वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 126
From जैनकोष
रंतर्दारुणदारणेन परितो ज्ञानस्य रागस्य च । भेदज्ञानमुदेति निर्मलमिदं मोदध्वमध्यासिता: शुद्धज्ञानघनौघमेकमधुना संतो द्वितीयच्युता: ॥126॥
1004- संवरतत्त्व के अभ्युदय की भेदविज्ञानमूलता- सम्वर कैसे प्रकट होता? सम्वर तत्त्व इस उपयोग भूमि पर आया, यह आ कैसे गया? तो यह आ पाया है भेदविज्ञान के बल से। स्व और पर में भेदविज्ञान होना, स्व क्या? चैतन्यस्वरूप। पर क्या? जड़रूप। कहाँ देखा, कहाँ भेद किया? तो सम्वर होवे। भेदज्ञानी तो प्राय: सभी लोग हैं। देहात में भी जावो तो वहाँ बिना पढ़े लिखे लोग भी भेदविज्ञान की बात करते मिलेंगे। किसी पुरुष के गुजर जाने पर लोग कहते कि देखो हंसा उड़ गया, यह शरीर यही पड़ा रह गया। ऐसा सभी कहते हैं, मगर इसमें वह चोट नहीं आ पायी जिससे प्रकट यह जीव अपने आपमें रहता हुआ प्रसन्न रह सके। वहाँ आकुलता है व्यग्रता है, भय न बन रहा। क्या यह भेदविज्ञान है जो भय को पैदा करे, शंका करे, स्पष्टता न लाये? वह तो नाम का भेदविज्ञान है। यहाँ भेदविज्ञान करना है। कहाँ? स्वभाव में और विभाव में। एक ही में भेदविज्ञान करना। यहाँ आशंका हो सकती। भेद तो दो में ही होता है। स्वभाव भी तो जीव की ही बात है और विभाव भी तो जीव की बात है कि जीवविकार, क्रोधादिक विकार ये परिणमन किसी दूसरे के तो नहीं हैं। एक में क्या भेद डाल रहे, क्यों फूट पाड़ी जा रही और किसी परिवार में फूट डालने की कोशिश क्यों करते? बने रहने दो विभाव, वे विभाव भी बन रहें, स्वभाव भी बना रहे। घर में भी दसों तरह के आदमी होते हैं, उनमें कोई कमाऊ होता, कोई बैठा रहता, कुछ नहीं करता, लेकिन घर से भगाते तो नहीं किसी को। सभी को घर में रहने देते। तो ऐसे ही रहने दो सबको अपने अंदर, क्रोधादिक कषायें भी रहें, रागद्वेष मोहादिक भी रहें, आखिर अपनी ही तो परिणतियाँ हैं। विभाव भी रहने दो। परंतु यह मंजूर नहीं हो पा रहा इस ज्ञानी आत्मा को। बस प्रबल बलधारी इसे उपचार भाषा में बोलतेऔर प्रयोजन करके याने कर्म के बल पर बल रखने वाला है विभाव तभी तो इसे नैमित्तिक कहते। उस उपयोग के विकल्प से ये विभाव बने हैं। 1005- कर्मविपाकप्रभव होने से विभावों की परभावता-
विभाव का अर्थ यह न लेना कि किसी परतत्त्व का आश्रय, उपयोग करके होता है इसलिए यह परभाव है। यद्यपि परभाव का यह भी अर्थ है किंतु समस्त परभावों का यह अर्थ न बनेगा कि परपदार्थ का आश्रय करके होने वाले भाव को परभाव कहते हैं। हाँ बुद्धिपूर्वक जो परभाव है याने जगत में ये विषयसाधन इतने पड़े हुए हैं, इन विषय साधनों का आश्रय करके, इनमें उपयोग जोड़कर जो रागद्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभादिकभाव उत्पन्न होते हैं वे परभाव ऐसे हैं कि पर का आश्रय करके उत्पन्न हुए हैं। किंतु एकेंद्रिय, दोइंद्रिय, तीनइंद्रिय, चौइंद्रिय असंज्ञीजीव, संज्ञी में भी थोड़े से जैनियों को छोड़कर जो कि कर्म की चर्चा करते हैं, बाकी सब मनुष्य जो कर्म को नहीं जानता वह कर्म का कैसे विषय, आश्रय करके अपना उपयोग बनाये, वहाँ तो ऐसा सहज निमित्त नैमित्तिक योग है कि जैसे अग्नि पड़ी है उस पर लात आ गई तो तुम भले ही न जानो पर वहाँ जलनकार्य तो बनता ही है, उसी प्रकार आत्मा में जो प्रतिफलन है, विकार है, उसके निमित्तभूत कर्म को जानो तो, न जानो तो उनके विपाककाल में यह प्रतिफलन होता ही है। वहाँ उपयोग में मालिन्य है और उपयोग उस अनुरूप विकल्प करता है यही जुटना समझें तो यह सहज है। हाँ उस काल में यदि इन बाहरी विषय साधनों पर दृष्टि देंगे, उनकाआश्रय करेंगे तो यह बुद्धिपूर्वक विकार होगा।
