वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 94
From जैनकोष
‘‘देहादिसु अणुरत्ता बिसयासत्ता कसायसंजुत्ता।
अप्पसहाबे सुत्ता ते साहू सम्मपरिचत्ता।।94।।’’
देहादिक में अनुरक्त साधुवों की सम्यक्त्वहीनता―वे साधु अर्थात मुनिभेष रखने वाले पुरुष सम्यक्त्व से रहित हैं, कौन से? जो देहादिक में अनुरक्त हैं, शरीर को ही निरख कर अपने को मुनि मानने वाले भी देह में अनुरक्त कहे जाते हैं, शरीर को निरखकर मैं मुनि हूँ, मुझे इस तरह समिति से चलना चाहिए, मुझे इस तरह के तप व्रत उपवास करना है, मैने मुनि व्रत लिया है ये सब बातें सोच तो रहा है मगर शरीर को ही आपा मानने की प्रकृति में मुनिपना मान रहा है, जो अंतस्तत्त्व है ज्ञानस्वरूप आत्मा, वह अमना विकसित है कि आत्मा का ही मनन करना है वह मुनि होता है, यह तो ध्यान में नहीं है किंतु देह को ही निरखकर मैं मुनि हूँ, इस प्रकार का भाव बनाकर काम सब ठीक कर रहा है, बाहर में देखने वालों को सही जंच रहा है, निर्दोष चर्या करना हिंसा टाल कर रहना कायक्लेश करना आदिक ये सब बातें हो रही हैं तो भी वह मिथ्यादृष्टि है, सम्यक्त्व से रहित है, मोक्षमार्ग में सबकी कुँजी धर्म पालन मूलतः यह है कि अपने को अविकार सहज ज्ञानस्वभावमात्र मानें, यह एक मूल उपाय है, यह जिसने नहीं कर पाया वह चाहे मुनि भी हो बड़े कायक्लेश भी करता हो तो भी मोक्षमार्ग तो रंच भी नहीं हैं। केवल स्वरूप की दृष्टि की दृढ़ता से कैवल्य का लाभ―जिसको मुक्त होना है उसको इस समय भी स्वरूप दृष्टि से कर्म मुक्त देख सके तब तो मुक्त होने का उपाय बन सकता है और जो स्वरूपतः अपने को विकारमय तके वह मन वचन काय की क्रियाओं के बल पर मोक्षमार्ग नहीं पा सकता है। जैसे किसी बर्तन को साफ करने के लिए कहा जाता, जिस पर चढ़ गई हो धूल और कज्जल तो उसको साफ करने वालो की श्रद्धा में यदि यह है कि यह धूल इस बर्तन का स्वरूप नहीं हैं, यह तो ऊपर से लग गया है, बर्तन तो अपने अंदर जैसा था उस ही प्रकार है, तो वह उस बर्तन को तुरंत साफ कर लेता है, और कोई हो ऐसा कुबुद्धि पुरुष कि जो बर्तन का स्वरूप ही माने कि यह है तो वह यह प्रश्न कर उठेगा कि कैसे साफ हो? तो बर्तन को साफ वही पुरुष करता है जिसने उस मैल धुवां कज्जल आदिक से भिन्न अपने आप के बर्तन के स्वरूप में स्वच्छता जाना है, ऐसे ही आत्मा को मोक्षमार्ग में वही ले जा पायेगा जो देह से भिन्न, कर्म से भिन्न, विकार से निराला विचार अस्थिरता आदिक जो-जो भी तरंगे हैं उनसे निराला सहज ज्ञान ज्योतिमात्र अपने ही सत्त्व से जो हो वही मात्र जो अपने को निरखता है वह ही केवल बन सकता है। केवल को देखने वाला केवल बनेगा, अशुद्ध को देखने वाला अशुद्ध बनेगा। आत्मा की प्रगति कितनी सुगम और स्वाधीन है और यह केवल दृष्टि पर निर्भर है, और दृष्टि के अनुसार सृष्टि होती चली