वर्णीजी-प्रवचन:शांतिभक्ति - श्लोक 9
From जैनकोष
शांतिजिनं शशिनिर्मलवक्त्रं, शीलगुणव्रतसंयमपात्रम्।अष्टशतार्चितलक्षणगात्रं नौमि जिनोत्तममंबुजनेत्रं।।9।।
(112) अशांत आत्माओं के संग शांति का अलाभ―संसार का प्रत्येक जीव शांति चाहता है और प्रयत्न भी शांति के लिए ही करता है, किंतु यह नहीं सोचता कि हम शांति का प्रयत्न ऐसा करें जिसका कि संबंध शांत आत्माओं से हो । इस जीव ने अपना संबंध रखा अशांत आत्माओं से। परिजन, मित्रजन, नाते रिश्तेदारों आदि के समागमों से अपना संबंध बनाकर शांति प्राप्त हो सके, ऐसा हो नहीं सकता । तब सोचिये कि शांत कौन है ? तो पूर्ण शांत हैं वीतराग सर्वज्ञ अरहंतदेव, जिनको संसार में करने के लिए कुछ भी काम नहीं रहा। संसारी जीव तो यह मानते हैं कि मुझे अब अमुक काम पड़ा है करने को, बस इसीलिए वे अशांत हैं, कर कुछ नहीं सकते, पर मानते हैं कि मुझे अमुक काम करने को पड़ा है, बस यही सर्व अशांतियों का मूल है। यदि यह जीव पर में कुछ कर भी लेता और कल्पनायें भी करता जाता तब भी कुछ गनीमत थी, शांत होने का कुछ अवकाश निकल ही आता, किंतु बाह्य में अपना संबंध बना लेने के कारण इस जीव को त्रिकाल में भी शांति नहीं प्राप्त हो सकती। तो जब बाह्य में कुछ संबंध ही नहीं और बाह्य की कल्पना करने पर तुले हुए हैं, एक अपनी सीमा बना ली है कि यह ही मेरा वैभव है, ये ही मेरे परिजन है, बस उनके ही विकल्प में पड़े हुए हैं, उनमें ही चैन मानते हैं। इंद्रिय विषयों का साधन बना रखा है तो इन विषयों की प्रीति में और स्वच्छंद मन के प्रवर्तनों में कभी भी सुख शांति मिल नहीं सकती।(113) शांत आत्माओं के संग में शांति का लाभ―हम आप जिन अरहंत प्रभु को पूजते हैं, जिन तीर्थंकरों की भक्ति करते हैं उनमें है क्या बात ? वे शांत हैं, संसार के संकटों से छूट चुके हैं। उनको अब कोई कार्य करने को नहीं रहा, उनकी जन्म मरण की परंपरा भी समाप्त हो गयी, क्षुधा तृषा आदिक के समस्त रोग मिट गए, परमौदारिक शरीर हो गया और निकट काल में ही वे शरीर रहित सिद्ध भगवान बनेंगे। जो अब भी सिद्ध हैं उनकी पूर्व अरहंत दशा को देखें। तो जो वीतराग हैं, सर्वज्ञ हैं, निर्विकार हैं, वे ही आत्मा शांत कहलाते हैं। ऐसे निर्विकल्प शांत आत्माओं का संपर्क हो तो वहाँ शांति प्राप्त होगी। उन शांत आत्माओं में मुख्य हैं अरहंतदेव। इस शांतिभक्ति में शांतिनाथ स्तवन की बात चल रही है।(114) दिव्योपदेशी संयममूर्ति शांतिजिनेंद्र को नमस्कार―हे शांतिनाथ जिनेंद्र ! आपका वक्त्र शशि की तरह निर्मल है । मुख और वक्त्र में फर्क होता है। हालांकि मुख का ही पर्यायवाची शब्द है वक्त्र, पर इन दोनों में फर्क है। मुख को ही वक्त्र कहते हैं, लपन कहते हैं, आस्य कहते हैं, लेकिन आस्य तो उस मुख को कहते हैं जिससे लार बहती है, लपन उस मुख को कहते है जो मुख अधिक लोलुपी होता है और बकवाद