1006- अध्यात्मशास्त्रों में बुद्धिपूर्वक विभावों के सद्भाव अभाव आदि का वर्णन- बात यहाँ एक यह सदा समझना कि समयसार या अन्य आध्यात्मिक ग्रंथों में जितना वर्णन हुआ है वह बुद्धिपूर्वक तत्त्वों का वर्णन हुआ। अबुद्धिपूर्वक बात का वर्णन इनमें नहीं हुआ। अबुद्धिपूर्वक तत्त्व का वर्णन द्रव्यानुयोग नहीं करता, लेकिन आचार्यजन सभी विषयों में निपुण होते हैं। तो कहीं संकेत दे दिया करते। समयसार में कहा है कि ज्ञान गुण के जघन्य परिणमन से आस्रव है। अर्थ यह है कि यथाख्यातचरित्र अवस्था से पहले नियम से होने वाले राग का सद्भाव होने से वहाँ आस्रव है, और इसी कारण ज्ञानस्वभाव का तब तक आस्रव बनावें, दृढ़ता से बनावें कि जब तक यह पूर्णतया इस अबुद्धिपूर्व आस्रव से भी रहित हो जाय। करणानुयोग की बात का बीच बीच में संकेत दिया, मगर अध्यात्म्शास्त्र में बुद्धिपूर्वक तत्त्व का ही वर्णन होता, और जबएकयह न्याय अपने लिए अध्यात्मशास्त्र का है तो इसको कुछ भी कहने में अब हिचक नहीं रही। क्योंकि हिचक तब होती तब पहले से कुछ अनिर्णीत हो जाता है कि किस दृष्टि से अध्यात्मशास्त्र में वर्णन है। नि:शंक बोलिये ज्ञानी सर्वथा निराश्रव है, ऐसी बड़ी बड़ी दृढ़ता वाले शब्द अध्यात्म ग्रंथों में दिये जाते हैं, मगर कहीं फिसल न जायें इसलिए बीच बीच में एक संकेत भी दिया जाता है कि अबुद्धिपूर्वक विभाव भी होता है। मगर जहाँ स्वभाव लक्ष्य बना है वहाँ बुद्धिपूर्वक विभाव के परिचय की मुख्यता नहीं होती, क्योंकि विविध भावों के स्पर्श करने की मुख्यता यदि हो तो उसकी चाल में फर्क आ जाता है। 1007- अन्य भावों में न अटककर स्वभावाविमुख होने के लिये ज्ञानी की नि:शंक वृत्ति- नि:शंक होकर अपने सहज ज्ञानस्वभाव की पहिचान चाहता है यह ज्ञानी, तो बस वही वही बात सामने रखे जायें। दूसरी बात और जो हुआ करती है उन्हें नहीं सामने रखना, नहीं तो यह छिड़ जायगा। जैसे कोई आदमी मंदिर आना चाहता है घर से, तो रास्ते में बहुत से लोग मिलते किंतु उन मिलने वालों से छिड़ता नहीं, क्योंकि लक्ष्य तो मंदिर में आने का है, तो मिलते तो हैं इतने मित्र भी, इतने परिचित लोग भी मिलते, मगर तुम उपेक्षा करो। मंदिर आना हो तो सीधे मंदिर में ही आ जावो, रास्ते में इससे बात की उससे बात की...इसमें समय गमाना ठीक नहीं। अरे उन सबकी उपेक्षा करो। मंदिर में आने का लक्ष्य है तो इस मंदिर की ओरही तेजी से आ जावो और आराम से बैठकर अपना ध्यान बनाओ। उसी प्रकार जब ज्ञानस्वभाव का आश्रय करने का ही लक्ष्य है तो बीच में आ पड़ता हुआ, युक्तिविज्ञात अबुद्धिपूर्वक राग है, और शरीर भी हैं, कर्म निमित्त भी है। यहाँ बात झूठ तो नहीं है, शरीर है नहीं क्या अभी? और, बंधन में नहीं है क्या? अबुद्धिपूर्वक राग विकार उठता नहीं है क्या? सब बात है मगर तुम इनसे बात न करो। इनसे छिड़ो मत, भिड़ों मत, क्योंकि इसने लक्ष्य बनाया है कि ज्ञानस्वभाव आनंदधाम निज के मंदिर में आना है। बीच में रहने वाले इन अनेक पदार्थों का पिंडोला इन्हें क्या देखना। ऐसा अध्यात्मशास्त्र