वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 1
From जैनकोष
नमः समयसाराय स्वानुभूत्या चकासते
चित्स्वभावाय भावाय, सर्वभावांतरच्छिदे ।।1।।
1―रचना परिचय―इस रचना का नाम है समयसार कलश । पूज्य श्री कुंदकुंदाचार्य ने जो समयप्राभृत बनाया है, उस पर पूज्य अमृतचंद्रजी सूरि ने जो आत्मख्याति नाम की टीका की है । उस टीका में गद्य है और पद्य है । वह इस विधि से है कि यदि कोई बिल्कुल केवल पद्यों का ही स्वाध्याय करे तो भी समयसार का सारा मर्म विदित हो जायेगा । इन्हीं पद्यों का नाम है समयसार कलश । उसमें पहला छंद है जो अभी पढ़ा गया है मंगलाचरणरूप में, इसमें समयसार के लिए नमस्कार किया गया है ।
2―परमशरण समयसार―समयसार क्या वस्तु है? समय मायने आत्मा, उसमें जो सार है, श्रेष्ठ है वह है समयसार । तो जरा अपने आत्मा की बातों को देखिये―सार चीज क्या है? कितना सार है? क्या कषाय सार है? वह तो औपाधिक है उसमें तो आकुलता बसी हुई है । तो क्या विचार सार है? वह विचार तो ज्ञान का अधूरा और नैमित्तिक परिणमन है । तो आत्मा की जो परिणतियां हैं वे तो अस्थिर हैं, सदा नहीं रहती । हुई और मिट गई । चाहे शुद्ध परिणति हो वह भी वास्तव में प्रतिक्षण नवीन होती है और पूर्व परिणति मिटती है । तो परिणति पर दृष्टि देकर हम वह समयसार न पा सकेंगे जिसका आलंबन करने से जीव का स्वभाव पर्याय विकसित होता है । तब क्या है वह समयसार? परिणति रूप तो नहीं है, इतना तो एक निर्णय में आया । तब फिर गुणरूप होना चाहिये क्या? गुणरूप भी नहीं है, क्योंकि गुण का अर्थ भूतार्थ का विषय नहीं । गुण का अर्थ क्या है? गुण्यते भिद्यते अनेन इति गुण:, जिससे पदार्थ का भेद किया जाये उसे गुण कहते हैं । यद्यपि गुण सही तौर से वस्तु का स्वरूप दिखा देता है, लेकिन वे सब भेद हैं । भेदरूप से हम उस चीज को न पा पायेंगे, भेदरूप में हम समयसार को न पा सकेंगे, क्योंकि भेदरूप अगर हमारी दृष्टि रहे तो हम अद्वैत की अनुभूति न कर पायेंगे, भेद बना रहेगा । तब क्या हुआ? जानने वाला और रहा, जानने में आया कुछ और । अपनी ही चीज अपने ही ज्ञान में आये, मगर भेद के ढंग से ज्ञान में आये तो अपनी चीज नहीं रहती वह । जैसे ज्ञान इस आत्मा की ही चीज है लेकिन उस ज्ञान को कोई भेद के ढंग से देखे कि यह है ज्ञान । तो जानने वाला कौन है? यह ज्ञानोपयोग और जाना क्या जा रहा । यह सामने नजर में आया हुआ, यह है ज्ञान, जहाँ आमने सामने का भेद पड़ा हो वहाँ अद्वैत की अनुभूति नहीं होती, क्योंकि वहाँ तो भेद पड़ गया, सीमा आ गई । एक आमने है, एक सामने है । तो भेद द्वारा भी हम आत्मा के सार को न पकड़ सकेंगे, तब फिर गुण न सही, स्वभाव सार होगा? हां, हां, स्वभाव कहकर भी इस आत्मा के समयसार को कौन जान सकेगा? अगर भेदविधि से जाना जा रहा है तो वही बात वही विघ्न यहाँ आ जाता है । एक अनादि अनंत अहेतुक जो आत्म स्वभाव है वह है समयसार । इस समयसार की दृष्टि की क्या महिमा है, यह बात जब विदित हो जायेगी तब यह समझ लेंगे कि इस समयसार की दृष्टि को छोड़कर अन्य किसी में दृष्टि की तो उसका क्या प्रभाव पड़ा? यह समझा गया तो जल्दी समझ में आयेगा कि समयसार का आश्रय करने पर आत्मा को क्या प्राप्त होता है ।
3―समयसार की सुध छोड़कर बाह्य सुध में अनर्थ―अच्छा देखो समयसार को छोड़कर अन्य-अन्य पदार्थों का इस जीव ने आश्रय किया, धन वैभव आदिक बाह्य पदार्थों का आश्रय लिया, उपयोग में इनको महत्त्व दिया यह तो महा मूढ़ता है । हाँ परिस्थितिवश करना पड़ रहा है काम, हो रहा है काम तो कर लो मगर उनको जो महत्त्व देगा वह तो इस समयसार से बहुत दूर है । कहाँ तो ये जड़ पत्थर कंकड़, ढेला आदिक बाह्य पदार्थ और कहां यह चिदानंदस्वरूप भगवान आत्मा । मानना चाहिए इस चिदानंद स्वरूप भगवान आत्मा को अपना स्वरूप और महिमा बखान रहे हैं―जान रहे हैं किसकी? जड़ वैभव की, पुद्गल के ढेर की । देख लो कितना अधिक वह बहिरा है, अंधा है, गूँगा है जो तत्त्व की बात नहीं सुन पाता, जो तत्त्व की दृष्टि नहीं कर पाता और जो तत्त्व की बात बखान नहीं सकता । अब बताओ―क्या बहिरा अपने अंदर कुछ तत्त्व नहीं पाता, क्या अंधा अपने अंदर कुछ देख नहीं पाता? क्या गूँगा अपने अंदर कुछ गुनगुना भी नहीं पाता? भैया वह कुछ भीतर ही भीतर सुनता सा तो है, देखता सा तो है, और कुछ गुनगुनाता सा तो है । यों मिथ्यादृष्टि की दृष्टि बाहरी पदार्थों की ओर ही लगी रहती है, वह कुछ बाहरी पदार्थों की ओर ही बोलता रहता है, वह कुछ बाहरी पदार्थों के प्रति सुनता भी है, उनकी ही वह दृष्टि करता है और उनके प्रति वह बोल भी लेता है । पर यह सब तो एक बाहरी छाया माया की बात है । इन पदार्थों को आश्रय में लेने से इसको क्षोभ, तृष्णा, आकुलता बनी रहती है । लोग तो कहते हैं कि हमारे देश का उद्धार कैसे हो? बड़ा भ्रष्टाचार है । बहुत-बहुत भीतर प्रतीति है, पक्षपात है । तृष्णा में डूब गए अधिकारी जन बहुत द्रव्य संचित करके विदेशों में जमा कर रहे, बड़े अन्याय हो रहे और इस स्थिति में दुःख बढ़ता ही जा रहा है । कैसे मिटे दुःख? या तो सब पर डंडे का जोर हो या सदाचार का जोर हो । सदाचार के जोर में यह बल तब ही प्रकट होता है जब कि कम से कम इतना बोध हो जाये कि जितना दिखने वाला ठाठ है यह सब भिन्न है, छूट जाने वाला है और इस चेतन कुटुंब आदिक से मेरा कुछ संबंध नहीं, ये भी छूट जाने वाले हैं । यहाँ तो लोग सोचते कि मैं खूब धन कमा करके धर जाऊँ ताकि मेरा परिवार खूब सुखी रहे । अरे किसी दूसरे का सुखी अथवा दुःखी होना तेरे अधिकार की बात नहीं । मानो यहॉ कुछ दिन सुख से भी रह लिए, पर यहाँं से मरकर मान लो पशु-पक्षी कीट-पतिंगा आदि की पर्यायों में पहुंच गए तो फिर किसका कौन क्या रहेगा? क्या खबर है? कितनी महा मूढ़ता है कि इस मिले हुए संग की चाहे चेतन हो चाहे अचेतन, यह अज्ञानी जीव उसकी महिमा समझ रहा है, और जिसकी महिमा है, जो हम को सुखी शांत बनायेगा, संसार के संकटों से सदा के लिए छुटकारा करायेगा उसके लिए कुछ ध्यान नहीं है । न उसके लिए तन लगाना चाहते, न मन देना चाहते, न धन भी लगाना चाहते और न वचन लगाना चाहते । धन तो क्षेत्रत: भी प्रकट भिन्न है, उसका व्यामोह तो प्रकट मूढ़ता है । नहीं चाहते यह कैसे जाना? यह सब तुलना से जाना जाता है, घर कुटुंब के लिए कितना धन व्यय होता और जरूरत पड़े तो कर्ज लेकर भी व्यय करते, मगर कभी आत्महित के लिए कोई सत्संग बनाने के लिए कभी यह बात मन में उत्पन्न होती है क्या? अजी क्या है तन लगे, मन लगे, धन लगे, वचन लगे, किसके लिए? धर्म के लिए, यह बात कभी मन में आती है क्या? और परिजनों के लिए तो सब कुछ अर्पण करने के लिए तैयार रहते हैं, यह सब मोह की लीला है । जिसके इतना विकट व्यामोह पड़ा है कि बाह्य पदार्थ ही दृष्टि में रहते हैं उसे समयसार के दर्शन कहा से होंगे?
4―ज्ञानगम्य सत्पात्रलभ्य समयसार―जैसे लोग कहते हैं कि सिंहनी का दूध लेने के लिए स्वर्ण का पात्र चाहिए । क्या चाहिए, हमको पता नहीं, मगर ऐसा कहा जाता है कि सिंहनी का दूध स्वर्ण पात्र में ही ठहर सकेगा, अन्य पात्र में नहीं, ऐसे ही मोक्षमार्ग की बात, धर्म की बात अंतस्तत्त्व की दृष्टि, सहज परमात्मतत्त्व का दर्शन उसको ही प्राप्त होता है जो भव्य हो, जो निकट संसारी है, जिसका होनहार भला है । कहीं किसी के तिलक नहीं लगा कि यह ही मोक्षमार्ग का अधिकारी है, जो संतजन हैं, जिनकी बुद्धि व्यवस्थित है वे सभी इसके पात्र हैं, अब यह उनकी मर्जी है, उन पर कैसा रंग चढ़ा है, कहां उनका उपयोग बसता है, यह उनकी अलग-अलग विचित्रता की बात है, लेकिन योग्यता सब में हैं कि इस समयसार तत्त्व का ज्ञान कर सकें, अनुभव कर सकें । कोई अयोग्य नहीं है, जो मनुष्य हैं उनके पुण्य का भी उदय है, बुद्धि भी काम करती है । बड़े-बड़े कारखानों के तो लेखा जोखा रख लें, उनकी व्यवस्था बना लें, जिस बुद्धि के बल से बड़े-बड़े व्यापार वगैरह की व्यवस्था बन सकती उतनी बुद्धि की भी जरूरत नहीं स्वदृष्टि करने के लिए । इसकी बुद्धि बहुत काम देगी, पर रुचि हो, दृष्टि बदले तब ना । किसका आलंबन लेना? अपने इस शरीर के मंदिर के भीतर जो एक प्रभु आत्माराम चैतन्य महाप्रभु विराजमान है, बस अंदर दृष्टि देना और उस सहज स्वरूप का अनुभव करना यह ही तो काम है, उसी समयसार को यहाँ नमस्कार किया गया है ।
5―वास्तविक नमस्कार का परिचय―नमस्कार का अर्थ क्या है? झुकना । उस समयसार के प्रति यह उपयोग झुकता है याने आत्मा का अनादि अनंत असाधारण सहज जो चित्प्रकाश है उसकी ओर यह उपयोग झुक रहा है, यह ही है वास्तविक नमस्कार । जैसे कोई पुरुष कड़ी छाती करके, छाती बाहर निकालकर सिर को और पीछे करके नमस्ते करे, तो बतलाओ उसने नमस्कार किया क्या? वह, तो टेढ़ा हो रहा, घमंड में आ रहा । वह तो यह समझता है कि इस तरह नमस्ते बोलने से हमारी महिमा बढ़ती है, हम बड़े कहलाते हैं । और कोई पुरुष जा रहा है, मुख से कोई बोल नहीं रहा है, थोड़ा सिर झुक गया, थोड़ा हाथ झुक गया, यद्यपि यह झुकना भी नमस्कार नहीं, मगर यह मन के भावों का अनुमान कराने वाला तो है ना, उसकी ओर अभिमुख तो हुआ, वह है नमस्कार । तो यहाँ निज में प्रकाशमान सहज चैतन्यस्वरूप चिदानंद भगवान की ओर हमारा उपयोग झुके, वह ज्ञानस्वरूप ही ज्ञान का विषय रहे यह है वास्तविक नमस्कार ।
6―बेजोड़ समयसार का नमस्कार―यहाँ किसको नमस्कार किया जा रहा? समयसार को । समयसार मायने चैतन्यस्वरूप चित्स्वभाव, इसको किन्हीं भी शब्दों से कहो, जितने शब्दों से बोलेंगे, उस अर्थ का आलंबन लेंगे तो समयसार का अर्थ, तत्त्व स्पष्ट होता जायेगा । इस ही को बोलते हैं लोग परम पुरुष, पुरुष मायने आदमी नहीं हाथ पैर वाला, किंतु आत्मतत्त्व, परम उत्कृष्ट, जिसमें दाग नहीं, लाग नहीं, जिसमें जोड़ नहीं, तोड़ नहीं, ध्यान से अपने भीतर दृष्टि ले जाकर सोचें तो पता पड़ेगा कि आधारभूत कोई तत्त्व है ऐसा कि जो है सो है, जिसमें कोई जोड़ तोड़ नहीं । जोड़ और तोड़ से जैसे मूल संख्या शुद्ध नहीं रहती, जो कहा है केवल वह सही रूप में नहीं रहता, ऐसे ही आत्मा में कुछ जोड़ करके जानें तो समयसार को नहीं जाना जा सकता । क्या कोई जोड़ करके भी जान रहा? हाँ-हाँ सारा जगत इस आत्मा में जोड़ करके जान रहा है । क्या जोड़कर जान रहा? मैं रागी हूँ, द्वेषी हूँ, पंडित हूँ, सुखी हूँ, दुःखी हूँ, ये विकार, ये पौद्गलिक बातें, ये परतत्त्व ये औपाधिक हैं इस चिदानंद भगवान आत्मा पर ऐसी कुमति लगी है कि यह भीतर ही भीतर बैठा धीरे से इस पौद्गलिक माया, छाया भावों को जोड़ रहा है । जोड़ का ऐसा प्रभाव है कि जो इसका मूल स्वरूप है वह मूल स्वरूप अब नहीं रहता नजर में, जोड़ में तो ऐसा बढ़ गया कि इस बढ़ाव में उस मूल स्वरूप का भी पता नहीं रहता । जोड़ करके अपने आपका अनुभव करने वाले जगत में अनंतानंत जीव हैं । जोड़ से अंतस्तत्त्व न मिलेगा ।
7―बेतोड़ समयसार का नमस्कार―अच्छा तो तोड़ से अंतस्तत्त्व मिल जायेगा क्या? न मिलेगा । है क्या कोई तोड़ करने वाला ? हाँ तोड़ करने वाले भी हैं । मगर जोड़ करने वाले से तोड़ करने वाले कम हैं । जिनको कुछ बाहरी रूप में धर्म की बात, कल्याण की बात चित्त में समाई है और ये आत्मा को जानने चले हैं सो आत्मा के ज्ञान हैं, इसे यों निरखता है श्रद्धा पूर्वक कि आत्मा है, ज्ञान है और ज्ञान आत्मा में है, उन्होंने आत्मा को तोड़ दिया, अखंड न रहने दिया । उस ज्ञान को निकाल लिया, एकांतत: आत्मा की जान निकालकर फिर आत्मा में जोड़ने की कोशिश करते । निकाली जान जुड़े कैसे ? जो एकांतत: आत्मा के गुणों का भेद करते हैं वह भी व्यामोह में हैं, और कुछ तो ऐसे हैं कि तोड़ करके जोड़ भी पसंद नहीं करते । कुछ दार्शनिक ऐसे हैं कि आत्मा और ज्ञान को तोड़ दिया और फिर ज्ञान को आत्मा में जोड़ने का भी भाव नहीं रखते, किंतु बिल्कुल पृथक् निरखते हैं । ज्ञान है, यह अलग बात है, आत्मा है यह अलग बात है, भिन्न-भिन्न पदार्थ हैं । अच्छा फिर और कोई तो ऐसे भी हैं कि जो तोड़ करके आत्मा में जोड़ना भी नहीं चाहते और फिर इतना अलग रखना चाहते कि तोड़ की आधारभूत प्रकृति विपरीत वस्तु है और आत्मा विपरीत वस्तु है । जैसे तोड़ कर दिया―आत्मा जुदा, ज्ञान जुदा और फिर ऐसा माना कि उस ज्ञान का स्त्रोत है प्रकृति जड़ पदार्थ, जड़ का परिणमन है ज्ञान और आत्मा है एक चैतन्य स्वरूप । भले ही वे इस शान में आ गए कि मैं दुनिया के लोगों को आत्मा को शुद्ध बताएं, पर कभी-कभी युक्ति से, शक्ति से बाहर का सीमा तोड़ शुद्धपने का भाषण बगराना इसकी विपत्ति के लिए होता है । शान तो चाही कि मैं दुनिया में आत्मा को इतना शुद्ध मानता हूँ कि मेरा तो मात्र चैतन्यस्वरूप है, ज्ञान स्वरूप नहीं है, उसमें तरंग नहीं उठती । ज्ञान तो प्रकृति का धर्म है, जड़ का धर्म है । तो यों अनेक लोग जोड़कर, आत्मा को समझना चाहते और तोड़कर आत्मा को समझना चाहते, मगर यह तो जोड़ और तोड़ सबसे रहित एक केवल अंतस्तत्त्व विलक्षण अनुपम समयसार है ।
8―समयसार के परिचय में निर्विकल्पता के पौरुष की संभवता―देखो कल्याण के लिए सब समझते हैं कि विकल्प हटाकर निर्विकल्प बनो तब कल्याण होगा, पर विकल्प हटाकर निर्विकल्प बनने की तैयारी कहां होती है? जो कभी मिटे नहीं, जहाँ कहीं धोखा नहीं, आराम से निर्विघ्न मार्ग में बढ़ते चले जायें वह तैयारी कहां? इस समयसार के परिचय में ही वह तैयारी है, अन्यथा समाधि लेने वाले बहुत से संन्यासी साधुजन होते हैं, जो समाधि लगा लें, जमीन में गड्ढा कर लें, जमीन के अंदर छिप गए, ऊपर से मिट्टी डाल दी, 24 घंटे श्वास रोक लिया । इसमें वे क्या करते यह तो ऐसा करने वाले लोग ही समझें, कहीं छल भी है कहीं उस प्रकार की साधना भी है, पर इतनी समाधि लेने के बाद फिर उनसे कहा जाये कि बोलो तुम्हें क्या इनाम चाहिए? तो उनके मुख से झट निकल पड़ेगा कि मुझे तो घोड़ा चाहिए, बगीचा चाहिए या जो भी चित्त में ठान रखा हो उसकी मांग कर बैठते हैं । तो निर्विकल्प होना एक ज्ञानसाध्य बात है । तत्त्वज्ञान बिना किसी के अध्यात्म साधना, धर्मसाधना बन नहीं सकती । तब समझियेगा कि अपने आपके अंदर ही तो बैठा है वह प्रभु जो सर्व सिद्धि देने को तैयार है, सदा तैयार रहा, कभी मुरका नहीं, कभी इसका स्वभाव हटा नहीं । चाहे जीव किसी भी पर्याय में रहा हो, मगर जो एक समयसार है, जो एक पदार्थ अनादि अनंत भाव जो जीव का प्राण है, चैतन्य है, जीवत्व है वह सदा अंत: ओजस्वी तेजस्वी प्रकाशमान स्वचमत्कार है, सब समृद्धियों का प्रदाता सदा तैयार बैठा है, मगर उन कर्मों के प्रतिफलन में मोहित हुए प्राणी इस उपयोग में ऐसे कृपालु, परमपिता, निज में बसे हुए अनंतशक्त्यात्मक इस चैतन्य महाप्रभु की ओर फूटी आंखों से भी नहीं देखना चाहते । फल क्या होता कि संसार में ये जन्म मरण के चक्र सदा चलते रहते हैं । तब नमस्कार किसे किया गया यह? जिसका आलंबन लेना कल्याण का मार्ग है, जिसका इस समस्त अन्य में वर्णन चलेगा, जितने भी वेद, पुराण, ग्रंथ, स्मृति याने चारों वेद प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग, द्रव्यानुयोग चारों वेदों का जो एक प्रयोजन है, जो उन सब वर्णनों का सारभूत है, जिसकी दृष्टि न होने पर बड़ी-बड़ी ऊंची विद्वत्ता पा ले तो भी कुछ नहीं पाया, उस अंतस्तत्त्व के लिए नमस्कार है ।