अधिक करता है और वक्त्र उसे कहते हैं जिससे वाणी बोली जाती है। तो भगवान के मुख की तारीफ तो इसी में है कि उनका दिव्य उपदेश होता है। तो शशि की तरह निर्मल है वक्त्र जिनका, ऐसे हे शांतिजिनेंद्र ! आपको नमस्कार हो । हे प्रभो ! आप शील, गुण, व्रत, नियम के पात्र हैं अर्थात जिनमें शीलव्रत आदिक लबालब भरे हुए हैं। जब आत्मा का उपयोग बाह्य से हटकर आत्मा में ही लगता है तब समझिये कि संयम से भर गये, व्रत शील आदिक से परिपूर्ण हो गए।(115) जीव की द्विविध कार्यपद्धति―जीव के दो ही तो काम चल रहे है-या तो अपने स्वरूप से चिगकर बाह्य पदार्थो में उपयोग लगा रहा हो या बाह्य से चित्त हटाकर अपने आपके ज्ञानघन आनंदमय आत्मतत्व में लगा रहा हो। इन दो कामो के सिवाय और कुछ तो नहीं कर रहा यह जीव। जहाँ बाह्य की और दृष्टि है वह है इस जीव का असंयम और जहाँ अपने आपके स्वरूप में रमण् की बात है, वह है इसका संयम। तो हे प्रभो ! आप व्रत, गुण, शील, संयम आदिक से परिपूर्ण हो। प्रभु की भक्ति करके दो काम करने हैं-एक तो अपने पाप कर्मो पर असंयम भाव पर खेद करना है और एक अपना जो ज्ञानानंद स्वरूप है उसमें प्रीति लगाना है। भगवान की भक्ति के ये दो ही प्रयोजन है। इनके अलावा यदि कोई तीसरा प्रयोजन सोचते हैं तो वह उनका व्यर्थ का प्रयोजन है। तो प्रभु जो कि निर्विकार हैं उनका स्वरूप देखकर अपने आपके विकार पर खेद होना और अपना जो निर्विकार स्वरूप है उसमें रूचि जगना, यदि ये दो बातें बन सकती है तब तो उसकी भक्ति भक्ति है, और इन दो बातों में से किसी का भी संबंध नहीं है तो वह दिल बहलावा है अथवा एक तरह का व्यापार समझा है।(116) प्रभु से लौकिक लाभ की याचना की व्यर्थता – जो पुरूष सांसारिक सुखों की प्रार्थना करने के लिए प्रभु चरणों के निकट आया करते हैं उन्होंने क्या पाया प्रभु से ? अरे ये लौकिक समागम तो पुण्य के प्रताप हैं, सो दान कर लिया, कुछ परोपकार कर दिया, जरा –जरा सी बातों में ये लौकिक सुख मिल जाया करते हैं, लेकिन सदा के लिए आत्मा को शांति प्राप्त हो ऐसी बात मिलना दुर्लभ है। लौकिक समागम तो अनेक पाये, धन-वैभव, स्वर्ण, राजपाट ये अनेक बार प्राप्त किये, लेकिन मैं क्या हूँ, अपने स्वरूप की दृष्टि होना और अपने में रम करके संतृप्त रहना-ये बातें इस जीव ने अब तक नहीं प्राप्त कीं। तो प्रभुभक्ति करके दो ही प्रयोजन हमको सिद्ध करना है, अपनी व्यर्थ की करतूत पर खेद प्रकट करना है। कहाँ-कहाँ राग लगा रखा है, जड़ में चेतन में और राग के फल में मिलता कुछ नहीं है। केवल एक समय गंवाया जा रहा है, अपने चित्त को कलुषित किया जा रहा है तो उन रागों पर खेद करना चाहिए। देह में राग पहुँचे वह भी बुरा, पुत्र परिवार में राग पहुँचे वह भी बुरा। एक गृहस्थी में रहकर एक जीवन गुजारने के लिए धर्मपूर्वक हमारा जीवन गुजरें, इस प्रयोजन के लिए आपसी व्यवहार है। जो कुछ अनुराग रहता है घर में वह भी धर्मसाधन के लक्ष्य से रहता है, न कि विषय साधन के लक्ष्य से। जिसको सम्यक्त्व हुआ, ज्ञान जगा, उसका लक्ष्य ही बदल गया। मेरा जीवन धर्म के लिए है। मैं आत्मा को जानूँ, आत्मा में रहूं, इसके लिए ही मेरा जीवन है, यह एक लक्ष्य उसका बन गया। आत्मा का स्वरूप क्या है, उस पर निगाह पहुँचे और आत्मस्वरूप से विपरीत दृष्टि बनने पर तो खेद होना चाहिए। तो ये दो बातें आना चाहिए प्रभुभक्ति करके। (117) शांतिप्रभु की अष्टशतार्चितलक्षणगात्रता―यहाँ शांतिभक्ति में, शांतिनाथ भगवान के स्तवन में कह रहे हैं कि हे प्रभो ! आप 1008 लक्षणकरकेशोभित शरीर वाले हो। शरीर की रचना तो कर्मो के उदय से ही होती है। खोटा शरीर मिलेगा तो पापकर्म के उदय से ही मिलेगा और पवित्र शरीर मिलेगा तो पुण्य कर्म के उदय से मिलेगा । ये शरीर के सभी लक्षण होना पुण्य पाप के चिन्ह हैं। जैसे किसी का शरीर रूखा अटपटा, विसंस्थुल अनेक प्रकार का विडंबना रूप होता है तो उसकी जिंदगी भी आप देखेंगे प्राय: विडंबना रूप होती है। प्रभु में पुण्य इतना विशाल होता है कि जिसकी तुलना के लिए कोई दूसरा संसारी नहीं मिलता । उनके देह में 1008 शुभ लक्षणों का होना यह कोई विस्मय की बात नहीं है। हे जिनेंद्र देव, कमल की तरह जिनके नेत्र हैं, अर्द्धमीलित स्थिर आत्मीय आनंद की झलक देने वाले नेत्रों से सुशोभित ऐसे हे शांति प्रभो! आपको मैं नमस्कार करता हूँ।
(118) प्रभुभक्ति की क्लेशविनाशोपायरूपता―समस्त क्लेशों को मेटने का उपाय प्रभुभक्ति है। प्रभुभक्ति से सारे क्लेश मिट जाते है, लेकिन प्रभुभक्ति हो, प्रभु के यथार्थ स्वरूप को निरखकर। प्रभु का यथार्थ स्वरूप जाना जाता है जितेंद्रिय ओर क्षीणमोह तथा सर्वज्ञ अवस्थाओं से। प्रभु जब मुनि परमेष्ठी थे तब उनकी जितेंद्रियता पूर्ण थी। उस आत्मा ने अपने आपके स्वरूप को इंद्रियों से व विषयों से निराला और तर्क वितर्क विचार विषयानुभव से निराला केवल ज्ञानमात्र ही निरखा। उस ज्ञानस्वरूप अपने आत्मा को लख-लखकर जो-जो तृप्ति प्राप्त की उसके प्रताप से उनकी कषायें, उनका मोह सदा के लिए समाप्त हो गया। जहाँ मोह दूर हुआ कि सर्वज्ञता प्रकट हो जाती है। जैसे राख में दबी हुई अग्नि यद्यपि वह अग्नि भीतर ही भीतर अपने तेज प्रताप को लिए हुए है तथा ऊपर से राख पड़ी हुई है तो उसका रूप व्यक्त नहीं हो पाता है। इसी तरह समझिये कि आप कर्म विकार राग द्वेष की राख से दबे हुए हैं, भीतर में तो वही प्रताप है जो प्रभु ने प्रकट किया, लेकिन वह प्रताप मेरा मेरे विकार से दबा हुआ है, और विकार भी बिल्कुल व्यर्थ के। भव-भव में मोह किया, भव भव में रागद्वेष किया, पर नफा क्या मिला ? बल्कि सारा टोटा ही टोटा रहा। मोह करक जन्म मरण की जो परंपरा बाँध ली उसका फल अब भी भा भोग रहा है।