वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 119
From जैनकोष
रागद्वेषविमोहानां ज्ञानिनो यदसंभव: ।
तत एव न बंधोऽस्य ते हि बंधस्य कारणम् ॥119॥
978- ज्ञानी के रागद्वेषमोह की असंभवता के कारण बंधन का अभाव-
ज्ञानी जीव के रागद्वेषमोह होना असंभव है, कितना तेज शब्द डाला है, क्या सर्वथा यह बात बनेगी? जिसके सम्यग्दर्शन हो गया उसके रागद्वेष होते नहीं, क्या यह बात सत्य है? हाँ नहीं होते वह महान साधक है, मगर सभी सम्यग्दृष्टियों के रागद्वेष नहीं होते, यह तो सही बात नहीं और श्लोकों में कह रहे कि ज्ञानी पुरुष के रागद्वेष होना बिल्कुल असंभव है? तो सर्वत्र यह अर्थ लेना है कि अध्यात्म शास्त्र में प्राय: सर्वत्र बुद्धिपूर्वक बंध के निषेध का जिक्र चला करता है और फिर एक दृष्टि और दीजिए कि जैसे आदमी तो एक है वह पूजा करता सो पुजारी है, पढ़ाता है सो पंडित है, दूकान करता सो व्यापारी है और पंचायत में निर्णय देता तो सरपंच भी है। अब पुजारी शब्द सेपुकारा जाय तो केवल यह तब नाता उसमें लगेगा जब कि वह पूजा करता हो और कुछ न देखेंगे कि यह दूकान करता या पंच भी है। केवल जो शब्द बोला उस शब्द का ही अर्थ लगाना है। दूकान पर बैठे हुए को कौन कहता है कि पुजारी जी क्या कर रहे है? और यहाँ मंदिर में पुजारी शब्द बोला जायगा। तो ऐसे ही जब ज्ञानी कहा तो वहाँ ज्ञान में ज्ञानस्वभाव आये तो ऐसी स्थिति को ही ग्रहण करना। इस स्थिति के कारण आस्रव नहीं होता, किंतु जो राग चल रहा है उसके कारण तो आस्रव होता ही है तो व्यक्ति एक है और आत्मा एक है और काम वहाँ दो हैं। राग भी चल रहा और ज्ञानधारा भी चल रही है, पर जब ज्ञानी कहा तो कहना निर्बंध। और सम्यग्दृष्टि भी किसी हद तक रागी रहता है, सो जब रागी कहा तब सोचना बंध। इस तरह से ज्ञानमात्र के नाते से उसको परखा जा रहा है तो वहाँ रागद्वेष मोह नहीं है, और जब रागद्वेष मोह नहीं है तो इस ही कारण वह बंध में कारण नहीं बनता, याने रागद्वेष मोह नहीं है, सो बंध वहाँ नहीं होता।
979- विभावों के उपेक्षक ज्ञानी का अंत: स्वरूपागमन में पौरुष-
जितने कर्मबंध हैं सब रागद्वेष मोह के कारण हैं। अपने को भविष्य में विपत्तियों से बचाना है, तो कर्मबंध से हटें। कर्मबंध से हटना है तो रागद्वेष मोह से हटें, और इन तीनों में प्रथम व पूर्णतया हटना है मोह से। अज्ञान मोह हटा कि रागद्वेष होते हुए भी हटे से हैं और हट जावेंगे। घर में आप रह रहे और प्रधान हैं आप और 5-7 जनों जो घर में हैं उनसे आपकी नहीं बनती, स्त्री से भी आपकी नहीं बनती तो आप उस ओर देखना तक भी नहीं चाहते, उपेक्षा करते। तो क्या कहा जायगा कि आप विविक्त हैं, न्यारे हैं।देखो आप रह रहे हैं घर में और लोग कहते कि यह तो घर से अलग है। जब घर में रहते हुए में किसी से मन नहीं मिलता तो यही बात तो वहाँ गुजरती है तब ही तो एक कहावत है- भली मार करतार की, दिल से दिया उतार। किसी को दिल से उतार दिया वह चाहे एक ही तख्त पर क्यों न बैठा हो, पर वह तो निराला है, अलग है, किसी से मिला नहीं है। तो रागादिक विकार चल भी रहे हैं ज्ञानी पुरुष के चारित्रमोह के उदय से, मगर जब उनसे दिल नहीं मिलता, उनमें आस्था नहीं जगती तब तो उनसे निराला ही समझिये न हुए बराबर जैसा समझिये। तो विजय अपनी इसमें है कि इन विभावों से तो उपेक्षा करें और अपने परमार्थ सहजस्वरूप में अपने आपको अनुभवें कि मैं यह मैं सहज परमात्मतत्त्व हूँ।