वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 112
From जैनकोष
मूलोन्मूलं सकलमपि तत्कर्म कृत्वा बलेन । हेलोन्मीलत्परमकलया सार्धमारब्धकेलि ज्ञानज्योति: कवलिततम: प्रोज्जजृंभे भरेण ॥112॥
942- कर्म में भेदोन्माद के नाटय का कारण मोहमदपान-
कर्म दो प्रकार के समझना- (1) द्रव्यकर्म (2) भावकर्म। द्रव्यकर्म तो उन कर्मों का नाम है जो पौद्गलिक हैं, जहाँ जिसकी कर्मत्व अवस्था बनती है, जिसकी सत्ता बंध उदय उदीरणा सारी हालत होती है, वह तो द्रव्यकर्म है और उन द्रव्यकर्मों के विपाक का निमित्त पाकर जो जीव में रागद्वेष मोह कषाय अभिलाषा आदिक भाव होते हैं, शुभभाव और अशुभभाव, वे कहलाते हैं भावकर्म। सो द्रव्यकर्म व भावकर्म में, जो बात किसी एक कर्म के बारे में कही जाय वैसा ही प्राय: दूसरे कर्म में घटित होता है। जरा अंतर में आत्मा के भावकर्म पर घटित कीजिए। भावकर्म एक भेद के उन्माद को नचा रहा है याने विभावों में कोई शुभ कोई अशुभ कोई पुण्य कोई पाप, ऐसे दो भेद बन रहे हैं, क्योंकि ऐसी ही मोहमदिरा पी लिया है कि यह अज्ञानी जीव उन कर्मों में दो प्रकार के भेद इस उमंग से डालता है कि मानो पुण्य तो रक्षक है और पाप दु:खदायी है, पर ज्ञानी जीव जानता है कि जैसे पुण्य बंधन है, वैसे पाप भी बंधन है, सारे ही भाव हमारे लिए बंधन हैं, तो जिसने मोहमदिरा पी ली है वह भ्रमरस के भार से भेद के पागलपन को उत्पन्न करता है याने यह रुचि से भेद डालता कि यह पुण्य और पाप। यद्यपि पाप के भाव की अपेक्षा पुण्य भला तो है मगर इनमें से स्वरूप का विषय निहारते हैं तो पुण्य और पाप दोनोंएक समान हैं। जैसे कहीं कहीं मान तो लेते हैं कि लोहा से सोना अच्छा होता, घर घर मान ही रहे सब लोग, और किसी को कैद कर दी जाय और खूब लोहा जितने ही वजन की सोने की बेड़ी पहना दी जाये तो वह तो उसे बंधन ही मानता है, तो ज्ञानी जीव, जिसको कि अपना स्वभाव रुच गया वह तो अपने स्वभाव को ही सर्वसार मानता है, वहाँ पर यह भेद नहीं करता कि मेरे पुण्य रहा आये, पाप जाये। ‘‘पाप पुण्य मिल दोय पांयन बेड़ी डाली।’’ ऐसा कहते तो रोज रोज हैं विनती में, पर यह भाव समा जाय कि देखो सभी कर्म मेरे लिए बंधन हैं, जब इन आठों प्रकार के कर्मों से छुटकारा हो तो हमारा बंधन मिटे। पर यह बुद्धि बनती नहीं और कर्मभेद का भ्रम लग गया है मोह में रहने के कारण। सो इस जीव की ज्ञानज्योति प्रकट होती है तो क्या स्थिति बनती है, वह ही बात इस कलश में कही जा रही है।
943- ज्ञानज्योति की कवलिततमस्कता- ज्ञान ज्योति क्या? अपने आत्मा की जो ज्ञानशक्ति है, जानने की शक्ति है वही ज्ञानज्योति है सबमें ज्ञानज्योति है, पर आवरण पड़ा है विभाव का, रागद्वेष में उपयोग चलता है तो ज्योति कहाँ से प्रकट हो? किंतु जिसने सहजभाव जान लिया ऐसे ज्ञानी जीव के ज्ञानज्योति प्रकट होती है, जिसके प्रकट होती है उसका सारा अंधकार दूर हो जाता है, क्या, अज्ञान अँधेरा याने इस ज्ञानज्योति ने उस अज्ञान अंधेरे को खा डाला। देखो एक बहुत गहरी तथ्य की बात मिलती है। किसी जीव में अज्ञान है और उसके ज्ञान प्रकट हुआ तो यह अज्ञान कहाँ चला जाता? कोई बतला सकता। निकलकर कहीं बाहर जाता है क्या? जैसे जहाँ टीन की गोल टंकी बनाकर कूड़ादानी बना दिया, लो टंकी में फैंको, ऐसे ही यह अज्ञान कहाँ फैंका जायगा? कहाँ जाता है? एक ही द्रव्य में अज्ञान भाव था, अब उस ही एक द्रव्य में अज्ञानभाव का तिरोभाव हुआ, व्यय हुआ और ज्ञानज्योति का प्रकाश हुआ, तो मानो इस ज्ञानज्योति ने उस अज्ञान को चबा डाला मायने अपने ही द्रव्य में उसका विलय कर दिया गया, पर्यायरूप से अंदर रहता हो सो बात नहीं, वह तो विलय को प्राप्त हुआ, प्रकाश को प्राप्त हो गया तो जिस समय ज्ञानज्योति प्रकट होती है उस समय अज्ञान का अँधेरा नहीं रहने पाता। जैसे समुद्र में वायु प्रसंग से लहर उठ रही थी, अब जब वहाँ लहर रंच भी नहीं रहती, समुद्र गंभीर शांत होता है तो बताओ लहर का क्या हुआ, लहर बाहर नहीं गई लहर भीतर भी नहीं, प्रलय हो गया। अज्ञान एक बड़ा अंधकार है। यह दीपक का उजेला कितना ही बना रहे, इससे अज्ञान का अँधेरा दूर नहीं होता तब तक इस जीव को शांति, आस्था, विश्वास, ये कुछ भी नहीं बनते। यह अज्ञान अंधेरा दूर होगा तो सत्य वस्तु स्वरूप का परिचय होने से ही दूर होगा। 944- ज्ञानज्योति की केवलज्ञानकला के साथ आरव्धकेलिता-
जब वह ज्ञानज्योति प्रकट होती है तो इसकी लौ एकदम पूर्ण ज्ञानविकास के साथ लगती है, केवल ज्ञान के साथ लगती है। जब किसी की बुद्धि खुलती है तो उससे पूछो कि तुम क्या बनना चाहते? तो जो ऊँचा से ऊँचा आदर्श हो उसमें उसकी धुन लग जाती है, जैसे किसी को संगीत गाना बजाना अच्छा लगता है प्राकृतिक देन हैं तो उसकी दृष्टि एकदम देश में जो सर्व प्रसिद्ध गायक संगीतकार हो उसकी ओरजाता है- मैं तो ऐसा बनूँगा। तो जब एक सच्ची ज्ञानज्योति प्रकट होती है तो यह ज्ञानज्योति केवल ज्ञान के साथ अपनी लीला बनाती है। उसमें ही संबंध जुड़ता है। अहा केवलज्ञान के साथ ज्ञानज्योति कैसीजुड़ती है कि जरा लीलामात्र ही अपने आपमें दृष्टि दे और स्वभाव का आश्रय करे, सहज ही समस्त कर्मों का विनाश होकर केवलज्ञान प्रकट हो जायगा। उस केवलज्ञान के साथ इस ज्ञानज्योति का अपना संबंध बनेगा। यह जीव पुण्य पाप के दो विकल्प बनाकर संसार में मौजपूर्वक रहने की सोच रहा था। जहाँ ये दो बातें चित्त में आती कि पुण्य भला, इसमें मेरा उद्धार होगा वहाँ उसकी ज्ञानज्योति का तिरोभाव है। ज्ञानी पुरुष भी पुण्यकर्म करता, किंतु पुण्य की उमंग नहीं होती। अगत्या क्या करे? जब चारित्रमोह का उदय है ज्ञानी जीव के तो उसकी प्रवृत्ति होगी पूजा, स्वाध्याय, व्रतीसेवा, त्याग, दया, दान आदि की, मगर उसकी श्रद्धा में यह ही बसा है कि मेरा जो सहज स्वरूप है वह मुझमें प्रकट हो।