का एक नियम हैं, संकल्प है। एक नीति है ऐसी, इसी कारण तो एक ही कुंजी है कि प्रतिपक्षनय का विरोध न करके विवक्षितनय की मुख्यता करके प्रयोजन को सिद्ध करो। यह हर जगह बात आती है। हमें स्वभाव निरखना है तो द्रव्यार्थिकनय से निरखते जायेंगे। और पर्यायार्थिकनय का विरोध न करके अपने प्रयोजन से द्रव्यार्थिकनय की मुख्यता करें तो उसे धोखा न होगा, मगर प्रतिपक्षनय का विरोध करके विवक्षित तो कुछ रहा ही नहीं, फिर भी जो माना उस पर एकांत से लगे तो उसे धोखा है, क्योंकि मोह में अज्ञान में यह पड़ा हुआ है। तो यह ही एक नीति है सर्वत्र कि प्रतिपक्षनय का विरोध न कर विवक्षितनय की मुख्यता करके उस प्रयोजन में रहे, उसे सफलता प्राप्त होती। तो यहाँ बतला रहे हैं कि यह सम्वर कैसे प्रकट हुआ? अपने स्वभाव में, आत्मस्वभाव में विभावों में भेद डालकर हुआ। कैसे डाला, क्या डाला, इसे आगे कहेंगे। 1008- स्वभावाश्रय में संवर तत्त्व-
ज्ञानीजीव के सम्वर होता है, जो जिस पद में है, गुणस्थान में है उसके उस अनुरूप कुछ प्रकृतियों का सम्वर चलता है, उस सम्वर का मूल क्या है? स्वभाव का आश्रय। स्वभाव के आश्रय का उपाय क्या है? स्वभाव का सुपरिचय। स्वभाव के सुपरिचय का उपाय क्या है? ज्ञान और राग में दो टूक कर देना, भेद कर देना ऐसा यह भेदविज्ञानस्वभावाश्रय काउपाय बनायगा और स्वभावाश्रय से सम्वर होगा। जितना भी जो कुछ उपदेश है, ज्ञान है उन सबका प्रयोजन है अपने सहज स्वभाव का आश्रय बनाना। जैसे कोई भोजन तो सब कुछ बना डाले और उसे यहाँ वहाँ फेंक दे, खाये नहीं, तो भोजन बनाने का प्रयोजन क्या रहा? इसी प्रकार समस्त नयों से सर्वप्रकार का ज्ञान किया और उसका फल विकल्प ही बनाया, विवाद ही बनाया तो उसका फल क्या मिला? वह तो भोजन को यत्र तत्र फेंक देने के बराबर है। ज्ञान का प्रयोजन है स्वभावदृष्टि करके स्वभाव में अपने उपयोग को लगाना, अंतस्तत्त्व में मनन करने का पौरुष करना। यह बात बने उसके लिये प्रारंभ में क्या करना होगा? भेदविज्ञान, ज्ञान और राग में भेद डालना। ज्ञान चैतन्यस्वरूप को धारण किए हुए है और राग जड़पने को धारण किए हुए है, ये दो बातें यहाँ प्रकट भेद में आ रही हैं। देखिये इन दोनों बातों के समझने के लिए और स्वभाव का सुपरिचय पाने के लिये निमित्त नैमित्तिकभाव का परिचय बहुत सहयोगी बनता है। कुछ निमित्तनैमित्तिकभाव का निषेध या निमित्तनैमित्तिकको न बदलने की उमंग यों बड़ी है कि लोग कर्ताकर्मबुद्धि करके यों मानने लगे थे कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कर्ता है, जो बात कहीं संभव नहीं। अब कोई एक द्रव्य दूसरे द्रव्य की परिणति कर दे, इस प्रकार के भ्रम को दूर करने के लिए निमित्तनैमित्तिक भाव को झूठ कहने लगे तो उसने अपना प्रयोजन बिगाड़ा और निमित्तनैमित्तिक भाव को भी विकृत बनाया, सो ज्ञानबल वह कहलाता है कि निमित्त नैमित्तिक भाव और वस्तुस्वातंत्रय दोनों को एक जगह एक साथ निरख सकें। निमित्त नैमित्तिक भाव बराबर चल रहे हैं, इतने पर भी वस्तु की स्वतंत्रता का विघात नहीं है। वस्तु की स्वतंत्रता यहाँ चल रही है, फिर भी जो विकार परिणमन हो रहा उसमें निमित्त नैमित्तिक भाव की अप्रतिष्ठा नहीं है, दोनों बातें एक साथ परख में आती हैं। यहाँ बहुत सुगमता से स्वभाव दृष्टि जैसे परिचय के लिये मूल में बात कह रहे हैं निमित्त नैमित्तिक भाव के परिचय की।