9―सहज परमपुरुष परमेश्वर समयसार―उपयोग को कहीं बाहर नहीं भटकाना है, अन्यत्र कहीं ले नहीं जाना है, कोई ज्यादह कठिन बात नहीं कही जा रही । अपने ही अंदर के स्वरूप की बात कही जा रही है । अपने शरीर के लिए जैसे उसका रंग रूप क्या वह दुर्लभ है, वह तो चिपका ही हुआ है, ऐसे ही इस आत्मा के लिए इस समयसार का लाभ होना क्या दुर्लभ है ? वह तो स्वरूप ही है इसका । तो यह स्वरूप, यह समयसार, यह परमपुरुष यही परमेश्वर है । लोग तो मुझे दुःख न मिले, सुख ही सुख मिले, इस आशा से जिस किसी को भी परमेश्वर मानकर बाहर दृष्टि भटकाते रहते हैं । न जाने कितने ही खोटे देवी देवताओं की पूजा की, न जाने कहां-कहां यह जीव भटका, मगर गुजारा कुछ न चला, सहारा कुछ न हुआ । अरे सहारा कहां से हो ? बाहर के पदार्थ इसके सुख दुःख के उत्तरदायी नहीं हैं । तो मेरी समस्त सृष्टियों के लिए जिम्मेदार कौन है ? यही अंत: बसा हुआ परमेश्वर मेरा ही सत्त्व ? प्रत्येक पदार्थ अपने ही स्वभाव से उत्पाद व्यय ध्रौव्य करते रहते हैं । यह मैं भी निरंतर उत्पाद व्यय ध्रौव्यरूप रहा करता हूँ । कौन हूं मैं वह ध्रुव ? कौन हूँ मैं वह स्थिर ? एक चीज क्या है ? एक-एक नहीं है तो पलटन नहीं है, अगर पलटन नहीं है तो वहाँ एक नहीं है, है ही कुछ नहीं । जैसे आम अनेक रंग बदलता है । पहले काला, फिर नीला, फिर हरा, फिर पीला, फिर लाल, फिर सफेद । सड़ने पर आम सफेद हो जाता है । तो आम के इस रंग बदलने में कोई एक आधार शक्ति है ना ? उसी की तो पलटन चली । पलटन के बिना एक नहीं । रहा आये कोई एक, पर कोई परिवर्तन नहीं है, उत्पाद व्यय नहीं है तो एक नहीं हो सकता । तो ज्ञानी उसमें से पलटन का सहारा तो लेते नहीं, किंतु एक का सहारा लेते हैं । हैं दोनों बातें, पलटन भी हैं, एक भी है, द्रव्य भी है, पर्याय भी है । पर्याय को मना करके द्रव्य का निर्णय लेना झूठ बात है । द्रव्य को मना करके पर्याय का निर्णय करना झूठ बात है, मगर सब तरीकों से सब कुछ समझकर पर्यायों का आलंबन न लें, किंतु एक ध्रुव द्रव्य का आलंबन लें, यह बात तो की जा सकती है । जो एक ध्रुव है, अपने आपमें, जो समयसार है उस समयसार तत्त्व के लिए नमस्कार किया जा रहा ।
10―नित्य अंत: प्रकाशमान परमेश्वर की उपासना का प्रभाव―कैसा है परमेश्वर? मेरा परमेश्वर कौन है? अपने आपमें बसा हुआ वह सहज चैतन्य तेज । जिसको चमड़े की आंखों से नहीं देखा जा सकता, जिसको इस बहिर्मुखी इंद्रिय के द्वारा नहीं जाना जा सकता । ये इंद्रियां सब बहिर्मुख होकर जाना करती हैं । अंतर्मुख होकर जानने की कला इस इंद्रिय में नहीं है, इसलिए इंद्रिय का व्यापार बंद करके परम विश्राम से कोई स्थित हो तो उसको होंगे इस, समयसार के दर्शन । जिसकी सुध खोकर शरीर का अवलंबन लेने से संसार के जन्म संकट दूर हो जाते हैं, वह कौन है ? यह चैतन्य तेज । वह एक तथ्य ज्ञान द्वारा ही जानने में आयेगा । और उस ज्ञान को अगर थोड़ा भी ढीला बना देंगे, जैसे बड़े आराम प्रिय लोग कष्ट नहीं सह सकते अच्छे कामों में दिमाग नहीं लगा सकते तो वे व्यर्थ के खेल-कूदो में अपना मन लगा देंगे । इस तरह से इस मन को ढीला कर देते हैं । ऐसे ही इस ज्ञान की बात को दृढ़ न किया जाये तो उनकी दृष्टि में यह परम परमेश्वर परमपुरुष समयसार समक्ष नहीं हो सकता । तो जिसमें इतनी हिम्मत हो कि आत्मा के अतिरिक्त अन्य सब कुछ पदार्थ किसी भी अवस्था को प्राप्त हों, उनसे मेरा क्या मतलब? मैं तो सहज परमात्मस्वरूप हूँ । ऐसे निज परमेश्वररूप अपने को निरखें, उस ही का आलंबन लें तो संसार के समस्त संकटों से छूटने का मार्ग प्रकट हो जायेगा । उस अंतस्तत्त्व के प्रति इस मुझ उपयोग का बारंबार झुकाव हो । इस तरह समयसार के नमस्कार की बात कहने वाले इस प्रथम श्लोक की बात चल रही है ।
11―समयसार की परमज्योतिरूपता―इस जीव का खुद का जो एक मात्र शरण है वह अपने अंदर ही है, बाहर इसका कहीं कुछ शरण नहीं हैं । जब कर्मानुभाग का वेग होता है तो यह जीव अपने में संतोष नहीं पाता । मोही बाहर के चेतन अचेतन पदार्थों से अपनी तृप्ति का ख्याल बनाता है, पर तृप्ति का आधार अपने अंत: प्रकाशमान खुद यह कारण समयसार है, जिसका बाहर क्या स्वरूप ? खुद ही स्वरूप है । खुद ही तो यह अनादि अनंत ध्रुव एक स्वरूप जो परमज्योति है बस वही है मेरा परमपिता समयसार, उत्कृष्ट ज्योति । जैसे ज्योति प्रकाश का कारण है, स्वयं प्रकाशरूप है, ऐसे ही यह सहज चैतन्य स्वरूप, यह स्वयं ज्योतिस्वरूप है, सतत जाननहार । इसका नाम तब ही तो आत्मा रखा गया है । आत्मा का अर्थ है अतति सततं गच्छति जानाति इति आत्मा जो निरंतर जानता रहे उसे आत्मा कहते हैं । जैसे दीपक की लौ निरंतर प्रकाशित रहती है । क्या कभी ऐसा होता है कि लौ तो है और थोड़ी देर को प्रकाशस्वरूप न रहे, अप्रकाशरूप हो गया । बुझ जाये यह बात अलग है, पर जब तक लौ है तब तक वह नित्य प्रकाशमान है, और यह आत्मा तो कभी बुझता भी नहीं है और ज्योतिस्वरूप है इस कारण अनादि से अनंतकाल तक सदा ज्योतिस्वरूप रहा और निरंतर जानता ही रहा । भले ही आवरण होने से कम जाने, मगर जानने से शून्य यह जीव कभी नहीं रहा । ऐसा यह परमज्योति स्वरूप अंतस्तत्त्व है ।
12―ज्योतिर्मय होने के लिये परमज्योति से प्रकृष्ट अर्थना―निज परमज्योति से प्रार्थना करें कि हे परमज्योतिर्मय मुझको अंधेरे से उठाकर उजले में ले जाओ । अंधेरा क्या है? बाह्य पदार्थों को विषय बनाकर जो रागद्वेष मोह का परिणाम बर्तना चल रहा है वह है अंधेरा । हे परमज्योति, ऐसा प्रसाद करो कि जिस प्रसीद से यह मैं उपयोग अंधेरे से हट कर ज्योति स्वरूप में ही रहा करूं । तमसो मा ज्योतिर्गमय । कितना अंतर है अंधेरे में रहने में और उजेले में पहुंचने में । जहाँ अंधेरा है भले ही मोह की नींद में समझ रहा है कि मैं बड़ा विवेकी हूं, बुद्धिमान हूँ, मैं लोगों को बहुत धोखा देकर अपना बहुत बड़ा काम कर रहा हूँ, पर उसे यह पता नहीं कि मैं खुद को धोखा दे रहा हूँ या दूसरे को । हे प्रभु, तू मुझे अंधेरे से उठाकर ज्योति में ले जा । ज्योति क्या है? यह सहज ज्ञान स्वरूप । ज्योति क्या है? यह सहज चैतन्य । चैतन्य रूप यह उपयोगरूप रहे, इसमें इष्ट अनिष्ट की बुद्धि भावना वासना न जगे, मात्र जाननहार रहे, चेतन हार रहे, यही हुआ मेरा इस परम ज्योति से मिलन ऐसा हो क्यों नहीं सकता ? जिस मोह विष का पान किया है उसका वमन कर दिया जाये तो यह ज्ञान सुधा क्यों न मिल पायेगी ? एक उपयोग में दो बातें नहीं समाया करती । संसार के विषय कषाय प्रयोग और सहज परमात्म स्वरूप इस परमज्योति का मिलन, उन दो का परस्पर विरोध है, अगर विषय कषायों में चित्त है तो संसार बढ़ाने का काम करते जाइये, आसान है सब । और यदि परम ज्योति में अपना ज्ञान आता है तब क्या है? निरंतर आनंद का उछाल बनाते जाये, बन जायेगा । बनाना क्या है । सहज आनंद की अद्भुत उछाल, उस ही से भव-भव के बांधे हुए संकट कर्म ध्वस्त हो जाते हैं । इस परमज्योति स्वरूप अंतस्तत्त्व के दर्शन करो । यह है कारण समयसार । वह स्वरूप जो परमात्मा बनने पर कुछ नई बात नहीं बनी । जो स्वरूप है वह आवरणरहित हो गया । जैसे पाषाण की मूर्ति बनाने के लिए कोई चीज बाहर लाकर नहीं लगानी पड़ती । जो उस पाषाण के अंदर था वही निरावरण हो गया । ऐसे ही मुक्त, सिद्ध, अरहंत भगवंत परमपिता को पाने के लिए कुछ नई चीज नहीं बनाना है, यह तो परिपूर्ण स्वभाव सहज ही बना हुआ है । पर हमारी जो बुद्धि भ्रांत है, जो आवरण पड़ा है वह आवरण हटे । यह आवरण ज्ञान की प्रबल वायु से ही हट सकता है और अन्य क्रिया कलापों से या अन्य पदार्थों से यह आवरण नहीं हटता । शुद्धत्व के उद्यम में परमज्योतिस्वरूप समयसार को यहाँ नमस्कार किया गया है । तो इस परमज्योति की ओर यह ज्ञान झुक गया, अभिमुख हो गया, यह मैं हूँ इस प्रकार मानकर उनमें अभेद बन गया, यह ही है वास्तविक नमस्कार ।
13―समयसार की परमब्रह्मरूपता―यह समयसार परमब्रह्मस्वरूप है । ब्रह्म कहते हैं उसे-स्वगुणैः, बृंह्वाति इति ब्रह्म, अपने गुण से जो बढ़ा हुआ ही रहे उसे कहते हैं ब्रह्म । यह ब्रह्मस्वरूप सहज अंतस्तत्त्व चैतन्यमात्र यह अपने चैतन्य में बढ़ते हुए स्वभाव को ही रखता है । आवरण जब तक है उसका निमित्त पाकर यह कमजोर तो है, मगर इसके भीतर बढ़ने का स्वभाव तो है ही है । घटने का स्वभाव नहीं रखता यह आत्मा । घटते हुए में भी घटने का स्वभाव नहीं है, स्वभाव बढ़ते हुए का ही रहता है, इसी कारण इस समयसार को परमब्रह्म कहते हैं । यह सर्व सृष्टियों का आधार है, सर्व पर्यायों का स्रोत है, इस कारण भी यह समयसार परम ब्रह्मस्वरूप कहलाता है । जहाँ बड़े-बड़े परमपद प्रकट होते हैं वह परमब्रह्म कोई अलग चीज नहीं, इस कारण आचार्य संतों ने पूजा के मंत्रों में परमब्रह्म का प्ररूपण किया है ॐ ह्रीं परमब्रह्मणे अर्हत्परमेष्ठिने नम: । यह परमब्रह्म परमात्मस्वरूप है । यह परमब्रह्म परमात्मा बनने के उपाय स्वरूप है । जो-जो भी विकास है वह सब परमब्रह्मस्वरूप है इसी कारण दशलक्षण धर्म के प्रत्येक मंत्रों में परमब्रह्म का प्रयोग किया गया हे । जैसे कि ॐ ह्रीं परमब्रह्म से उतमक्षमा धर्मांगाय नमः । मोक्षमार्ग परमब्रह्म, मोक्ष परमब्रह्म, यह बढ़ने का स्वभाव सतत रख ही रहा है क्या वीतराग सर्वज्ञ होने पर यह बढ़ने का स्वभाव रख रहा है ? हाँ रख रहा । अच्छा, तीन लोक, तीन काल के सब पदार्थों का ज्ञान करने पर भी क्या यह बढ़ने का स्वभाव भी रख रहा है ? हाँ रख रहा है, फिर और अधिक जानता क्यों नहीं ? अधिक कुछ है नहीं इसलिए जानता नहीं, पर बढ़ने का स्वभाव इसका है, तब ही यह बात कही गई कि जैसे जितना लोकालोक है ऐसे असंख्यात लोकालोक होते तो उनको भी केवलज्ञान जानता । यह समयसार परमब्रह्मस्वरूप है ।
14―समयसार की सहज परिपूर्णता―यह परिपूर्ण है समयसार । अधूरा नहीं है । कोई भी सत् अधूरा नहीं होता । यह तो लोग अपने आप कल्पना करते हैं कि मेरा यह काम अभी अधूरा है, पर अधूरा कुछ हुआ ही नहीं करता । सत् सभी परिपूर्ण होते हैं । जो भी है, परमाणु है, आत्मा है, सब परिपूर्ण हैं क्योंकि वे सत् हैं । मैं आत्मा सत् हूँ । यह मैं समयसार चैतन्यस्वरूप अंतस्तत्त्व, यह परिपूर्ण है, इसमें अधूरापन नहीं है । जो परिपूर्ण स्वभाव का आलंबन करता है वह पर्याय में भी परिपूर्ण विकास वाला बनता है । परिपूर्ण का आधार परिपूर्ण है, ऐसा पूर्ण यह सत् स्वरूप है । जिसकी पूर्णता का बखान करते हुए अन्य दार्शनिक भी यह कह देते हैं, चाहे लक्ष्य न भी बना पाये हों मगर कहते हैं कि पूर्णमिदं पूर्णमद: पूर्णात्पूर्णमुदच्यते पूर्णात्पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते...........यह ब्रह्मस्वरूप, यह अंतस्तत्त्व, यह चैतन्यस्वरूप पूर्ण है । सुन रखा जो परम ब्रह्म, वह पूर्ण है, यह पूर्ण है । यह जो जाना अनुमान से, आगम से जिस प्रकार समझा वह भी सामने है, ‘यह’ पूर्ण है । और जो अपने अंत: विराजमान अनुभव में आया वह भी जाना गया कि ‘यह’ पूर्ण है । हिंदी में इदं अद: इन दो शब्दों के वाच्य का पृथक्-पृथक् शब्द नहीं है संस्कृत में शब्द है इदं, अद: दोनों ही सामने हैं इस ज्ञाता के, पर एक को कहा गया इदं से और एक को कहा गया अद: से । हिंदी में दोनों का अर्थ है ‘यह’ । इस ज्ञाता पुरुष को मुक्त आत्मा कहीं दूर नजर नहीं आ रहा । वह कहीं लोक के अंत तक दृष्टि ले जाता हो और वहाँ ही गुनगुनाता हो कि यह हैं सिद्ध भगवान, इतनी देर विलंब का काम ज्ञानी नहीं कर रहा । वह भी इस आत्मभूमिका में सामने है, यह है मुक्त निरंजन शुद्धतत्त्व ऐसा सामने आ जाने का कारण क्या है कि वह आत्मा का ही स्वभाव रूप है ना । स्वभाव का आवरण मिटे, तो मुक्त हो गए । लो यह मुक्त आत्मा इस स्वभाव के निकट ही है, उसकी दृष्टि में बसा हुआ है । जैसे एक बांस कुछ हिस्से में निरावरण है कुछ हिस्से में ढका हुआ है तो जैसे सावरण निरावरण दोनों एक आधार में हैं, ऐसे ही ज्ञाता के निगाह में सावरण निरावरण अंतस्तत्त्व एक ही आधार में है और इसीलिए वह यों निरख रहा है कि यह पूर्ण है, यह पूर्ण है । एक ‘यह’ में साक्षात्कार, एक ‘यह’ में अंत: मिलाप है । ऐसा अपने गुणों से बढ़ने का ही स्वभाव रखने वाला परमब्रह्म समयसार, यह है अंत: प्रकाशमान, इस ओर जो उपयोग को झुकाता है वह वास्तव में नमस्कार करता है, जिसके फल में संसार के संकट फिर यहाँ ठहर नहीं सकते । धुन ही तो है, ज्ञान ही तो है । ज्ञान को रमा डालें अपने आपके स्वरूप में, फिर किसी पर की आधीनता या किसी पर से सुख शांति पाने की व्यग्रता नहीं रह सकती । तृप्त रहना है खुद को, खुद की ही प्रभुता में । यह परम ब्रह्म परमेश्वर परिपूर्ण है ।
15―समयसार की परमप्रधानता―यह समयसार समस्त लोक में एक परम प्रधान है । जगत में कितने पदार्थ हैं, उन सब पदार्थों के स्वरूप को रख लीजिये सामने । एक तो सब जगह अकेला द्रव्य है, लोक के एक-एक प्रदेश पर ठहरा हुआ है । ये समग्र पदार्थों के परिणमन कारणभूत बन रहे हैं । हाँ हाँं समझा, काल द्रव्य है । आकाश बड़ा महान एक अखंड अचेतन अमूर्त है और इस आकाश में ही जितने में लोकाकाश भाग है वहाँ धर्मद्रव्य, अधर्म द्रव्य भी ठहरे हैं, सो जीव पुद्गल की गति का कारण है धर्मद्रव्य । और गमन करते जीव पुद्गल की स्थिति का कारण है अधर्म द्रव्य । पुद्गल, परमाणु, प्रदेश, प्रमाण, कालाणु ये सब बातें, बड़ी नीरस लग रही हैं, रूखी सूखी लग रही हैं एक जीव द्रव्य को न माना जाये तो । क्या है ? बेकार पड़े । काम क्या ? उपयोग क्या ? हाँ आगे बढ़ो । एक चेतन शेष अचेतन । चित्स्वरूप, चेतने वाला, प्रतिभासने वाला, जानने वाला । इन सब पदार्थों को सामने रखकर तुलना करते हुए जानेंगे तो इनमें परम प्रधान कौनसा पदार्थ है ? यह चैतन्य समयसार । आप कहेंगे कि तुम जाननहार चैतन्य पदार्थ हो इसलिए तुम को सर्व पदार्थों में प्रधान यह चेतन लग रहा । अरे निष्पक्ष दृष्टि से भी जाँचों तो महिमा जानोगे इस चैतन्यस्वरूप की । यह परम प्रधान है । जो सबकी व्यवस्था का हेतुभूत है । न होता चेतन तो बाकी सब चीजें भी क्या होतीं ? “हूँ” भी शून्य और है भी शून्य । यह जगत की व्यवस्था, यह जगत का चमत्कार परिणमन, ये सब किसकी संज्ञा पर हो रहे हैं ? वह है एक समयसार चैतन्य पदार्थ । तो यह समस्त द्रव्यों में चेतन प्रधान है, हम हैं, खुद ही में है वह अनुपम निधि, खुद को भूलकर भिखारी बन रहे हैं । बाह्य पदार्थों से सुख शांति की आशा कर रहे हैं । यह अंतस्तत्त्व मैं हूँ सब द्रव्यों में परम प्रधान । उसकी ओर यह उपयोग झुके, यही है समयसार के प्रति वास्तविक नमस्कार ।
16―समयसार की अनादिता―यह चैतन्य प्रभु कब से है? जब से हमने जाना तब से है, उससे पहले न था क्या ? था । हमारे लिए कुछ न था । यह तो अनादि से है, इस चैतन्य ज्योति की आदि नहीं । निज स्वरूप का आदि नहीं । अब समझ लो कि अनंतकाल जो बीत चुका है वह इसका कैसा खराब गया ? निगोद में गया, स्थावरों में, अन्य कीड़ा-मकोड़ा की गतियों में गया, अनेक बार जन्म मरण हुए, पशु पक्षी हुए, सब कुछ बन बनकर भाड़ ही झोंका, काम कुछ नहीं किया । पौरुष कुछ नहीं किया । ऐसा मनुष्य बनने से क्या लाभ ? मनुष्य किसमें आनंद मानता है ? आहार में आनंद मानता । और ये पशु-पक्षी जिनका जो भोजन है, घास मिल गया, भुस मिल गया, कुछ अन्न के दाने मिल गए तो उनको जब इष्ट भोजन मिलता है तो क्या वे इन मनुष्यों से कम सुख मानते हैं ? क्या मानता है यह मनुष्य सुख ? पुत्र मेरे हैं, लोग मेरे हैं, अरे यह तो बिल्ली, कुत्ता, गधा, चिड़िया, बंदरिया आदि, ये अपने बच्चों से मोह रखकर, प्रेम रखकर सुख नहीं मानते क्या ? कोई कमजोर भी कुतिया है, उसके बच्चे जन्मे हैं तो उन बच्चों की प्रीति में वह कुतिया कुछ नहीं देखती । कितने ही प्रबल कुत्ते आयें उन बच्चों की ओर तो वह कुतिया उन सबका मुकाबला करती है और उस मुकाबले में जीतती वह कुतिया है । बड़े-बड़े बलवान कुत्ते भी उससे हार खाकर चले जाते हैं । तो ये गधी, कुतिया, बिल्ली, बंदरिया आदिक ये ये अपने बच्चों से सुख नहीं मानते हैं क्या ? अरे जैसा सुख ये मनुष्य मानते उससे कम सुख ये पशु-पक्षी नहीं मानते । फिर मनुष्य बनकर क्यों एक नंबर घटाया मनुष्य का ? कुछ अधिक दो हजार सागर त्रस पर्याय को मिलते हैं जिनमें अच्छे मनुष्य होने के कोई 7-8 नंबर हैं । न होते मनुष्य तो क्या था ? ऐसा ही आनंद (सुख) मिलता कबूतर, बंदर आदि बनकर । कबूतर, बंदर आदि ही बन लेते, कम से कम इतना फायदा तो होता कि इस जीव को मनुष्य होने का नंबर न कटता । मनुष्य होकर यदि विषय कषायों में अपना समय गमा दिया तो इस मनुष्यपने का नंबर कट गया और यदि यह आखिरी नंबर हुआ मनुष्य का तो, जितना उस त्रस पर्याय में मनुष्य होने की बात है और गमा दिया, इसी तरह तो स्थावरों में उत्पन्न हो जावे, फिर ठिकाना नहीं । तो सोचिये मनुष्य होने का लाभ क्या ? क्या पाते हैं सुख ये मनुष्य ? परस्पर प्रीति का, मैथुन का, काम सेवन का । तो इन बातों में ये गधे, घोड़े, कुत्ते, बिल्ली, बंदर, कबूतर आदि पशु पक्षी वगैरह क्या वैसा ही सुख नहीं पाते जैसा सुख मनुष्य पा लेते हैं ? बल्कि मनुष्यों को तो कुछ अड़चन है ? उन्हें एकांत चाहिए, मगर इन पशु-पक्षियों को तो सदा एकांत है । उनकी दृष्टि में तो ये मनुष्य बेवकूफ हैं, और जहाँ सारे बेवकूफ हों उसके लिए तो एकांत है । तो इन पशु-पक्षियों को, इन कबूतरों को, इन बंदरों को क्यों शरम नहीं आती कामसेवन करते हुए? मनुष्य बैठे रहते हैं फिर भी वे कहाँ शरम करते ? उनकी दृष्टि में तो ये मनुष्य पत्थर जैसे प्रतीत होते हैं, वे पशु-पक्षी इन्हें कोई मनुष्य जैसा थोड़े ही मान रहे । तो क्या यह कामसेवन का सुख पशु-पक्षी के भव में रहकर नहीं लूटा जा सकता था । कम की बात नहीं कह रहे, जितना सुख मनुष्य मानते हैं उतना ही सुख क्या ये पशु-पक्षी नहीं मानते ? वे भी मानते तो इन बाहरी सुखों की एक कामना तो पशु-पक्षी बनकर भी सिद्ध होती है । इसके लिये यह मनुष्य जीवन नहीं मिला । यह मनुष्य कहलाता वह देहधारी जिसके श्रेष्ठ मन हो । इसे नर भी कहते हैं याने धर्म मोक्ष ऐसे पुरुषार्थों में जो ले जाये अपने को उसे नर कहते हैं । तो सार यही है, जीवन की सफलता इसी में है कि जीवन भी न दिखे, मनुष्य पर्याय भी न दिखे, इसको दिखे केवल एक सहज चैतन्य स्वरूप । ऐसा यह कारण समयसार अनादि है । इसकी आदि नहीं, पर ज्ञान नहीं है इसलिए इसको कुछ नहीं है । अगर ज्ञान हो जाये तो मालूम पड़े कि ओह अनुपम निधान यह ही तो हूँ मैं ।