945- ज्ञानी के प्रवृत्ति होने पर सकल परभावों की उपेक्षा-
होता है ना ऐसा कि भाव में जो बात बसी हो कहो प्रवृत्ति में न बने, प्रवृत्ति और प्रकार से हो। मन से उमंग हो और दु:ख देखना पड़े। ऐसी बात तो बहुत-बहुत करके होती है, और कहो मन में उपेक्षा है और ऊपर से उमंग दिखाईपड़े। तो ऐसे ही सम्यग्दृष्टि जीव उसको सर्व-ओर से उपेक्षा है, मगर चारित्रमोह का उदय है सो कहीं हर्ष, कहीं विषाद, ऐसी परिणति बनती है। जैसे मानो किसी लड़के की बारात सज धजकर जाने वाली है तो उस समय राछ फिरती है, लड़का घोड़े पर बैठकर चलता है और पड़ोसी की स्त्रियाँ गाना गाने के लिए बुलाई जाती है। वे क्या गाती हैं- मेरा बन्ना बना सरदार, रामलखन सी जोड़ी...आदि खूब हाथ पसार-पसार कर गाती हैं, काहे के लिए? मात्र पाव भर बतासे पाने के लिए (हँसी) और उस लड़के की माँ को तो उस समय किसी से बात करने तक की फुरसत नहीं रहती। उसके तो काम के मारे शरीर से पसीना बहता, कभी किसी को कुछ सामान देती, कभी किसी को कुछ मनाती कभी किसी को। वह तो बड़ी परेशान सी रहती। उस लड़के के प्रति बाहर से उसमें कोई उमंग नहीं दिखती और पड़ोस की नाइन, धोबिन वगैरह सभी खूब हाथ पसार-पसार कर गाती हैं और अपनी उमंग दिखाती हैं, पर जरा उनका अंतरंग तो देखो, उमंग उस लड़के की माँ के हैं न कि उन पड़ोस की स्त्रियों के। कैसे, सो सुनो।अभी वह लड़का कहीं घोड़े से गिर पड़े और उसकी टाँग टूट जाय तो दु:खी कौन कौन होगा? उस लड़के की माँ ही दु:खी होगी। वे पड़ोस की स्त्रियाँ न दु:खी होगी। तो देखो उमंग अधिक दिख रही थी पड़ोस की स्त्रियों में और उसकी माँमें कोई उमंग नहीं दिख रही थी, पर वास्तव में उमंग थी उसकी माँ में ही, पड़ोस की स्त्रियों में नहीं। गुजरात में तो किराये की रोने वाली स्त्रियाँ बुलाई जाती हैं। वे सब गोल-गोल लाइन से इस ढंग से खड़े होकर रुदन मचाती हैं कि मानो गीत जैसा गा रही हों। एक बार हमने अपनी आँखों यह दृश्य देखा। वहाँ हमने जब लोगों से पूछा उसके बारे में तो उन्होंने बताया कि ये रोने के लिए किराये पर स्त्रियाँ आती हैं। यह तो यहाँ का रिवाज है वे सब स्त्रियाँ एक लाइन से गोल-गोल खड़ी होकर ऐसा छाती पीट-पीटकर रोती हैं कि देखने वालों को लगता कि कही ये खुद मर जायें, पर वहाँ वास्तविकतादेखो तो उनको जरा भी चोट नहीं लगती। वह तो उनमें एक ऐसा प्रदर्शन करने की कला है। तो भाव कुछ हो प्रवृत्ति कुछ हो, यह बात बनती कि नहीं? इस विषय में तो मानों मिथ्यादृष्टि अपना एक दिलचस्प आदर्श उपस्थित करता कि जो भाव है वैसी ही प्रवृत्ति दिखती है सम्यग्दृष्टि से नहीं बन पा रहा ऐसा, जब तक कि चारित्रमोह का उदय है याने मिथ्यादृष्टि के मन में मोह है, पाप है, खोटा भाव है तो वैसी प्रवृत्ति कर बैठता (हँसी)। और ज्ञानी पुरुष, सम्यग्दृष्टि पुरुष, उसका भाव निर्लेप में है, उपेक्षा के हैं, दंदफंदों से हटे हुए हैं, मगर चारित्रमोह का ऐसा उदय है कि उसको प्रवृत्ति करनी होती है।