1009- ज्ञानस्वरूपआत्मा में विकार के उपद्रव की विधि के ज्ञान से स्वभावदृष्टि को प्रश्रय- मैं हूँ ज्ञानस्वरूप। मेरा स्वभाव है मात्र प्रतिभास, जानना। यह जानना इसका स्वरूप है, सो चलता ही रहता है। और फिर यह जो राग बन रहा, जिसमें हम बड़ी विपत्ति में पड जाते, यह राग क्या है? तो श्रीमत्कुंदकुंदाचार्य ने श्रीमद् अमृतचंद्र सूरि ने यह स्पष्ट बताया कि पुग्गलकम्मं रागोतस्स विवागोदओ हबदि एसो। ण हु ते मज्झ सहावा जाणगभावो हु अहमिक्को। अस्तिकिल रागो नाम पौद्गलिक कर्म। तदुदयविपाकप्रभवोयं भावो न मम स्वभाव: एष टंकोत्कीर्णैकज्ञायकभावमात्रोऽहं। नियम से है राग,प्रकृति नाम का पौद्गलिक कर्म, इसके उदयविपाक से उत्पन्न हुआ यह रागभाव यह मेरा स्वभाव नहीं। मैं तो टंकोत्कीर्ण वत् निश्चल ज्ञायकस्वभावमात्र हूँ, देखो अलग होना है ना, तो ये परभाव हैं, ऐसा सही समझे बिना विभावों से अलगाव न बन पायगा। ये विभाव परभाव हैं, क्योंकि ये कर्म के विपाक से उत्पन्न हुए। कर्म ने नहीं किया, किंतु वहाँ ऐसा ही संपर्कज भाव है कि कर्म अपनी स्थिति पर अपने में विपाक को करता हुआ उदित होता है और चूँकि यह आत्मा उपयोग स्वरूप है उसमें वह प्रतिफलन होता है और यह उपयोग में ही तो प्रतिफलन है सो यह जुटान अबुद्धिपूर्वक है, इसके फल में यह जीव अपने को राग करता हूँ, द्वेष करता हूँ इस तरह अपने आपको बोलने लगता है। जैसे जिस पुरुष को साँप ने डस लिया तो वह पुरुष ऐसी भाषा बोलने लगता है कि अरे मुझे क्यों पीटा, इसने मेरे ऊपर पैर क्यों रखा? ऐसी विष चढ़े हुए पुरुष की आवाज होती है, ऐसे ही मोह से ग्रस्त प्राणियों के उस कर्मस्वभावरूप से ज्ञान के भवन की बात चला करती है। हाँ तो यह संपर्कजभाव है। जड़ क्यों है कि यह विभाव जड़ के विपाक का एक प्रतिफलन है जिस पर उस रूप से अब उपयोग यहाँ बिगड़कर चला है, इस कारण राग जड़ है। दूसरी बात यह कि राग का जो स्वयं स्वरूप है वह चेतना से शून्य है, उसका परिज्ञान चेतना द्वारा होता है, याने राग स्वयं चेतक नहींहै। यह चेत्य तो है पर वह ज्ञान द्वारा चेत्य है, स्वयं के द्वारा चेत्य नहीं है। जो बात, जो जो भाव, जो जो पदार्थ स्वयं के द्वारा चैत्य नहीं हैं वे सब जड़कहलाते हैं। अब यहाँ केवल स्वरूप पर दृष्टि दी है यह राग जड़ है, क्योंकि यहस्वयं अपने आपको चेतता नहीं है, यह ज्ञान द्वारा अनुभव में आता है, तो यह राग जड़ है। जब इन दो बातों से समझ लिया कि राग जड़ है, क्योंकि यह जड़ कर्म का निमित्त पाकर हुआ है, उसका प्रतिफलन है, उसका उपयोग विकल्प बनाता है उस रूप? इसलिए जड़ है। तो देखिये दोनों का स्वरूप जानकर भेदविज्ञान करना है। 1010- आत्मसंयमन से दुर्लभ नरजीवन की सफलता-
यह मनुष्य पर्याय बड़ी कठिनाई से मिली है, मन भी श्रेष्ठ मिला है, तो मन को इतना निर्मल रखना, इतना आत्महित का पिपासु रखना कि इसके आगे केवल एक ही प्रोग्राम रहे कि मेरे आत्मा का हित कैसे हो। ये बाहरी कर्मबंध की बातें, मैं ऐसा बोल रहा हूँ, यह ऐसा क्यों नहीं मान रहा, या जैसा मैं सोच रहा हूँ वैसा होना ही चाहिए, ये सब बातें व्यर्थ की है। यह अध्यवसान दूर हो और केवल एक आत्महित की ही बात हो, जिसमें मेरा हित है, सो मुझे चाहिए। अन्य की बात क्या? कोई मित्र, कोई जगत के लोग ये मेरे क्या मददगार हैं ! मेरा बाहर में कहीं कुछ नहीं, मैं अपने में अकेला रहा करता हूँ। मैं अपने शुद्ध अंतस्तत्त्व को प्राप्त कर लूँ, तो उसका मेरे को शरण मिल गया और इसको प्राप्त न कर सकूँ तो मेरे को कुछ भी शरण नहीं।