17-समयसार को अनंतता―यह समयसार चैतन्यस्वरूप अनंत है, इसका अंत नहीं आने का । लोग घबड़ाते हैं जिन्हें यह पता नहीं है कि मेरा स्वरूप ऐसा ही यह अविकार है और यह सदाकाल रहता है, न इसमें कष्ट की बात है, न इसमें विनाश की बात है । कष्ट मानता है यह जीव । इस सत्य को भूलकर बाहरी पदार्थों के संयोग वियोग में यह जीव अपना हिसाब लगाकर कष्ट भोगता है । समस्त बाह्य पदार्थों को एक ही जाति में कर रखो―सर्व बाह्य है, तो इसको मार्ग मिल जाये मुक्ति का, किंतु एक जाति में नहीं रखता । जो अज्ञानी इनमें इष्ट-अनिष्ट की बुद्धि बनाता है, वह इस द्वैत बुद्धि में आकर संसार भ्रमण ही करता है । इस प्रकार जो इस समयसार के स्वरूप तक अपना उपयोग नहीं बना पाते वे हर समय में “बरबाद हुआ, मैं नष्ट हो गया” ऐसा मानते हैं । धन्य है यह सम्यग्दृष्टि जो मरण के समय में यह जानता है कि यह मैं तो पूरा का ही पूरा जो यहाँ था वह परिपूर्ण अब यहाँं से जा रहा हूँ, न मेरा कुछ यहाँ छूटा और न यहाँ मेरा लगार था । ऐसा यह मैं एकत्व विभक्त आत्मस्वरूप हूँ, उसके लिए कहाँ मरण है? मृत्युंजय मंत्र और है क्या? जब कोई प्राण नष्ट होने को होते हैं, एक भव बिगड़ता है तो लोग बड़ा उपाय करते, मृत्युंजय जाप करा लो, कोई अमरफल खिला दो । आजकल तो मृत्युंजय के लिए बहुत से रसायन बन गये । वह रस खिला दो । अरे मृत्युंजय तो यह ज्ञान है । जिसको यह ज्ञान है कि यह हूँ मैं परिपूर्ण, मेरा यहाँ कुछ नहीं है, जो मैं हूँ सो पूरा का पूरा जा रहा हूँ, ऐसी सच्चाई के साथ जिसकी दृष्टि बने उसकी मृत्यु है कहां? मरण कहीं नहीं है, एक घर छोड़कर दूसरे घर में चला गया । अच्छे में गया, बुरे में गया, कहीं गया । गया वही एक । और, इस निज एक को जो निरख रहा उसके लिए लोक और परलोक भी नहीं हैं, यह हूँ मैं, परलोक क्या चीज? जिनके द्वैत बुद्धि है उनके लिए परलोक है, इहलोक है, विनाश है, मरण है, कष्ट है । इस विभक्त एकत्व के निश्चय को प्राप्त इस कारण समयसार परमेश्वर को न कहीं कष्ट है, न कहीं विनाश । ऐसा मैं अनंत हूँ । अपनी अनंतता का जिसको भान नहीं है और जिसको इस अनुपम निधान चैतन्यस्वरूप का भान नहीं है वह जीव हाय-हाय में पड़ा रहता है, निरंतर व्याकुल रहता है । क्रोध, मान, माया, लोभ इन कषायों के आवेश में रहकर पतित, भ्रष्ट या किन-किन शब्दों में कहा जाये, जो कि बड़ी हेय स्थितियां हैं उन स्थितियों का भोग करता है । अपने अनादि अनंत चैतन्यस्वरूप की सम्हाल करो । हे चैतन्य महाप्रभु, तेरा यह निधान अनुपम है, ज्ञान को ही तो इस निधान में लेना है, असुविधा की कोई बात भी तो नहीं है । लगा अपने उपयोग को इस निज अंतस्तत्त्व में, ऐसा नमस्कार करो कि यह ज्ञान इस ही अनादि अनंत अहेतुक परम ज्योतिर्मय इस परमेश्वर समयसार की ओर ही रहे । हूँ मैं यह, और यहाँ ही जो कुछ परिणाम बन रहा है यह ही है मेरा सर्व कुछ, इससे बाहर मैं नहीं, उस ही में मैं रहूं, उसी में तृप्त रहूं, यही वास्तविक मेरा नमस्कार है ।
18―समयसार की अव्यक्तरूपता―द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, भाव, परिवर्तनमयी संसार में रुलने वाले इस उपयोग का वास्तविक शरण क्या है जिसका आलंबन लेने से यह समस्त संसरण का संकट दूर हो जाये? उस ही परम शरण को यहाँ नमस्कार किया जा रहा है । वह परमशरण है आत्मा का सहज स्वरूप । यह सहज स्वरूप अव्यक्त है । यही तो कठिनाई है कि लोग इस आत्मा के बारे में संदेह करते, निषेध करते, पर यह स्पष्ट इतना है कि जो निषेध कर रहा, जो संदेह कर रहा है वही तो आत्मा है, जो जाने सो आत्मा । तो यह इंद्रिय द्वारा व्यक्त नहीं है इस कारण यह अव्यक्त कहलाता है और यथार्थ रूप में भूतार्थ स्वरूप में मन द्वारा भी व्यक्त नहीं हो पाता इस कारण इस समयसार को अव्यक्त कहते हैं, जो इंद्रिय से प्रकट न हो सो अव्यक्त, लेकिन ज्ञानी जीव को तो बिल्कुल स्पष्ट रूप से व्यक्त है । अव्यक्त तो अज्ञानी जनों के लिए है, क्योंकि अज्ञानी जन देह को ही आत्मा मानते हैं, सो देह में रहने वाली इंद्रिय के द्वारा ही सारा निर्णय बनाना चाहते । सो इंद्रिय के द्वारा अमूर्त तत्त्व तो दिख नहीं सकता । इस कारण अज्ञानी जनों के लिए अव्यक्त है और ज्ञानी जनों के लिए व्यक्त है । अगर ज्ञानी जनों की दृष्टि में वह स्पष्ट न हो तो फिर कैसे उसका आलंबन बने और कैसे संसरण संकटों से मुक्ति हो? युक्ति से भी जाने । ये आत्मा जब यहाँ इतना नजर आ रहे कि कोई कम जानता कोई और अधिक जानता, तो किस बात का यह फर्क है कि यहाँ एक से एक अधिक, अधिक जाननहार दिख रहे हैं । मानना तो होगा ना, कि बाह्य आवरण है कुछ ऐसे निमित्त कि यद्यपि परिणति स्वयं की योग्यता से चल रही है, मगर ऐसी ही क्यों चल रही है, ऐसी ही योग्यता क्यों बनी हुई है, यह प्रश्न उठता चला जायेगा, जब तक कि कोई निमित्तभूत उपाधि न मानी जा सके । तो एक आवरण के कम अधिक क्षीण होने से ज्ञान में भेद हैं । जैसे-जैसे आवरण का क्षयोपशम होता जाता वैसे ही वैसे ज्ञान में प्रकाश नजर आ रहा है, तो कोई आत्मा ऐसा भी होता कि जहाँ आवरण का पूरा विनाश है, रंच भी आवरण नहीं है, वहाँ इतना पूर्ण विकास है, कि उस पूर्ण विकास से यह ज्ञान होगा कि यह भी स्वभाव है इस जीव का । अगर पूर्ण विकास का, केवलज्ञान का स्वभाव न हो तो किसी भी प्रकार इस आत्मा में केवलज्ञान प्रकट नहीं हो सकता । तो वह ज्ञान स्वरूप सहज ज्ञान स्वरूप ज्ञानी जनों को व्यक्त है, किंतु अज्ञानी जनों को अव्यक्त है । जिनको आज अव्यक्त है वे भी यदि ज्ञानाभ्यास, तत्त्वमनन, आत्मदृष्टि द्वारा विकल्प का परिहार आदिक उपायों का आलंबन करें तो उनके भी व्यक्त होगा । जो आज अज्ञानी हैं वे अज्ञानी ही रहेंगे ऐसा कुछ नहीं है । जो ज्ञानी हुए हैं वे भी कभी इन प्राणियों जैसे अज्ञानी थे । अज्ञानी को अव्यक्त है और ज्ञानियों को व्यक्त है यह समयसार ।
19―अज अविनाशी समयसार―यह समयसार न तो उत्पन्न हुआ है और न यह नष्ट हो सकता । यह तो एक सत्त्व है, चेतन पदार्थ है । कोई भी सत् न तो कभी उत्पन्न होता न कभी विनष्ट हो सकता । जो है सो अज है, अविनाशी है, ऐसा ही अपने आपके स्वरूप के बारे में समझे, यदि एक स्वरूप की लगन हो जाये और अपनी दृष्टि में यह सहज स्वरूप ही अपना सर्वस्व बस जाये तो फिर इसको कोई शंका, भय, कष्ट कुछ भी नहीं रह सकता । तो यह कारण समयसार याने जो भी स्वरूप व्यक्त होकर मुक्त कहलाता वह स्वरूप न उत्पन्न हुआ और न विनष्ट होता है । ऐसा शाश्वत अंत: प्रकाशमान होने वाला है । इसका ज्ञान ज्ञानोपयोग से इसके अभिमुख होता है । यही कहलाता है वास्तविक अद्वैत नमस्कार । इस जीव ने शांति लाभ के लिए क्या-क्या विकट चेष्टायें नहीं की । उन सब चेष्टाओं द्वारा इसने अपने आपको थका डाला, दुःखी कर डाला, कायर बना डाला । पर थोड़ी सी तो बात थी कि अपना यह उपयोग अपने स्रोत की ओर अभिमुख हो जाये और जहाँ से यह उपयोग परिणमन हुआ है उस ही शक्ति की ओर अभिमुख हो जाये और यह उपयोग लक्षण पर्याय अपनी शक्ति में अभेद बन जाये, यह हूँ मैं । जैसे किसी का प्रिय बालक घर में ही कहीं कमरे में ही छिपकर बैठ जाये और भूल हो जाये उस माँ को कि मेरा बेटा कहीं घर से बाहर निकल गया है तो वह माँ घर से बाहर जाकर उसे ढूँढ़ती फिरती है, सब जगह पता लगाती है, जब पता नहीं लगता तो बड़ी हैरान होकर वह घर लौट आती है । घर आने पर जब देखा कि वह बेटा तो इस घर में ही खेल रहा तो उसे देखकर एक बार तो वह उस पर झल्ला ही जाती है―अरे कहां छिप गया था तू? तो ऐसे ही ये ज्ञानी जीव अपने अंत: प्रकाशमान इस समयसार प्रभु को न जान सका और कुछ न कुछ अपना आधार, सर्वस्व, स्वामी जाने बिना चैन नहीं पड़ती, यह तो प्रकृति है जीव की । तो यह बाहर में सब खोज रहा है, यहाँ सुख मिलेगा, यहाँ मेरा महत्त्व होगा, यहाँ मेरा ज्ञान बसा है । सारी जगह डोल आता है । बहुत-बहुत डोल चुकने के बाद यदि सुयोग हुआ और इस आत्मा को अपने आपमें इस चैतन्य प्रभु का दर्शन हुआ, अनुभव हुआ तो जिस समय मिला है उस समय तो इसे आनंद ही होगा, पर इसके बाद वह आनंद ठहरेगा तो नहीं, क्योंकि इसमें घूमने का, खोजने का, श्रम करने का बहुत-बहुत संस्कार बना डाला । तो एक बार यह ज्ञानी भी झुँझलाकर बोलेगा―अरे मेरे प्राणाधार ! तुम यहीं थे, अनादि से कभी दिखे नहीं । यह अपने आपके ही अंत: प्रकाशमान इस परमशरण की चर्चा चल रही है ।
20―निर्द्वंद्व समयसार―यह समयसार निर्द्वंद्व है, द्वंद्व से रहित है । इसमें दूसरा कुछ है ही नहीं । यह तो यह ही है । न दो रूप है न नानारूप है, न इसमें दूसरा कुछ है । इसके स्वरूप में, मेरे स्वरूप में किसी अन्य पदार्थ का प्रवेश नहीं है । तब यह मैं एक ही तो हूँ, निर्द्वंद्व हूँ, एक ही मैं क्यों कहूं? एक की संख्या से भी क्यों बँधूं, और वास्तविकता भी यही है कि यह आत्मा जब तक एक की संख्या से बंधा हुआ है, यह हूँ मैं एक हूँ, तब तक उसको अनुभूति का आनंद प्राप्त नहीं होता । अपने आपके बारे में एक का विकल्प भी सारे आनंद को भंग कर देने का कारण बनता है । व्यवहारनय से निश्चयनय के निकट जाने के लिए यह सब प्रयोग है । मार्ग यह है, लेकिन आत्मीय आनंद का कारणभूत समयसार का जहाँ अनुभव जग रहा है वहाँ कैसी स्थिति है? तो दूसरे तो यह ही कहेंगे कि वह निर्द्वंद्व स्थिति है । वहाँ एक अनेक, शुद्ध अशुद्ध किसी भी प्रकार का विकल्प नहीं है । अशुद्ध का तो विकल्प नहीं । क्या शुद्ध विकल्प करना भी अवगुण है? हाँ शुद्ध विकल्प करना भी एक ऐसा अवगुण है कि जिस विकल्प के समय उस शुद्ध अंतस्तत्त्व की अनुभूति नहीं होती, क्योंकि जब तक मैं मान रहा हूँ कि यह शुद्ध है तो इसके मायने है कि अशुद्ध था । जिसमें पहले विकार स्वीकार कर लिया गया अब वह वातावरण अच्छा न रहा इसलिए अशुद्ध-शुद्ध, एक-अनेक गुण-पर्याय समस्त विकल्पों से रहित यह समयसार तो एक निर्द्वंद्व है, इस निर्द्वंद्व समयसार की ओर जब निर्द्वंद्व विधि से यह उपयोग अभिमुख होता है तो यह ही है अपने परमशरण समयसार का वास्तविक नमस्कार ।
21―सदाशिव समयसार―इस समयसार का नाम है सदाशिव, सदामुक्त । स्वरूपदृष्टि से देखो तो स्वरूप तो सदा ही मुक्त है, । अगर स्वरूप बंधा हुआ हो याने बंधन का स्वरूप कहलाये तो बंधन कभी हटाये ही नहीं हट सकता । स्वरूप मुक्त है तो यह मुक्त बन सकता है, स्वरूप यदि बद्ध है तो यह कभी बद्ध से दूसरी बात नहीं कर सकता । स्वरूप को देखो, अन्य कुछ मत देखो । धन यह तो प्रकट भिन्न है इसे चर्चा में लाना भी एक लज्जा की बात है । विकार यह तो स्वरूप नहीं है, विकार है, विकार की ओर से बात नहीं कही जा रही, स्वरूप की ओर से बात कही जा रही है । आत्मा का सहज स्वरूप याने आत्मा के सत्त्व के कारण आत्मा का जो एक पारिणामिक भाव है वह है सदामुक्त सदाशिव । नय विधियों से तत्त्व का ज्ञान न होने पर ये ही बातें भिन्न-भिन्न दर्शनों के रूप में प्रचलित हो जाती है । अन्य दार्शनिक भी मानते हैं कि कोई सदाशिव वह तो है एक और मुक्त हैं अनेक । याने जो अनादि अनंत सदा समस्त परभावों से मुक्त है, निराला है वह तो है एक और जो समस्त कर्मों से मुक्ति पाकर शुद्ध हुए हैं वे हैं अनेक । यह बात मानी तो है अन्य दार्शनिकों ने और बहुत अच्छी बात है, लेकिन ऐसी भिन्नता आ गई उनकी दृष्टि में कि सदाशिव तो कोई अलग व्यक्ति है और कर्मों से मुक्त होने वाला कोई अलग व्यक्ति है, बस यह सब अंधेर मच गया । जरा अपने आपके स्वरूप को देखो जो स्वरूप है सो स्वभाव है, आत्मा के ठीक सही स्वभाव को निरखना, मगर उस स्वभाव में यह भी भेद डालें कि यह इसके आत्मा का स्वभाव, यह मेरे आत्मा का स्वभाव और चाहे फिर यह भी चिल्लाये कि स्वभाव-स्वभाव सब एक समान है निर्णय की बात तो अलग है, पर जहाँ आत्मानुभूति और आनंद का प्रसंग है उस प्रकरण में इतनी भी बात जहाँ पड़ गई हो कि जो प्रभु का स्वभाव सो मेरा स्वभाव, सो ही सब जीवों का स्वभाव, वहाँ स्वभाव की अनुभूति नहीं बनती । स्वभाव की अनुभूति के काल में न मेरे की खबर है न प्रभु की खबर है न जगत के जीवों की खबर है । केवल एक ज्ञानोपयोग में स्वभाव ही विषय है । वह किसी व्यक्ति से बँधा हुआ होकर विषय नहीं है ऐसी दृष्टि में आप क्या कहेंगे कि वह तो सदाशिव है? वहाँ नाना रूप दिखे ही नहीं, क्योंकि जब उस ज्योतिर्दर्शन में ही नानापन नहीं तो फिर यह स्वभाव, यह सदाशिव, यह कैसे नाना कहा जा सकता है? तो नित्य अंत: प्रकाशमान जो चैतन्यस्वभाव है वह कहलाता है सदाशिव । अब जरा पर्याय पर दृष्टि दें तो यह कर्मों से लिप्त आत्मा इस सदाशिव ईश्वर के आश्रय से जब समस्त कर्मों से छूट जाता है तो वह पर्याय में हो गया मुक्त, कर्मों से मुक्त । तो देखो कर्मों से मुक्त होने के लिए सदामुक्त अंत: प्रकाशमान कल्याणमय, मंगलस्वरूप इस निज समयसार का आश्रय लेना होता है । इसकी ओर ज्ञानोपयोग अभिमुख रहे, तो यही कहलाता है अद्वैत नमस्कार ।
22―अमल आदर्श समयसार―क्या है यह समयसार? अपने आपका स्वरूप । यह तो एक निर्मल दर्पण है । निर्मल दर्पण में सामने की सब चीजें प्रतिबिंबित हो जाती, उसे न तकना, ऐसा तकने में निर्मलता का महत्त्व न जान पावेंगे अनुमान भर रहेगा । तो फिर वह दर्पण को निरखने की तरकीब ही बड़ी गुप्त है । कोई दर्पण को देख ले और कुछ भी प्रतिबिंब न देखे, इस ढंग से आप किसी दर्पण को निरखें तो चलो, यह ही एक बड़ा टेढ़ा काम पड़ जायेगा । आप मुख सामने करेंगे तो मुख प्रतिबिंबित हो जायेगा । कैसे आप देख पायेंगे कि यह निर्मल दर्पण है, जो अपने आप में अपनी द्युति से अपने आप से चकचकायमान है, है ना दर्पण का ऐसा स्वरूप । सो इसी ढंग से इस आत्मतत्त्व को देखिये तो सही । यह आत्मा भी पर्याय से रहित कभी बनता नहीं, हर समय किसी न किसी पर्याय में है, लेकिन पर्याय में हैं इस तरह से आत्मा को निरखने में हम आत्मा की उस सहज महिमा को न पहिचान सकेंगे । ये पर्याय एकदम गौण कर दीजिये, केवल एक जिसे कहते हैं अर्थ परिणमन, अगुरुलघुत्व गुण का ही मात्र परिणमन उसके माध्यम से उस सूक्ष्म परिणमन को भी गौण करके अंत: प्रकाश करें तो विदित होगा कि यह निर्मल दर्पण की तरह अपने आपको द्युति अपने आपमें चकचकायमान है । ऐसा परमशरण परमपिता, समयसार यह कहीं बाहर नहीं है, यह अपने आपके ही स्वरूप की बात है । इस स्वरूप की ओर जो ज्ञानोपयोग अभिमुख रहता है ऐसी अभिमुखता को कहते हैं समयसार का वास्तविक नमस्कार ।