जायेगी। इसमें और अधिक कष्ट नहीं उठाना है। मात्र एक दृष्टि ही बने। उस एक की उस स्वच्छ भाव की तो परिणति भी स्वच्छता की जगती। जीव में केवल निजभाव का कर्तृत्व―यह जीव भाव के सिवाय और कुछ कर नहीं पाता। किसी का बुरा करना विचारे कोई तो उसके विचारने से बुरा नहीं होता, बल्कि दूसरों का बुरा विचारने से खुद का पाप बंध ही कर लिया जाता, ऐसे ही यद्यपि किसी का कोई भला विचारे तो इसका भला विचारने से भला नहीं हो जाता, वह तो उसका कर्तव्य है, मगर भले विचार वाले पाप बंध से हटते हैं, पुण्य बंध किया और शुद्धता का लाभ बना है तो निर्जरा भी हुई है, जब यह भावों के सिवाय और कुछ कर ही नहीं सकता तो वस्तुस्वरूप के अनुरूप सही भाव क्यों नहीं बनाये जाते? हर जगह यह जीव केवल भाव बना पाता है और कुछ बन गया काम तो उसमें यह अहंकार का भाव बनाता है, परभाव ही बनायगा। भाव सिवाय और कुछ नहीं कर सकता क्योंकि यह तो वस्तु स्वरूप की सीमा है कि एक पदार्थ दूसरे पदार्थ में अपना द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव कुछ भी अर्पित नहीं कर सकता। जब ऐसा वस्तुस्वरूप है तो करने का काम एक अपने भाव में सुधार है, इससे अधिक अन्य कोई काम नहीं पड़ा हे जो अपने हित में ठीक हो। तो यह अज्ञानी जीव कभी किसी इच्छा से, आशा से या कुछ दूसरों का प्रताप देखकर अपने मन में भावुक बनकर भाव लाता है कि मैं भी साधु होऊं, हो गया साधु कपड़ा उतार कर बाह्य परिग्रह त्याग कर लेकिन अपने अविकार सहज ज्ञानस्वरूप की अनुभूति नहीं पायी है तो वह अब भी मिथ्यात्वमल से सहित है और मिथ्यात्व को बताया महापाप, क्योंकि यह है पूरी बेहोशी। खुद है और खुद को नहीं जान पा रहा, यह पूरी बेहोशी है। खुद का भान नहीं रहता यह ही तो हुआ करता है बेहोशी में। सो बाह्य वस्तुओं में तृष्णा में इनमें मन चलाते हैं, उपयोग लगाते हैं पर स्वयं सहज क्या है उसे नहीं जान पाते ऐसे अज्ञानी जो देहादिक में अनुरक्त हैं वे साधु सम्यक्त्व से हीन हैं। विषयासक्त साधुओं की सम्यक्त्वहीता―विषायासक्त मुनि सम्यक्त्व से रहित है जो इंद्रिय विषयों की पूर्ति के लिए साधुता धारण करता है और इंद्रिय विषय पूरे हों न हों पर रसना इंद्रिय का तो पूरा मौका है। भक्तजन उत्तम से उत्तम आहार उपस्थित करते हैं, पर उसमें अशक्ति है जिसे और उस मुनि जीवन का ध्येय भी यह ही बन गया है कि आनंद से भोजन मिलता है, इंद्रिय विषयों में अशक्त है, कोमल वस्त्र सुहायें, साफ चिकनी बढ़िया चीजें सुहाये, राजसी बातों के लिए दिल चाहे तो वह विषयों में आशक्त ही तो कहा जाता। रूपावलोकन मन में, प्रदर्शन में, संगीत आदिक के श्रवण में रागरागनियों में सुहा जाय मन, तो वह विषयों में आशक्त ही तो कहलाता है। तो जिसकी ऐसी प्रवृत्ति है, विषयों में जिसकी आशक्ति है वह साधु सम्यक्त्व से परित्यक्त है। कषाय संयुक्त