1011- रागादिकपरिणमनघटना का वास्तविक तथ्य-
हाँ तो देखो- जहाँ यह समझा कि यह कर्मोदयविपाकप्रभव भाव है, इससे मेरा क्या मतलब? मैं तो ज्ञायकस्वरूपमात्र हूँ। तो उसको स्वभावदृष्टि करने की बड़ी सुगमतया शुद्ध मार्ग मिल जाता है, इसी बात को कुंदकुंदाचार्य ने कहा है, यह फलिहमणी सुद्धोण सयं परिणमइ रागमादिहिं। रंगिज्जदि अण्णेहिं दु सो रत्तादिहिं दव्वेहिं। एवं णाणी सुद्धो ण सयं परिणमइ रायमादिहिं। रायज्जदि अण्णेहिं दु सो रायादिहिं दोसेहिं। इसकी आत्मख्याति में जो कहा है उसे ध्यानपूर्वक सुनिये उसका हिंदी अनुवाद। हिंदी में कह रहे वहाँ बड़ी दृढ़ता से किल शब्द किया, एव शब्द दिया।बड़े निर्णय के साथ कहा जा रहा है कि जैसे स्फटिकमणि अपना परिणमन स्वभाव रख रहा है, क्योंकि वह तो स्वरूप है किंतु स्वयं शुद्धस्वभाव वाला है वह स्फटिक, इस कारण अपने आपकी लालिमा में वह निमित्त नहीं है। वह तो सफेद है, स्वभाव से सफेद है। तो फिर होता किस तरह से है, याने जब लालिमा में स्वयं स्फटिक निमित्त नहीं है तो स्वयं नहीं परिणमता वह लालिमारूप। यह एक ध्यान देने की बात है। भाव लाना, परिणमता तो वह स्वयं है। मगर निरपेक्षतया पर की उपाधि बिना खुद अपने आप परिणम सके ऐसी बात नहीं होती। उसको ही इन शब्दों में कहा है अमृतचंद्र सूरि ने, कुंदकुंदाचार्य ने कि यह स्फटिक स्वयं रागादिक रूप से नहीं परिणमता। तो फिर होता क्या है कि पर द्रव्य के ही द्वारा, कैसे एव और किल देकर बात की गई है कि परद्रव्य के ही द्वारा जो स्वयं रागभाव को आपन्न है, मायने जैसे कपड़ा रखा है स्फटिकमणि के सामने तो वह परद्रव्य हुआ कपड़ा और स्वयं वह लाल है और वह इस स्फटिक की लालिमा होने का निमित्तभूत है, ऐसा परद्रव्य के द्वारा ही वह स्फटिक अपने शुद्धस्वभाव से च्युत होता हुआ रागरूप से परिणम रहा है, टीका के इन सब शब्दों का अनुवाद हिंदी में चल रहा है। उसी प्रकार केवल:किलात्मा परिणामस्वभावत्वे सत्यपि स्वस्य शुद्धस्वभावत्वेन रागादिनिमित्तवाभावात् रागादिभि: स्वयं न परिणमते, किंतु परद्रव्येणैव स्वयं रागादिभावापन्नतंया स्वस्य रागादिनिमित्तभूतेन शुद्धस्वभावात्प्रच्यवमान एव रागादिभि: परिणमम्यते।न जातु रागादिनिमित्तभावमात्मात्मनो याति यथार्ककांत:। तस्मिन्निमित्तं परसंग एव वस्तुस्वभावोऽयमुदेति तावत्। उसी प्रकार यह आत्मा स्वयं परिणमन स्वभाव वाला है। वस्तु है ना? सत् है ना? कैसा? उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्। स्वयं परिणमने का स्वभाव वाला होकर भी खुद शुद्धस्वभाव वाला है, मायने अपने आप अपनी सत्ता की ओरसे केवल एक चैतन्य मात्र के स्वभाव वाला है, इसलिए अपने रागादि विकार में स्वयं निमित्तभूत नहीं है। अत: आत्मा रागादिक रूप से स्वयं नहीं परिणमता। स्वयं न परिणमने का अर्थ समझना, याने पर उपाधि के संपर्क बिना खुद ही खुद रागरूप परिणम जाय, ऐसा नहीं होता। तो फिर परिणमता किस प्रकार है, किसके द्वारा परिणमता है? उस परद्रव्य के ही द्वारा जो स्वयं रागभावसंपन्न है।
1012- पौद्गलिक कर्म परद्रव्य का परिचय-
