वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 121
From जैनकोष
रागादियोगमुपयांति विमुक्तबोधा: । ते कर्मबंधमिह बिभ्रति पूर्वबद्ध- द्रव्यास्रवै: कृतविचित्रविकल्पजालम् ॥121॥
988- शुद्धनय से च्युत पुरुषों की विडंबना-
अपने आपको पर से निराला और अपने स्वरूपमात्र ज्ञानज्योति रूप में निरखना यह कहलाता हैशुद्धनय। इस शुद्धनय की बात कोई छोड़ दे, उस शुद्धता से गिर जाय तो क्या बात बनेगी? चूँकि अपने ज्ञान से तो हट गया तो रागादिक के साथ उसका संबंध बनेगा। यदि अपने आपके स्वरूप में लगा है तब तो वह सही है और स्वरूप से च्युत हुआ तो रागादिक के साथ संबंध बना। जब रागादिक के साथ संबंध बना, तो कर्मबंध को करता है। कर्म का कहाँ बँध होगा? कर्म किससे बंधते हैं जो पहले बाँधे हुए कर्म है उन कर्मों से बंधते हैं। पर उनके इस निमित्तयोग में निमित्त है साक्षात् द्रव्यप्रत्यय और द्रव्यप्रत्यय में नव्यकर्मास्रव का निमित्तत्व आवे इसका निमित्त है विकारभाव। विकारभाव की सब अनर्थों की जड़ है। तो यहाँ यह बतलाया जा रहा है कि हम सबका कर्तव्य है कि अपने आपको इस तरह निरखें कि मैं तो केवल ज्ञानज्योति स्वरूप हूँ शरीर से भी निराला समस्त अन्य द्रव्य क्षेत्र काल भाव से जुदा ज्ञानज्योति मात्र हूँ ऐसा अपने आपको निरखें तो यह जीव शिवमार्ग में है और जहाँ अपने आपके स्वरूप से च्युत हुआ कि यह रागादिक बंधन में पड जाता है। अब दो स्थितियाँ है- एक तो सम्यग्दृष्टि ज्ञानी पुरुष अपने स्वरूप में निरंतर नहीं लग पाता, तो अपने स्वरूप से वह हट गया। एक तो ज्ञानी की स्थिति और एक मिथ्यादृष्टि की स्थिति कि अपने स्वरूप की श्रद्धा भी खो दी और अज्ञानभाव में आ गया। अपने स्वभाव से हटने में दोपरिस्थितियाँ हुआ करती हैं। एक तो अज्ञानी बन करके अपने स्वरूप से हट गया, दूसरे ज्ञानी रहता हुआ भी अपने स्वरूप में उपयोग न रख सका। तो इन दोनों में बंध तो है, ज्ञानी भी अपने स्वरूप से हटा हुआ है, तो उसके भी बंध है, मगर मिथ्यात्व वाला बंध नहीं है, अल्पबंध है। और, जो अज्ञानी ही बन गया, मिथ्यादृष्टि ही बन गया उसका बंध मिथ्यात्व वाला बंध है। मगर बंध है दोनों में। इसीलिए यह प्रेरणा दिलाई जाती है कि तुम अपने स्वरूप की प्रतीति किये रहो और भरसक पौरुष करो कि मैं सबसे निराला केवल ज्ञानमात्र हूँ, ऐसा एक अपने अंदर स्पष्ट करें। जैसे पतंग दूर उड़ गया, उसकी डोर हाथ में है तो पतंग दूर नहीं गया, ऐसे ही उपयोग अगर किसी कारण से घर में, दूकान में, सेवा में, अन्य बातों में जाय और प्रतीति रहे अपने आत्मा की कि मैं यह आत्मा उपयोग नाम का केवल पतंग मात्र हूँ तो आपका उपयोग पतंग की तरह अपने आश्रित है। एकदम जैसे डोर टूट जाय तो पतंग हाथ नहीं आती, कहीं की कहीं पड़ती।ऐसी स्थिति ज्ञानी की नहीं है, यह अज्ञानी की स्थिति है कि डोर उसकी टूट गई, पतंग कहीं पहुंच गई। तो ज्ञान ही एक अपने को शरण है। ज्ञानमय अपना एक भाव रहेगा तो अपने आपका उद्धार होगा। जगत में कोई दूसरा उद्धार का साधन नहीं है।
989- कर्मबंध का कारण शुद्धस्वरूप से प्रच्यवन- क्या स्थिति यहाँ वर्णन में चल रही है कि ऐसा जीव जिसने अपने ज्ञानोपयोग से हटकर बाहरी पदार्थों में लगाया है, ऐसे जीव तो अनंतानंत हैं जगत में। उनके खराब परिणाम का निमित्त पाकर ये कर्म नाना प्रकार से बँध जाते हैं, जैसे भोजन किया तो पेट के अंदर भोजन पहुँच गया। अब उसके बाद उसकी सारी क्रियायें अपने आप होती हैं। उस भोजन का कौनसा हिस्सा क्या बनता है, कोई अंश खूनरूप बनता है, कोई हड्डीरूप बनता है, कोई वीर्य रूप बनता है कोई किसी रूप...ऐसे ही जहाँ यह कषायभाव जगा और वहाँ कार्माणवर्गणायें कर्मरूप परिणमी तो कुछ वर्गणायें ज्ञानावरणरूप बनीं, कुछ दर्शनावरण बनीं और उनमें अनुभाग भी वैसा ही बना, तो ऐसे 8 प्रकार के वे कर्म बँधते और 8 ही नहीं, उस 8 में और भी भेद हैं, उतने प्रकार के कर्म बँधते। जैसे सकल सबकी एकसी नहीं होती। मनुष्य होते सभी एक ही ढंग के अंगोपांग वाले फिर भी ये जो जो कुछ भेद नजर आते समझो उतने कर्म के उदय हैं।कर्म 8 नहीं हैं। कुछ विसम्वाद है, तो समझो कि उसका निमित्तभूत कर्म उस ढंग का है, तो कर्म केवल 8 नहीं, केवल 148 नहीं, अनगिनते प्रकार के कर्म हैं। उन्हें बताया कैसे जाये? तो उनको उनकी जाति में अंतर्भूत करके बताया गया है। क्योंकि जितने भी विषम कार्य होते हैं वे किसी पर निमित्त के सन्निधान बिना नहीं हो सकते। ऐसे ही हर एक लौकिक बात में लगा लो। तो जो कर्मजाल नाना प्रकार के बँधते हैं उनका निमित्त यह है कि यह जीव अपने स्वभाव का आश्रय न करे, अपने आश्रय में इसका उपयोग न रहे और बाहर बाहर उपयोग चले तो नाना प्रकार के कर्मबंध इसके हो जाते हैं। 990- शुद्धनय के त्याग से बंध और शुद्धनय के आश्रय से अबंध-