वर्णीजी-प्रवचन:शांतिभक्ति - श्लोक 14
From जैनकोष
संपूजकानां प्रतिपालकानां, यतींद्र सामान्य तपोधनानाम्।देशस्य राष्ट्रस्य पुरस्य राज्ञ:, करोतु शांतिं भगवज्जिनेंद्र:।।14।।
(141) भगवान् जिनेंद्र से शांतिलाभ की अभ्यर्थना―भगवान जिनेंद्रदेव सबको शांति प्रदान करें। भगवान का अर्थ है संपूर्ण ज्ञानवान। भग का अर्थ है ज्ञान। ज्ञान से जो युक्त हो उसे कहते है भगवान । जिनेंद्र का अर्थ है जो राग, द्वेष, काम आदिक विकारों को जीत ले, सदा के लिए नष्ट कर दे उसे कहते हैं जिन और जो जिनों में श्रेष्ठ हो उसे कहते है जिनेंद्र । भगवान जिनेंद्र से शांति की प्रार्थना की जा रही है कि राग द्वेषादिक विकारों को जीत चुकने वाले हे ज्ञानपुंज ! सबको शांति प्रदान करो। जिस-जिस जीव को ऐसा निर्विकार ज्ञानपुंज उपयोग में आएगा उसको शांति प्राप्त होगी। तब तक जो यह कह रहा है कि हे निर्विकार ज्ञानपुंज सबको शांति प्रदान करो उसका अर्थ यही है कि सब जीव निर्विकार ज्ञानपुंज को उपयोग में लेकर प्राप्त करें। हे प्रभु ! समस्त पूजको को शांति प्रदान करो जो आपका गुण स्मरण करने वाले हैं, आपके पूजक है आपकी उपासना में रहा करते हैं उनको शांति प्रदान करो। इस समय यह भक्त सर्व जीवों के लिए सुख की भावना कर रहा है।
(142) सबके शांति लाभ की चाह में अपने अलाभ के संदेह का अनवकाश―जब कल्प सत्य सहज शांति की रूचि उत्पन्न होती है तब वहाँ इतनी उदारता व्यक्त होती है और इस ही तरह का अनुराग होता है कि वह सर्व जीवों को सुखी शांत होने की भावना करता है। यह निर्दोष ह्रदय का परिणाम है अन्यथा एक पड़ोसी दूसरे पड़ोसी की उन्नति को नहीं देख सकता । इतना ईर्ष्या भाव प्रकृत्या पापोदय में जीवों के रहा करता कि पास वाले की उन्नति नहीं देख सकते। लेकिन यहाँ ज्ञानी का ह्रदय देखिये―सर्व जीवों के शाश्वत सुख शांति की प्रार्थना कर रहा है। इस लोक में तो कुछ ऐसा भी डर मानते हैं लोग कि यह ही धनिक हो जायगा तो मुझे क्या मिलेगा ? सब संपदा इस पड़ोसी के पास पहुंच जायगी, फिर मेरे को क्या रहेगा ? यह भी भाव है। जिसके कारण पड़ोसी की उन्नति नहीं चाह सकता । दूसरा यह भाव है कि मुझ से बड़ा धनी, इज्जतवान अगर यह हो गया तो फिर मेरी क्या पूछ रहेगी? मैं तो हीन रह जाऊँगा । इन दो अभिप्रायों के कारण ईर्ष्या चला करती है। किन आनंदधाम समस्त जीवों को शाश्वत शांति प्राप्त हो―इस भावना के करने में उन डरों की रंच भी गुंजाइश नहीं हैं। अरे ये सब हज़ारों लाखों जीव यदि आत्मा की शांति प्राप्त कर लेंगे तो मैं अशांत रह जाऊँगा, ऐसी गुंजाइश नहीं है, क्योंकि सब जीव अपने-अपने आनंद गुण के विकास से ही आनंदित हुआ करते है, कोई बाहर से नई चीज नहीं लायी जाती। मैं भी आनंदधाम