वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 132
From जैनकोष
द्रागग्रामप्रलयकरणात्कर्मणां संवरेण । बिभ्रत्तेषं परमममलालोकमम्लानमेकं ज्ञानं ज्ञाने नियतमुदितं शाश्वतोद्योतमेतत् ॥132॥
1045-भेदज्ञान के उच्छलन से शाश्वतोद्योत ज्ञान का अभ्युदय-
मैं सहज आत्मा क्या हूँ और बाह्य तत्त्व क्या है, इसका जब भेदविज्ञान होता है तब शुद्धात्मा का उपलंभ होता है कैसा? मैं एक चैतन्य..., प्रकाशमात्र, केवल ज्ञानस्वरूप और कर्म जड़ हैं, देह जड़ है, कर्म का प्रतिफलन अशुद्ध उपयोग में अबुद्धिपूर्वक अंधकारमय ज्ञेयाकार अवस्थित है, लेकिन वह औपाधिक है अतएव पर है, इन सबसे निराला केवल ज्ञानमात्र मैं हूँ, ऐसी भेदविज्ञान की जब तरंग उठी, उमंग हुई तो उससे शुद्ध तत्त्व की प्राप्ति हुई, यह भेदविज्ञान का फल ही है कि परभाव की उपेक्षा होना और निजभाव में रति होना, और जब शुद्ध आत्मा की प्राप्ति हुई, अपने आपमें अपने में कि मैं यह ज्ञानमात्र तत्त्व हूँ, मेरा किसी भी अणु से रंच भी संबंध नहीं, तब मेरे रागसमूह सब दूर हो गए, अब किसी भी अन्य पदार्थ में इष्टपने की बुद्धि नहीं हो रही, तो रागसमूह के प्रलय होने से क्या हो गया? कर्मों का सम्वर। अब नवीन कर्म नहीं आ रहे। जो जिस पदवी में है उसके अनुसार नाना प्रकृतियाँ नहीं बँध रही हैं, और ऐसा कारण है कि निर्मल परम संतोष उत्पन्न होता है, उस समय में ऐसा ज्ञान प्रकट होता है अर्थात् यह ज्ञानरूवरूप इस प्रकार के अनुभवन में आता है कि इस जीव को पूर्ण संतोष हो जाता है। तो परम संतोष को उत्पन्न करता हुआ निर्मल एक ज्ञान ज्ञान में उदित होता है और निरंतर वही मान प्रकाशित रहता है। ज्ञानी भावना भाते हैं कि हे प्रभो मैं सिद्ध भगवान होऊँ तो सिद्ध भगवान के मायने क्या है? सिद्ध कोर्इ अलग चीज नहीं है। मेरा जो आत्मा है, जिस पर कर्मों का आवरण है, रागद्वेष का आवरण है, ऐसा जो मेरा अंतस्तत्त्व है, भगवान आत्मा है, तो इस पर से यह आवरण हट जाय, शरीर का संबंध छूट जाय, रागद्वेष विभाव रंच भी न आयें ऐसी हमारी स्थिति हो, याने में खालिस अकेला रह जाऊँ। जो मैं स्वयं सहज हूँ ऐसा रह जाऊँ बस ऐसी स्थिति होने का नाम है सिद्ध भगवान होना। तो जब हूँ मैं, आत्मा हूँ ऐसा ही सहज स्वरूप में व्यक्त हो गया तो उसके बाद फिर मुझमें विभावों की तरंग न होगी। फिर आनंद में भंग न होगा। वह आनंद सदा रहेगा, संसार के संकट सदा के लिए छूट जायेंगे। ऐसा एक अपने आपमें अपने स्वभाव में अनंत बल प्रकट कर लिया प्रभु ने इसलिए सर्वोत्कृष्ट अवस्था है तो सिद्ध प्रभु की अवस्था है। सो पहले बताया ही गया था कि सिद्ध भगवंत भेदविज्ञान के प्रताप से हुए।
1046- आत्मार्थी पुरुष का आत्महितार्थ पौरुष-