23―समयसार की निराबाधता―इस समयसार की बात सुनने में समझने में बड़ी कठिनाई हो रही है । चित्त चंचल होता है तो हट-हट जाता है सो बड़ी बाधा हो रही है और इसी समयसार के अभिमुख होने में बड़े विघ्न आ रहे, लो ये बाधाएं आती हैं । ये विघ्न आ रहे हैं, किंतु यह बाधा होना, यह विघ्न होना समयसार में नहीं हैं । यह तो एक प्रवर्तमान उपयोग में है, किंतु लक्ष्यभूत वह समयसार आत्मा का सहज स्वरूप, वह तो सदा निराबाध है । स्वरूप-स्वरूप ही है, आवरण की हालत में स्वरूप प्रगट नहीं आ रहा, मगर स्वरूप-स्वरूप में प्रकट ही है । उस प्रकटपने का आनंद नहीं आ रहा, मगर स्वरूप तो अनंत आनंद स्वभाव वाला ही है । स्वरूप-स्वरूप में है, प्रकट है, इतने से कुछ इस जीव को लाभ नहीं है । पर ऐसा है तभी तो यह, जीव उससे लाभ ले सकता है । तो यह कारणसमयसार बाधाओं से रहित है, निर्विघ्न है । इस स्वरूप में विघ्न नहीं स्वरूप परिपूर्ण है, यद्यपि आवरण है, ढका है, प्रकट नहीं है न ही स्पष्ट विदित होता, मगर जो सत्त्व है वह तो सत्त्व ही है, उसमें कोई विघ्न नहीं आता । ऐसा यह निराबाध मेरा स्वरूप सहजभाव कारण समयसार, इसकी जो उपयोगदृष्टि करे तो ऐसी दृष्टि को कहते हैं अद्वैत नमस्कार ।
24―निगम समयसार―समयसार निगम है, आगम से भी बढ़कर है । आगम का बहुत बड़ा आलंबन है, जिसके विषय में कहा गया है कि जो यह आगम न होता, वाणी न होती तो अन्य जीव अपने हितपंथ को कैसे समझ पाते ? “जो नहिं होत प्रकाशनहारी, तो किस भांति पदारथ पांत्ति, कहाँ लहते रहते अविचारी ।” आगम का बहुत बड़ा आलंबन है, पर यह आगम इस निगम को पहिचान के लिये हैं । आगमज्ञान और निगमपरिचय इनकी पद्धति में भी अंतर देखिये । आगम, आ मायने चारों ओर से गम मायने आये, चारों ओर से ग्रहण किया गया आया, ऐसा ज्ञान । प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग, द्रव्यानुयोग इन समस्त आगमों के अध्ययन से जो ज्ञान पाया वह आगम है । इस आगमज्ञान का प्रयोग क्या करना ? इस आगम से हमें क्या समझना, क्या पाना? इस समस्त आगम ने किसका संकेत किया? जिसका संकेत किया वह चारों ओर से आने वाली बात नहीं, किंतु अपने ही अंत: उपलब्ध होने योग्य चीज है, इस कारण से इस अंतस्तत्त्व का परिचय कहलाता है निगमपरिचय, उस लक्ष्य की उपलब्धि, यह है निगम और उसके समझने के लिये जितना भी उपदेश है वह है आगम । तो आगम के आलंबन से बढ़ते-बढ़ते हम, इस निगम तक पहुँच जायेंगे । यह कारणसमयसार निगम है । भीतर ही बैठा हुआ भीतर ही यह स्वयं अपने आप में द्युतिमान है । बातें कितनी ही कर लें, पर अनुभव बनेगा विकल्प तोड़कर । सद्विकल्पों से हम विकल्प टूटने के नजदीक आते हैं और जहाँ विकल्प टूटे, एक परम विश्राम हुआ वहाँ इस अनुभव द्वारा गम्य होता है यह समयसार । जैसे मिश्री मीठी होती है ऐसा कहने वाले ने मिश्री का ज्ञान किया और वही मिश्री को मुख से चखकर मिश्री का ज्ञान करे तो आप कह देंगे ना, कि ज्ञान तो यह है । मिश्री चखकर जो एक रसास्वाद सहित अनुभव जगा कि वह कहलाता है मिश्री का ज्ञान । शब्दों से, युक्तियों से खूब सुना, मिश्री का परिचय लिया, कबूल नहीं किया तुमने कि हाँ हमने मिश्री का ज्ञान किया, पर उसके खा लेने पर कबूल कर लिया कि हाँ समझे तो अब है मिश्री । तो ऐसे ही इस समयसार का परिचय शब्दों से नहीं बनता, युक्तियों से नहीं बनता, यह तो स्वयं एक परम विश्राम लेकर निर्विकल्प होकर अनुभव द्वारा ही यह जान पायेगा कि यह है समयसार । इस निगम समयसार के प्रति जो उपयोग अभिमुख होता है ऐसी अभिमुखता को कहते हैं समयसार का नमस्कार ।
25―समयसार की निरंजनता―यह कारणसमयसार निरंजन बताया गया, अंजन रहित, कीचड़ रहित कह देते, धूल रहित कह देते । अंजन रहित कहने का कितना आंतरिक मर्म है कि सब मैलों में जो ऊपर से चिपकाये गए मैल हैं उन सबमें बहुत घने तौर से लगने वाला मैल अंजन होता है । जरा आंख में अंजन आप लगा लीजिए तो देखिये वह किस तरह घनिष्ट चिपट जाता है और शरीर में कोई दवा लगा लिया तो उसका घनिष्ट चिपकाव नहीं है । दूसरी बात, वह आंख में चिपकाव है जो सबको देखने का साधन है । तो ऐसे ही आत्मा में जो विचार, विमर्श, वितर्क, परिचय आदिक जो-जो कुछ भी अंजन हैं, ये हैं आत्मा में लगे हुए भीतरी मल । जो आत्मा के गुणों जैसी ही मुद्रा रख रहे, आत्मा का स्वरूप ज्ञान है ना, तो ये भी कमियां, ये भी विकार, विकल्प के रूप में, विचार के रूप में याने ज्ञान की जाति जैसे बनकर यह हमला कर रहे हैं ना । किसी पर हमला तब बढ़िया होता है जब उसकी बिरादरी का बन जाये, उसके कुटुंब का बन जाये, उसके बहुत नजदीक का बन जाये तो फिर ये विचार, वितर्क आदिक बड़े कड़े मैल है, इन समस्त अंजनों से यह समयसार पृथक् है । यह तो केवल एक चैतन्यस्वरूपमात्र है । इस तरह से कोई अपने आप में अड़ जाये, आग्रह करके रह जाये, बस मुझे कुछ न चाहिए, मुझे कुछ परवाह नहीं, किसी से लगाव नहीं, किसी का ध्यान नहीं, जो हो सो हो, शरीर का भी जो हो सो हो, मैं तो एक यह शुद्ध चित्प्रकाशमात्र हूँ, निरंजन हूँ, इस निरंजन कारण समयसार का जो उपयोग करना है, इसकी ओर अभिमुख होना है, यह ही अभिमुखता एक ऐसे अद्भुत आनंद को लिए हुए है कि यह आनंद आत्मा में ऐसा सुखाव कर देता है, ऐसी सफाई कर देता है कि यह कर्मधूल जैसे सूखी हुई धोती को जोर से झिटक देने से सारी धूल झड़ जाती है, दूर हो जाती है, ऐसे ही यह कर्मधूल आत्मानुभव के इस आनंद से इस आनंद के कारण हुए जो पर पदार्थों की झटक, उसके बल से ये भव-भव के बांधे हुए कर्म बंधन भी तड़-तड़कर सब झड़ जाते हैं । तो जिस परमशरण का आलंबन लेने से सारी समृद्धियाँ बनती है उस परम शरण निरंजन कारण समयसार के अभिमुख हुए ज्ञान को ही तत्त्व में लिए रहना, यह है समयसार का वास्तविक नमस्कार ।
26―अपना शरण ढूंढ़ने का यत्न―हम आप संसारी जीवों की किसी न किसी पर शरण की दृष्टि रहती है और उसे शरण मानकर चलते हैं । यह बात आप प्रत्येक मनुष्य में पायेंगे । घर-घर में पायेंगे । इसको किसी न किसी को शरण मानकर रहने की चलने की आदत है । तो अब यह विचार करें कि मेरे लिए ऐसा कौन सा शरण है जिसकी ओर से कभी धोखा न हो और आत्मा की पूर्ण सिद्धि भी प्राप्त हो? कुछ ऐसा खोजने चलेंगे तो इस लोक में कोई भी पदार्थ ऐसा न मिलेगा कि जो धोखा न दे । धन, वैभव, कुटुंब, मित्र, स्त्री, पुत्रादिक मिले हैं, मगर इनका वियोग होगा, यह धोखा तो अनिवार्य है और जीवन में भी कितने ही धोखे चलते रहते हैं । तो जगत में ऐसा कोई पदार्थ न मिलेगा कि जिसकी शरण गहें और कोई धोखा न हो । तो बाहर में शरण ढूढ़ने की आदत छोड़नी होगी । उसमें कोई सिद्धि नहीं है, ऐसा अनादि से करते चले आये हैं, मगर इसमें मेरे को कोई शांति का मार्ग न मिला । तब बाहर में शरण ढूढ़ने की आदत त्याग कर कुछ अपने आप में ही शरण ढूढ़ने की बात करनी होगी । कौन है शरण? अच्छा, किस बात के लिए शरण ढूढ़ रहे? हमारा धन बढ़े, घर बढ़े, संतान बढ़े, इसके लिए शरण ढूंढ़ने चले हो क्या? तो ज्ञानी की आवाज है यह कि हमें बाहर में कोई शरण नहीं है, ये तो प्रकट असार है, माया जाल है, इनमें हम अपने लिए कोई शरण नहीं खोज रहे । हम शरण खोजना चाहते हैं कि हमारी ऐसी परिणति बने कि हम शांत हैं, क्षोभ रहित हों, विकल्प न उठ रहे हों, ज्ञान का विषय ज्ञानस्वरूप बन रहा हो, ऐसी स्थिति चाहते हैं और उसके लिए शरण ढूढ़ रहे हैं । निष्कर्ष क्या निकला कि हम निर्विकार की स्थिति चाहते हैं । विकार कर करके हम तो परेशान रहे, अपना कुछ न हुआ, सब बाहरी बातें हैं, जैसा जिसका मन चाहता वैसा करता । जैसा पुद्गल का योग नियोग है होता । परेशान हो गया बाहर में कुछ ढूढ़कर, कुछ ललचाकर, कुछ अपनाकर । अब तो बाहर में मुझे कुछ नहीं ढूढ़ना है । ये बाहरी पदार्थ इनका संयोग एक विकार का ही तो कारण बनता है, पर निर्विकार स्थिति होने के लिए इनकी ओर से कोई सहयोग नहीं । तो मतलब यह ही तो निकला कि अब हम किसी निर्विकार की शरण में पहुंचे ।
27―अविकार सहज परमात्मतत्त्व की शरण्यता―हाँ चलो निर्विकार को ढूंढ़ने । बाहर में ढूंढ़ने चले तो मिला कौन? सशरीर भगवान व शरीररहित भगवान । मिला तो सही मगर वहाँ हम दृष्टि दें इतनी दूर उपयोग दौड़ायें, लोक के अंत में हैं; उस जगह में है, ऐसी हम दृष्टि अपनायें और यह हैं सिद्ध, यह हैं मुक्त जीव, यों बाह्य में हम उपयोग दौड़ायें तो वहाँ उपयोग में निर्विकल्पता न रही । कर तो रहे हम निर्विकार का ही आश्रय, मगर बाहर में निर्विकार का आश्रय कर रहे इसलिए निर्विकल्पता नहीं । चित्तवृत्ति की स्थिरता के लिए धोखा ही चल रहा है । तब फिर थोड़ा ओर आगे आये, बाहर से अंदर आये, भीतर में ही सोचने लगे-यह हैं सिद्ध भगवान, यह हैं अरहंत और भीतर सोचें या बाहर सोचें, अपने को भेदरूप से सोचा गया है तो प्रभाव तो यही है कि हम अभेद दशा में नहीं आ पा रहे । अरे-अरे यह कैसी कृतघ्नपने की बात की जा रही है कि जिस प्रभु की दिव्यध्वनि की परंपरा से आये हुए शास्त्रों के द्वारा हम कुछ बोध और समझ पा सके, पर निर्विकल्प समाधि के लिए चलने को हुए तो यहाँ बिल्कुल भगवान की बात ही छोड़ रहे । भगवान की बात कहां छोड़ रहे, हम तो द्वैतपने की बात छोड़ रहे, द्वैत का आश्रय करने में असिद्धि है, अद्वैत का आश्रय करने में सिद्धि है, तो उस प्रभु को कुछ और निकट लायें तो स्वभाव के रूप में उनको निरखने लगें, पर ऐसा निरखा जाये कि फिर स्वभाव ही स्वभाव मात्र दृष्टि में रहे, यह प्रभु की बात? यह मेरी बात, या इनकी बात, सब जीवों का स्वभाव समान है, यह तो एक पंचायत की बात है । ये अभेदानुभूति के लक्षण नहीं हैं । स्वभाव इस तरह से जाना जाये कि उस ज्ञान के साथ व्यक्ति जुड़ा हुआ न रहे तो अभेदानुभूति की पात्रता होती है । अच्छा तो अर्थ यह हुआ ना कि निर्विकार कोई बाह्य पुरुष है परम पुरुष परमात्मा अरहंत, सिद्ध, उसका आश्रय लेने से यह निर्मल पर्याय नहीं उत्पन्न हुई, शुभोपयोग रहा, पुण्य बंध रहा तब क्या करना चाहिए? क्या हम अपना आश्रय करके ध्यान बनायें? हम तो हैं बुरे, संसारी विकार वाले । उनके ध्यान से कैसे सिद्धि होगी? यह तो बहुत बड़ी समस्या आ गई कि भगवान के आश्रय से सिद्धि यों नहीं कि प्रभु परद्रव्य है, हमारे आश्रय से सिद्धि यों नहीं कि हम संसारी है, विकारी है, तो उपाय क्या मिल पायेगा ? किसका शरण लें कि हम में निर्मल पर्याय की संतानें चल उठे? अच्छा लेना तो अपना ही शरण है, पर अपने को पर्यायरूप से शरण मत लें । समयसार को देखें । परिणति को न देखें । परिणति से परिणत अपना सहारा न लें । यद्यपि यह रहता है सदा परिणति से परिणमता, मगर इस नाते से सहारा न ले किंतु एक अपने सहज स्वरूप को देखें ।
28―अविकार समयसार की उपासना―कैसा है वह परम शरण स्वरूप? अविकार, निर्विकार नहीं किंतु अविकार । निर्विकार और अविकार में अंतर कितना आया? निर्विकार का अर्थ है निर्गत: विकार:यस्मात् स निर्विकार.... जिससे विकार निकल गए उसे कहते हैं निर्विकार और अविकार का अर्थ है, नास्ति विकार, यत्र स अविकार: जहाँ विकार नहीं वह अविकार है । एक दृष्टि यह बनायी कि विकार निकल गया और एक दृष्टि यह की कि विकार नहीं, तो इनमें अंतर क्या आया? देखो निर्विकार कहकर हम स्वभाव की महिमा घटा रहे, ख्याल में क्या आ रहा है कि इसके विकार था । स्वभाव को देखने की बात कह रहे हैं । निर्विकार कहा तो इस महिमा के प्रसंग में निंदा का शब्द है । जैसे किसी से कहा जाये कि आपके पिता जेल से मुक्त हो गए, निकल गए तो बात तो यह कहा कि जेल में नहीं हैं, घर में आराम से रहते हैं, मगर जेल से निकल गए ऐसा कहने में तो गाली भरी हुई है याने कोई ऐब किया था, जेल में पहुंच गया था, अब जेल से निकल गया । ऐसे ही निर्विकार कहने में स्वभाव की निंदा है, यह स्वभाव विकारी था, अब विकार से हट गया । अगर स्वभाव विकारी था तो विकार से कभी हट नहीं सकता । स्वभाव अविकारी है, विकार का वहाँ प्रसंग नहीं । देखना है किस ढंग से कि मैं सहज जैसा कि मैं सत्त्व रखता हूँ, जो कि मैं स्वभाव रखता हूँ वह सहज स्वरूप, वह तो चैतन्यमात्र है, जिसका कि कार्य चेतना है । यही से ही देखो अंतरंग से । विकार की यहाँ गुंजाइश है क्या? भीतर में निरखिये जैसे दर्पण है, स्वच्छ हैं, निर्मल है उस दर्पण में दर्पण की ओर से प्रतिबिंब छाया की गुंजाइश है क्या कि होता रहे । चीज सामने हो, उपाधि का सन्निधान है, विकार आ गया दर्पण में छाया प्रतिबिंब हो गया, मगर दर्पण के स्वरूप की ओर से देखो तो दर्पण में छाया नहीं, विकार नहीं । प्रतिबिंब न हो तो यह चकचकायमान? स्वच्छ है, ऐसा परमाणु पुंज है । ऐसे ही अपने आप को स्वभाव की ओर से देखें तो विकार नहीं, कर्म नहीं, संसार नहीं, बंधन नहीं, मनुष्य नहीं, दुःख नहीं, कष्ट नहीं । स्वभाव स्वभाव का निर्णय करके देखें, इस स्वभाव में मात्र चेतना है । अगर स्वभाव में विकार होता तो किसी भी उपाय से हट नहीं सकता था । ऐसा अविकार समयसार जिसकी ओर यह ज्ञानोपयोग अभिमुख रहे तो यह कहलायेगा समयसार का वास्तविक नमस्कार ।
29―रागरहित अविकार समयसार में प्रवेश करने का, साहस करने का अनुरोध―जैसे जाड़े के दिन हों और कुछ बच्चे तालाब में नहाने जायें और तालाब के किनारे तालाब के ही थोड़ा भीतर घुसे हुए में एक बड़ा ऊँचा पत्थर है सो किनारे से बढ़-बढ़कर उस पत्थर पर पहुंच गये हैं जहाँ से गिरे तो पानी में नहा लें, मगर जाड़ा लग रहा, हिम्मत नहीं हो रही, वायु के झकोरे चल रहे । कोई बालक उस शिला पर बैठा है कुकडूं, कुछ सोच में पड़ गया, नहाने की हिम्मत नहीं होती, उस पानी में गिरने का साहस नहीं होता, जाड़ा तेज लग रहा । कोई बालक अपने मन से कुछ न सोचकर उछलकर पानी में गिर जाता है तो उसका सब जाड़ा खतम हो जाता । पानी में पड़ने के बाद जाड़े की तकलीफ नहीं रहती । साहस बनाया कि अपने काम को सिद्ध कर लिया । यहाँ यह देखो कि विकल्प, वेदना, ममता, रागद्वेष, बाहरी पदार्थों पर दृष्टि होना ये सब बाह्य वायु के झकोरे ये वेदनायें इस जीव को लगी हैं । अब इसके मन में आया कि चलो ज्ञान सरोवर में अवगाह लें, आत्मा का जो एक स्वच्छ सहज ज्ञानस्वरूप है उसमें प्रवेश करें, उसमें ही स्नान करें ऐसा मन में आया । आ रहा मन में और इसके लिए श्रम भी कर रहा, पौरुष कर रहा, प्रयत्न कर रहा, तीर्थ यात्रा करता, सत्संग करता, स्वाध्याय करता, ये सारे प्रयत्न कर रहा मगर यह रागद्वेषादि की वेदना, यह दंड, यह संस्कार, ये सब इस जीव को बरबाद कर रहे, लेकिन क्या होनी, कैसा भाव पड़ा कि इस ज्ञानसरोवर में जो सामने नजर आ रहा, चर्चा द्वारा, कुछ समझ द्वारा, इसमें अवगाह नहीं हो पा रहा । एक बार साहस करने भर की बात है । इस राग के संसार को तोड़कर इस ज्ञानसरोवर में अवगाह करना, ऐसा किया नहीं क्या किसी ने? भला बतलावो―छोटी उम्र का सुकौशल, जवानी में प्रवेश किया हुआ सुकौशल जिस समय अपने पिता मुनि की मुद्रा देखता है और कुछ घर की घटना समझ पाता है तो एकदम विरक्त हुआ । हो गया ऐसा कटाव कि पहला ही बालक, सुकौशल की स्त्री के गर्भ में था, उस समय लोग तो स्त्री को ललचाते, बच्चा होनहार हो तो बड़ी खुशी मनाते, बड़ी प्रतीक्षा करके आगे का प्रोग्राम बनाते, पर जिसको सहज चैतन्यस्वरूप का भान हुआ है और समस्त तथ्यों का परिचय हो गया है उसका मोह ऐसा कटा कि वह विरक्त होकर चल दिया जंगल में । सब समझाया मंत्रियों ने । लोगों की दृष्टि में यह तो बड़ा गजब का काम हुआ । अभी दो चार वर्ष ही शादी को हुए, गर्भिणी स्त्री है, राज्य को सम्हालने के दिन हैं, क्या मूर्खता समा गई, इस तरह परखने वाले अज्ञानी उस समय बहु संख्या में थे । मंत्री समझाये, सबने परिश्रम कर लिया, पर एक बार सही ज्ञान होने पर फिर अपना परिणमन अज्ञानरूप कैसे लिया जा सकता है ।
