वर्णीजी-प्रवचन:लिंगपाहुड - गाथा 14
From जैनकोष
गिण्हदि अदत्तदाणं परणिंदा वि य परोक्खदूसेहिं ।
जिणलिंगं धारंतो चोरेण व होइ सो समणो ।।14।।
(33) अदत्तदान ग्रहण करने वाले मुनिवेषियों की अश्रमणता―जो जिनलिंग को धारण करके, मुनिभेषी होकर बिना दी हुई वस्तु ग्रहण करते हैं वे मानों चोर की तरह प्रवृत्ति वाले हैं । बिना दी हुई वस्तु के ग्रहण करने के अनेक अर्थ होते हैं । यद्यपि प्राय: कोई साधु किसी की चीज बिना दिए नहीं लेते, न उठाते हैं, लेकिन किसी का भाव न हो देने का और ऐसा वातावरण बनाये या चाहे या मांगे और देना पड़े तो वह भी अदत्तादान कहलाता है, वह भी चोरी का रूप है । अगर यह वृत्ति चोरी का रूप न हो तो फिर कोई अगर डाका डाले तो वह भी चोरी का रूप न होना चाहिए । डाका डालने वाले तो बिना दी हुई, कुछ चीज लाते ही नहीं, उसी से ही ताले तुड़वाते, उसी से ही सब चीजें निकलवाते । अर्थ यह है कि मन न हो और उसे किसी परिस्थिति में कुछ विवश करके उससे ग्रहण करना अथवा अनेक प्रसंगों में परस्पर दूसरे की कोई चीज बिना दिए हुए भी ले सकता है । तो जिसके अदत्तादान का भाव है वह श्रमण नहीं है किंतु वह पापबुद्धि वाला मुनिवेषी है ।
(34) परोक्षदूषण लगा परनिंदा करने वाले मुनिवेषियों की अश्रमणता―जो मुनिभेषी दूसरों को दूषण दे देकर दूसरों की निंदा करते हैं वे श्रमण नहीं हैं । दूसरों की निंदा करना यह एक बहुत व्यर्थ का अवगुण है । उससे आत्मा को मिलता क्या है? शांति भी नहीं, पुण्य भी नहीं, धर्म भी नहीं । अपने मन को बिगाड़ना और दूसरों से कलह उपद्रव मोल लेना, अपना समय खोटा करना, इसके सिवाय परनिंदा में और कोई फल प्राप्त नहीं होता । परनिंदा करने का मुख्य कारण होता है अपनी प्रशंसा का भाव । जितने भी लोग पर की निंदा करते हैं तो समझना चाहिए कि किसी न किसी अंश में खुद की प्रशंसा का परिणाम है । यह कुशलता की बात है कि कोई चतुर आदमी परनिंदा ऐसे शब्दों में करेगा कि जो शब्द सीधा यह जाहिर कर रहे हो कि यह निंदा नहीं कर रहा किंतु कुछ बात बता रहा, लेकिन चित्त में अपने आपकी प्रशंसा का भाव आये बिना परनिंदा की प्रवृत्ति नहीं होती । तो जो मुनिभेषी दूसरे की निंदा करे वह मुनि नहीं है । सामने तो कोई कहता नहीं, जितनी भी निंदायें चलती हैं प्राय: परोक्ष में चलती हैं । तो ऐसे परोक्षरूप में पर की निंदा करने वाला पुरुष जिनमार्गी नहीं, वह तो चोर की तरह अपना आचरण कर रहा । यदि दूसरे की निंदा ही करे तो उसके दूसरे के सामने जाकर क्यों नहीं कहता, मगर वह पीठ पीछे निंदा करता है तो बताओ उसमें चोरी का अंश है कि नहीं? तो ऐसा पुरुष जो परनिंदा करता हो वह मुनिभेषी मुनि नहीं है और वह चोर की तरह आचरण करता है । तो जिनेंद्र चिह्न को धारण करके ऐसी अटपट बातें करे तो वह श्रमण नहीं, किंतु वह चोरवृत्ति वाला पुरुष है । चोर की ऐसी ही तो वृत्ति होती है कि दूसरे की देने की इच्छा नहीं है, किंतु कोई डर आदिक दिखाकर ग्रहण करना अथवा निरादर से लेना उसमें भी एक चोरी का अंश है । बिना दिए चीज लेना, छिपकर कार्य करना आदि ये सब चोरी के कार्य हैं ꠰ तो मुनिभेष धारण करके कोई ऐसा करने लगे तो वह चोर ही तो ठहरा ꠰ ऐसा मुनिभेषी बनना योग्य नहीं है, क्योंकि इसका फल दुर्गति है ।