946- ज्ञानज्योति की केवलज्ञानकला के साथ केलि-
यह ज्ञानज्योति जिसके प्रकट हुई है, सो उसका अज्ञान अँधेरा सब दूर हो गया और परम कला के साथ याने केवलज्ञान के साथ यह ज्ञानज्योति अपनी क्रीड़ा करना प्रारंभ कर देती है। जैसे छोटे-छोटे बच्चे उसी घराने के बड़े-बड़े राजा महाराजाओं के पास नि:शंक होकर खेलते हैं क्योंकि उनके कुटुंब के ही तो बच्चे हैं तो ऐसे जो केवलीज्ञानी अरहंत सिद्ध भगवान हैं उन्हीं का तो लघुनंदन है ज्ञानी सम्यग्दृष्टि, तो फिर क्यों न केवलज्ञान के साथ अपनी क्रीड़ा करेगा? सारी महिमा ज्ञानज्योति की है लोग तो धन को परिग्रह को वैभव को बड़ा महत्त्व देते और अपनी इस काल्पनिक इज्जत को बड़ा मान बैठते इन लोगों में बड़ा प्रतिष्ठित हूँ, समझदार हूँ, नेता हूँ और अपना वैभव देखकर जिसके पास जितना है वही उसे बड़ा मानता है। कोई वैभव से यह हिसाब नहीं है कि जिसके लाखों का वैभव भरा हो सो ही धनी है। वहाँ धनी तो अपने-अपने मन के हिसाब की बात है, मगर यह सब अँधेरा है, इससे पार न पायेंगे, कल्याण न होगा। इन सब कलुषताओं से, कषायों से हटना है और अपना जो सहज आनंद स्वरूप है उसमें लगना है। तो शुभ अशुभभावों का प्रलय करती हुई यह ज्ञानज्योति प्रकट होती है।
947- अपने उपयोग की परीक्षा करने व सम्हाल करने का अनुरोध- यहाँ अपनी-अपनी परीक्षा कर लो कि हमारा उपयोग कहाँ लगा रहता है रात दिन। यह अपनी-अपनी बात अपने को खूब मालूम पड़ेगी। किसी का उपयोग परिग्रह के संचय में लगा, किसी का पुत्रों में, किसी का स्त्री में, किसी का अपनी इज्जत प्रतिष्ठा में, किसी का किसी में...।जो-जो जिसको इष्ट बन रहा, वहाँ लग रहा चित्त। और आत्मा में न लग रहा हो चित्त, उस स्वरूप की एक उमंग न उठती हो कि मैं अपने में बसे हुए सहज परमात्मतत्त्व को जानूँ तो सारा जीवन व्यर्थ समझियेगा उससे कोई लाभ नहीं, क्योंकि जीने के बाद मरना और जैसी करनी, जैसा उपयोग, जैसी यहाँ वासना बसी उसके अनुकूल कर्मबंध होता, उसका उदय होता, वैसा जन्म लेना पड़ता है। आज कोई मनुष्य यह संतोष नहीं किए हुए है कि भाई जितना उदय से मिला वह तो गुजारने के लिए मिला, और गुजारा के लिए काफी मिला, गुजारा कर लो, हल्का गुजारा सही, संतोष रखो और धर्म के लिए ज्ञान बढ़ाने के लिए जीवन समझो तो वह तो पवित्र जीवन है, जड़ वैभव संचित करने के लिए मनुष्य जीवन नहीं, किंतु आत्मा के स्वभाव का परिचय पाकर यहाँ ही दृष्टि देकर बस निर्मल और प्रसन्न रहने से जीवन की सफलता है। अपने उपयोग की खोज तो करो, कहाँ उपयोग लगाना? और देखिये- धोखा सब