वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 98
From जैनकोष
‘‘जो पावारंभरया कसायजुत्ता परिग्गहासत्ता।
लोयववहारपउरा ते साहू सम्मउम्मुक्का।।98।।’’
पापारंभरता साधुवों की सम्यक्त्व हीनता―वह शुद्ध सम्यक्त्व से रहित है जो पाप में आरंभ में रत रहता है। कोई खेती करे, पानी सींचे, फूल तोड़े, वृक्षों को सम्हालें, गाय भैंस रखे और मानो एक झोपड़ी सी बनाकर रहे और किसी प्रकार की साधु जैसी मुद्रा बनाकर रहे तो मुद्रा से न उसको लाभ है और न जनता को लाभ है, साधु तो अलौकिक वृत्ति वाले होते हैं। वे आरंभ परिग्रह से बहुत दूर है। वे पाप का आरंभ तो कर ही नहीं सकते। यहाँ तक कि साधु स्वयं भोजन का भी आरंभ नहीं करता। उसे भोजन मिलना न मिलना एक बराबर है, वह भोजन मिलने पर हर्ष या मौज और न मिलने पर खेद नहीं करता, किंतु जीवन चलाना आवश्यक है सो क्षुधा तीव्र होने पर भी वह भिक्षा चर्या करता है कोई भी गृहस्थ श्रावक उसे भक्ति पूर्वक आहार दे तो वह आहार लेता है, याने इतना विरक्त होता है साधु कि वह अपने जीवन के लिए भी पाप का आरंभ नहीं करता। तो जो पाप के आरंभ में रत है। वह साधु सम्यक्त्व से रहित है। आत्मा की स्वच्छता से रहित है। कषायुक्त साधुवों की सम्यक्त्वहीनता―जो कषाययुक्त साधु है वे भी विपरीत अभिप्राय वाले हैं जरा-जरा सी बात पर क्रोध आ जाना यह क्या साधु का कृत्य है? नीति बतलाती है कि ‘मुनिनां कोप चांडालः’ साधुवों का चांडाल तो क्रोध है। जिसको देह में आत्म बुद्धि है शरीर को ही मानता कि मैं यह हूँ और मैं इतना बड़ा हो गया हूँ ऐसा ऊंचा पद धारण किया है मैने तो उसको फिर अपने में अहंकार जगता है और दूसरों को तुच्छ समझता है। दूसरों से नमस्कार कराने की या भक्ति कराने की भीतर भावना रहती है, और इसी कारण अनुकूल चेष्टा न मिले तो क्रोध जगता है तो साधु तो अपने आत्मस्वभाव के प्रति बड़ा विनयशील होता है। उसके अहंकार नहीं होता, पर जो अहंकार से घमंड से युक्त हो वहाँ साधुता नहीं हैं। वे प्रभु अपने लिए आदर्श हैं, वे वीतराग हैं, सर्वज्ञ हैं, हमारे लिए आदर्श हैं तो साधु भी अपनी पदवी माफिक वीतराग होते हैं स्तुति करने वाले पर खुश हो जाय साधु और निंदा करने वाले पर क्रुद्ध हो जाय साधु, ऐसा साधु के नहीं होता उसके लिए सब एक बराबर हैं, तो ऐसे समता के घर हैं साधु। तो साधु भेष रख ले और कषायों को छोड़ न सके तो कर्म बंध का निमित्त तो कषायभाव है। साधु की मुद्रा नहीं हैं। जहाँ आत्मा में कषाय जगी कि कर्मबंध हो गया। साधु मायाचार से रहित है, कहा भी है कि ‘मनस्येकं वचस्येकं कर्मयेकं महात्मनामू’ महात्मा पुरुषों के जो मन में है वही वचन में वही शरीर की चेष्टा में आता है। मन में और, वचन में और, करे कुछ और ऐसी वृत्ति साधु के नहीं होती। तो साधु में मायाचार नहीं होता। यदि कोई छल कपट चालाकी किसी प्रयोजन से करे तो वहाँ साधुता नहीं है। साधु लोभ रहित होते। जिसने यह जाना कि ज्ञानमात्र ब्रह्म स्वरूप की उपासना करना ही सार है, यह ही शरण है और यह ही मेरा स्वरूप है इस तरह जिसके निर्णय बना और इसी सत्य को उतारने के लिए बाह्य सब परिग्रहों का त्याग किया उसके किसी पदार्थ के प्रति लोभ क्यों जगेगा? पर जो लोभ कषाय से युक्त हैं वह साधु सम्यक्त्व से रहित हैं। परिग्रहासक्त साधुवों की सम्यक्त्वहीनता―साधुजन परिग्रह में आसक्त नहीं रहते हैं, क्योंकि ज्ञानी जानता है कि मेरे आत्मा का परिग्रह तो मेरा आत्मस्वरूप है, मेरी तो चीज वह है जो मेरे साथ अनादि से अनंत काल तक सदा रहती है। वह क्या है? सहज ज्ञानस्वभाव जो मेरा स्वरूप है वही मेरा धन है, वैभव है, सर्वस्व हैं और मेरे स्वरूप से अतिरिक्त बाह्य क्षेत्रों में जो भी परद्रव्य है वह मेरा कुछ नहीं लगता। बड़ा स्पष्ट ज्ञान है साधु को कि मैं यह ज्ञानमात्र हूँ और ये सब मुझसे अत्यंत भिन्न हैं। और रागादिक विभाव भी औपाधिक हैं, भिन्न हैं, झलक गए हैं। विकार का ऐसा ही चमत्कार है कि जो कुछ भी हो वह ज्ञान में झलक जाता, पर उसका बाह्य पदार्थ रंच भी नहीं है कुछ। तो जो पुरुष ज्ञानी है वह परिग्रह से दूर रहा करता है परिग्रहण होता पर पदार्थ का, पर जो अपने आत्मस्वरूप के बोध से रहित है वह साधु मुद्रा भी रख ले तो भी भीतर से परिग्रह भाव नहीं मिटता। उसने जो घर छोड़ा उसका कष्ट सहा और परिग्रह में चित्त रहा सो साधु का आनंद भी न आया। तो परिग्रहासक्त साधु सम्यक्त्व से रहित होते हैं। लोक व्यवहार प्रचुर साधुवों की सम्यक्त्व हीनता―अनेक साधु लोक व्यवहार के बड़े चतुर होते हैं। और प्रकांड जानकार होते हैं। सो जो पुरुष साधु योगी व्यवहार की बात ही बहुत करता रहे तो उसका मन इतना स्वच्छंद हो जाता है कि अंतः स्वरूप की अनुभूति के लिए उसके चित्त में इच्छा नहीं होती। तो लोक व्यवहार जिसके प्रचुर चलता हो और चलते हुए वह पुरुष अपने आत्मा की सुध कैसे ले सकता है और जिसको आत्मा की सुध नहीं है वह चाहे कितने ही कष्ट सह ले पर उसको मोक्षलाभ कुछ नहीं होता। कुंदकुंदाचार्य इस रयणसार ग्रंथ में जो कुछ दोष रूप से वर्णन कर रहे हैं उनका प्रयोजन दोष निरखकर उनसे घृणा करना नहीं है, किंतु जो दोष है उनको दूर करना अपने आप को निर्दोष बनाने के लिए है। तो जो साधु लोकव्यवहार से परे हैं और अपनी आत्मसाधना में ही लीन होते हैं वे तो सच्चे साधु हैं और जो लोक व्यवहार में ही अपना बड़प्पन समझते हैं वे साधु सम्यक्त्व से रहित हैं।