अपने आपके आनंद गुण के विकास से सुखी रहा करता हूँ। बाहर से कोई चीज लेकर मैं शांत नहीं रहा करता। तब यहाँ इसका भंडार तो अनंत है। मेरा आनंद मेरे में खूब प्रकट हो, असीम प्रकट हो और वह आनंद कभी टूट जाय, ऐसा नहीं हो सकता । आत्मा के आनंद का भंडार अटूट है । मैं अनंतकाल तक उस आनंद को भोगता रहूं, कभी निरानंद हो ही नहीं सकता। सब जीवों का अपना अपना आनंद अपने-अपने आनंद भंडार से प्राप्त किया करता है तो अब ईर्ष्या की क्या बात रही कि सब जीव अगर सुखी शांत हो गए तो फिर मैं क्या करुँ ? कहाँ से शांति लाऊँ ? सब स्वयं शांति के धाम हैं, अपने आप की विशुद्धता से शांति प्राप्त करते तब मात्सर्य की गुंजाइश नहीं, बल्कि अपने आप को विशेष शांत सुखी रखने के लिए कारण पड़ते हैं। जब दूसरे जीवों के शांतिधाम स्वरूप को निरख कर वहाँ हम यह भावना करते हैं कि ये अपने आपकी अतुल शांति को प्राप्त करें, तो शांति भाव पर ही तो हमारी दृष्टि गई। और उससे फिर हम अपने आप की शांति का अभ्युदय प्राप्त करते हैं।
(143) दूसरों के कल्याण से अपनी हीनता का अनवकाश―अब दूसरी बात देखिये―जैसे लौकिक पुरूषों को यह भय रहता है कि ये लौकिक जन अगर धनिक बन गए, इज्जतवान बन गए तब फिर मुझे कौन पूछेगा? मैं तो निर्धनता और बेइज्जती के कारण साधारण रह जाऊँगा यह भय ज्ञानी को यहाँ नहीं है कि लोग यदि खूब शांत सुखी हो गए, पवित्र हो गए, परमात्मा हो गए तो वे अपने उपादान से हो गए, अन्य से तो नहीं हुए। उनके हो जाने से यहाँ हीनता आ जाय सो बात नहीं। हम भी अपने उपादान से ही, अपने आपकी अंतर्भावना से ही शांत होते हैं, सुखी होते हैं, आनंदित होते है। तो भक्ति पूजन में, पाठ के विसर्जन में, शांतिपाठ के समय और यहाँ शांतिभक्ति में सबकी शांति की भावना की जा रही है। हे प्रभो ! संपूजकों को शांति प्रदान करो। मुझे शांति प्रदान करो, ऐसा कहने के बजाय मुझ जैसे सबको साथ लेकर कहा जाता है तो उदारता और अपने व्यक्तित्व की छांट का अभाव, ये दो बातें विशेष महत्वशाली अनुभूत होती हैं। मैं भी पूजक हूँ तो मैं केवल अपने आप को कहूँ कि मुझे शांति प्रदान करो इसके बजाय जब यह कहा गया कि सब पूजकों को शांति प्रदान करो । तो इनमें मैं भी आ गया, साथ ही सबकी भी भावना है । और उसमें यह भी प्रतीति स्पष्ट होती है कि सब जीव अपने आपके उपादान से ही शांत हुआ करते हैं, इस कारण यहाँ यह भय नहीं कि और लोग शांत हो जायेंगे तो मैं क्या करूँगा ? अथवा मुझे शांति न मिल सकेगी । सर्व जीव शांत हैं, सुखी है, आनंदधाम हैं, ज्ञानमय हैं, अपने आपकी दृष्टि करके सब शांति प्राप्त करें।