पायेंगे। जिसने विश्वास बनाया है इन पर वस्तुओं में तो उसको एक न एक दिन धोखा अवश्य मिलेगा। जब धोखा मिलेगा तो दु:ख पायगा। वे परवस्तु मेरी कुछ नहीं है, बाहरी चीजें हैं, पौद्गलिक बातें हैं, जो अजीव हैं, दूसरे जीव हैं, उनसे मेरा क्या मतलब? ऐसी बुद्धि नहीं कर पाते और इन जड़ वैभवों से ही एक अपनी उमंग का प्रभाव बनाते, अहंकार बनाते। जो मैं हूँ सो मेरे बराबर और कौन रखा है? मेरे में बड़ी कला है, ज्ञान है, बुद्धि है। मानो सारा ज्ञान दो आँखों में हो तो हर एक कोई यह सोचता है कि डेढ़ आँखें तो हमने पायी है और आधी आँख जगत के सब जीवों में बँट गई, याने जगत के सारे जीवों का मिलकर जो ज्ञान हो उससे तिगुना ज्ञान अधिक हमने पाया, ऐसा सोचते हैं, ऐसी पर्याय में आत्मबुद्धि बनाया है तो उसमें भला नहीं होने का,कष्ट ही होगा।ज्ञान को बढ़ावें, और अपने संकट मिटावें। भैया संकट बाह्य संग प्रसंग से न मिटेंगे। संकट मिटेंगे तो अपने ज्ञानबल से ही मिटेंगे। संकट मिटेंगे तो अपने ज्ञानबल के द्वारा सो पहला काम तो यह करना कि स्वरूप को छोड़कर, स्वभाव को छोड़कर बाकी जितने भाव हैं उनमें यह श्रद्धा यह बुद्धि लावें कि ये सबके सब मेरे से बाह्य हैं, मेरे शरण नहीं हैं, मेरा शरण तो मेरा सहज परमात्म तत्त्व है। 948- नाटक और नाटककार की मूल पहिचान में नाटक के रंग का भंग-
यह पुण्य पाप अधिकार चल रहा है और आज यहाँ समाप्त हो रहा है। क्या हुआ था कि कर्म में घटाओ एक ही कर्म दो भेषों को रखकर अपना नाटक दिखाता आया था। ज्ञानी ने उसे पहचान लिया कि वह यह एक ही तो है और यह कभी पुण्य का भेष रखता, कभी पाप का। विभावों में भी यह ही बात समझें। परभाव ही तो हैं सब, कभी शुभभाव में हैं, कभी अशुभभाव में हैं। तो जब पहिचान लिया कि है तो वह कर्म मूल में एक और भेष रख रहा है दो, तो फिर मानो शर्मिंदा होकर अपने भेषों को छोड़कर इस मंच से निकल भागेगा। कोई बहुरूपिया आपकी दूकान पर आकर खूब डटकर खड़ा हो गया, कभी इन्स्पेक्टर बनकर कभी पोस्टमैन बनकर या कभी कोई दलाल बनकर, सो उसकी ऐंठ तब तक रहती है जब तक वह दूकानदार उसको पहिचान नहीं पाता कि यह तो फलाना है। जब तक पहिचान लेता कि अरे यह तो फलाना लड़का है ऐसा भेष बनाकर आया है तो फिर वह बहिरूपिया झट वहाँ से आगे बढ़ जाता है, अभी कोई नाटक हो रहा हो तो उसमें लड़के लोग अपना भेष धर धरकर आते हैं ना उस मंच पर, सो देखने वाले लोग जब पहिचान नहीं पाते कि यह फलाने का लड़का है, यह राजा बनकर आया है यह देखो कैसा इस प्रसंग में रो रहा है तो वे दर्शक लोग भी रोने लगते हैं, और कोई विजय की बात हो तो दर्शक लोग हर्ष से ताली बजाने लगते और क्यों जी जिसे पहचान हो जाय कि यह तो फलाने का लड़का है और ऐसा भेष धर रहा है, देखो कैसी कला खेल रहा है तो उस पर उस घटना का असर न होगा, क्योंकि वह जानता कि ऐसा