वह कौन है जिसके द्वारा जिसके सन्निधान में आत्मा विकाररूप परिणम जाता है? वह है कर्मप्रकृति। क्या वह रागभावसहित है? हाँ रागभावसहित है। जिस काल में बंध हुआ था चाहे वह सागरों वर्ष पहले हुआ हो, जब यह बंध हुआ था उसी समय में प्रकृति, स्थिति, प्रदेश और अनुभाग बँध हुए थे। प्रकृति मायने क्या? यह रागप्रकृति, द्वेषप्रकृति। ये जो बँध गए थे, वे स्वयं रागभाव करके सहित हैं, मगर उनमें अचेतन जैसा ही रागभाव होता, विकार और प्रकार होगा। तो वह रागभाव से आपन्न होने के कारण इस आत्मा के रागविकार के निमित्तभूत उस परद्रव्य के ही द्वारा यह आत्मा अपने शुद्धस्वभाव से च्युत होता हुआ रागरूप से परिणमता है और इसी तथ्य को टीका के कलश में इतनी दृढ़ता से कहा गया है- न जातु रागादिनिमित्तभावमात्मात्मनो याति यथार्ककांत:। तस्मिन्निमित्तं परसंग एव वस्तुस्वभावोयमुदेति तावत्। देखो स्वभावदृष्टि की उमंग रखने वाले ज्ञानी किस-किस प्रकार स्वभाव की ओर उन्मुख हो रहे हैं। कभी भी यह आत्मा अपने आपके रागभाव का निमित्त नहीं होता। जैसे कि स्फटिक पाषाण स्वयं ही अपने आपकी ललाई का निमित्तभूत नहीं होता। तब फिर होता क्या है? तस्मिन्निमित्तं परसंग एव, उस रागभाव के होने में निमित्त पर का संग ही है। टीका में एव लगाया, किल लगाया, वस्तुस्वभाव कहा, तावत् कहा- कितनी दृढ़ता से बात कही जा रही है। यह वस्तु का स्वभाव ही है, मायने रागादिक भाव होने का यह ही ढंग है और प्रकार नहीं है। क्या कि पूर्वबद्ध कर्म का विपाक हुआ, उस काल में चूँकि प्रतिफलन तत्काल हुआ और वह अशुद्ध उपादान अपने आपके शुद्धस्वभाव से च्युत होकर उस ही कर्मस्वभावरूप से अपने ज्ञान को हुबाता रहता है बस यही स्थिति है अज्ञानी की। इस तथ्य को जाननेसे इसमें भेदविज्ञान कैसा स्पष्ट हुआ कि इस रागविकार से मेरा मतलब नहीं, रागविकार तो नैमित्तिक है, औपाधिक है, मेरा स्वरूप नहीं है। मैं तो एक विशुद्धज्ञानस्वभावमात्र हूँ। देखिये यथार्थ परिचय करना, एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य में परस्पर कर्ताकर्मबुद्धि का कोई अवकाश नहीं। यह वस्तु के सत्त्व का नैसर्गिक नियम है कि कोई भी द्रव्य किसी दूसरे द्रव्य की परिणति को नहीं कर सकता। मगर विकार जब होता है तो वह विकार इस पर उपाधि के सन्निधान बिना होता नहीं, तो इस तरह से इसके विभाव को परभाव निरखें, तब समझिये कि उसके विविक्त जो आत्मा का चैतन्यस्वरूप अंतस्तत्त्व है उसका हमने परिचय पाया। उस ओरहमारी उमंग हुई।
1013- ज्ञायकस्वभाव की टंकोत्कीर्णवत्ता के उदाहरण का अंतस्तथ्य-
मैं तो टंकोत्कीर्णवत् निश्चल ज्ञायकस्वरूप हूँ, टाँकी से उकेरी गई प्रतिमा की तरह। उसमें क्या क्या होता है? प्रधान बात तो यह आती है कि प्रतिमा निश्चल होती है। टाँकी से उकेरी गई प्रतिमा के हाथ पैर आदिक अंग हिलते नहीं। कोई मिट्टी की, रबड़ वगैरह की मूर्ति बना दे तो थोड़ा मोड़ लिया, कुछ सीधा कर लिया, उधर टाँकी से उकेरी गई प्रतिमा कैसे चलित की जा सकती? ऐसे ही मेरा जो चैतन्य स्वरूप है वह कहाँ चलित हो सकता? अब तक यद्यपि रहा भ्रम में, बिगाड़ हो गया तो भी मेरा स्वभाव तो वही वही है, एक बात। दूसरी बात जैसे टाँकी से उकेरी गई प्रतिमा किसकी व्यक्ति है? उसी पाषाण की। जब कारीगर पत्थर को देखता है, लोगों ने चाहा कि उसमें ऐसी बाहुबली स्वामी की प्रतिमा बना दो। कोई बड़ा पत्थर पड़ा था, कारीगर ने उसे चारों ओरसे अगल बगल से देखा