(144) शांतिमयता के प्रसार की भावना―हे प्रभो ! जो प्रतिपालक हैं, हमारे रक्षक हैं, धर्मरक्षक हैं उन सबको शांति प्रदान करो। जब चारों और से वातावरण शांत रहता है तो उपासक को भी शांत होने के लिए बड़ा सहयोग मिलता है। स्वयं शांति पूर्वक रहने का यह परिणाम निकलता है कि अन्य जीवों को भी शांत होने की प्रेरणा मिलती है। कोई पुरूष शांत रहता हो और दूसरा उस पर क्रोध ही करता जाय तो यह बात कब तक चलेगी? वह भी स्वयं थककर शांत हो जायगा। घर में ही देख लो-पुरूष शांत है तो स्त्री क्रुद्ध नहीं रह सकती और स्त्री शांत है पुरूष क्रुद्ध है तो वह पुरूष उस स्त्री को कितना दु:खी करेगा ? आखिर उस पुरूष को भी शांत होना पड़ेगा। शांति तो स्वयं ऐसी शांति तब तक नहीं प्राप्त हो सकती जब तक कि निज को निज पर को पर जानकर क्रोध, मान, माया, लोभ आदिक कषायों को मंद न कर दें।
(145) चारों कषायों में राग द्वेष का विभाग―इन चारों कषायों में क्रोध और मान तो द्वेष की कषायें हैं, माया ओर लोभ ये राग की कषायें हैं। क्रोध में द्वेष भरा है इस पर तो लोग झट विश्वास कर लेते हैं, द्वेष हुआ तभी तो क्रोध जगा। चाहे अपने बच्चे पर ही क्रोध जगा हो उस बच्चे की कोई चेष्टा प्रतिकूल हो जाय जो उसकी माँ को न सुहाये तो उस चेष्टा से उस माँ को द्वेष हुआ तभी तो वह क्रोध करती है। द्वेष का रंग आये बिना क्रोध नहीं उत्पन्न होता। बड़े-बड़े आचार्य जन जब किसी शिष्य को दंड देते हैं और कभी कोई क्रोध भी करते हैं तो उनके क्रोध की यद्यपि प्रशंसा की गई है कि ऐसा बड़ा पुरूष अगर किसी पर क्रोध करे तो उसका भला हो जायगा। लेकिन क्रोध तो क्रोध ही है। उसे संज्वलन कषाय कहते हैं। शिष्य की अनीति से क्रोध हो गया, द्वेष हो गया सहसा। द्वेष के जगे बिना कषाय उत्पन्न नहीं होती। मान कषाय भी द्वेष के बिना नहीं होती। मान में क्या किया जाता? किसी को छोटा समझना, तुच्छ समझना आदि किया जाता। इसमें भी किसी दूसरे आत्मा से द्वेष का भाव, घृणा का भाव उत्पन्न हुआ कि नहीं ? तो मान कषाय भी द्वेष की कषाय है। तो क्रोध से शांति नहीं आ सकती। और मायाचार, लोभ की भी यही बात है। मायाचार होता है किसी इष्ट वस्तु की प्राप्ति करने की गुनगुनाहट में। यह चीज मुझे मिल जाय। तो वह राग भाव से ही मायाचार हुआ और मायाचार के समय शांति कहाँ है ? वहाँ तो क्षोभ ही रहता है। जब लोभ कषाय जग रही हो तब भी उसके क्षोभ ही रहता है। लोभ में ये विषय भी आ गए। जब इन विषय कषायों पर विजय प्राप्त हो तब जीव को शांति प्राप्त हो सकती है।