30―प्रकट हुए ज्ञान को प्रसंगों द्वारा अज्ञानरूप किये जाने की अशक्यता―सामने पड़ी हो रस्सी और जान गए सांप तो वहाँ घबड़ाहट है, क्लेश है । हिम्मत करके आगे बढ़े और रस्सी को रस्सी ही है ऐसा पहचान गये, छूकर सब तरह परीक्षा करके पहिचान गए कि यह रस्सी है, अब पहले जैसा कि यह साँप है, जो आकुलता मचाये थे वैसा अज्ञान का परिणमन कैसे किया जा सकता? जहाँ प्रबल भेद विज्ञान है, स्वरूप का भान हो गया, वहाँ अज्ञान अवस्था कैसे नापी जा सकती है? वास्तविकता तो यह है कि ऐसी स्थिति में भी चले गए तो कहीं वह बच्चा या स्त्री निराश्रय तो नहीं हो गए, कोई किसी को आश्रय नहीं देता, सबका अपना-अपना भाग्य है । संसारी अवस्था में जो हो रहा है वह सब कर्मानुभूति के अनुसार चल रहा । अब कोई समाज में धर्मात्मा पुरुष बने, उससे कहा जाये कि भाई तुम सब कुछ एकदम छोड़ दो तो वह कहेगा कि अजी दया आती है, छोटे-छोटे बच्चे हैं, कच्ची गृहस्थी है, अगर हम इन्हें छोड़ देंगे तो ये बच्चे लोग क्या करेंगे? इन पर हमें दया आती है । तो दया नहीं आती, वह तो मोह के अंकुर ही उस रूप में प्रकट हो रहे । रागभाव का एक बार भी कटाव बन जाये उपयोग में तब वह अनुभूति प्राप्त हो सकती है । रागभाव का लेश रहते हुए आत्मानुभव पाना अशक्य है । इस ही दृष्टि को लेकर श्री कुंदकुंदाचार्य ने बताया कि परमाणुमात्र भी जिसके राग है उसके स्वानुभूति नहीं । देखना कौन-सी बात कही जा रही है । आगम में तो लिखा है कि छठे गुणस्थान तक राग है और यहाँ कहा जा रहा कि परमाणुमात्र भी जिसके चित्त में राग रह रहा है वह आत्मा का अनुभव नहीं कर सकता । इसका भाव यह है कि उपयोग के समय में यदि परमाणुमात्र भी राग है तो आत्मा का अनुभव नहीं हो सकता । कोई मनुष्य 5 भाषाओं का जानकार है―हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू, संस्कृत और प्राकृत । अब मान लो कोई संस्कृत भाषा में लिखा हुआ पत्र उसके पास आया है । उसे वह पढ़ रहा है तो उस समय शेष चार भाषाओं का व्यापार तो उसका नहीं चल रहा, सिर्फ एक संस्कृत भाषा का उपयोग है, ऐसे ही जब इस अविकार ज्ञानघन चैतन्यस्वरूप का ही उपयोग हो, लेशमात्र भी राग का उपयोग न हो तो वहाँ आत्मा की अनुभूति बनती है । तो वह कौन-सा शरण है कि जिसका शरण गहने से निर्मल पर्याय बनती है वह है अविकार समयसार, मेरा ही सहज स्वरूप, उपाधि रहित, उपाधि के प्रभाव से दूर है, अव्यक्त तो है मगर अव्यक्त में ही, गुप्त में ही, अंतर्दृष्टि के द्वारा व्यक्त किया जाता है ।
31―अविकार समयसार की सुध न रहने पर विडंबना―अहो यह कारण समयसार जो मेरा स्वरूप है, अनादि से है, मैं ही हूँ, इसको भूलकर बाहर दृष्टि लगा लगाकर हमने इस भगवान आत्मा को अनादि-काल से झकझोर डाला । ओह, इतनी हिंसा की हमने । इस सहज भगवान, सरल भगवान अविकार स्वरूप इस आत्मा को मुझने, उपयोग ने अनादि काल से झकझोर डाला । इतने बड़े अन्याय का तो बहुत बड़ा दंड है । हाँ-हाँ, सो दंड पाया है । निगोद में रहे, स्थावरों में रहे, कीट पतंगें के भवों में रहे, निज भगवान आत्मा पर अन्याय करने का फल यह सब संसार है । इससे मुक्त होने का उपाय है निज अविकार सहजस्वरूप का आलंबन लेना, ज्ञान में एक चित्प्रकाश ही रहे, अन्य बात न रहे । बात समझने में कोई कठिनाई तो नहीं, किसी से किया जाये या न किया जाये । किसी से उपयोग ऐसा बन सके या न बन सके, मगर बात तो बिल्कुल साफ है ना कि एक अविकार चैतन्य चित्प्रकाश यह ही ज्ञान में हो तो इसके आत्मानुभव हो, मोक्षमार्ग में बढ़े और बाहरी पदार्थ कीर्ति इज्जत, नाम आदिक ये अगर दृष्टि में रहे तो उसे आत्मा का अनुभव नहीं है । संसार के लोग बड़े पुरुषों से ईर्ष्या किया करते हैं । धन में कोई बढ़ा हुआ है तो उससे ईर्ष्या । इज्जत, प्रतिष्ठा, कीर्ति में जो बढ़ा हुआ है उससे ईर्ष्या, और-और बातें सब लगा लो, जिन-जिन बातों से लोग ईर्ष्या करते हैं तो आप यह देखें कि ईर्ष्या करने वालों की कितनी बड़ी मूढ़ता है याने ईर्ष्या करने वाले के चित्त में यह बैठा है कि धन ही सार है तब ही तो धनी को देखकर ईर्ष्या होती है, लोगों में नाम बढ़ जाये, कीर्ति बढ़ जाये, यह ही सार है, यह बात किसी के चित्त में बैठ जाये तब ही तो ईर्ष्या होती है, यह नहीं देखता कि यह बेचारा अज्ञानी कहां बह गया? बहुत गरीब है, कितना परतत्त्वों में चला गया, यह तो निरखता नहीं और ईर्ष्या करता है । यह सब अज्ञान का ही प्रताप है । उपयोग निज समयसार को निरखें बस यह है काम, यह है कल्याण । इसके पाने के लिए मेरा सब कुछ बलिदान । तन कुछ नहीं, यह तो जल जाने वाला है, संबंधी मित्र कुछ नहीं, ये तो खुद में परिपूर्ण हैं, पर पदार्थ हैं, इनका सब कुछ इनमें है, उनसे मेरे को अटक क्या? जो घरके, कुटुंब के लोग हैं वे भी उतने ही निराले हैं जितने निराले जगत के अन्य जीव हैं । रंच भी संबंध नहीं । अज्ञान बढ़ाया जाता, यह खुद का अपराध किया जाता, संबंध रंच भी नहीं । तो परमाणुमात्र के प्रति भी राग न हो जिस उपयोग में वह उपयोग आत्मस्वरूप की अनुभूति करता है । इसका उपयोग यह है कि निरंजन चित्प्रकाश अविकार के नाते से चित्प्रकाश का आश्रय लें, ज्ञान में केवल वही चेतना मात्र उपयोग में हो तो इसमें हमारा मोक्षमार्ग रहता है ।
32―निराकार समयसार का वास्तविक नमस्कार―यह समयसार निराकार है । आत्मा के बारे में कितनी तरह के विचार आत्मानुभूति के विघ्नरूप बनते हैं । साक्षात् कह रहे हैं । वैसे तो माना गया है कि आत्मा की सारी बात जानो, क्या अशुद्ध अवस्था है, क्या क्षेत्र है, क्या काल है, क्या द्रव्य है सब कुछ जानें । इस आत्मा का तो रग-रग पहिचान लें । जितना बन सके उतना परिचय बनाये, सब कुछ परिचय बनाने के बाद भी अब यह देखो कि कौन-कौनसा परिचय आत्मानुभव में बाधक है? परिचय बाधक नहीं, किंतु परिचय का उपयोग बाधक है । आत्मा को परखने की 5 विधियाँ हैं―द्रव्य, क्षेत्र, काल, गुण और पर्याय । आत्मा को द्रव्य की दृष्टि से देखें―ओह अनंत गुण पर्यायों का पिंड है यह आत्मा । जब अनंतगुण, अनंत पर्यायें इसके चित्त में है, उपयोग के विषय बन रहे हैं तो वहाँ अभेदानुभव कहाँ से हो? यह तो सीधी गणित की बात है । क्षेत्र से परिचय पाया है कि आत्मा―देह प्रमाण है । इस समय यह जीव 5-6 फिट लंबा है, एक हाथ फैला है इस शरीर से एकक्षेत्रावगाह है, अमूर्त है, चेतन है, पर इतने प्रमाण में है यों अरे जब क्षेत्रदृष्टि से परखा, आकार रूप से परखा तो आकार जब उपयोग में है तो वहाँ आत्मा की अनुभूति नहीं है । अच्छा तो हम परिणति के रूप में आत्मा को देखेंगे, कैसी परिणति बन रही है, इस समय हम किस अवस्था में हैं, क्योंकि अवस्था से रहित जीव कभी नहीं होता । तो हम किसी अवस्थारूप में इस आत्मा को देख रहे हों तो आत्मानुभूति नहीं है, वह विकल्प है । तब हम गुण के रूप से देखेंगे―ओह, आत्मा में ज्ञानगुण, दर्शन गुण, चरित्र गुण, आनंद गुण, शक्ति आदिक अनंत गुण हैं । इस रूप से इस आत्मा को परखेंगे तो भाई परख तो लो, मार्ग तो है परखने का मगर इस परख के उपयोग में आत्मानुभव नहीं है, तब फिर देखो आकार रूप में आत्मा को परखने से सिद्धि नहीं मिलती । आत्मानुभूति नहीं हुई, तब फिर कैसे देखें उस समयसार को? स्वभावमात्र, स्वभाव लंबा चौड़ा है क्या? स्वभाव किसी दिशा का नाम है क्या? स्वभाव किसी का पिंड है क्या? आत्मा का स्वभाव है सहज चैतन्यमात्र । ज्ञान में मात्र यही स्वभाव रहे जिसके रहने से न तो मैं रहता, न भगवान रहते न कोई रहता । कहा ?....उपयोग में । सत्ता मिटाने की बात नहीं कह रहे, उपयोग में मैं भी नहीं, भगवान भी नहीं, जीव भी नहीं, कुछ भी नहीं, यह क्या है, इसे कौन बताये? उस आत्मा के अनुभव के समय एक निर्विकल्प स्थिति है । जो स्वभाव का आश्रय करने में ही बनता है । तो ऐसा एक अविकार समयसार का आश्रय करना ही एक परमशरण है और वह है निराकार अविकार चैतन्यस्वरूप । उस रूप अपने को अनुभवना, मैं यह हूँ, मैं यह हूँ, ऐसा दृढ़ अभ्यास बन जाये कि मैं यह हूँ, इसके अतिरिक्त मुझे कुछ न सुहाये । जब न रह सकें इसमें तो मित्रजनों से, कुटुंबी जनों से, सहयोगी जनों से इस ही तत्त्व की चर्चा करें । मोह राग का दोष कम हो जायेगा । ऐसे इस अविकार निराकार चेतनामात्र समयसार का शरण करना ही, इसकी ओर अभिमुख होना ही वास्तविक समयसार का नमस्कार है ।
33―समयसार की संसारशिरोमणिता―जिसका शरण पाना है, जिसकी ओर दृष्टि रखना है, जिससे अपनी सारी सिद्धियाँ होना है ऐसा यह स्वरूप, समयसार सर्व प्राणियों के अंदर नित्य अंत: प्रकाशमान है । चाहे कोई सा भी भव हो, एकेंद्रिय है, निगोद है, उसका कुछ भी स्वभाव व्यक्त नहीं हो पा रहा है, बड़ा आवरण है, न कुछ जैसी दशा है, इतने पर भी स्वभाव वही परिपूर्ण है, अंतःप्रकाशमान है । यदि स्वभाव न रहे, मिट जाये तो जीव ही मिट जाये । तो ऐसा वह अपना सहज स्वरूप समयसार उसके लिए यहाँ अभिमुखता रूपी नमस्कार किया जा रहा है । यह समयसार संसार के जितने पदार्थ हैं उन सब पदार्थों में शिरोमणि है । सब कुछ हो, पाँचों द्रव्य हो खूब और एक जीव द्रव्य ही भर न हो तो उसकी स्थिति विचारो, क्या स्थिति है ? प्रथम तो पुद्गल काहे के लिए ? जब जीव ही नहीं है तो, यह तो भोगोपभोग के साधन हैं, भोगोपभोगरूप हैं । जो जीव द्वारा अग्राह्य वर्गणायें हैं वे तो आंखों से ही नहीं दिखती है, ऐसा कुछ है । बाकी ये सब जीवग्राह्य हैं । जीव न होता तो यह सकल ही क्यों होती पुद्गल की? जीव ने आहार वर्गणाओं को ग्रहण किया और यह वृद्धि को प्राप्त होता, जब कि ये ईंट-भींट, कड़ी बर्गा आदिक ये सबके सब जो दिख रहे हैं, ये सब जीव संबंध से ही बने हैं । जीवद्रव्य न हो तो यह काठ ही काहे के लिए होता ? और, धर्म अधर्म किसलिए ? आकाश का कौन प्रयोग करे ? काल भी क्या बात रही ? एक जीव द्रव्य भर न हो तो यह सारा संसार सूना । यह हलचल ही कुछ नहीं, बात ही कुछ नहीं, ज्ञान भी क्या, ज्ञेय भी क्या? तो यह जीव द्रव्य संसार के समस्त पदार्थों में, शिरोमणि हैं । कोई सोच सकता कि मैं जीव द्रव्य न होता और मैं परमाणु रहता तो बड़ा अच्छा था । कोई कष्ट न होता, विकल्प न होते, कुछ बात ही न होती, कुछ भी बन रहा, स्कंध बने, जीव द्वारा ग्रहण में आये, कुछ भी हो, परमाणु का क्या बुरा-भला? मैं क्यों जीव हुआ? इसमें कोई बात चलती है क्या? क्यों हुआ? न होता, अरे जो सत् है वह है ही है । अनादि से ही है, अब तो इसमें कुशलताएँ है कि विकल्प भ्रमदृष्टि, कषाय, आकुलता, ये विपरीत परिणमन न रहें और शुद्ध परिणमन जगे । पवित्र यह आत्मतत्त्व बने तो वहाँ दुःख नहीं, इतनी ही बात नहीं, किंतु अनंत आनंद बनेगा । निराकुलता का नाम आनंद तो कहा है पर केवल इतनी ही बात नहीं कि आकुलता नहीं इसका नाम आनंद है । आनंद तो जीव का एक सहज गुण है । अभावरूप नहीं, निषेधरूप नहीं कि आकुलता नहीं यह ही आनंद है । यह तो हम आपको समझाने के लिए बात है । क्योंकि हम आप आकुलता से भरे हैं । आकुलता हमारा आपका एक माप है । इसे सुख है कि नहीं, शांति है कि नहीं उसकी माप है आकुलता । कितना कम है, बिल्कुल नहीं है, यह तो आनंद का माप है, पर आकुलता का न रहना इसका नाम आनंद नहीं । आनंद तो एक विधिरूप गुण है, स्वभाव है जीवका, आनंद तो परम आल्हादमय अवस्था है जो अब कभी चंचल नहीं होना है, स्थिर अवस्था है, शुद्ध पर्याय हुई, तो ऐसा जो एक आनंद स्वभाव वाला है, ज्ञानस्वभाव वाला है वह तत्त्व तो संसार के सर्व पदार्थों में शिरोमणि है ।
34―समयसार की सर्वदर्शिता व सर्वज्ञरूपता―इस अंतस्तत्त्व का स्वरूप देखो, सर्वदर्शी और सर्वज्ञ स्वरूप है । स्वभाव जब एक वस्तु है । आत्मा चैतन्यस्वरूप, तो चेतना में कैद कहाँ से लगे कि तुम सामने की ही बात जानना । आज की ही बात जानना । उस चेतन में, उस चेतन के स्वभाव में, उससे चेतन के परिणमन में तो क्षेत्र की कैद है न काल की कैद है, न द्रव्य की कैद है, इतना बड़ा जानना, इतना छोटा जानना, ऐसी कुछ कैद नहीं है । क्योंकि चेतने का स्वभाव है यदि बाह्यपदार्थों की कला के कारण ज्ञान बने तो कैद है मगर चेतना में स्वयं की ओर से, स्वयं की कला से ज्ञान प्रकट होता है, बाह्यपदार्थों की कला से ज्ञान नहीं बनता इसीलिए यह असीम है, स्वभाव सर्वदर्शी है और सर्वज्ञ है ।
35―अपने एकमात्र स्वामी समयसार को अभेद नमस्कार―समयसार, हमारा यही तो एक स्वामी है, बाहर कहीं भी डोल आये, सिवाय थकने के और चोट लगने के और कुछ बात न आयेगी । लड़का घर से निकलकर बाहर खेलने जाता है, खेल रहा, पिटकर वह रोकर आयेगा घर में और तब वह खटिया पर सो जायेगा । बाहर में उस लड़के को कोई आराम मिलने का नहीं । जहाँ कुछ बालक जुड़ते हैं और उनमें ये खेल रहे हैं, मन भर रहे, पर उस खेल का अंतिम परिणाम लड़ाई है । जब तक मार-पीट नहीं हो जाती तब तक खेल बंद नहीं होता । तो ऐसे ही समझो कि यह उपयोग बाहर दौड़ रहा अनेक पदार्थों के साथ खेल रहा, नाना पुद्गल, चेतन अचेतन रूपी पदार्थ, सुंदर रूप, रस, गंध, स्पर्श, यश कीर्ति आदिक न जाने क्या-क्या बातें हैं, उन सबके साथ यह उपयोग खेल रहा है । उसका परिणाम यह निकलता है कि यह रोकर आयेगा, पछताकर आयेगा और अपने घर में, अपने स्वामी की शरण में आयेगा तो इसे आराम मिलेगा, विश्राम मिलेगा, इसे विश्राम मिलने की कोई और जगह नहीं है संसार में । जो पर में विश्राम मान रहे हैं वे धोखा खायेंगे और बड़ी चोट सहेंगे । जो संपदा में ममता रखते हैं, कुटुंबीजनों को देखकर बड़ा हर्ष मानते हैं, अपने को बहुत बड़ा अनुभव करते हैं वह सब जितना जो बड़ा अनुभव करेगा संसारी रूप से वह उतना ही अधिक चोट खायेगा, दुःखी होना पड़ेगा । तो संसार में कहीं भी उपयोग को शरण लेने के लिए भेज दो, जाओ शरण गहो, पर यह उपयोग बाहर से रोता हुआ ही आयेगा और आखिर जब अपने आपके अंदर ही बसा हुआ यह समयसार स्वामी―इसकी छाया में आयेगा तो इसे आराम मिलेगा । इस सहज ज्ञान परमज्योति चैतन्य महाप्रभु की ओर जो शरण लेता हुआ दृष्टि रखता है तो ऐसी दृष्टि रखने का नाम है समयसार का नमस्कार । समयसार अज्ञानी तो नहीं है जो आपके हाथ जोड़ने को देखकर आप पर प्रसन्न हो जाये । इसका नमस्कार तो इसकी ओर अभिमुख होना, इसका आत्मसात् करना, इसमें रुचि जगना, यह ही इसका नमस्कार है । हाथ से नहीं, सिर से नहीं, लेकिन जब समयसार की रुचि है और विकल्प हो तो सिर पर हाथ लगे हुए हैं और जब श्रद्धा चल रही है तो मन, वचन काय भी नम्र होता है, ऐसा योग न बनेगा कि आत्मा या उपयोग तो इस समयसार प्रभु की ओर नम्र हो और हाथ और सिर कड़े बने रहें ऐसा योग नहीं होता । यह तो बाहर की जो प्रवृत्ति है । वह अंत: प्रवृत्ति का अंदाज करने वाली है । लाभ तो अंतर्वृत्ति से है । इस अंतर्वृत्ति के लिए सबसे महान साहस यही करना होता है कि मेरा इस आत्मस्वरूप के अतिरिक्त अणु मात्र भी मेरा कुछ नहीं है, ऐसा कटाव बने समस्त परतत्त्वों से तो इस जीव को समयसार के दर्शन होते हैं । कोई सोचे कि कुछ-कुछ राग भी चलता रहे और कुछ-कुछ समयसार का अनुभव भी होता रहे, सो ऐसा धीरे-धीरे राग उत्पन्न होना और धीरे-धीरे समयसार का अनुभव होना, यह बात नहीं होती, राग भी छूटता है तो एकदम से है । छूटता है और अनुभव भी होता तो एकदम से होता है । यहाँ धीरे-धीरे वाली बात नहीं है । अभ्यास करने की बात अलग है, तो एक अंतर्दृष्टि में निर्विकल्प युक्ति से अपने आप में सहज अंतस्तत्त्व का दर्शन करें, अभिमुख हों यही है इस समयसार का अद्वैत नमस्कार ।
36―मेरा उत्तरदायी समयसार―मेरा धनी मैं, मेरा जिम्मेदार मैं । दूसरा कोई भरोसा इस आत्मा का उत्तरदायी नहीं । कोई भरोसा रखता हो कि हमारा पति हमारा जिम्मेदार है, हमारा अमुक पंडित, हमारा अमुक गुरु जिम्मेदार है तो गुरु की बात तो दूर की रही, भगवान भी मेरे जिम्मेदार नहीं, प्रभु सर्वज्ञ, ईश्वर, सिद्ध भगवान, सशरीर परमात्मा ये भी कोई मेरे जिम्मेदार नहीं । अपार जिम्मेदार हों तो भगवान नहीं । कोई भी पदार्थ किसी दूसरे पदार्थ का उत्तरदायी नहीं होता, ऐसा है यह बेशरम संसार । यहाँ कोई पदार्थ किसी दूसरे पदार्थ का जिम्मेदार है ही नहीं । स्वरूपदृष्टि से देखो प्रत्येक पदार्थ अपने आपमें अपनी पर्याय का उत्पाद करता है, अपनी ही पूर्व पर्याय का विलय करता है और स्वयं यह खुद ध्रुव रहता है । इसकी फैक्टरी में दूसरे का साझा नहीं है, समस्त पदार्थों की फैक्टरी केवल उन ही में खुद में है । यह कोई किसी दूसरे के साझे में नहीं । हाँं विषम परिस्थितियां जो होती हैं वे निमित्त नैमित्तिक योग से होती हैं, पर इसे तो कैवल्य चाहिए । प्योरिटी, पवित्रता नहीं किंतु एकत्व । प्योरिटी का शुद्ध अर्थ पवित्रता नहीं है किंतु एकत्व है, कैवल्य है । अब कैवल्य में पवित्रता होती ही है । एकत्व में पवित्रता होती ही है । तो प्योरिटी का अर्थ पवित्रता करना फलित अर्थ है । शुद्ध अर्थ नहीं । शुद्ध अर्थ है कैवल्य, एकत्व । अपने आप में अपना कैवल्य हो, केवलपना रहे बस यह ही है आत्मा का एक कल्याणभूत काम । ऐसा होने के लिए मेरा कौन सहयोगी है? कौन सहयोग दे देगा? मैं अपने ही दुर्भावों को न तजूं तो फिर मेरा कोई मददगार नहीं । दूसरा अगर मददगार है, निमित्त है तो दुर्भावों में निमित्त तो हो जाता है, विकारों में तो निमित्त हो जाता है, पर आत्मानुभूति में कोई दूसरा निमित्त नहीं है, रहा यह कर्मक्षय, कर्म उपशम तो इसका तो निमित्त नैमित्तिक भाव व्यवस्थित है, मगर आश्रयभूत पदार्थों में निमित्तपने की बात व्यवस्थित नहीं है ।