(119) वर्तमान अल्प जीवन में सहज परमात्म तत्त्व की सुध का मुख्य कर्तव्य- अब इस भव में भी हम अपनी कुछ सुध न रखकर राग द्वेष मोह आदिक विकारों में लग रहे हैं तो उसका फल क्या होगा-इस पर तो विचार करों। जिंदगी तो मिटेगी निकट काल में ही। आजकल तो मनुष्यों की उम्र ही कितनी है? पहिले लाखों करोड़ों वर्ष तो एक मामूली सी बात थी। जहाँ पल्य की आयु बताई गई वहाँ लाख करोड़ वर्ष तो कुछ चीज ही नहीं है। आजकल तो निकट काल में ही सब कुछ छूट जाने वाला है, लेकिन यहाँ जो मोह रागद्वेष किया, जो बाह्य पदार्थो में उपयोग लगाया उसके फल में जन्ममरण की संतति चलती रहेगी। यहां से मरण करने के बाद न जाने क्या बनना पड़ेगा और न जाने किस तरह के दु:ख भोगने पड़ेंगे ? यह संसार बहुत बड़ा गहन वन है। इसका विस्तार असंख्याते योजन का है। इतने क्षेत्र में कहीं का कहीं जन्म लेने से लाभ क्या मिलेगा ?
(120) प्रभु की जितेंद्रियता, निर्विकल्पता व सर्वज्ञता- हे प्रभो! आप तो जितेंद्रिय हो, जितेंद्रियता एक बहुत बड़ा तप है। ये संसारी जीव तो इन इंद्रिय विषयों में ही रत रहते हैं। एकेंद्रिय से लेकर पंचेंद्रिय तक ये समस्त संसारी प्राणी इन विषयों के आधीन हैं, और दु:ख भी इतना ही है। इन विषयों को जीतना ओर विषय रहित ज्ञानमात्र निज स्वरूप पर दृष्टि रखना, अन्य सबकी उपेक्षा करना और इस ही स्थिति में तृप्त रहना, कोई इच्छा उत्पन्न न हो सके, किसी भी असार बाह्य पदार्थ के संबंध में कोई आकांक्षा न जगे। यह तो एक महातप है। इस जितेंद्रियता के महान तप के प्रभाव से उन प्रभु ने निर्विकल्प समाधि प्राप्त की। अब जिस पदार्थ को जाना उस पदार्थ के जानने में तो थे ही, साथ ही सकलार्थ ज्ञान हो गया। तो ऐसा सर्वज्ञपना पाना, यह उनकी निर्मोहता का प्रताप है।(121) यथार्थ ज्ञान और विरक्ति का कर्तव्य-बात बिल्कुल स्पष्ट है। जिन्हें भी शांति चाहिए उन्हें इन रागद्वेष मोहादि विकल्पों को छोड़ना चाहिए। लेकिन मोह में उपाय भी उल्टा ही सूझता है। मोह से ही तो दु:ख होता है और उस दु:ख को मेटने का उपाय भी मोह रागद्वेषादि करना समझते हैं। परंतु ये सब उपाय विपरीत हैं। यदि सुख शांति चाहिये तो मोह राग द्वेषादि छोड़ो । मोह रागद्वेष छोड़ने का यह उपाय है कि जिनमे मोह राग द्वेषादि कर रहे हैं उन सब पदार्थो का यथार्थ ज्ञान कर लें। यथार्थ ज्ञान होने से ये रागद्वेष मोहादि स्वयं ही दूर हो जाते हैं। एक कथानक है कि एक राजपुत्र किसी सेठ की बहू पर आसक्त हो गया। वह उस बहू से आकर बोला तो बहू ने कहा-अच्छी बात है। आप 15 दिन बाद अमुक दिन अमुक समय पर आ जाना। उन 15 दिनों में सेठ की बहू ने क्या किया कि जुल्लाब ले लिया, खूब कै, दस्त आदि कर-करके अपने शरीर को अति दुर्बल बना दिया। और उस समस्त कै दस्तादिको किसी एक मटके के अंदर करती गई, और उस कै, दस्त आदिक से भरे हुए मटके को पत्तों से , पुष्पों से व रंगो से सजाकर बड़ा कांतिमय बना दिया। जब 15 वें दिन