(146) प्रतिपालकों के शांतिलाभ की अभ्यर्थना―हे प्रभो ! प्रतिपालकों को शांति प्रदान करो। यतींद्र और सामान्य मुनियों को शांति प्रदान करो। ऐसा सोचने वाले मुनि भी तो हो सकते हैं। जो मुनि अन्य मुनियों के प्रति कहें कि हमें शांति प्रदान करो तो वह समता का ही तो व्यवहार है। यदि कोई श्रावक भी ऐसा कहे कि यतींद्रों को, मुनियों को शांति प्रदान करो तो इस भावना में दोष नहीं है, गुण ही है। उन यतींद्र ओर मुनियों के प्रति आदर भाव ही जगा समझिये। बड़े के प्रति मंगल कामना करने में यह भी अंतर्निहित है कि उस विधि से अपने आपका मंगल सोचा गया है। किस प्रभु से प्रार्थना की जाती है। निर्विकार ज्ञानपुंज से। हे निर्विकार ज्ञानपुंज ! सबको शांति प्रदान करो। यह निर्विकार ज्ञानस्वरूप जिस जिसके उपयोग में आयगा, शांति प्रदान करो तो उसकी अनुभूति की भावना इन शब्दों में समझिये। समस्त जीव ज्ञानपुंज की अनुभूति किया करें जिससे शांत रहें।
(147) देश, राज्य व नगरों के शांतिलाभ की अभ्यर्थना―हे जिनेंद्र ! अर्थात् निर्विकार ज्ञानपुंज ! देश को शांति प्रदान करो। देश को शांति प्रदान करो इसका भाव यह है कि देशवासियों को, समस्त प्रजा को शांति प्रदान करो, राज्य को शांति प्रदान करो और नगरवासियों को शांति प्रदान करों। सर्वत्र शांति का ही वातावरण रहे। यह ही चाहिये है। शांत पुरूष यह भावना रखता है कि सब जगह शांति रहे, किसी भी जगह की अशांति को वह नहीं चाहता। इसमें शांति की उपासना की गई है। शांति भाव ही सर्वोत्कृष्ट अभ्यर्थनीय भाव है अर्थात चाहने वाले लोगों को सबसे अधिक प्रिय है शांति। परपदार्थो की ओर लगाव रहता है वह साक्षात् अशांति है। जब भवितव्य अच्छा होने को है विवेक जगता है, वस्तु का स्वतंत्र स्वरूप दृष्टि में आता है तब इस जीव में ऐसा उत्साह जगता है कि मेरी पर की और दृष्टि मत हो। इसका भाव यह है कि प्रत्येक पदार्थ स्वतंत्र है, मैं भी स्वतंत्र हूँ, सो सर्वत्र स्वतंत्रता ही वर्तो। सर्वत्र स्वतंत्रता बर्तो इसका प्रकट रूप यह है कि किसी भी द्रव्य के द्वारा दो द्रव्यों का किया जाना मत देखो । परतंत्रता ओर स्वतंत्रता का मर्म यहाँ जाना जाता है। एक द्रव्य दूसरें द्रव्य का कुछ कर देता है इस भावना में परतंत्रता का आह्वान है और कोई भी द्रव्य किसी अन्य द्रव्य का कुछ कर नहीं सकता। सब अपने आपमें अपना परिणमन मात्र करते हैं। इसमें है स्वतंत्रता का स्वागत। स्वातंत्र्य ही लोक में वर्तो अर्थात सब अपने अपने स्वरूप में रहें, किसी भी बाह्य दृष्टि में न आऊं, किसी भी पर से स्नेह न लगाऊँ, उससे सुख की आशा न करुँ, बस यही शांति प्राप्त करने का मूल उपाय है।