साधुवों की सम्यक्त्वहीनता―कषाय संयुक्त साधु सम्यक्त्व से हीन हैं। यहाँ जो-जो बातें साधु के लिए बतायी जा रही सो इस दृष्टि से ही न सुनना कि मुनि के लिए ये सब बातें कही जा रही हैं, अपने आप पर भी घटित करना, जो-जो अवगुण मुक्ति से मनुष्य को गिरा देते हैं। वे-वे अवगुण श्रावक को भी सम्यक्त्व से गिरा देते हैं। कषायों में आसक्त पुरुष सम्यक्त्व से हीन है। कषाय में आसक्त किसे कहते हैं? जो कषाय पर्याय में, कषाय विकार में आत्मा की बुद्धि करते हैं, मैं हूँ यह मैने किया है, उस विकार में जो अपना आत्मत्व स्वीकार करते हैं बस वही कहलाया कषाय में आशक्त कषाय को क्या छोड़ा नहीं जा सकता? छोड़ा जा सकता है पर छोड़ने का प्रोग्राम ही चित्त में नहीं है। उन्हीं में ही युक्त हैं। इस गाथा में साधु के लिए सब बताया जा रहा है कि यदि वह अपनी योग्य कषाय में आशक्त है यह पहले का दीक्षित मुनि है, यह बाद का है, यह इससे छोटा है, मैं इससे पहले कैसे बोलूँ आदिक किसी भी प्रकार की कषायों में आशक्त है तो वहाँ सम्यक्त्व नहीं है। दूसरा गल्ती करे तो खुद भी गल्ती करने लगना, यह बात ज्ञानियों में नहीं होती। कोई दूसरा गल्ती कर रहा तो करे। उसका ज्ञाता है मगर खुद गल्ती न करे, जिसको अपनी यह सुध है कि मुझे खुद गल्ती न करना चाहिए और गल्तियों से हटकर इस ज्ञानस्वभाव में ही दृष्टि रखना चाहिए वह तो सन्मार्ग पर है पर जो बाहरी बातें देखकर कषाय से युक्त होता है वह मुनि सम्यक्त्व से रहित है। आत्म स्वभाव में सुप्त साधुओं की सम्यक्त्वहीनता―आत्मस्वभाव में सोये हुए साधु सम्यक्त्व से रहित हैं। आत्मस्वभाव में सोये के मायने आत्मस्वभाव की सुध नहीं, दृष्टि नहीं, पता ही नहीं। मैं हूँ क्या इसका सही पता नहीं है पता तो हर एक को है, मैं हूँ सबको पता है पर किस रूप में मैं हूँ मान रहा इसमें अंतर आ जाता है। जो कर्म रस झलके, जो कर्मोदय की भेंट मिल रही उस ही रूप अपने को जो मान रहा वह तो आत्म भगवान में सोया हुआ है अर्थात स्वभाव के ज्ञान से रहित हैं, ऐसा पुरुष सम्यक्त्व से रहित है। स्पष्ट ही बात है, जब स्वभाव का परिचय नहीं तो वहाँ सम्यक्त्व कहाँ से हो सकता। बस एक कला मिल जाय एक दृष्टि मिल जाय अपने आत्मा की कि मैं तो यह प्रतिमास मात्र हूँ। एक द्रव्य जैसा चैतन्य स्वरूप हूँ और उसकी प्रतिक्षण वृत्ति चेतने की चलती रहती है उसे कौन रोकेगा? बस चेतने की वृत्ति चलती रहना इतना ही इसका काम हैं इतना ही इनका परिणमन है, इसमें अंतर कुछ नहीं ऐसा जो अपने आप में निहारता है वह तो है सावधान और जो कर्मरस झलका.., राग, विकार, विकल्प जगे उनको ही मान लिया कि मैं यह हूँ वह अज्ञानी है। और जो अपने में प्रतिफलित विकार को मानता है मैं हूँ उसकी प्रवृत्ति होती है बाह्य में ममता करना, बाह्य को अपनाना तो ऐसा अज्ञानी जीव सम्यक्त्व से रहित है।