशा चल रहीं है सो उसमें भी हमारा अज्ञान, हमारी निर्मलता, हमारी असावधानी क्यों बन रही हैं, बाह्य पदार्थ तो निमित्त मात्र हैं। ये खुद अशुद्ध रूप बनकर अशुद्ध बन रहे हैं। तो जो योगी योग की बात तो कहे मैं योगी हूँ आदि, किंतु उसका हृदय ज्ञान और वैराग्य से सुवासित नहीं है तो उसका योगीपना किस काम का? मैं मुनि हूँ मुझे कठिन तप करना चाहिए, मैं इतने दिनों का उपवास करुंगा, इतना तो कठिन तप करले पर मैं मुनि हूँ ऐसी शरीर को देखकर श्रद्धा बने तो वह मिथ्यात्व ग्रस्त है। उसका यह काय क्लेश केवल शरीर को कष्ट देने वाला है, शांति का कितना सुगम स्वाधीन उपाय है, खुद की दृष्टि करनी, अपने अंतःस्वरूप में करनी, परख यह तो करना है स्वतंत्र होकर, याने किसी की आधीनता नहीं इस काम में। अपना मन है, अपना उपयोग है, अपने में लगा रहता है, तो यह मोक्षविधि जिसको ज्ञात नहीं वे अज्ञानी घोर तपश्चरण करके भी मोक्ष का मार्ग नहीं पाते।