(148) गुण विनाशक कषाय ज्वालायें―इन कषायों को आचार्यों ने ज्वाला की उपमा दी है। जैसे अग्नि की ज्वाला में जो ईंधन आयगा वह जल जायगा इसी प्रकार इन कषायों की ज्वाला में आत्मा के वे सारे गुण जल-भुन रहे हैं। ज्ञान का, शांति का, आनंद का निरंतर अनुभव करते रहना, यह इस जीव में सहज स्वभाव पड़ा हुआ है, किंतु कर्म विपाक ऐसा है कि अपने आपके गुणों का, अपने आपकी शक्ति का ये जीव अनुभव नहीं कर सकते। समस्त आपत्तियों की जड़ है एक अज्ञान भाव। विडंबना तो इतनी बड़ी लगी है हम आपको कि नाना तरह के देहों में फँसते रहें और दु:खी होते रहें। लोग इस देह को ही देखकर खुश होते हैं-मैं कितना अच्छा हूँ, कितना स्वस्थ हूँ, लेकिन इस शरीर का बंधन तो इस जीव पर विपदा है। तब दो द्रव्य हैं जीव और शरीर । और कल्पना करो कि शरीर मेरा रहता ही नहीं, मैं केवल जीव ही जीव रहूं तब तो सारा लाभ ही लाभ है। सब प्रकार के झगड़ों से मैं निवृत्तत्तरहता ,किंतु ऐसी इच्छा ज्ञान बिना नहीं हो सकती।
(149) मरण समय में समाधिभाव होने से ही कल्याणलाभ―किसी को मरण के समय भी यह भावना जग जाय कि छूट रहा है शरीर तो छूटने दो, मैं तो इससे निराला हूँ ही । यह मैं अपने आपमें हूँ, मैं कहाँ छूट रहा हूँ ? जैसे कोई पुराने मकान को बदल कर नये मकान में आये तो पुरूष कहाँ मरा ? मकान ही बदल गया, यों ही एक शरीर छोड़कर दूसरे शरीर में मैं पहुंच गया, और उसमें भी न पहुंचता तो और भी अधिक अच्छा था, लेकिन दूसरे शरीर का भी ध्यान नहीं रखता समाधिमरण करने वाला कि पुराने शरीर को छोड़कर नये शरीर में जा रहा हूँ तो मुझे क्या दु:ख है ? यह समाधि का नमूना नहीं है। यह तो समाधिभाव करने में थक गया वह तो उसका मन प्रसन्न करने की यह पद्धति है कि देख―तेरा पुराना शरीर छूटेगा और दूसरा नया शरीर मिलेगा यह तो तेरे लिए अच्छी बात है। यह मृत्यु तो तेरा उपकारी है जो इस जेलखाने से तुझे छुटा रहा है, यह सब समझाने की बात है। समाधिभाव का लक्ष्य यह है कि सब कुछ मेरा मेरे पास है, कुछ विकल्प न करें, सर्व साम्य भाव रखें, समाधिभाव तो उसका नाम है। तो मरण समय भी यदि थोड़ा इस और उपयोग जाय अपने आत्मा के एकत्व की ओर तो शांति हो जायगी।
(150) मरणसमय में निर्मोह होने का परम विवेक―प्राय: करके तो मरण बिगड़ने के बड़े साधन बने हुए हैं। पुरूष मरण कर रहा है तो स्त्री आकर रोवेगी, पुत्र आकर रोवेंगे ओर उन पुत्रों की भी क्या खता, यह मरने वाला भी चाह रहा है कि मरते समय कोई दिख तो जाय। उस लड़की को बुला दो, दामाद को खबर दे दो, उन्हें देख लें, उनको देखकर मेरी छाती तो शांत हो जायगी। अरे मिनट दो मिनट का खेल है, मरण हो रहा है, उस ही काल में यदि निर्मोहता का भाव लावे तो उसके आत्मा का आगे के लिए कल्याण होगा। दो-चार मिनट भी अगर नहीं छोड़ सकते, वही पुरिया बुनते रहे जो जिंदगी भर बुनी तो यह कोई बुद्धिमानी है क्या ? उस समाधिभाव को प्राप्त करने के लिए जीवन भर समाधि का अभ्यास करना है। सबसे निराला ज्ञानमात्र यह मैं पूरा का पूरा हूँ। इससे बाहर मेरा कुछ नहीं। बाहर की कोई चीज इसमें आती नहीं । यह मैं अमूर्त ज्ञानमात्र हूँ ओर यह है निर्विकार। तो ज्ञानपुंज की भावना करने से ही शांति मिली ना। तो प्रकट जो भगवान हैं वे भी निर्विकार ज्ञानपुंज हैं इस कारण उनकी सेवा पूजा करके हम शांति प्राप्त करने की अभ्यर्थना किया करते हैं।