वह राजपुत्र आया और उस बहू को देखकर आश्चर्यचकित हो गया। उस बहू से पूछा कि क्या आप वही हैं? आपकी वह सुंदरता कहां गई ? तो वह बहू बोली--जिस सुंदरता से आप प्रीति करना चाहते थे उस सुंदरता को हमने सुरक्षित रख दिया है, चलो दिखायें। उस राजपुत्र ने जब उस मटके को उघाड़कर देखा तो मारे दुर्गंध के उससे वहाँ खड़ा न रहा गया और अपनी बेवकूफी पर बड़ा पछतावा करता हुआ अपने घर वापिस चला गया। तो बात क्या है? जिस देह पर लोग आसक्त होते है वह देह है क्या ? मल-मूत्र, खून, पीप, मांस-मज्जा आदिक का ही तो पिंड है। यदि यह बात यथार्थ ज्ञान में आ जाय तो विषयों की वृत्ति हट जायगी।(122) भेदविज्ञानपरक वस्तुस्वरूपज्ञान शुद्धवृत्ति का आरंभ―जगत के जितने पदार्थ हैं वे सभी पदार्थ अपने-अपने स्वरूप को लिए हुए हैं। किसी का द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव किसी अन्य में नहीं पहुंचता। जैसे आपके शरीर के हाथ कितने ही काम कर डालते हैं – पेन्सिल बनाना, लिखना, कागज धरना, उठाना आदिक, पर उन समस्त प्रसंगों में भी हाथ तो अपने आप में ही अपनी क्रिया कर रहे हैं, बाहर में जो कुछ भी क्रिया हो जाती है उसको हाथ नहीं करते। वे सब कार्य निमित्त–नैमित्तिक संबंध से हो जाते हैं । और यह बात बिल्कुल स्पष्ट है। इसी तरह से हम आपका जो आत्मा है वह है भावस्वरूप, चैतन्यमात्र, केवल जाननदेखन अथवा रमण। विपरीत चले तो राग, द्वेष, कुछ भी भला बुरा करने का भाव तक ही हम आपकी करतूत है। इससे आगे हम आपकी कोई करतूत नहीं है। तो जब हम भावों के सिवाय और कुछ कर नहीं सकते तो हम इस बात पर दृष्टि दें कि हम बुरे भाव न करें। बुरे भाव करके हम क्यों दु:खी हों ? शुद्धभावों की ओर आयें। और इसके लिए यह एक बल है कि सर्व पदार्थो को भिन्न जानकर उनसे उपेक्षा कर दें, उनसे अपना हित न समझें, अपना सुख न समझें तो इस उपेक्षा भाव से हम अपने आप में आ सकते हैं और शांत सुखी हो सकते हैं।
(123) प्रभुपथगति में प्रभुभक्ति―भैया ! हम लोग प्रभु की भक्ति करते हैं, पर प्रभु ने क्या किया-उस बात पर दृष्टि न दें और उस बात पर जरा भी न चलें तो मात्र थोथी प्रभुभक्ति से काम नहीं बनने का। और अधिक न बने तो श्रद्धा तो यह रहे कि हे प्रभो ! जो आपने किया मार्ग वही है। शांतिपाने का, अन्य कोई शांति पाने का मार्ग नहीं है। हमारा विश्वास तो जमे और ऐसी अपने आपमें रूचि तो बने तो प्रभुभक्ति हमने की अन्यथा तो तफरी की तरह है। उससे कही आत्मा का कल्याण नहीं होता। क्या किया प्रभु ने? प्रभु के सर्वप्रथम सम्यक्त्व उत्पन्न हुआ। उस ही सम्यक्त्व की चाह रखिये। मेरा मिथ्यात्व दूर हो ओर सम्यक्त्व प्राप्त हो। कैसे सम्यक्त्व प्राप्त हो । सम्यक्त्व की उत्पत्ति करने में कारण तो आप ही हैं, मगर जान-बूझकर विकल्प करके तो सम्यक्त्व नहीं उत्पन्न होता , लेकिन विकल्प करके सम्यक्त्व उत्पत्ति