37―विषम कार्यों की निष्पत्तिविधि―विकार के प्रसंग में ये तीन बातें बहुत समझकर चलना है । जितने भी विकार होते हैं जीव में या जो कुछ भी विचार होते हैं उनमें तीन कारण हुआ करते―(1) उपादान (2) निमित्त और (3) आश्रयभूत । आश्रयभूत पदार्थ वे हैं जो पंचेंद्रिय के विषयभूत हैं, बाहरी चीजें है या और-और देव शास्त्र गुरु आदिक हैं, और निमित्त कारण है कर्म का उपशम, उदय, क्षय, क्षयोपशम आदिक । तथा उपादान है यह जीव, जिसमें इतने तत्त्व प्रकट होते हैं । अब जिन लोगों ने इन बाहरी आश्रयभूत पदार्थों को निमित्त नैमित्तिक कह कहकर इस निमित्त शब्द की जान निकाल दी है, उदाहरण दे देकर सम्यक्त्व का निमित्त समवशरण है अगर, तो यह जीव समवशरण में कई बार गया सम्यक्त्व क्यों न हुआ? इसलिए निमित्त कुछ चीज नहीं । खूब उदाहरण दिये जाते हैं मगर जैनशासन से कितना द्रोह का काम है यह कि आश्रयभूत का तो उदाहरण दे देकर, और निमित्त कहकर इसके कर्मसिद्धांत का खंडन करते । भला कोई, यह तो बताये कि जीव की कमजोरी के कारण आज तक मुक्ति न हो सकी तो यह कमजोरी आज से अनंतकाल पहले क्यों न मिटा ली? अब भी क्यों नहीं मिटा ली जाती, क्योंकि वह अपनी बात है, अपनी योग्यता है तभी मिटा लेते । तो जैनशासन का सिद्धांत एक अमिट सिद्धांत है जिसके विषय में कोई जबान नहीं हिला सकता । किसी दर्शन ने कर्म की बात सामने नहीं रखी । वीतराग ऋषि संतों ने अपने ज्ञानद्वारा प्रभु की दिव्यध्वनि परंपरा द्वारा कर्म का सही-सही रूप बताया । कितने रूप में? ओहो, पहाड़ कितना बड़ा है यह वही जान सका है जो पहाड़ पर चढ़ने का उद्यम करे । दूर से देखकर तो कह देंगे कि पहाड़ यह ही तो है, झट ऊपर चढ़ जायेंगे, तो वह गप्प है केवल । जब किसी तत्त्वज्ञान में प्रकृत में कर्मसिद्धांत में चलियेगा तो मालूम पड़ेगा कि कितना गहन विषय है कर्मसिद्धांत का । आश्रयभूत में गड़बड़ी है, वह कारण बने या न बने । सम्यक्त्व का कारण समवशरण नहीं है, जिनबिंबदर्शन नहीं है । सम्यक्त्व की उत्पत्ति के कारण ये बाहरी उपदेश नहीं हैं । सम्यक्त्व की उत्पत्ति के कारण भूत तो सम्यक्त्वघातक 7 प्रकृतियों का उपशम, क्षय, क्षयोपशम है अन्य कुछ नहीं है ।
38―शुभोपयोगियों के लिये शुभोपयोग की हेयता का उपदेश―अब यह एक शंका दूसरी हो सकती है कि आश्रयभूत वस्तु निमित्त नहीं है तो हम क्यों दर्शन करें? क्यों आगम सुनें, क्यों यह करें । तो देखिये भाई―अशुभोपयोग के बाद निर्मल पर्याय किसी के भी प्रकट नहीं हुई तो जिस-जिस जीव के निर्मल पर्याय प्रकट हुई है शुभोपयोग के बाद हुई है । अशुभोपयोग के बाद कोई सी भी निर्मल पर्याय प्रकट हो नहीं सकती । ढंग ही यह है, तो मूर्तिदर्शन, शास्त्रश्रवण, गुरुभक्ति ये सब हमको नम्र बनाते हैं, मार्ग की ओर झुकाते हैं, वे-वे सब शुभोपयोग हो रहे हैं; जिस तरह के शुभोपयोग के बाद निर्मल पर्याय बन सकती है वह तो होगा, उनसे अलग हटना कर्तव्य नहीं है, मगर तत्त्व यह बतलाता है कि सिवाय सम्यक्त्वघातक, 7 प्रकृतियों के, उपशम, क्षय, क्षयोपशम के अन्य कुछ भी कारण सम्यक्त्व का निमित्त कारण नहीं है । जैसे यहाँ कहेंगे कि जिन मूर्ति के दर्शन भी नहीं किया और सम्यक्त्व हो गया, समवशरण में भी नहीं गया जीव और सम्यक्त्व हो गया तो यह बतलाओ कि 7 प्रकृतियों का उपशमादि भी न हुआ और सम्यक्त्व हो गया, यह तत्त्व व्यवस्था है क्या? हम आगम में सब कुछ जानकर फिर निष्कर्ष रूप से निश्चयनय का सहारा ले । विकल्पों से हटकर निर्विकल्पदशा में आयें, यह कुछ पौरुष तो है, मगर पहले से ही हम अनभिज्ञ रहें तो वह पौरुष न चलेगा । किसी ने कह दिया कि देखो मकान की दूसरी मंजिल पर पहुंचना होता है सीढ़ियों के छोड़ने से होता कि नहीं होता । सीढ़ियाँ छोड़ेंगे, तभी तो मंजिल पर पहुंचेंगे, सीढ़ियों को पकड़ने से भी ऊपर की मंजिल पर पहुंच सकेंगे क्या? अच्छा सुन लिया किसी ने, ओह―सीढ़ियों के छोड़ने से ऊपर पहुंचते हैं तो हम तो बस अब सिद्ध हो ही गए । हम तो पहले से ही सीढ़ी छोड़ बैठे हैं, हमारा काम तो बन ही गया । कहा है ना कि सीढ़ियों के छोड़ने से, दूसरी मंजिल पर पहुंचते हैं, तो इस तरह छोड़ने से दूसरी मंजिल पर पहुंचना नहीं होता, किंतु ग्रहण करके छोड़ने से, सीढ़ी पर चढ़कर सीढ़ी को छोड़ने से ऊपर पहुंचना होता है, तो ऐसे ही समझो कि शुभोपयोग छोड़ने से शुद्धोपयोग होता, पर शुभोपयोग में चलकर छूटने से होगा शुद्धोपयोग । यों तो शुभोपयोग सारे संसार का छूटा ही हुआ है, तो क्या वे प्रभु हो गये? तो इस समयसार को प्राप्त करने का जो साधन है उस साधन में लग रहे हैं, मगर प्राप्त तब होगा, अनुभव तब होगा जब कि निरपेक्ष, असहाय, पर के आश्रय बिना सहज ही स्वयं की दृष्टि परिणति बनेगी । तो ऐसा करने के लिए अभ्यास करें अभी से कि किसी बाह्य पदार्थ में हमारा राग लगाव न जाये । जाये तो बात करें उससे । जिस पदार्थ में लगाव जाता हो उस पदार्थ से पूछो कि तुम मेरे जिम्मेदार हो क्या? तुम मुझे संसार की भटकना से बचा लोगे क्या? सवाल करें उससे । उत्तर सही मिलेगा और लगाव मिट जायेगा ।
39―सत्संग से निःसंग अनुभव का क्रमविचार―जिसने वस्तु की स्वतंत्रता का परिचय पाया है, जिसके बल पर प्रत्येक पदार्थ को भिन्न-भिन्न स्पष्ट समझ रहा है उस पुरुष को पूर्वसंस्कार वेग के कारण कदाचित योग लगाव बनता हो तो वह उससे सीधी बात करके निवृत्त हो जायेगा, निर्विकल्पता का अभ्यास करना । सत्संग है, साथ में 8-10 भाई हैं, एक ही ध्येय के हैं, कल्याणार्थी हैं, बहुत वात्सल्य है परस्पर में, फिर भी सबके साथ पूरा कटाव करने पर ही अनुभूति बन सकेगी, और, ऐसा ही वात्सल्य धर्मात्माओं में बताया जाता है, सो ही बात बताते हैं, वात्सल्य करते हुए ऐसी स्थिति बनायें कि हम सबको भूल जायें और निर्विकल्प होकर आत्मा का अनुभव करें, ऐसा हम सब साधर्मियों से कह रहे हैं, इसी उद्यम के लिए सत्संग हैकि उस सत्संग का भी ख्याल छोड़ें, विकल्प छोड़े और आत्मानुभव प्राप्त करें । इसीलिए साधर्मियों का सत्संग होता है । बाहर दिल लुभाना, दिल साधना, सुख दिलाना इसके लिए साधर्मियों का सत्संग नहीं, किंतु सभी कोई सभी साधर्मी जनों को भूलकर विकल्प का परिहार कर अपने अंदर में निर्विकल्प शुद्ध चैतन्य ज्योति को ज्ञान में लें और वहाँ एक अनुभूति प्राप्त करें, इसके लिए है साधर्मी जनों का सत्संग । तो कौन हमारा जिम्मेदार रहा? मेरा यह चिदानंद, अलख, जो दूसरे के लखने में नहीं आ रहा, मेरे को खूब समझ में आ रहा ।
40―स्वभाव की स्वसंवेद्यता होने के कारण अनुभूति की सुगमता―देखो―यह बात तो निरखो कि क्रोध, मान, माया, लोभ कषाय और क्रोध, मान, माया, लोभ प्रकृति याने कर्म, द्रव्यकर्म, भावकर्म है । द्रव्यकर्म मायने कर्म और भावकर्म मायने परिणाम । कभी मान का परिणाम हुआ, क्रोध का परिणाम हुआ, विचार का परिणाम हुआ, यह परिणाम और वे ज्ञानावरणादिक आठ कर्म इन दो में मोटी चीज कौन है? कर्म मोटी चीज है, स्थूल है, पौद्गलिक है, मूर्तिक है और कषाय? इसमें रूप रंग नहीं, पौद्गलिक नहीं, जीव के ही गुण की परिणति है, सूक्ष्म है, मगर यह तो बताओ कि आप अपने अनुभव से कषाय को स्पष्ट जान सकते हैं या द्रव्यकर्म को स्पष्ट जान सकते हैं । आप अपने भावों को स्पष्ट जान सकते हैं, कषाय को जान सकते हैं, यह मेरी गल्ती, यह मेरे को कषाय, पर ज्ञानावरण आदिक कर्म को स्पष्ट नहीं जान सकते, इसका कारण क्या कि कषाय तो खुद पर बीत रही इसलिए स्वसम्वेद्य बन रहे और कर्म दूसरे पदार्थ हैं वे मूर्तिक हैं, तो भी हमारे ज्ञान के विषय नहीं बन पाते । तो अब देखो कषाय सूक्ष्म है या अकषाय चित्प्रकाश सूक्ष्म है, अकषाय चैतन्यप्रकाश सूक्ष्म है और इस आत्मा का अधिक समय अधिक लगाव, अधिक बात उस चैतन्यप्रकाश के समय है, उस कषाय के साथ नहीं है, तब अधिक सुगमतया सुसम्वेद्य चैतन्यप्रकाश होना चाहिए न कि कषाय । और हो क्यों रहा? बस धुनि में, रुचि में कमर कसकर उतरने की कमी रही । भगवद्भक्ति का सदुपयोग करें, साधर्मी सत्संग का सदुपयोग करें, वह सदुपयोग यह है कि सर्व को भूलकर केवल एक निर्विकल्प आत्मा में विश्राम लें, जिसकी मुद्रा है अपना ही चैतन्य स्वरूप अपने अनुभव में आये तब, ऐसे इस चिद्रूप स्वयंभू सहज प्राणवंत इस कारणसमयसार के प्रति हमारी अभिमुखता बने, इस ही में हमारी धर्मसाधना है और आत्मकल्याण है चाहे कितना ही चिग जायें, पर श्रद्धा यह ही रहे कि मेरा यह सहज स्वरूप यह ही मेरा परम शरण है, यह ही मेरा स्वामी है, इसके ही आश्रय में हमारा कल्याण है ।
41―उपयोग की उपयोग के स्रोत में सम्यक् उपयुक्तता―यह जीव अपने सुख शांति के लिए अनेक प्रयत्न करता है फिर भी यह शांत नहीं हो पाता इसका कारण क्या है? कारण सीधा है, जिस काम का प्रयत्न करके उसमें यह फिट बैठ नहीं पाता । सीधी सी बात है, जिस दिन फिट बैठ जायेगा उस दिन शांत हो जायेगा, याने ये बाह्य पदार्थों में ममता करके यत्न करता है कि शांति मिले, तो यह जीव है यहाँ और बाह्य पदार्थ हैं वहाँ इससे अत्यंत भिन्न, विनश्वर, कुछ संबंध नहीं, और यह उपयोग उसमें लगता है उसको विषय करता है तो फिट कैसे बैठेगा? यह सब भिन्न है, विनश्वर है, मिटेगा, इसको रोकर यहीं आना पड़ेगा, तो फिट तो न बैठा । हम जो यत्न करते हैं वह जब फिट नहीं बैठता तो शांति कहाँ मिल जायेगी? उपाय कर रहे हैं कि कभी फिट बैठ जाये । फिट बैठेगा कैसे? जहाँ की चीज वहाँ ही रहे तो फिट बैठ जायेगा । उपयोग हमारे आत्मा का यह परिणाम है । वह उपयोग अपने आपके स्वरूप में लगे तो स्वयं फिट बैठ जायेगा । जब कभी आत्मानुभव की प्रतीति चलती है और कुछ मन नहीं रमता तो कहते हैं कि हमारी इसके साथ पटरी नहीं बैठ सकती । तो ऐसे ही इस जीव के इन बाह्य पदार्थों के साथ कभी पटरी ही बैठ नहीं सकती । जबरदस्ती क्यों ऊधम किया जा रहा है? जहाँ पटरी बैठ जाती है, जहाँ यह फिट बने वहाँ उद्यम हो तो कुछ हाथ आये, कुछ लाभ हो, कुछ लगे ऐसा कि हमने कुछ काम कर लिया और रहा सहा सो और किया जायेगा । मगर इन बाह्य पदार्थों में जो उपयोग रमाया तो यह तन न फिट होने की जगह है, न पटरी बैठने का काम है । अब जिससे पटरी बैठती नहीं और जबरदस्ती उसके पीछे लगे तो उसे कोई सिद्धि नहीं होती, ऐसे ही जहाँ हमारी पटरी नहीं बैठ रही है वहीं हम बैठ कर रहे हैं तो वहाँ शांति नहीं मिल सकती । क्या रहा काम? शुभोपयोग में चल रहे हैं, बैठेगी पटरी कभी । ठीक लक्ष्य बन गया है । वस्तु स्वरूप को पहिचान लिया है । बनेगा कभी काम ।
42―अनेक स्वाभ्यास के अनंतर सम्यक् उपयोग बन जाने की संभवता―गुरुजी एक दृष्टांत दिया करते थे कि एक बार एक बाबू साहब ने किसी देहाती कुम्हार को एक पायजामा दे दिया । उस कुम्हार ने जीवन में कभी पायजामा देखा ही न था । उसने तो धोती, तौलिया आदि देख रखा था । तो वह कुम्हार सोचने लगा कि यह पायजामा तो कोई सिर में बाँधने की चीज होगी । सो सिर में बाँध लिया, पर सिर में सही न बैठा तो सोचा कि कहीं हाथों में पहनने की चीज हो । जब हाथों में पहना तो वहाँ भी फिट न बैठा । फिर सोचा कि शायद कमर में बाँधने की चीज होगी । कमर में बाँधा तो वहाँ भी फिट न बैठा । यों करते-करते एक बार पैरों में भी डाल दिया तो वहाँ फिट बैठ गया । वह बड़ा खुश होकर उछल पड़ा और बोला―ओह फिट बैठ गया, यह चीज यहीं पहनने की है । तो ऐसे ही यह उपयोग इन संज्ञी पंचेंद्रियों में मिला है । असंज्ञी तक तो मन का निराकरण है किंतु काम करने के प्रमाद में संज्ञा का निराकरण नहीं है, इसके लिए बड़ी योग्यता मिली । और इसका लाभ, न लिया तो यह हम आपका एक बड़ा अपराध है । असंज्ञी बेचारे क्या करें, उनको तो कुछ ज्ञान ही नहीं है, वे यदि उपयोग न कर सकें तो उन्हें हम इतना बड़ा अपराधी न कहेंगे । हम आपको मनुष्य पर्याय मिली है, श्रेष्ठ मन मिला है, सब प्रकार के अच्छे साधन मिले हुए हैं लेकिन बाह्यपदार्थों में उपयोग भ्रमाकर दुःखी हो रहे हैं । स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, नामवरी, इज्जत प्रतिष्ठा आदि भले लग रहे हैं, पर है यह सब एक स्वप्न जैसी बात । वास्तविकता कुछ नहीं है, पर मन खुश हो रहा । जैसे, स्वप्न में किसी को राज्य मिल जाये, अच्छे विषयों के प्रसंग मिल जायें, खूब उन्हें भोग रहे, मौज मान रहे तो क्या वहाँ स्वप्न देखने वाले को झूठा प्रतीत होता? अरे वह तो बड़ा खुश होकर मौज मानता है । मानो स्वप्न देखने वाला स्वप्न में लड्डू खा रहा हो तो क्या उसका स्वाद वह पायेगा नहीं? पायेगा, पर वहाँ वास्तविकता कुछ नहीं है, नहीं पटरी फिट बैठ रही फिर भी जबरदस्ती लग रहे तो उसका फल शांति कैसे हो सकता? तो अब समझिये―कहाँ भटके? यह उपयोग कैसे जमकर रहे । बाह्य पदार्थ में उपयोग लगाने से तो प्रकृत्या ही यह उपयोग हिलता डुलता रहेगा, फिट नहीं बैठ सकता, क्योंकि सब भिन्न बातें हैं । तो उपयोग जहाँ है, जिसका है उसका जो स्रोत है, जिसका यह परिणाम है वह यदि अपने स्रोत में ही अपना उपयोग लगा दे तो वहाँ फिट बैठ जाये । तो बराबर का क्षेत्र है, बराबर की चीज है, बराबर में फिट बैठ जायेगा । ऐसा पौरुष बनाने के लिए हमको करना क्या है? करना है वस्तुस्वरूप का सही निर्णय । उसके ही प्रताप से यह उपयोग अपने निज धाम में फिट बैठ सकेगा ।
43―जीवन का मुख्य काम तत्त्वज्ञान―मुख्य काम पड़ा है तत्त्वज्ञान का । वस्तुस्वरूप का सही निर्णय । वस्तुस्वरूप का सही निर्णय कैसे हो? तो देखिये मोटी बात―कोई भी मूल वस्तु है तो वह सदा रहती या नहीं? सदा रहती है और उसकी अवस्था भी कुछ न कुछ रहा करती । अवस्था के मायने पदार्थ में द्रव्य और पर्याय, ये दो तथ्य ऐसे हैं कि इनमें त्रिकाल बाधा नहीं है । द्रव्य बिना पर्याय नहीं, पर्याय बिना द्रव्य नहीं । है कोई ऐसी चीज कि जिसकी पर्याय न हो? है तो नहीं मगर जबरदस्ती भी इसकी की कुछ लोगों ने । जैसे एक ब्रह्मवाद मानता कि ब्रह्म में कोई परिणति नहीं है, कोई अवस्था नहीं है, तो भले ही जबरदस्ती इस तरह से माना जावे मगर हाथ में कुछ न आयेगा । उपयोग में कुछ न बैठेगा । समझ में कुछ न आयेगा । सिद्धि तो होती है प्रयोग की । बात-बात में तो सिद्धि नहीं होती । तो पर्याय बिना द्रव्य नहीं और द्रव्य बिना पर्याय नहीं । होती तो नहीं, पर कुछ लोगों ने इसकी भी जबरदस्ती की । द्रव्य नहीं है, पर्याय पर्याय माना जा रहा है, मायने क्षण-क्षण में नये-नये पदार्थ पैदा होते । उनकी अवस्था एक ही मान लिया―पूर्ण वस्तु और नया-नया पैदा होता, दूसरे क्षण भी नहीं ठहरता । पैदा हुआ, खतम, फिर पैदा हुआ, खतम । मगर वस्तु का स्वरूप इस भाँति समझिये, अनुभव से विचारो, व्यवहार में देख लो, सब तरह से यह निर्णय बनेगा कि वस्तु शाश्वत है और प्रति समय उसकी अवस्था बदलती रहती है । यह ही बात तो हम में है । हम सदा काल हैं और प्रति समय हमारी अवस्था बदलती रहती है । एक मोटा ज्ञान लीजिए । अगर हम सदा काल नहीं हैं ऐसा हमारे चित्त में आये तो यह भाव न बनेगा क्या कि मुझे पड़ी क्या है धर्म करने की? जब मुझे सदा रहना ही नहीं है तो फिर मैं धर्म के चक्कर में क्यों पडूं ? धर्म मैं करूँ और मोक्ष किसी दूसरे जीव को हो तो उस धर्म के करने से हमें क्या फायदा? यहाँ व्यवहार में भी देख लो, मान लो रसोई आप तैयार करें और उसे भोगे कोई दूसरा ही जीव, तो आपको फिर रसोई बनाने का कष्ट करने से क्या लाभ? यों किसी भी मामले में कोई बात न बन सकेगी । अच्छा तो जब मैं शाश्वत हूँ यह बात चित्त में बैठे तो कल्याण की वांछा उत्पन्न होगी । हित करें, कल्याण करें । हमारी यात्रा तो सदा चलती रहेगी, हमारी शुभ यात्रा रहे, शुद्ध रहे, संतोषमयी रहे वह काम करना चाहिए । जब यह समझा कि हमारी अवस्था होती है, मिटती है और बनती है तो हममें यह साहस जगेगा कि हममें जो मोह की, राग की, अज्ञान की अवस्था है उसे मेटकर रहेंगे और कोई नई अवस्था आयेगी, क्योंकि इसका स्वरूप ही ऐसा है कि कोई अवस्था सदा नहीं रहती । तो कोई कहे कि आनंद की भी अवस्था मिल जायेगी, वह भी सदा न रहेगी सो ऐसी एकांतत: बात नहीं है । वह है एक सहज अवस्था, निमित्त निरपेक्ष अवस्था, कैवल्य अवस्था, जिसका पर से कुछ संबंध नहीं, तो वहाँ यह धारा चलती है कि वह शुद्ध पर्याय हुई और तुरंत मिटी । फिर क्या होगा? शुद्ध पर्याय ही होगी । जब वह केवल रह गया तो उसमें अशुद्धता का काम नहीं है । सो उसकी कोई चिंता न करें कि अगर एक बार हम मुक्ति पा लें तो ऐसा न हो कि फिर भी वह मुक्ति मिट जाये । तो वस्तु द्रव्यपर्यायात्मक है, पहले तो यह निर्णय करना ।