और कह दिया कि हाँ साहब बिल्कुल बन जायगी, ऐसा कहना इस बात की सूचना देता कि कारीगर को तो उस पत्थर में प्रतिमा दिख चुकी। तभी तो वह झट कह देता कि बिल्कुल बन जायगी। मगर आँखों से नहीं दिखी, ज्ञान से दिखी। अच्छा अब आँखों से देखने के लिए क्या पौरुष करता है? वह जो प्रतिमा ज्ञान से दिखी, उस पर ठोकर नहीं लगे और उस प्रतिमा का आवरण करने वाले अगल बगल के पत्थर हट जायें, ऐसी वह अपनी चेष्टा करता है। पहले बड़ेहथौड़े से, फिर छोटी हथौड़ी ये छेनी से वह पत्थरों को हटाता है, फिर अत्यंत छोटी छेनी व हथौड़ी से उस पर ढंकने वाले, आवरण करने वाले पत्थरों को हटाता है, इस तरह पत्थरों को हटाने पर वह मूर्ति प्रकट हुई। मूर्ति तो जो थी बस सो ही है। उसका जो आवरण था वह दूर हो गया है। तो देखो इसी तरह से प्रथम जो यह जीव है सांप्रत पर्याय वाला, यह ही पत्थर का उदाहरण ले लीजिए। इस उपयोग ने सोचा, इसे उपदेश मिला, खुद ने चाहा कि हमको सिद्ध भगवान बनना चाहिए। यहाँ से वह परमात्मस्वरूप प्रकट होना चाहिए। कैसा? जो कर्मों से मुक्त है, विषय कषाय विभावों से जो अलग है, ऐसा यह सहज परमात्मतत्त्व प्रकट होना चाहिए। तो इसको परखें, अपने को भीतर देखें, खूब निरखें। अपनी ओरआया, उतरा कुछ परख के बाद यह बोल उठा कि हाँ बनेगा यह सिद्ध प्रभु। किसके अंदर में यह दृढ़ता की आवाज है? उसके आवाज होगी जिसने अविकार परविविक्त अपने स्वभाव को निरखा है। अच्छा, वह ज्ञान से तो देखा, श्रद्धा से तो जाना। अब व्यक्त रूप में यह आ जाय उसके लिए अब क्या करना? बस आवरण को हटावो। आवरण में ही तो पड़ा हुआ यह सहज भगवानआत्मा इस स्थिति में है, आवरण हटावो। आवरण कैसे हटेगा? वहाँ तो बाहर की हथौड़ी , बाहर की छेनी, उसका साधन बनाया था। यहाँ कौनसी चीज लायें? तो यहाँ क्या है? बस प्रज्ञा यही है छेनी, यह ही हथौड़ी और यही है कारीगर। दूसरा कोई कारीगर नहीं, अपने आपमें सहज परमात्मतत्त्व का विकास करने वाला न कोई दूसरा साधन है न कोई दूसरी चोट है। तो यह अपने आपमें ज्ञानबल से वह निरख रहा। क्या निरख रहा? अरे वही जो स्वभाव समझा उसे ही प्रखरता से निरख रहा।
1014- द्रव्यानुयोग के साधक को चरणानुयोग की आवश्यकता का एक चित्रण-
हाँ अब देखो चरणानुयोग कहाँ आ धमकता है। इस स्वभाव का आलंबन करने की धुन इस ज्ञानी में है मगर पूर्वबद्धकर्म के विपाक ऐसे हो रहे हैं कि उस प्रसंग में बाह्यपदार्थों का आश्रय कर अपने स्वभाव के उपयोग से दूर हो जाता है, हट जाता है। इसमें भी क्या संदेह कर रहे? सोच लो आप इस समय हट रहे कि नहीं, हम हट रहे कि नहीं। चाह रहे हैं कि हम स्वभाव में मग्न हो जायें, चाह के अनुरूप दृष्टि बनी रहे तो ऐसी स्थिति होती कि नहीं?बस, उन विघ्नों से दूर होने के लिए हम जान-जानकर अध्यवसान के आश्रयभूत पर पदार्थों का त्याग किया करते हैं।यद्यपि यह कोई नियम नहीं है कि हम बाह्यपदार्थों का त्याग कर दें तो अध्यवसान हट ही जाय, मगर यह नियम है कि अध्यवसान नहीं होते, ऐसी स्थिति तब ही बनती जब बाह्यपदार्थों का संग प्रसंग नहीं है। तो चरणानुयोग में यह ही तो विधि है कि अध्यवसान के आश्रयभूत परपदार्थ का परिहार करें, हो गया। जैसे किसी एक बड़े लाभ के लिए छोटे काम भी करते, बड़े काम भी करते, संभावना पर भी काम करते। वहाँ तो गम नहीं खाते, और यहाँ स्वभाव का आश्रय करने रूप धर्म के लिए हम कोरी एक बात ही बात करते रहें, और हम अपना संयमी जीवन न बिताये तो समझिये स्वभाव की रुचि विशेष न कही जायगी, क्योंकि स्वभाव की रुचि यदि विशेष बलिष्ट है तो उसके लिए यह सब कुछ समर्पण व परिहार करने में संकोच नहीं कर सकता।