का साधन बना सकते है। और वह साधन है जीवादिक 7 तत्वों का श्रद्धान । देखिये―एक मुख्य बात है -जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष, इन 7 तत्वों का यथार्थ श्रद्धान करना लेकिन कुछ भक्त ऐसे होंगे कि जिन्हें बीसों वर्ष गुजर गए प्रभुभक्ति करते करते, लेकिन अभी उन 7 तत्वों का नाम क्या है, स्वरूप क्या है, सम्यक्त्व के साधन का ही पता नहीं है तब बतलावो कि उस भक्ति से फायदा क्या। वीतराग प्रभु का इतना जबरदस्त शरण मिला है। हम यदि प्रभुस्मरण के लायक बन गए हैं तो यथार्थ पद्धति से भक्ति करें तो हम लाभ पा सकते हैं। प्रभु का उपदेश है कि सर्वप्रथम सम्यक्त्व प्राप्त करो।(124) सम्यक्त्व निर्देश―सम्यक्त्व क्या है? परद्रव्यों से भिन्न जो अपना आत्मस्वरूप है उसमें रूचि करना इसका नाम सम्यक्त्व है। बस यह ज्ञानानंद धाम, मैं आत्मा पवित्र आनंदधाम हूँ, यही कल्याणमय है। बस इस ओर आना है, यही दृष्टि रखना है , फिर कल्याण है, सर्व आपत्तियों से छुटकारा हो जायगा। तो पर पदार्थो से निराले ज्ञानमात्र निज अंतस्तत्व में रूचि जगना बस इस ही का शरण वास्तविक शरण है। इस ही में रम जायें, यही मेरा सर्वस्व कल्याण है। बाह्य पदार्थो में उपयोग का लगाना महान् विपदा है। अब इस सम्यग्दर्शन को प्राप्त करने के लिए याने परद्रव्यों से निराले ज्ञानमात्र अपने आपके स्वरूप में रूचि प्रकट करने के लिए कार्य क्या करें? वह कार्य बताया गया है-जीवादिक 7 तत्वों का यथार्थ श्रद्धान करना।(125) जीवतत्व के संबंध में ज्ञानी का श्रद्धान―यह सहज शुद्ध जीव केवल ज्ञान दर्शन मात्र हैं, प्रतिभास मात्र है। मैं आत्मा केवल ज्ञानदर्शनात्मक हूँ। रागादिक विकार मेरे स्वरूप में नहीं हैं। जैसे सिनेमा के पर्दे पर चित्र पड़ते हैं वे चित्र पर्दे का स्वरूप नहीं है, पर पर्दे पर पड़ा हैं इसी प्रकार रागादिक विकार मेरे स्वरूप नहीं हैं, पर अति जरूर हैं, लेकिन ये मैं नहीं हूँ। मोहीजन उन विकारों को आत्मस्वरूप मानकर उन विकारों की वृद्धि में ही, उन विकारों में रमने में ही अपना हित समझ लेते हैं। उन्होंने जीवतत्व का स्वरूप नहीं समझा, इस कारण उन पर मिथ्यात्व लदा हुआ है। जीव का स्वरूप है विशुद्ध ज्ञान दर्शन मात्र। उसे निरखो, यह जीव तत्त्व का सही श्रद्धान है। लोक में जीव तीन प्रकार के पाये जाते हैं―बहिरात्मा, अंतरात्मा और परमात्मा। जो बाह्य पदार्थो में यह मैं हूँ इस प्रकार की बुद्धि रखते हैं वे बहिरात्मा हैं, मिथ्यादृष्टि हैं। जो आत्मा के अंत:स्वरूपमें यह मैं हूँ ऐसी बुद्धि रखते हैं वे अंतरात्मा हैं, ज्ञानी हैं और जो विकारों से दूर हो गए, परम हो गए वे कहलाते हैं परमात्मा। बहिरात्मापना तो हीन दशा है, अंतरात्मा होना यह परमात्मा बनने का उपाय है, और जिस काल समस्त विकारों से रहित रागद्वेषादिक बंधन से रहित मात्र आत्मस्वरूप रह गया उसे कहते हैं परमात्मा। इन पद्धतियों में जीव का स्वरूप जान लेने पर परद्रव्यों से भिन्न अपने आप के स्वरूप में रूचि प्रकट होती है।