44―तत्त्वज्ञान से मोहसंकट का विनाश―अब देखिये―उसमें जो द्रव्य की बात कहता है उसे कहते हैं निश्चयनय और जो पर्याय की बात कहता है उसे कहते हैं व्यवहारनय । छूटा दोनों में कोई नहीं । न द्रव्य छूटा और न पर्याय छूटा । मगर वस्तु को खंडित कहकर कहने की विधि है व्यवहार । पर्याय को बताता है व्यवहारनय इसलिए उसका नाम व्यवहारनय है और निश्चयनय में अखंड वस्तु को बताने की विधि है । तो शुद्ध निश्चय की बात और शुद्ध व्यवहार की बात इन दो नयों के द्वारा वस्तुस्वरूप को पहिचान लेंगे । प्रत्येक पदार्थ द्रव्यपर्यायात्मक है । घर में आये हुए स्त्री पुत्रादिक जीव ये एक जीव द्रव्य हैं, द्रव्यपर्यायात्मक है, उनकी पर्याय उनमें ही होती है, उनसे बाहर एक सूत भी उनसे कुछ नहीं आता । मुझ से एक सूत भी बाहर कुछ नहीं जाता । कितना न्यारापन है । यह न्यारापन जब दृष्टि में आता है तो वहाँ मोह नहीं ठहर सकता । अब हमारी पुरानी कुटेव के कारण राग रहे तो रहे पर मोह नहीं ठहर सकता ।
45―मोह और राग की स्थिति का परिचय―मोह कहते हैं अज्ञान को । मोह में और राग में बहुत अंतर है । मोह होने से कहलाता मिथ्या दृष्टि और राग होने से कहलाता असंयमी । कोई रईस रोगी पलंग पर पड़ा है, उसकी सेवा करने वाले बहुत से लोग हाजिर हैं । एयर कंडीशन के कमरे में हैं, पलंग भी स्प्रिंगदार है, बड़ा आराम है, डाक्टर लोग भी समय-समय पर आकर औषधि दे जाते हैं । उस सेठ से मिलने वाले लोग भी बराबर आते जाते रहते, बड़ी पूछताछ करते रहते । यों उस सेठ को बड़ा आराम है । कोई तकलीफ नहीं, पर यह तो बताओ कि उस सेठ को क्या उन सभी साधनों में मोह है ? मोह तो नहीं है । हाँ राग जरूर है । उसे वे सब चीजें बड़ी प्यारी हैं, मान लो कदाचित् दवा मिलने में देर हो जाये तो वह डाक्टर पर भी झल्लाता है, पलंग पर भी कुछ गड़ने लगे तो वह झल्लाता है, किसी भी प्रकार से उसके आराम के साधन में बाधा आये तो वह झल्लाता है, पर यह तो बताओ कि इतना होने पर भी उसे मोह है क्या? मोह तो नहीं है । क्योंकि यदि मोह होता तो वह चाहता कि मुझे ये बातें सदा मिलती रहें । यह डाक्टर मेरे पास जिंदगी भर आये, यह दवा मुझे जिंदगी भर मिलती रहे, पर ऐसा भाव तो उसका नहीं है, इससे जानो कि इन सब बातों में उसे मोह रंच नहीं हैं । राग जरूर है । राग और मोह में बड़ा अंतर होता है । वह दवा पीता है तो इसलिए कि दवा पीने से छुट्टी मिले, उस दवा में उसे आशक्ति नहीं । ऐसे ही ज्ञानी जीव परिस्थितिवश कुछ भी काम करते हैं-खाना-पीना, उठना बैठना, आना जाना, बोलना चालना आदि, वे सदा इस भाव से, इस मुद्रा से करते हैं कि ये सारी बातें हमारी छूट जायें ।
46―परमविश्राम का साधकतम यथार्थ निर्णय―जब यह परिचय हो जाता कि मेरा आत्मा मेरे ही द्रव्य गुण पर्याय में है, इतनी ही मेरी दुनिया है, इतना ही मेरा परिणमन है, इससे बाहर मेरा कुछ नहीं । इस प्रकार इन सब चराचर पदार्थों में उनका सब कुछ उनके ही प्रदेश में है, उनसे बाहर कुछ नहीं, जब ऐसा सही निर्णय हो जाता तो वहाँ मोह नहीं ठहर सकता । उसकी धुन होती है आत्मा के अनुभव के लिए । उसका मन विश्राम चाहता है । अब तक अज्ञान में रहकर उपयोग को थका डाला, भ्रमा डाला । आज तत्त्व का निर्णय हुआ है कि मैं मैं हूँ, अन्य अन्य हैं, निज को निज पर को पर जान यह स्थिति हम को मिली है, तो आज मन बड़ा शांत है यह विश्राम चाहता है । मेरा भ्रम का कष्ट दूर हो गया है । यह मन का विश्राम कैसे हुआ कि हमको वस्तु स्वरूप का सही निर्णय मिला और उसका खूब मनन हुआ । और मनन होकर प्रकट भिन्न एक-एक पदार्थ स्पष्ट दृष्टि में आया । अन्य की तो बात जाने दो―ये स्कंध भी जो दिख रहे हैं―भींट मकान, आदि और अब ये भी अणु-अणु स्वतंत्र-स्वतंत्र मेरी दृष्टि में हैं, देखो जैसा मेरी दृष्टि में है स्वतंत्र-स्वतंत्र, भिन्न-भिन्न, अणु-अणु, अगर ऐसा यहाँ हो जाये तुरंत भींट में तब तो फिर यह छत गिर जायेगी, भींट गिर जायेगी, यहाँ बैठे ये सब लोग दब जायेंगे । डरिये नहीं, ऐसा होगा नहीं । चीज जहाँ की तहाँ है, पर उसके प्रति ऐसा उपयोग बने कि ये सब मेरे से अत्यंत भिन्न-भिन्न हैं, इनका अणु-अणु सब कुछ इनमें है, इनसे बाहर इनका कुछ नहीं, इन पर मेरा कोई अधिकार नहीं । ये सब मायारूप हैं, यह वस्तु के स्वरूप का सही ध्यान आया कि झट उसकी वजह से एक बहुत बड़ा विश्राम मिला, नहीं तो यह उपयोग मोह में अटपट दौड़-दौड़कर सदा बेचैन रहता था । हाँ तो उपयोग अब जरा आराम में आया । आराम मायने क्या? आ राम, राम मायने आत्मा । आत्मा उपयोग में आये यही सच्चा आराम है, और जगह आराम नहीं है । तब अन्य की बात तो दूर रहो, अपने आपकी पर्याय होते हुए भी उन पर्यायों में जब नहीं अटक रहा यह ज्ञानी और सीधा पर्यायों में प्रतिघात न पा कर उनमें से निकलकर सीधा एक ध्रुव चित्स्वरूप पर आ गया है तो वहाँ तो एक विचित्र ही स्वाद आता है । ज्ञान में ऐसी करामात है कि बीच में कोई भी अटक आये, किसी भी अटक में यह न अटकेगा और जिसका लक्ष्य बनाया वहीं पहुंच जायेगा । सब कला ज्ञान में है । जब लोगों ने ऐसी कला पुद्गल में भी डाल दी, तो फिर जीव का (चेतन का) तो कहना ही क्या है । हड्डी का फोटो लेने वाला एक एक्सरा यंत्र होता है । जिस व्यक्ति की हड्डी का फोटो लेना होता है उसे उस यंत्र के पास खड़ा कर दिया जाता है । सुनते हैं कि वह यंत्र कपड़े पहने होने पर भी न कपड़े की फोटो लेता, न रोम, चाम, खून, मांस, मज्जा आदि की फोटो लेता, वह तो सीधे हड्डी की फोटो ले लेता है । जब ऐसी कला पुद्गलों में पायी जाती तो फिर जीव का तो कहना ही क्या है? यह ज्ञान न तो कर्म से अटका, न विकार से अटका, न पर्याय से अटका, न शुद्धपर्याय से अटका, इसने जब अपना एक लक्ष्य बनाया तो सीधा सहज चैतन्यस्वरूप को दृष्टि में ले लेता है । ज्ञान की लीला अद᳭भुत है, बस यही एक सर्वस्व है ।
47―स्वानुभव सर्वस्व संपदा―कल्याण यह है कि उपयोग अपने स्रोत में फिट बैठ जाये । इस उपयोग में अपना आप फिट बैठेगा तो अपने स्वामी के साथ बैठेगा दूसरे के साथ नहीं बैठ सकता । इस उपयोग का जो धनी है, स्वामी है, जिम्मेदार है उसके साथ तो बैठ जायेगा, अन्य के साथ नहीं बैठ सकता । तो क्यों जबरदस्ती करें ? अन्य के साथ क्यों बैठे ? वहाँ से मन हटाया जाये तत्त्वज्ञान के बल से और यहाँ ही, चित्त लगे, यहाँ ही अनुभव बने तो बस यह ही सर्वस्व संपदा है । लोग तो चिंतामणि की बात सुनकर उसे जगह-जगह ढूंढ़ते फिरते हैं, मिल जाये कहीं बाहर में तो सब बात सिद्ध हो जाये । बाहर में कुछ भी ढूढ़ेंगे तो वह क्या है? वह चिंतामणि पत्थर है, काठ है, मिट्टी है, क्या है? कोई पौद्गलिक ढांचा ही तो होगा उसका । वह पौद्गलिक ढाँचा क्या कभी चिंतामणि बन सकता है ? अरे ऋषि संतों ने अलंकार में कहा कि आत्मा का जो अनुभव है वह एक ऐसा विशिष्ट तत्त्व है कि जो यह चाहे सो मिल जाये । जहाँ कोई चाह ही न रहे, वहाँ समझो सब कुछ मिल गया । आत्मा के अनुभव की यह कला है कि कोई चाह नहीं रहती । जहाँ चाह नहीं रहती उसे कहते हैं सब कुछ मिल गया । यों है यह चिंतामणि । ऐसा अनुभव ही चिंतामणि है, अन्य कुछ चिंतामणि नहीं । ऐसा अपने अंतस्तत्त्व का अनुभव जगे बस वह काम करना । उसके लिए मुख्य है तत्त्वज्ञान । एक भजन में आया है कि वस्तुतत्त्व दुर्ग दृढ़ है, वस्तु का जो स्वरूप है वह एक ऐसा मजबूत किला है कि यह त्रिकाल में भी नहीं हो सकता कि किसी एक पदार्थ में किसी दूसरे पदार्थ का प्रवेश हो जाये इतना मजबूत किला है प्रत्येक पदार्थ का स्वरूप ।
48―बेमेल के जोड़ को जबरदस्ती का दुष्परिणाम―कैसा अटपट काम हो रहा संसार में कि मेल खाता नहीं और मोही जोड़ बनाता जबरदस्ती । इस जीव का, इस उपयोग का सिवाय एक अपने स्रोतभूत आत्मस्वरूप के, आत्मतत्त्व के अन्य कुछ नहीं है । इससे ही मेल बैठता है उसका । दूसरे से मेल तक बैठता नहीं है । मगर कैसी मोहनी धूल इस पर पड़ी हुई है कि जिससे मेल नहीं बैठता, जबरदस्ती उनका जोड़ लगाता है । लोक में लोग मोहवश समझते हैं कि हमारा इससे मेल है, पर व्यवहार में भी जिससे यह समझ रखा कि इससे मेल हो ही नहीं सकता और फिर उससे जोड़ा जाये तो उसे तो बेवकूफ कहेंगे । जब मेल ही नहीं बैठता तो जबरदस्ती मेल की बात क्यों थोपी जा रही है? तो ऐसे ही आत्मा को छोड़कर अन्य किसी भी पदार्थ में उपयोग का मेल नहीं बनता । सब बेमेल बात है । बेमेल बात में हम जबरदस्ती जोड़ कर रहे हैं तो यह एक ऐसी विडंबना है कि जैसे कोई बकरा और हाथी दोनों को एक साथ एक गाड़ी में जोड़े । ऐसा बेमेल जोड़ देखकर तो लोग हँसेंगे, बल्कि उसे तो लोग पागल कहेंगे । इसी तरह जो हमारी गाड़ी नहीं चल रही, जो हम शांति नहीं पा रहे सो बेमेल जोड़ बना रहे जबरदस्ती । खोटे कामों का फल कौन पायेगा? कोई दूसरा भोगने न आयेगा, भोगना खुद को ही पड़ेगा । जो जिंदगी हमारी शेष है सो जरा पुण्य का उदय है आगे जैसा चाहे यह बर्ताव बना ले, मगर बेमेल जोड़ का बर्ताव है, उसका फल कोई दूसरा भोगने न आयेगा । उसका फल तो स्वयं को ही भोगना पड़ेगा ।
49―अंतस्तत्त्व की दृष्टि की धुन―भैया ! अंतस्तत्त्व की रट लगायें । जब कभी कोई बच्चा अपनी माता से बिछुड़ जाता है तो वह निरंतर उस माता की रट लगाता है । बताओ माता कौन? माता प्रमाता, जो प्रमाण करे याने अपने हित के लिए जो प्रमाणभूत हो उसे कहते हैं माता । तो यह उपयोग बालक अपनी अनुभूति माता से बिछुड़ गया, इस बिछुड़े हुए बालक का कर्तव्य है कि उस आत्मानुभव की रट लगाये । थोड़ी देर सबेर में आकर आत्मानुभूति माँ आ जावे और इस उपयोग बालक को अपनी गोद में बैठाल ले तो फिर इस उपयोग बालक को किसी प्रकार की कोई विपदा न रहेगी । ऐसा फिट बैठ जाये यह उपयोग, तो उसे कहते हैं धर्म । जैसे कहते हैं कि धर्म करो, तो वह धर्म कोई संप्रदाय की चीज नहीं है, वह धर्म कोई क्रियाकांड की चीज नहीं है । अपना उपयोग अपने स्रोत में समा जाये, एकरस हो जाये, वही विषय रह जाये, फिट बैठ जाये, इस उपयोग का जुदे रूप से पता न पड़े, बस यही है धर्मपालन । देखो भगवान के, केवली के, सिद्ध भगवान के मुख्यतया उपयोग नहीं बताया है, आप कहेंगे कि लिखा तो है? 8 उपयोग । लिख तो दिया है पर उपयोग मुख्यतया है नहीं तो फिर लिखा तो है? हाँ लिखा तो है, उपचार से है क्योंकि वहाँ उपयोग उस सहज धारा से एकरस है कि वहाँ पता नहीं पड़ता कि इसने उपयोग लगाया है और संसारी जीवों को पता पड़ रहा । केवलज्ञान तो सही है, पर उपयोग उपचार से है । ऐसी तो कई बातें बतायी जाती हैं प्रभु में । जैसे सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती ध्यान, व्युपरतक्रियानिवृत्ति ध्यान, शुक्ल ध्यान । भगवान के ये ध्यान हैं क्या? ध्यान तो कहते हैं मन की एकाग्रता को, मन के निरोध को जहाँ मन का निरोध नहीं, मन की एकाग्रता नहीं, वहाँ ध्यान का स्वरूप ही नहीं घटित होता । और आगम में कहा तो है?....हाँं कहा तो है पर उपचार से । कितनी ही बातें उपचार से बनती हैं । तो सिद्धों में उपयोग उपचार से हैं, हममें मुख्यरूप से हैं तो ऐसा हमारा यह उपयोग इस कारण समयसार में ऐसा अभेद बन जाये कि यह फिट बैठ जाये तो सदा के लिए हमारा संसार संकट दूर हो जायेगा ।
50―चिदानंदमय समयसार के प्रति अभेदनमस्कार―भैया ! हम आप लोगों के ध्यान में कौनसी बात रहनी चाहिए जिससे कि शांति मिले? वह क्या है? अपना सहज स्वरूप, याने परद्रव्य के संबंध के बिना मेरा अपने आप सहज जो स्वभाव है उस रूप में अपना प्रत्यय करूँ, अनुभव करूँ, बस यही एक धर्मपालन है, इसी को कहते हैं समयसार की दृष्टि । समयसार क्या? मेरा अविकार चैतन्यस्वरूप, यह स्वरूपत: अविकार है, उपाधिवश इस चैतन्य में विकार बनता है, मगर स्वरूप इसका विकाररहित है, ऐसे अविकार समयसार की दृष्टि रखना; इसमें उपयोग देना यही एक सारभूत बात है । वह स्वरूप कैसा है? चिदानंद स्वरूप याने चैतन्य और आनंद । इतनी ही बात जहाँ दृष्टि में न रहे तो फिर क्या पार पड़ेगा । स्वरूप ही है यह चैतन्य, मायने जानना, देखना और आनंद याने परम आल्हादमय निराकुल स्वरूप, ये दोनों जिसके स्वरूप में हैं वह चिदानंद समयसार हम आपके ध्यान में रखे जाने के लिये होना चाहिए । यह ही धर्मपालन है । यह काम यदि न किया जीवन में तो यह जीवन व्यर्थ है । विषयकषाय तो पशुपक्षी बनकर भी सेये जाते हैं, कीड़ा पतंगा बनकर भी सेये जाते हैं, मगर यह समयसार का दर्शन उत्कृष्ट संज्ञी पर्याय में बनता है, ऐसे समयसार के प्रति हमारी एक दृढ़ दृष्टि हो, ऐसे समयसार को हमारा नमस्कार हो तो यह बहुत चित्त में प्रसाद उत्पन्न करेगा ।
51―अलख निरंजन कारणसमयसार के प्रति अद्वैत नमस्कार―यह अज्ञानियों के लक्ष्य में नहीं आता समयसार अथवा इंद्रियों द्वारा लखने में नहीं आता, अलख है, जिसे लोग कहते हैं अलख निरंजन, तो वह अलख निरंजन कौन है? मेरा ही सहजस्वरूप, जो लखने में नहीं आता, साधारणजन जिसको नहीं देख सकते । ज्ञानीजन तो अनुभव करते हैं, ज्ञानी पुरुषों की दृष्टि में तो स्पष्ट है और उसका आत्मसात् होता, अनुभव होता परंतु सर्वसाधारण जनों के लखने में यह चैतन्य स्वरूप नहीं आता । यह समयसार अलख है, अथवा इन इंद्रियों के द्वारा लखने में नहीं आता । इंद्रिय और मन से अतीत है वह स्वरूप अर्थात् उस स्वरूप का अनुभव इंद्रिय और मन से परे है । ऐसा अलख, इंद्रिय द्वारा लक्ष्य में न आने योग्य और आत्मज्ञान द्वारा स्पष्ट लखने में आये ऐसे सहज चैतन्यस्वरूप समयसार के प्रति हमारी ऐसी एक दृढ़ दृष्टि हो कि उससे एक नवीन उल्लास आये, अपना मार्ग मिले, इसे कहते हैं धर्मपालन । इस अलख निरंजन कारण समयसार को हमारा, अभिमुखतारूपी नमस्कार हो ।
52―अशुद्धोपयोग के स्रोत समयसार का स्मरण―इस समयसार की वर्तमान में यद्यपि परिणति अशुद्धोपयोगरूप चल रही है, मगर अशुद्धोपयोग जिसका परिणमन चल रहा है उस सहज अंतस्तत्त्व को देखो । न हो कारणसमयसार तो अशुद्धोपयोग भी कहाँ से बने? अशुद्ध ही सही याने निर्विकार नहीं, रागद्वेष की कोई मात्रा इसके साथ में है न फिर भी किसी रूप में आधार तो समयसार है । शुभोपयोग हो तो भी अशुद्ध, अशुभोपयोग हो तो भी अशुद्ध, ऐसा अशुद्धोपयोगी बन रहा है, मगर यह अशुद्धोपयोग भी उस समयसार का अनुमान कराता है । जैसे कमरे में उजेला हो और बल्ब नहीं दिखता जिससे कि उजेला चल रहा है, किंतु एक खिड़की से कोने में उजेला भर दिख रहा है तो वह उजेला उस दीपक या उस बल्ब का अनुमान कराता है । तो ऐसे ही हमारे ये छुटपुट प्रकाश अथवा अशुभ व शुभ रागादिक भाव ये भी उस चैतन्य प्रकाश का अनुभव कराते । न होता वह चैतन्यप्रकाश तो अशुद्धोपयोग कहाँ से होता? तो यह अशुद्धोपयोगी है, इस तरह से भी देखें निश्चयनय विधि से, तो देखते-देखते, आखिर उसके स्रोत का विचार करते-करते यह ही समयसार हमारी दृष्टि में आयेगा ।
