वर्णीजी-प्रवचन:शांतिभक्ति - श्लोक 17
From जैनकोष
प्रध्वस्तघातिकर्माण: केवलज्ञानभास्करा:।कुर्वंतु जगतां शांतिं वृषभाद्या जिनेश्वरा: ।।17।।
(176) परमात्म स्वरूप के स्मरण में शांतिलाभ की शक्यता―परमात्माओं में ऐसा भेद नहीं है कि मैं अमुक नाम के भगवान की उपासना करुंगा तो दु:ख दूर होंगे, अमुक भगवान की उपासना करुंगा तो शांति प्राप्त होगी। अरे परमात्म स्वरूप तो एक ही रूप है। शुद्ध उपयोग है, ज्ञानपुंज है, इसके ध्यान से विघ्न दूर होते है । शांति का लाभ होता है, पर उपासना के मार्ग में चूंकि अद्वैत उपासना में समग्र बीत नहीं पाता तो द्वैत उपासना करना होती है, अर्थात भगवान का नाम से लेकर उपासना करते है। भगवान का यद्यपि नाम नहीं होता, जो नाम है वह भगवान नहीं, जो भगवान है उसका नाम नहीं, लेकिन जिस नाम वाले महापुरूष ने रागद्वेष को जीतकर, कर्मों पर विजय प्राप्त कर अपने आपमें वीतरागता और सर्वज्ञता का अभ्युदय पाया है, उस पूर्व के नाम को लेकर व्यवहार में कहा जाता है। तो इस प्रसंग में शांतिनाथ जिनेंद्र के नाम से स्तवन चल रहा था लेकिन शांतिनाथ जिनेंद्र ही शांति के कर्ता हैं, ऐसा नियम नहीं, किंतु सभी परमात्म स्वरूप के स्मरण शांति के कर्ता हैं। इस कारण इस छंद में वृषभादिक समस्त जिनेश्वरों का स्मरण किया गया है। ऋषभदेव इस कर्म भूमि के आदि में हुए थे। इसका भाव सभी मजहब वाले किसी न किसी रूप में लेते ही हैं, लिए बिना उनकी पूर्ति नहीं बनती। कोई ब्रह्मा के रूप में स्मरण करते हैं, कोई कैलाशपति के रूप में स्मरण करते हैं, कोई एक सीधा ही ऋषभ का अवतार मानकर स्मरण करते हैं। कोई आदिम बाबा कहकर स्मरण करते हैं। प्रयोजन यह है कि जब भोग भूमि मिटकर कर्म भूमि लगी थी, उस समय जो प्रजा के लिए आधारभूत थे ऐसे ऋषभदेव उस युग में प्रथम तीर्थंकर हुए, जिनका समय आज से लाख करोड़ वर्ष नहीं, बल्कि अनगिनते वर्ष हो गए। उनसे आदि लेकर महावीर पर्यंत चतुर्विंशति जिनेश्वर समस्त जगत को शांति प्रदान करें।
(177) वृषभादिक जिनेश्वरों से तीनों लोकों की शांति की अभ्यर्थना –जिन्होंने घातिया कर्मो को नष्ट कर दिया है वे जिनेश्वर तीनों लोकों को शांति प्रदान करें। इस जीव के साथ आठ प्रकार के कर्म लगे हुए हैं-ज्ञानावरण-जो ज्ञान को प्रकट न होने दे-सो देख लीजिए , है ना , यह हालत आज? दर्शनावरण –जो दर्शनगुण को प्रकट न होने दे। वेदनीय-जो साता और असाता के अनुभव का कारण बने। मोहनीय-जो विपरीत श्रद्धा, बेहोशी लाने का कारण हो। आयुकर्म-जिसके उदय से जीव को शरीर में रुका रहना पड़े। नामकर्म-जिसके उदय से एक भव छोड़कर दूसरे भव में आये