(126)अजीव आस्रव बंध संवर निर्जरा मोक्ष के संबंध में ज्ञानी का श्रद्धान--यह जो देह है वह अजीव है, मुझ से निराला है, इसकी प्रतीति में आत्मा का अहित है। यह तो छूटेगा ही, मैं अपने भिन्न स्वरूप को लिए हुए हूँ। यों अजीव से निराला अपने आपको देखना, अपने से भिन्न अजीव तत्त्व को देखना यह है अजीव तत्त्व का सही श्रद्धान। जीव में कर्म आते है मिथ्यात्व के कारण, असंयम के कारण, कषायों के कारण और इच्छा के कारण । मुझे इच्छा न करना चाहिए, विषयकषायों से अलग रहना चाहिए। होते हैं तो इन्हें विकार मानें, दु:ख के हेतुभूत मानें। इनसे रूचि न पैदा हो। यह स्वभाव के सत्य श्रद्धान से आपकी रूचि पैदा होने का एक विधान है। कर्म बँधते है रागद्वेष से । कर्मबंधन से इस जीव को अनेक दुर्गतियों में जन्म लेना पड़ता है। ये कर्म यदि न बँधें, छूट जायें तो हमारा इन दुर्गतियों में भ्रमण का चक्कर मिट जायगा। यह इसका उपाय यही है कि आत्मा का राग द्वेष रहित ज्ञानमात्र स्वरूप देखिये -आत्मज्ञान के जागृत होने से ये समस्त राग द्वेषादिक विकार झड़ जायेंगे और मोक्ष की प्राप्ति होगी। मोक्ष ही इस जीव का परम धाम है। बस एक यही बाट जोहिये कि मुझे मुक्ति कब प्राप्त हो? जैसे ये लौकिक जन अनेक प्रकार की इच्छायें करके उनकी पूर्ति होने की बाट जोहा करते हैं, इसी तरह से हम आप भी मोक्ष प्राप्ति की बाट जोहें।
(127)सम्यक्त्वलाभ के यत्न में देव गुरु धर्म की यथार्थ प्रतीति का कर्तव्य―उक्त प्रकार से जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष –इन 7 तत्वों के यथार्थ श्रद्धान से अपने आपके स्वरूप में रूचि प्रकट होती है। साथ ही इतना और अपना संकल्प बनाये कि धर्म में लगने का, सम्यक्त्व प्राप्त करने का श्रेय सच्चे देव, शास्त्र, धर्म ओर गुरु को है। सच्चा देव वह है जिसमें रागद्वेष मोहादिक रंचमात्र भी न हों। बस वही मेरा प्रभु है, वही मेरा आदर्श है। गुरु वह है जिसके पास पिछी, कमंडल और पुस्तक इन तीन उपकरणों के सिवाय अन्य कोई चीज न हो। इनके अतिरिक्त यदि कुछ भी चीजें साथ में रखता है तो वह गुरु नहीं है । धर्म वह है जिसमें वस्तुस्वरूप का यथार्थ प्रकाश है, आत्मकरूणा से जो ओत प्रोत हो सब जीवों पर करूणा है और अपने आपके स्वरूप की दृष्टि है। यों सच्चे देव, शास्त्र, गुरु इन तीन से हमारा संबंध है। उनकी उपासना से हमारी आंतरिक भावना शुद्ध होगी तो हम सम्यक्त्व के पात्र होंगे । प्रभु का उपदेश है कि सम्यक्त्व प्राप्त करो, फिर संयम में बढ़ो। बाह्यपदार्थो से निवृत्ति प्राप्त करो ओर अपने आपमें रत होकर कर्मो को छोड़कर मुक्ति प्राप्त करो। यह उपाय यदि हमारे चित्त में आता है प्रभुभक्ति करके तो समझो कि हमने सही ढंग से प्रभुभक्ति की।