1015- जीवविकार में परसंग के निमित्तत्व के कथन में वस्तुस्वभाव की प्रयुक्तता- यहाँ प्रकरण चल रहा है, घटना के वस्तुस्वभाव का। वह परसंग ही विकार में निमित्त है। स्वयं स्वयं के विकार में निमित्त नहीं है उस स्थिति में यह आत्मा शुद्ध स्वभाव से च्युत होता हुआ रागविकार रूप परिणमता है। तो ऐसी स्थिति जानकर हम यह शिक्षा लें कि यह राग औपाधिक है, नैमित्तिक है, यह परभाव है, यह मेरा स्वभाव नहीं है, ऐसा सोचने के साथ साथ ही यह ज्ञान में आ रहा है कि मेरा स्वभाव यह है। जैसे जब थाली में चावल बीनते हैं घर में भात बनाने को, सो जैसे वह कहता कि यह चावल नहीं है, यह चावल नहीं है, तो देखो उसे चावल का बोध है तब ही तो वह दूसरी चीजों का निषेध कर रहा है। यह विकार भाव मेरा स्वरूप नहीं है, ऐसा वही तो जान सकता कि जिसको स्वभाव का परिचय हुआ है। तो ऐसे इस अंतस्तत्त्व ज्ञानमात्र ज्ञानस्वरूप को पहिचान रहा है ज्ञानी और राग को जड़ के रूप में निरख रहा है ज्ञानी।स्वभाव परिचय के लिये किस तरह क्या किया भीतर में? बड़ा कठिन छेदन किया, उसका अलगाव किया तो वहाँ निर्मल भेदज्ञान उदित होता है, अहा, इसका आश्रय करने वाला जीव प्रसन्न हो, जयवंत हो। 1016- अंतरात्मा को अंतर में ज्ञानघनौघता का दर्शन- यहांसम्वर तत्त्व में इस अंतरात्मा को क्या दृष्टि हो रही, यह तो एक शुद्ध ज्ञानघन का ही ओध है, पिंड है, ज्ञानघन में घन वजनदार का नाम नहीं है। घन वजनदार हो यह बात अलग है मगर घन नाम वजनदार का नहीं, किंतु किसका नाम है? जहाँ द्रव्यांतर भाव का प्रवेश नहीं उसे कहते हैं घन, घन का सही अर्थ। कभी स्वयं स्वयं में भी द्रव्यांतरपना हो जाता है ऐसा हो तो वह घन नहीं। जैसे एक सागौन की लकड़ी है। कोई ठोस है, कोई गैर ठोस है, ठोस मायने क्या कि जिसमें कमजोर या हल्का काठ, फोका अंश हो यह सब कहलाता है कि वह ठोस नहीं है। ठोस लकड़ी कौन है? जहाँ फोकापन भी नहीं, खाली जगह भी नहीं ऐसी लकड़ी को कहते हैं कि यह ठोस लकड़ी हैं। आत्मा ज्ञानघन है अर्थात् आत्मा में यह ज्ञान, ज्ञानमय यह आत्मस्वरूप, इसका कोई भी एक प्रदेश ज्ञान से रिक्त नहीं है, एकरूप ज्ञानवत है, जैसे कलश में भरा हुआ पानी, वह पानी जितते में हैं उसके बीच जरा सी भी जगह पानी से खाली नहीं हैं, अछूती नहीं हैं, वह पानी से खाली नहीं हैं, अछूती नहीं है।वह पानी से घन है, मायने भीतर में किसी भी जगह जरा से एक सूत भी जगह में, बहुत हल्की जगह में भी पानी न हो ऐसा नहीं है।घड़े में चने भर दिये, भले ही चने भरे हुए हैं मगर बीच-बीच में खाली जगह रहती है, मगर पानी भरे हुए में तो बीच में कहीं भी खाली जगह नहीं।वह है घन। और यही है उदाहरण आत्मा को ज्ञानघन निरखने का। उस जलपूर्ण घड़े को देखकर आत्मा के ज्ञानघन की सुध होती है इसी कारण से पानी से भरा हुआ घडा दिख जाना सगुन माना है। आत्मा की सुध आयी ना। जिस-जिसको देखकर अपने आपकी ओरअभिमुखता हो वह-वह सब सगुन है। तो ऐसे ज्ञानघन का ओघ यह एक है सो दूसरी चीज से च्युत होकर और एक ज्ञानघन का आश्रय करके हे अंतरात्माओ अपने आपमें अपना प्रसाद प्राप्त करो।