(151) हितार्थ आत्मस्वरूप के परिचय की अनिवार्यता―हम आप सबकी एक ही इच्छा है―क्या, कि दु:ख न हो और सुख हो। लेकिन क्या कभी यह भी सोचा है कि जो चाह रहा है कि दु:ख न हो ओर सुख हो यह है क्या जो चाह रहा है उसका स्वरूप जाने बिना न सुख प्राप्त हो सकेगा ओर न दु:ख से छुटकारा ही मिल सकेगा। सर्वप्रथम बात यह है कि हमें अपने कल्याण के लिए जरूर सोचना चाहिए। हम आप आज मनुष्य भव में पैदा हुए है तो यह अवश्य सोचना चाहिए कि हमारा हित कैसे हो? अनेक प्रकार के कीट-पतिंगा पशु-पक्षी आदिक को देखो जो इस संसार में रूलते फिरते है वे अपने हित का कहाँ निर्णय कर सकते हैं? हम आप यह निर्णय करें कि मैं क्या हूँ। मैं जानने देखने वाला चैतन्यमात्र एक आत्मतत्त्व हूँ। (यह अपने आपके स्वरूप के बारे में बात कही जा रही है) तो अपने आप का निर्णय सर्वप्रथम हो कि मैं सर्व से निराला जानन देखनहार एक आत्मतत्व हूँ। मेरे में आनंद का सद्भाव है, मैं अपने आप आनंद पाता रहता हूँ। मैं परिजनों की वजह से या अन्य किसी भी वजह से सुखी होता रहता हूँ ऐसा सोचना भ्रम है। मेरे में आनंद स्वरूप है, मेरे में ज्ञानस्वरूप है इस कारण मैं आनंदमय रहता हूँ। जब हमने आँखें खोली और जाना कि यह चीज है, तो ऐसा जानना, यह तो एक हमारी खराबी है। हममें रागादिक विकार पड़े हुए हैं, इस कारण हम इन इंद्रियों द्वारा ही देख जान पाते है। जैसे इन आँखों से देखकर जाना कि यह भींत है तो यह तो हम में विकार होने के कारण इंद्रियज ज्ञान हुआ। यदि हममें ये रागादिक विकार न होते तो इन इंद्रियों द्वारा देखकर न जानना पड़ता। सर्व ओर का ज्ञान स्वत: ही पूर्ण रूपेण झलक जाता।
(152) स्वयं की ज्ञानानंदस्वरूपता―वेदांत की जागदीशी की कथा में एक दृष्टांत दिया है कि एक पुरूष एक बार किसी गुरु के पास गया और उससे बोला―महाराज मुझे कुछ ज्ञान दीजिए। मैं तो कुछ नहीं हूँ। सो वह गुरु बोला―हे भक्त ! देखो अमुक नदी में अमुक जगह एक मगर रहता है उसके पास जावो। वह तुम्हें ज्ञान देगा……अच्छा महाराज। जब वह भक्त पहुंचा तो मगर से कहा―हे मगरराज ! आप मुझे ज्ञान दीजिए। तो मगर बोला―अच्छा भाई ठहरो ! मुझे बड़ी प्यास लग रही है आपके हाथ में लोटा डोर है। आप उस कुवें से एक लोटा जल भर लावो, हम पहिले अपनी प्यास मिटा लें तब तुम्हें ज्ञान दें। तो वह भक्त बोला―हे मगरराज ! हम तो तुम्हें ज्ञानी समझ रहे थे, पर तुम तो निरे मूर्ख दिखते हो। अरे तुम जल से डूबे हुए हो, फिर भी कहते हो कि मुझे एक लोटा जल कुवें से लाकर पिला दो तो मगर बोला―हे भक्त ! तू भी तो निरा मूर्ख है। अरे तू तो स्वयं ज्ञानमय है, फिर भी कहता है कि मुझे ज्ञान दे दो। तो इसी प्रकार से यह जीव है तो स्वयं ज्ञानमय, पर उसका पता न होने से इन इंद्रियों द्वारा जान रहा है। और इस ज्ञानस्वभाव से कुछ भी लाभ नहीं ले पा रहा है।