हम आप इस जीवन में क्या करते हैं? बाहर में तो कुछ करते काम है नहीं। किस चीज को बनाऊँ, किसको सुधारूँ, किसको बिगाडूँ, किसमें राग, किसमें विरोध। बाहर में क्या करूँ जिससे मेरा उद्धार हो? इसका उत्तर बाहर में तो नहीं रखा है, क्योंकि बाहर के सब पदार्थों का प्रसंग तो जीव को आकुलता का ही साधन बनाता है। गृहस्थ हैं, करना सब पड़ता है, सोचना भी पड़ता है, तृष्णा भी आती है, भावों में कमी आती है, परिस्थिति है। अगर अंतरंग से उन परभावों मेंमेरेपन का भाव न रहे औरयही दृष्टि में रहे कि यह मैं आत्मा समस्त परद्रव्यों से निराला केवल ज्ञानस्वरूप हूँ। यह मैं ज्ञान अपने ज्ञानस्वरूप मेंमग्न होऊँ याने ज्ञान में मात्र ज्ञानस्वरूप ही रहे, बस यह ही मेरे उद्धार का उपाय है जैसे कि हमें ज्ञान में सारे पदार्थ ज्ञात हैं, भींत, ईंट, पत्थर ये सब चीजें, पशु पक्षी ये सब ज्ञान में आते हैं, तो ये सब ज्ञान में आयें, शरीर कर्म जैसे ये ज्ञान में आ रहे हैं ना, ऐसे ही मेरे ज्ञान में, मेरे आत्मा का सहज ज्ञानस्वरूप आ जाय, बस इसी के मायने तो सम्यक्त्व है, इसी के मायने मोक्षमार्ग है, अब इस ज्ञानस्वरूप में ही ज्ञान मग्न हो सके ऐसा उपाय साक्षात् तो ज्ञान ही है, ज्ञान की ही क्रिया से हम अपने ज्ञान में मग्न हो सकते हैं, अगर ऐसा बन नहीं पा रहे हैं, स्थिति ऐसी है ऐसी स्थिति में हम देवपूजा, गुरुपास्ति, आदि षट्कर्म करते हैं, क्योंकि इनमें पात्रता तो रहती, उस गुणविकास का गुणगान तो रहता, याने आत्मस्वरूप को जो शुद्ध विकास है वही कहलाता है अरहंत और सिद्ध, उनका चित्त में निवास रहता। मैं मेरा ज्ञानस्वरूप में मग्न रहे, ऐसी स्थिति की पात्रता हम षट् कर्तव्यों द्वारा बनाये रहते हैं, मगर सब स्थितियों में प्रतीति यह रहना चाहिए कि शुभाशुभ भावों से निराला इस कर्म के प्रभाव से निराला, देहादिक सर्व जग से निराला यह मैं ज्ञान एक ज्ञानमात्र, जाननमात्र हूँ। उस ज्ञान के उच्छलनमात्रमैं आत्मतत्त्व हूँ, उस आत्मा का किसी भी अन्य आत्मा से रंच भी संबंध नहीं, ऐसी एक भीतर अपनी भावना जगह और उसी की ही धुन रहे तो देखिये उस अपने आपके सही कर्तव्य से बहुत ही जल्दी निकट ही काल में कुछ ही भव में वह स्थिति आयगी कि जिसका हम गुणगान करते हैं। ‘‘अरि मित्र महल मसान कंचन काँच निंदन थुति करन’’ सबमें मित्रता का परिणाम हो तो धर्मलाभ के लिए सभी सुगमतायें प्राप्त होंगी।
1047- ज्ञानमात्र आत्मा में विकल्प तरंगों के उदय पर आश्चर्य- देखिये भीतर यह ज्ञानमात्र आत्मा कैसा तरंग उठाये हैं। रागद्वेष की कल्लोल में कैसी लहर उठा करती है कि वह रंच मात्र भी चैन नहीं पाता। आराम तो उस स्थिति का है जहाँ रागद्वेष की कल्लोल जरा भी न रहे ऐसी स्थिति होती शुद्ध आत्मतत्त्व की उपलब्धि में। बाकी बाहरी पदार्थों का आश्रय करने से, उपयोग करने से जो काम हो रहे हैं वे संसार के ही तो काम होते हैं। अगर संसार का ही काम करते रहना है तो बाहरी पदार्थों में दृष्टि खपाना चाहिए, क्योंकि पदार्थ का लगाव रखने से संसार बढ़ता है। जान लो क्या विधि है, संसार बढने की विधि है पर पदार्थ का लगाव। और, मोक्ष पाने की विधि है अपने निज अंतस्तत्त्व में अपने उपयोग को स्थिर करना। अब इसका मार्ग- जिस