हुए जीव के शरीर की स रचनायें बनती फिरें, जिसके उदय से रचनायें चलती रहें। गोत्रकर्म- जिसके उदय से जीव उच्च नीच कुल वाला कहलाये। और अंतराय-जिसके उदय से इस जीव को विघ्न आया करें। इन आठ कर्मों में से घातिया कर्म चार हैं-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय। इनका जो ध्वंस करते हैं वे अरहंत जिनेंद्र हैं। केवल –ज्ञानसूर्य जिनके प्रकट हुआ है ऐसा निर्मल परिपूर्ण ज्ञान, जिस ज्ञान के द्वारा समस्त लोकालोक त्रिकालवर्ती समस्त पदार्थ एक साथ जान रहे हैं। ज्ञान का काम है जब स्वच्छता होती है तो ऐसा ही परिपूर्ण ज्ञान प्रकट होता है, वे उससे कुछ अपना स्वार्थ नहीं साध सकते, क्योंकि उनके रागद्वेष ही नहीं रहा। तो यों केवलज्ञान से जिसने समस्त लोकालोक के त्रिकालवर्ती समस्त पदार्थो को स्पष्ट जाना है, ऐसे वृषभ को आदि लेकर महावीर पर्यंत चतुर्विंशति तीर्थंकर समस्त जीवों को शांति प्रदान करें। परमात्मा के स्मरण के काल में मुख्य लक्ष्य निर्विकार सहज स्वरूप की ही उपासना है, ऐसा अपना निर्णय करे। भक्ति करें निर्विकार ज्ञानस्वरूप की। धन्य है वह ज्ञान जो कि निर्विघ्न है और शांति का कारण है। समस्त जीवों को प्रभुस्वरूप का स्मरण रहे, ज्ञान की उपासना रहे, जिससे कि वे सभी जीव शांतिलाभ प्राप्त करें।
(178) शांतिभक्ति कीअंचलिका―इच्छामि भंते शांतिभक्ति का उस्सग्गो कओ तस्सालोचेउं पंचमहाकल्लाण समण्णाणं अट्ठमहापाडिहेरसहियाणं चउतीसातिसयविसेसजुत्ताणं वत्तीसदेविंदमणिसयमउडमत्थयमहियाणं थुइसयसहस्सणिम्मलाणं उसहाइवीरपच्छिममंगलमहापुरिसाणं णिच्चकालं अच्चेमि पूजेमि वंदामि णमस्सामि दुक्खक्खओ कमक्खओ वोहिलाहो सुगइगमणं समाहिमरणं जिणगुणसंपत्ति होउ मज्झं।
हे भगवन् ! मैंने जो शांति भक्ति का कायोत्सर्ग किया उसकी आलोचना करने के लिये मैं इच्छा करता हूँ। मैं पंच महाकल्याणों से संपन्न , आठ महाप्रातिहार्यो से सहित, चौंतीस अतिशय विशेषों से युक्त, बत्तीस देवेंद्रों के मणिमय मुकुट वाले मस्तक से पूजित, लाखों स्तवनों के निलय ऐसे वृषभ को आदि लेकर महावीर पर्यंत मंगलमय महापुरूषों को नित्य काल अर्चता हूँ, पूजता हूँ, वंदता हूँ, नमस्कार करता हूँ। हे प्रभो ! मेरे दु:खों का क्षय हो, कर्मो का क्षय हो, बोधि (रत्नत्रय) का लाभ हो, सुगति गमन हो, समाधिमरण हो और जिनेंद्र गुणसंपत्ति प्राप्त हो।
इस शांतिभक्ति में प्रथम कायोत्सर्ग किया था और काय से ममत्व त्यागने रूप कायोत्सर्ग करने के लिये ही भक्ति पाठ किया है। सो उस प्रसंग में जो दोष लगे हैं उसकी आलोचना करने के लिये यह अंचलिका पढ़ी गई है। ।।शांतिभक्ति प्रवचन समाप्त।।