(153) आकिंचन आत्मतत्व की संसार में दशा-देखिये न साथ में कुछ लाये थे, न साथ में कुछ ले जायेंगे, केवल जो धर्म किया अथवा जो पाप किया उसके संस्कार साथ ले जायेंगे। तो अपने आपके इस परमात्म स्वरूप की सुध खोकर इस जीव को लाभ क्या मिल जायगा, सो तो बताओ? एक कथानक है कि एक बार एक चोर किसी राजा का अश्व (घोड़ा) अश्वशाला से चुरा लाया और उसे बेचने के लिए एक बाजार में लाकर खड़ा कर दिया। ग्राहक आये, पूछा-इसका दाम क्या है? तो था तो करीब 300) का, पर लोग यह न जान सकें कि यह घोड़ा चोरी का है इसलिए उसे बताया 900) । अब 900) का कौन खरीदे? कई ग्राहक आये और लौट गए। एक बार किसी पुराने चोर ने जो कि चोरी करने में कुशल था, आकर पूछा-इस घोड़े की कीमत क्या है? तो वह बोला 900)। उसकी इस आवाज से ही वह पुराना कुशल चोर समझ गया कि इसका यह घोड़ा चोरी का है। ग्राहक ने पूछा-इसमें ऐसी कौन सी कला है जो इतनी कीमत है ? सो बताया कि इसकी चाल अच्छी है। वह पुराना चोर हाथ में एक मिट्टी का हुक्का लिए था वह तो पकड़ा दिया घोड़ा वाले को और स्वयं घोड़े पर बैठकर चाल देखने लगा। और चाल ही देखना क्या, वह उस घोड़े को उड़ा ले गया। अब बाद में वे पहिले वाले ग्राहक लोग आकर पूछते हैं कि भाई तुम्हारा घोड़ा बिक गया क्या ? तो वह बोला-हाँ बिक गया। कितने में बिका? जितने में लाये थे उतने में बिक गया। और मुनाफे में क्या मिला ? मुनाफे में मिला यह चार आने का मिट्टी का हुक्का। तो ऐसे ही समझो कि हम आप यहाँ पर जो कुछ भी रागद्वेष मोहादिक के पाप संस्कार कर रहे हैं उनके फल में मिलेगा क्या ? बस यही पाप का हुक्का।
(154) शाश्वत आत्मतत्व की सुध―उद्धार के प्रसंग में यह तो सबको मानना ही पड़ेगा कि मैं आत्मा हूँ, अनादि से हूँ और अनंत काल तक रहूंगा। एक ऐसा निर्णय बना लीजिए कि जो भी सत् है वह अनादि से है और अनंत काल तक रहेगा। ऐसा कोई भी सत् नहीं है जिसका कभी नाश होता हो। हाँ चाहे उस एक-एक अणु की शक्ल बदल जाय, पर उसका मूलत: नाश कभी नहीं होता । तो आप सोचिये―अपने आपके स्वसम्वेदन से जो ज्ञान बन रहा है कि मैं खाता हूँ, जाता हूँ, मुझे शांति चाहिए, मुझे विश्राम चाहिये आदि जिसकी आवाज निकलती है, जिसे मैं ‘मैं’ कहकर पुकरता हूँ वह कोई पदार्थ है कि नहीं ? अरे नहीं है तो यह तो सबसे अच्छी बात है। जब मैं हूँ ही नहीं तो मेरे लिये सुख दु:ख