मार्ग पर अच्छा चले तो भलाई करने वाला हो, सो मात्र अपने आपको संपर्क है। बाहरी पदार्थों का संपर्क यह हमारे आत्मा की भलाई का कारण नहीं है। तो मूल में बात यह आयी कि भेदविज्ञान करना। भेदविज्ञान के उच्छलन से शुद्धतत्त्व की प्राप्ति होती है। और, शुद्धतत्त्व की प्राप्ति से विकार दूर होता है। विकार ही तो विपत्ति है। विपत्ति और क्या है? हम आप सब बैठे हैं, एक-एक सब आदमी हैं। सब जुदे-जुदे देह हैं। इनका अभी यह बाह्य आचार है। जहाँ देह है वही आप हैं। यहाँ भी तो आप अकेले ही तो हैं, अपने आपमें केवल आप केवल हैं, दूसरा कोई नहीं है, बस यही ही अकेला अपने देह में विराजा हुआ कल्पनायें करके एक जाल रचता है। बाहर में यह कुछ नहीं करता। जो हो रहा है जिस विधि से बन रहा है, वह चल रहा है, मगर अपने आपकी करतूत क्या है अंदर में, कि अपनी ही जगह बैठे-बैठे एक विकार करके, विकल्प करके उपयोग को यहाँ वहाँ चलित करके अपने आपमें क्लेश सह रहा है। वास्तविक बात तो घट रही है, यहाँ यह घट रहीहै, कोई दूसरा दु:खी करने वाला नहीं। कैसे कोई दु:खी कर सकता? वह अपनी चेष्टा करेगा। पर दु:खी होंगे हम, तो अपने आपमें अपनी कल्पनायें बनाकर दु:खी होंगे, दूसरा कोई दु:खी नहीं किया करता? आप कहेंगे- वाह अगर दूसरे ने लाठी मार दी जोर से तो देखो दूसरे ने दु:खी किया, तो यह बतलावो कि सुकौशल मुनि, सुकुमाल मुनि, इनको शेर ने भखा, स्यालिनी ने खाया, पर इन्होंने तो ऐसा अनुभव नहीं कियाकि इसने मुझे दु:खी किया। यहाँ दु:ख का कारण यह है कि हम अपने भीतर कल्पनायें पूरते रहते हैं यहाँ उसने इस शरीर को माना मैं और शरीर पर चली लाठी, सो यह भीतर कल्पनायें करता है, इसने मुझे मारा। यद्यपि वर्तमान में ऐसी कमजोरी है कि यह अपने को भूल जायगा, देह को आपा मानेगा, दु:खी होगा मगर सिद्धांत तो न बन जायगा ऐसा कि कोई इस शरीर पर लाठी प्रहार करे तो वह इसको दु:खी करने वाला कहलायेगा। भले ही कोई मोही अज्ञानी शरीर में मैं की कल्पना करने वाला अपने को दु:खी मानता है, वह उसकी एक बलिष्ट विशिष्ट अपराध की बात है, पर यह सिद्धांत न बन पायगा कि कोई दूसरा जीव किसी दूसरे को दु:खी कर सकता। 1048- निमित्तनैमित्तिकता का सिद्धांत- यह कर्म का उदय तो जीवविकार में निमित्त कहलाता है, मगर दूसरा जीव हमारे दु:ख के लिए निमित्त भी नहीं कहलाता। यह कहलाता है आश्रयभूत कारण, आश्रयभूत कारण और निमित्त में अंतर है। निमित्त के बारे में तो सिद्धांत बना करता है, जैसे क्रोध प्रकृति का उदय होने पर क्रोध कषाय जगती है। उस क्रोध प्रकृति का उदय न हो तो क्रोध कषाय नहीं जगती, इसका तो बनेगा सिद्धांत, मगर आश्रयभूत कारण के बारे में सिद्धांत न बनेगा कि नौकर या अमुक पुरुष सामने आये तो मुझे दु:ख होता, यह सामने नहीं आता तो दु:ख नहीं होता, ऐसा जगत के जीवों के प्रति सिद्धांत तो न बन जायगा। निमित्त कारण में तो सिद्धांत बनता है, पर आश्रयभूत कारण में सिद्धांत नहीं बनता। हमने मान लिया कि यह विरोधी है तो हम इसमें दु:ख मानते हैं। तो वह हमारी कल्पना की बात रही। जगत में प्रत्येक जीव किसी अन्य जीव में किसी प्रकार का कष्ट पहुँचा ही नहीं सकता। निमित्त है कर्मोदय और अशुद्ध है उपादान। यहाँ ऐसी वैसी कल्पनायें बनाते हैं और दु:खी होते हैं। 