53―स्वयंभू समयसार के प्रति अद्वैत नमस्कार―यह समयसार चैतन्यस्वरूप है और स्वयंभू है । किसने बनाया इस चैतन्यस्वरूप को? यह तो अनादिसिद्ध है और जो चेतन का स्वरूप है वह सदाशिव है । किसी भी बाह्य वस्तु का संबंध यहाँ स्वरूप को नहीं बिगाड़ सकता । स्वरूप तो स्वयंभू है, अपने आप होने वाला है । प्रत्येक पदार्थ का स्वरूप स्वयंभू होता है । किसी अन्य पदार्थ की कृपा से किसी पदार्थ का स्वरूप नहीं बनता । ये सब सत् हैं, सब अपने आप अनादि से हैं और अपने आपमें ही अपना परिणमन करते चले जा रहे हैं । इस कारण से यह समयसार स्वयंभू कहलाता है । समयसार के अनुभव का आनंद आने पर ही तो समयसार का परिचय कहलायेगा । वह आनंद किस कला पर आता है, वह है सहज ज्ञानकला । जैसे सिद्धपूजा में कहते कि समयसाररूपी पुष्प की माला के द्वारा । कैसी माला है वह? सहजकर्मकरेण विशोधया, सहज कर्मरूपी हाथों से जो रचा गया है, सहजभाव से रचा गया है याने वह समयसार का अनुभव सहज वृत्ति से रचा हुआ है और वह हमारे चित्त में रहे, हमारे वश में रहे, समयसार अनुभूति के वश में रहे, मायने सब हमारे अधिकार की बात रहे । कोई भव्यात्मा जरा दृष्टि लगाये, कि उसे समयसार की अनुभूति मिलेगी । यह समयसार अनुभूति परमयोग के बल से प्राप्त होती है । वह है सहज सिद्ध समयसार मायने अपने आपका सहज स्वतंत्र विशुद्ध निरपेक्ष स्वरूप । उस स्वरूप में जो यह मैं हूँ ऐसा अनुभव करता है वह संसार के समस्त संकटों से पार हो जाता है । यह समयसार, जिसकी कि सीधी लीला चले तो तीन लोक तीन काल के समस्त पदार्थ स्पष्ट प्रतिभासित होते हैं, और जिसकी उल्टी लीला चले तो संसार में जितने ये जीव दिख रहें हैं, नाना परिणतियों में ये प्राणी पाये जा रहे हैं ऐसी सृष्टि बनती है । स्वरूपत: तो यह जो है सो ही है, मगर कोई भी द्रव्य पर्यायशून्य नहीं होता । तो यह समयसार स्वभाव चैतन्यस्वरूप चेतन अर्थ ही तो है । यह भी परिणमन रखता है । वह परिणमन यदि औपाधिक है, विपरीत है, स्वभाव के अनुकूल नहीं है तो उसकी उल्टी लीला में इन जगत के प्राणियों के समूह में जो बातें पायी जाती हैं वे बनती हैं, और जिसकी सीधी लीला हो तो तीन लोक तिहुँ काल उनके ज्ञान में ज्ञेय हो जाता है और अलौकिक अद्भुत आल्हाद उनमें प्रकट होता है, उल्टी लीला में यह अपने भावकर्म का करने वाला है और निमित्तदृष्टि से द्रव्यकर्म का करने वाला है और कभी यह सुलझ जाये, अपने आपके स्वरूप को समझ जाये तो यह फिर इन सब विभावों से एकदम बिछुड़ जाता है । अपने आपके सहज अंत: स्वरूप में विश्राम करता है, ऐसे इस समयसार में अभिमुख ज्ञानीजन रहते हैं । ऐसी वृत्ति के द्वारा मेरा अद्वैत नमस्कार है ।
54―सद्भावात्मक चित्स्वभावमय समयसार का अभिनंदन―यह परमशरण समयसार चित्स्वभावरूप है, भावात्मक है, कहीं अभावस्वरूप नहीं है । कोई चीज सदा है, उसकी शुद्ध सत्ता का परिचय न होने से जीवों को संसार के कष्ट लग गए, पर में दृष्टि दी, पर में लगाव है तो कष्ट हो रहा है । बिल्कुल साफ विदित है, साफ अनुभव की बात है, पर की ओर उपयोग लगा, उसका आसरा किया, सहारा लिया, आशा बनाया तो उसका फल क्या मिला? विह्वलता, आकुलता । और, अपने इस चैतन्यस्वभाव, इस सद्भावात्मक पदार्थ की ओर दृष्टि की कि यह मैं हूँ, तो देखिये इस अनुभव में बाहर की सब चीजें छूट जाती हैं । चैतन्यस्वभावमात्र मैं हूँ, जहाँ ऐसी दृष्टि की हो वहाँ फिर संसार संकट नहीं रहते । यह समयसार ऐसा भावात्मक चैतन्य स्वभाववान है । किसकी बात कह रहे हैं? अपने आपकी बात कह रहे हैं, अपने स्वरूप की बात कह रहे हैं जो ध्रुव रहता है, सदा रहता है ऐसे अपने अंत: परमात्मा की बात कही जा रही है ।
55―सर्वभावांतरच्छिद् समयसार का अभेद नमस्कार―ये प्रभु सर्वभावांतरछिद् हैं । सर्व भाव अंतरच्छिद्, जब ऐसी संधि करते हैं तो अर्थ होता है कि समस्त पदार्थों को जानने वाला समस्त पदार्थों के अंत: स्वरूप को पहिचानने वाला, सर्वभावांतरच्छिदे । सो देखो चेतन में यह सहज स्वभाव है ही कि जगत में जो कुछ पदार्थ हैं, इसके जानने में आये । और सर्वभावांतरच्छिद् का दूसरा अर्थ है सर्वभावांतर छिदूं, समस्त भावांतरों को हटा देने वाले, दूर कर देने वाले । स्वरूप ही ऐसा है कि कोई पदार्थ इसके साथ बद्ध नहीं हो पाता । प्रत्येक पदार्थ समस्त पदार्थों से अपने स्वरूप को दूर ही रखते हैं । दूसरी बात जो आत्मा में भावांतर है याने स्वभाव के अतिरिक्त जो भाव है रागद्वेष, विषय, कषाय विचार-वितर्क, इन समस्त भावांतरों का छेदने वाला है जब समयसार की अनुभूति होती है तो ये विभाव नहीं टिक पाते । वहाँ तो स्वभावदृष्टि रहती है । तो स्वभाव दर्शन का इतना प्रताप है कि रागद्वेषादिक कष्टदायी समस्त भाव इसके दूर हो जाते हैं । कैसे दूर होते हैं, उसके लिए पुरुषार्थ क्या करना होता है? तो पुरुषार्थ पहला तो है तत्त्वज्ञान, जिसके बल पर सम्यग्दर्शन होता है । जो पदार्थ जिस प्रकार अवस्थित है वह पदार्थ उस ही रूप में अपनी श्रद्धा में रहे, बस सम्यग्दर्शन है । पूरे सारे पदार्थ एक दूसरे से अत्यंत जुदे हैं या नहीं? मिलने की गुंजाइश भी नहीं । एक पदार्थ से कैसे मिल सकता है? सत्ता न्यारी-न्यारी है, क्योंकि प्रत्येक पदार्थ का परिणमन अपने आपके प्रदेश में होता है । मेरे प्रदेश से बाहर मेरा परिणमन नहीं चलता, न्यारे-न्यारे हैं ना सब पदार्थ । देह का अणु-अणु मुझ से न्यारा है कि नहीं, खूब परख कर लो मैं चेतन हूँ, देह अचेतन है, मेरी कला अन्य है, इनकी कला अन्य है, क्योंकि इनका सत्त्व न्यारा-न्यारा है तो जब सब न्यारे-न्यारे हैं तो बस ऐसा ही ज्ञान किए रहें, और ऐसा ज्ञान करके उपयोग को इन सबसे हटाकर अपने चैतन्यस्वरूप में लगा लें, देखो इस प्रक्रिया से सर्व भावांतरों का छेद होता है या नहीं । तो प्रथम उपाय करना है तत्त्वविज्ञान, दूसरा उपाय है भेदविज्ञान, पर से भिन्न अपना स्वरूप समझना । तीसरा उपाय है अभेदविज्ञान, याने समस्त पदार्थों से निराला जो अपना चैतन्यस्वरूप है उसे उस अखंडरूप से ही अनुभवना, बस यह ही क्रिया दृढ़ होती जाये, बनती जाये, इसी में सम्यग्ज्ञान आया, इसी में सम्यक्चारित्र आया । वास्तविक चारित्र यही है कि आत्मा के सहज स्वरूप में उपयोग रम जाये, लेकिन ऐसी बात आसानी से नहीं हो सकती । यों ही न हो जायेगी । बार-बार अज्ञान के संस्कार इसको चिगाते हैं, रागद्वेष की कणिका जरा-जरासी बात में उत्पन्न होती हैं, उन सब विपत्तियों को दूर करने का काम एक इस अभेद चैतन्यस्वरूप की दृष्टि से होता है, मगर जब नहीं बनता यह तो आत्मतत्त्व का धुनिया किस प्रकार से अपना मन चलाता, वचन बोलता, शरीर की चेष्टा करता, उसे कहते हैं व्यवहारचारित्र । व्यवहारचारित्र का आत्महित से संबंध तो है मगर किस रूप से है, क्यों करना आवश्यक है, किस पदवी में आवश्यक है, और करने वाला कैसा अपना लक्ष्य रखे, ये सब सही निर्णय अपने परमार्थ तत्त्व को ठीक बनाने वाले होते हैं, आत्मतत्त्व का दर्शन रागद्वेष विषय कषाय सबको दूर भगा देता है । परमार्थ का प्रत्यय करते हुए ऐसा कार्य करो जिसमें क्रोध न आये, घमंड न हो, छल कपट न बने, तृष्णा न जगे ऐसा कोई उपाय बनावे ।
56―अविद्यासंस्कारवश हुए उत्पातों की निवृत्ति के लिये व्यवहार चारित्र की क्षमता―भाई अनेकों पुरुष कषाय के जगाने का उपदेश देते हैं, उसका उपाय सिखाते हैं, बार-बार रटते हैं, बोलते हैं और उस कषाय के प्रतिकूल भी कोई चेष्टा करते हैं, सब बात किए जाने पर भी कषायों पर विजय पाना इस जीव को सुगम नहीं होता । जैसे कहते कि जल से भिन्न कमल है, यह स्वभाव विभावों से पृथक् अपने को निरख में आये, ऐसी बात प्रयत्न करने पर भी नहीं होती, तो ऐसी स्थिति में फिर मन को कैसे प्रवर्ताना चाहिए? क्या हिंसा, झूठ, चोरी आदिक पाप के कामों में? तब तो फिर आत्मानुभव का पात्र भी न रहेगा । तब क्या करना चाहिए? अणुव्रत पाले, महाव्रत पाले, संयम से रहे, स्वाध्याय करे, सत्संग करे, ये सब व्यवहार के काम करने होते हैं । पर व्यवहार के काम करके भी लक्ष्य कहां रहे? बाह्य क्रियायें करके भी ज्ञानी का लक्ष्य अंत: स्वरूप पर रहता है । जैसे अनेक उदाहरण मिलेंगे । कुछ समय पहले महिलायें कुयें से पानी भरकर घर लाती थीं, तीन-तीन घड़े तक सिर पर रख लेती थीं, उन घड़ों के नीचे सिर पर एक कुनड़ी सी रहा करती थी । अब वे महिलायें चलते हुए में आपस में शरीर की तमाम चेष्टायें भी करती थी, मुख से बातें करती जातीं, कुछ गर्दन भी हिलती, हाथ भी हिलते, बर्तन भी हिलता, ये सब बातें होकर भी कारण क्या है कि उनकी गगरियाँ नहीं गिरती? तो कारण यह है कि उन्होंने एक सम्हाल कर ली, ऐसा अभ्यास बन गया, जो मूल धाम है, साधन है, जहाँ गगरी का आधार है वह स्थिर रहा और घूमता तो ऐसा घूमता कि उसके साथ गगरी भी घूम जाये उसके अनुकूल, तो एक ऐसा अभ्यास है, ऐसी नजर है जिससे बोलचाल करके भी उन महिलाओं की नजर उस एकाग्रता पर, स्थिरता पर रहती है । उसकी ओर दृष्टि रहती है । नटों का खेल आप लोगों ने देखा होगा । नट लोग क्या करते? हाथ में एक बाँस लिए रहते और बड़ी पतली डोरी पर एक छोर से दूसरी छोर पर चलकर पहुंच जाते हैं । उनके हाथ में जो बाँस होता है उसका बैलेंस लेते और उनकी दृष्टि अपने आपके कदमों पर रहती और ऐसा काम करके दिखा देते हैं जो हर एक से नहीं किया जा सकता तो जब ज्ञानी ने सब सार समझ लिया कि जगत में सार एक समयसार है, अन्य कुछ नहीं है, तो अब उसकी ही धुन रहेगी । बाह्य काम तो परिस्थितिवश करने पड़ेंगे । यही कारण है कि वह समस्त भावांतरों का छेदक है । जहाँ स्पष्ट तत्त्वज्ञान है वहाँ रागादिक विभाव फड़कते नहीं । जो बात हेयरूप से जान ली गई और जो बात उपादेयरूप से जान ली गई उसका तो फिर वह ज्ञान बनता ही रहता है । दूसरा बहकाये तो बहक में नहीं आता, क्योंकि उसने स्पष्ट और सही सब कुछ समझ लिया ।
57―समयसार का सर्वभावांतरच्छित्त्व―रागद्वेष विषय कषाय भावांतर है जिनमें योग उपयोग रहने से यह एकदम बेसुध भूल में रहता है, जिसकी सुध नहीं हो पाती वह समयसार क्या है? तो निर्विकल्प होकर अपने उपयोग में उस समयसार के स्वरूप को निहारकर अनुभव से जान लेना चाहिए कि मैं क्या हूँ । ज्ञानी जन किसी पर पदार्थ के प्रसंग में नहीं अड़ते, क्योंकि वे जानने हैं कि ये मेरे कुछ नहीं, मेरे से छूटे हुए हैं । सही ज्ञान है । ज्ञानियों को कुछ परिश्रम करके कोई बात नहीं करनी पड़ती धर्म के लिए । उनकी सहज वृत्ति से होती जाती है । ये क्रोधादिक भाव संसार के फलरूप हैं, कर्मों के फल है, उपाधि से उत्पन्न हुए हैं, ये मेरे स्वरूप नहीं हैं, जिनको इस तत्त्व का प्रखर ज्ञान है वे पुरुष परपदार्थों से न्यारे अपने आपके सहज चैतन्यप्रकाश का अनुभव करते हैं और इसी अनुभव के बल पर सारे भावांतर इसके दूर होते हैं । सबका काम, सब पदार्थों का काम अपने आपके गुणों से होता है । कोई किसी को गुण नहीं देता, कोई किसी को परिणति नहीं सौंपता । भले ही निमित्त नैमित्तिक योग है और विभाव परिणमन निमित्त नैमित्तिक योग बिना बनता नहीं, इतने पर भी प्रत्येक पदार्थ का परिणमन उसका अपने आपके चतुष्टय में हुआ, अन्यत्र नहीं हुआ, ऐसा यह सहज सिद्ध चित्स्वभावरूप समयसार जो समस्त अन्य भावों का छेदन करने वाला है बस उसकी ओर दृष्टि हो । अपने आपमें उस रूप का अनुभव बने कि मैं यह हूँ अखंड एक शुद्ध चैतन्य, फिर समस्त भावांतर उसके दूर हो जाते हैं ।
58―सहज ज्ञायकस्वभावता के प्रति अभिमुखतारूप नमस्कार―जहाँ इतना तथ्य है कि यह ज्ञान करने वाला ज्ञाता समस्त पदार्थों को जानता तो है, मगर समस्त पदार्थों का जानना जाननस्वभाव के कारण अंदर में स्वयं में उत्पन्न होता है । जिसका जो स्वभाव है वह अपने आपमें सहज होता है । वह ज्ञान, वह सहज स्वभाव निज स्वरूप, केवल का सत्त्व कैसे बिखर सकता है । किसे हम नहीं जानते तो दुःखी होते हैं? निज सहजसिद्ध भगवान को न जानने से दु:खी होते हैं और अपने भगवान को पहचान लें तो दुःख नहीं रहता । यह समयसार समस्त परभावों का छेदन करने वाला है । भावांतर समयसार से कैसे अलग हैं, कैसे न्यारे हैं? तो देखो एक भींट में अगर नीला रंग पोत दिया तो समझो नीले रंगने भींट को नीला नहीं किया, किंतु नीले रंग ने अपने आपको उस रूप फैला दिया । जो पहले एक डले के रूप में था उसे पीसकर पानी में घोलकर कूची के साधन से भींट का आधार बनाकर जो उस नीले रंग में फैलाया तो जो थोड़ी जगह में रखा था वह इतने बड़े विशाल रूप में फैल गया किंतु उस नीले रंगने भींट में कुछ नहीं किया । भींट में जो कुछ हो रहा सो भींट के कारण से हो रहा, ऐसे ही इस ज्ञानी जीव ने अपने ज्ञान के द्वारा अपने ही ज्ञान में यह सब कुछ जान लिया, इन बाह्य पदार्थों में जाकर इस ज्ञान ने कोई चोट नहीं लगाया । इस ज्ञाता का स्वरूप ही ऐसा है कि सहज स्वभाव से यह सर्व विश्व का ज्ञाता बना रहे, ऐसा है यह ज्ञानी चेतन समयसार समस्त पदार्थों से निराला । परिणमन तो सब जानते ही हैं, इसके राग हुआ, इसके क्रोध हुआ, और अन्य-अन्य भाव भी होते रहते हैं, पर वहाँ यह दृष्टि तो दें कि जितने भी ये परिणमन चल रहे हैं ये सब इस सहज स्वरूप समयसार के आधार पर चल रहे हैं । इस अलख निरंजन को जो भी विरला जीव पहिचान लेता है वह संसार समुद्र से पार होता है । यहाँ ऐसा लेखा लगाना ठीक नहीं कि यहाँ कोई धर्ममार्ग में भी नहीं लगता । अरे अनंत जीवों में कोई एक संख्या बैठती है जो धर्म में लगते हैं, तुम यहाँ के मनुष्यों को, साधर्मियों को, किसी को देखकर क्यों चिंता बनाते कि धर्म मार्ग में नहीं लग रहा कोई । अनंत में एक को सौभाग्य मिलता है और इसी कारण संसारी जीवों की वोट पर अपना कोई निर्णय न बनाये किंतु अरहंत भगवान के द्वारा बताये गए उपदेश के द्वारा अपने चलने के मार्ग का निर्णय बनायें । आत्मविश्वास, आत्मज्ञान और आत्मरमण, इनसे सब विकार दूरे होते हैं और परम आनंद की प्राप्ति होती है ।
59―सिद्धात्मस्वरूप को नमस्कार―हम अपने सहज आत्मस्वरूप का स्मरण करते हैं तो शीघ्र ही सिद्ध भगवान का स्मरण हो जाता है । अथवा जब हम सिद्ध भगवान के स्वरूप का स्मरण करते हैं तो शीघ्र ही हमें सहजात्मस्वरूप का स्मरण हो जाता है इसका कारण यह है कि जो सिद्ध भगवान हैं वह तो सहजात्मस्वरूप के व्यक्त रूप हैं । जो स्वभाव आत्मा में है वह स्वभाव वहाँं व्यक्त हो गया है । जैसे एक लौकिक दृष्टांत लो, किसी गरम पानी में स्वभाव क्या बताओगे? और, उस गरम पानी से जब सब गर्मी निकल जायेगी तो वह पानी व्यक्त भी ठंडा और स्वभाव में भी ठंडा और गरम पानी स्वभाव में ठंडा, व्यक्त में ठंडा नहीं । तो हमारा स्वरूप स्वभाव में तो परिपूर्ण चैतन्यरूप है और व्यक्त में विकृत है और प्रभु का स्वरूप, सिद्ध का स्वरूप स्वभाव से तो परिपूर्ण स्वरूप था ही, अब भी है, और व्यक्त में जैसा स्वभाव है वैसा ही परिपूर्ण चैतन्य स्वरूप है । सिद्ध प्रभु का स्वरूप अपनी ज्योति से अपने आप विराज रहा है । व्यक्ति की दृष्टि देखें तो सर्व पदार्थों में उत्कृष्ट पदार्थ हैं सिद्धप्रभु जो सदा निष्कलंक हैं, अनंत आनंद के सागर हैं, अनंत ज्ञान के द्वारा समस्त लोकालोक को जानते हैं । अनंत दर्शन के द्वारा समस्त लोकालोक को जानने वाले निज आत्मतत्त्व का दर्शन करते हैं । अनंतशक्ति द्वारा इस समस्त अनंत व्यक्त रूप को निरंतर बसाये रहते हैं, अनंत आनंद जिनमें प्रकट हुआ है, ऐसे वे निष्कलंक व्यक्त अनंत संपत्ति के धनी सिद्ध भगवान हैं । तो यही स्वभाव अपने आपमें है जिसमें दृष्टि रमाने के पौरुष के बल पर वही बात व्यक्त हो जाती है । समयसार के स्तवन के साथ-साथ सिद्ध का भी स्तवन हो जाता है, और अब चूँकि ग्रंथरचना की प्रक्रिया में बढ़ रहे हैं तो प्रकट रूप से सिद्ध भगवंत को यहाँं नमस्कार गाथा में किया जावेगा । समयसार का नमस्कार कहो अथवा कारणसमयसार का नमस्कार और कार्यसमयसार का भी नमस्कार, है समयसार का ही नमस्कार । यहाँ स्वभाव को देखना मायने कारणसमयसार को निरखना । सिद्ध भगवंत में प्रकट शुद्ध स्वरूप को निखरना मायने कार्यसमयसार को निरखना । अब आगे चूँकि कलश रचना चलेगी तो सर्वप्रथम यह बतलाते हैं कि जो कुछ कहा जायेगा यह चीज क्या अपनी बुद्धि से कल्पित है या कोई प्रमाण धारा प्रवाहित है । इसका संकेत अगले कलश में दिया गया है ।