क्या? मैं हूँ तो कभी समूल मेरा नाश नहीं हो सकता। मैं मरूंगा, इस देह को छोडूंगा, पर मेरा सत् सदा रहेगा। मैं अन्य भवों में भी जाऊँगा, मुझे अनेक देह भी धारण करने होंगे, फिर भी मैं सत् सदा रहूंगा। लोग तो अपने इस 10-20-50 अथवा 100 वर्ष के जीवन के लिए ही अनेक प्रकार के आराम की बातें सोचते हैं, पर उन्हें यह पता नहीं कि इस थोड़े से जीवन को मौज में रखने से क्या फायदा? अभी तो इस जीवन के बाद न जाने कितना अनंतकाल पड़ा हुआ है। अरे इस 10-20-50 वर्ष के जीवन को ही सब कुछ न समझ लीजिए, इसके बाद अनंतकाल के लिए मेरा क्या हाल होगा, इस पर ध्यान दीजिये।
(155) आत्मध्यान, प्रभुभक्ति ओर सत्संग की उपयोगिता―शांतिपथ में बढ़ने के लिये आत्मध्यान, प्रभुभक्ति और सत्संग इन तीन बातों पर विशेष ध्यान रखना होगा। प्रभु जो वीतराग कृतकृत्य व सर्वज्ञ हैं, ऐसा जो परमात्म तत्त्व है उसकी भक्ति करना और अपने स्वरूप का ज्ञान करना कि यह शरीर, ये राग द्वेषादिक कर्म मैं नहीं हूँ, फिर मैं किस प्रकार का हुआ करता हूँ, उस प्रकार की स्थिति का अंदाज करें, अपने आपके सहज स्वरूप का ध्यान करें, अपनी बात सुहाये। जो शरीर, भोग और विषयों से विरक्त हैं ऐसे कोई गुरूजन मिलें तो उनका सत्संग करें। जब ये तीन बातें चलती रहें तो हम आप अवश्य ही मुक्ति के निकट पहुंच जायेंगे। और अगर विषय कषायों में ही रत रहे, परिग्रहों में ही रत रहें, तो उससे गुजारा न चलेगा। अपना प्रोग्राम केवल मुक्ति प्राप्त करने का बनायें। मुझे तो सम्यक्त्व प्राप्त करना है, मुझे तो सबसे हटकर केवल एक ज्ञानस्वरूप का ध्यान करना है, जिससे मुझे शीघ्र ही मुक्ति प्राप्त हो। साथ यही देता है। साथ ही यह भाव भी मन में लायें कि जब तक मेरा जीवन है तब तक मैं इन विषय कषायों में पड़कर कहीं बरबाद न हो जाऊँ, इसके लिए परोपकार, दान, पुण्य आदि के कार्य करें, दीन दु:खियों की मदद करें। यदि हम गुरूजनों की सेवा, दीन दु:खियों की सेवा, धार्मिक कार्यो में सहयोग देने आदि के काम करेंगे तो हमारा दिल अच्छा रहेगा ओर पंचेंद्रिय के विषय (स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, श्रोत्र) आदिक के कार्यो में पड़कर तो पछतावा ही हाथ लगेगा। तो उन व्यावहारिक धार्मिक कार्यों को करते हुए भी अपने आपके स्वरूप का ध्यान रहे, तो समझो कि हमारा यह नरभव पाना सफल है, अन्यथा पशु पक्षियों की ही भांति अपना यह जीवन समझिये। मनुष्यों में और इन पशु-पक्षियों में अंतर ही क्या है? अंतर यही है कि वे पशु-पक्षी अपने हित अहित का कुछ विवेक नहीं कर सकते हैं और ये हम आप मनुष्य अपने हित अहित का भली प्रकार विवेक कर सकते हैं और सर्व प्रकार के संकटों से सदा के लिए छुटकारा प्राप्त कर सकते है।