हो नहीं रहा, यह तो फलाने का लड़का है, उस तरह से खेल दिखा रहा है...। और, जिसकी बुद्धि जम गई कि सचमुच देखो धवल सेठ ने श्रीपाल को पटक ही तो दिया आदि, जो यों देखेगा वह खेद मानेगा या प्रसन्न होवेगा, जैसी घटना हो। किंतु जिसे मालूम हो कि वह तो खेल ही तो हो रहा यह तो अमुक का लड़का है यह अमुक का है, और ये तो आपस में एक दूसरे के बड़े दोस्त हैं, कोई इनमें विरोध थोड़े ही है। यह तो दिखा रहे हैं लोगों को इस तरह से पटक दिया, तो ऐसी बुद्धि वाला क्या रो सकता है? न रोवेगा। तो ऐसे ही यह ज्ञानी जीव ने इस सारे संसार को खेल के रूप में परखा कि यह सब नाटक हो रहा, वह इसमें हर्ष विषाद नहीं मानता। जैसे सिनेमा में आप शो, और कोई थियेटर में भी देखते, तो बताओ वह नाटक है कि नाटक की नकल? वह तो नाटक की नकल है। तो नाटक फिर कहाँ है? यहाँ हम आप सभी तो नाटक कर रहे और इसी का अगर फोटो ले लिया जाय फिल्म में ले लिया जाय और उसे दिखाया जाय तो वह नाटक की नकल है। सो नाटक की नकल देखने को तो लोग पैसा भी खर्च करते और उसकी भारी चर्चा करते। चाहिये तो यह है कि असली नाटक देखें। क्यों पैसा खर्च करें, क्यों व्यर्थ में रातभर आँखें फोड़े?
945- कर्मभेष तजकर स्वरूप में रुचि करने का अनुरोध-
जगत में जितने भी ये कष्ट हो रहे, जितनी भी विषाद की बातें हो रहीं, ये सब कर्म के नाटक हैं। जो यह पहिचान जायगा कि कर्म तो एक पौद्गलिक चीज है, कर्म भेष धर-धरकर आ रहे हैं पुण्य पाप तथा जीव तो चैतन्य चमत्कार स्वभाव वाला है और यह भेष धर-धरकर जन्ममरण करता रहता है यह सब उसका भेष है, स्वरूप तो उसका एक विशुद्ध चैतन्यभाव निरपेक्ष सदा मैं जैसा हूँ सो है। ऐसी जिसको वस्तु के वास्तविक स्वरूप की पहिचान होती है उसको हर्ष और विषाद न सतायेगा। कषाय, क्रोध, मान, माया, लोभ ये उस पर सवार नहीं हो पाते। तो सुख शांति होना है तो उसका मूल उपाय है कि सच्चा ज्ञान पावें। यह ज्ञान रागद्वेष को दूर कर अलौकिक अपूर्व आत्मोत्थ आनंद का लाभ करता व अज्ञान अंधकार को दूर करता, ऐसी सुस्थिति का काम बड़ा कठिन काम दिखता इन मोहियों को। ये जो ज्ञानीजन हैं उन्हें कठिन दिख रही है मोहियों जैसी बात करना। मोह करना उन्हें बहुत कठिन दिखता। कैसे किया जाय मोह? कर ही नहीं सकता ज्ञानी मोह, क्योंकि जब भेद जान लिया कि सब जीव स्वतंत्र-स्वतंत्र है, फिर कैसे यह मान सकेगा कि यह मेरा है? तो जैसे अज्ञानी मोही जीवों को उदासीनता पाना कठिन है, ऐसे ही ज्ञानी सम्यग्दृष्टि जीवों को मोहियों की तरह रोना वहाँ बन ही नहीं सकता। उनसे खेद, आकुलता बन ही नहीं सकती, किंतु ज्ञान के बल से वह सारे संग प्रसंग विपदाओं से अलग हो गया और अपने उस परमात्मतत्त्व के दर्शन करके आनंद पा रहा। तो लो यों ज्ञानी की उपयोग भूमि से पुण्य पाप अपना भेष छोड़कर बाहर निकल गए।
आस्रवाधिकार