1049- स्वरूपानुरूप दृष्टि करने का अनुरोध- जब ऐसा जगत का रूप है कि प्रत्येक पदार्थ स्वतंत्र है और अपने अपने स्वरूप में है, किसी अन्य के प्रदेश में नहीं है तो यह एक अपने आपमें ऐसा ही मानकर क्यों न रह जाय कि मैं मुझमें हूँ, मैं मेरे से बाहर नहीं, मेरे से बाहर मेरा कुछ नहीं, पूरा यह रचित यह आत्मतत्त्व मैं अपने आपमें स्वयं भरा पूरा आनंदमय यह स्वयं हूँ, ऐसा अपने आपमें निर्णय करके यहाँ ही ध्यान रखना, यहाँ ही दृष्टि और आलंबन हो बस यह ही एक अपने उद्धार की बात है, ऐसा होने के लिए हमें स्वाध्याय चाहिए, सत्संग चाहिए, दृढ़ता चाहिए, ये सभी बातें उपयोगी हैं। और इसके लिए कुछ ही समय नियतन हो कि मुझे इतने दिन ही करना।यह काम तो जीवन भर करना और एक भव नहीं, जितने भव संसार में शेष हैं, सबमें यह ही काम करना।भला अनादि काल से जो वासनायें बनती है उन सारी वासनाओं को, उस सारे दंद फंद को नष्ट करने के लिए हमें कई भवों में भी पुरुषार्थ करना पड़े तो उसमें ऊब न आयगी। क्योंकि चख तो रहा मिश्री ना? अपने स्वभाव का अनुभव हो और उसकी प्रतीति हो तो रहा ना अपने में सब कुछ, अब तकलीफ क्यों होगी ज्ञानी पुरुष को? किसी भी स्थिति में हो, नरक में भी ज्ञानी नारकी हो सकता है। उसेज्ञान हो गया, सम्यक्त्व हो गया, 7 वें नरक तक के वासियों को सम्यक्त्व हो जाता है। जहाँ सम्यक्त्व हुआ और अपने सहज ज्ञानस्वभाव का निर्णय बना, तो मरने मारने जैसी गतिस्थितियों में भी रहकर वे भीतर प्रसन्न रहा करते हैं, क्योंकि उसे वह मूल मिल गया जो आनंदमय है, मगर परिस्थितियाँ ऐसी हैं कि ये सब बातें गुजर रही हैं। ऐसे ही हम अपने आपके अंत: में, ज्ञानस्वरूप में यह अनुभव करें कि यह मैं हूँ, तो प्रथम हुआ भेदविज्ञान। उस भेदविज्ञान के उच्छलन से हुई अपने शुद्ध आत्मा की प्राप्ति याने खालिस आत्मा, देह से निराला एक यह मैं ज्ञानमात्र आत्मा, उस ज्ञानमात्र आत्मा की प्राप्ति हुई और रागसमूह का प्रलय हुआ, कर्मों का सम्वर हुआ, निर्मल और परम संतोष को धारण यह कर रहा, शुद्ध ज्ञानप्रकाश जगमगाने लगा। स्वानुभव में जो आनंद आता है वही परम संतोष है, याने ज्ञान में और कुछ न आया हो, ज्ञानस्वरूप ही समाया हो, जिससे कि एक साधारण स्थिति बन जाती है, निर्विकल्प स्थिति ऐसे ज्ञानमात्र अंतस्तत्त्व में अपने निवासी की स्थिति बने तो वहाँ परमसंतोष और परम आनंद प्रकट होता है। तो ऐसे आनंद को धारण करते हुए ज्ञान बस अब निरंतर उदित रहता है। 1050- सर्वोत्कृष्ट उपार्जन ज्ञानानुभव- सबसे ऊँची कमाई अपने आपके स्वरूप में, अपने आपका बोध होना है,। और यह चीज बनती है तब जबकि भीतर शुद्धता हो, किसी प्रकार का पक्ष न हो, मुझे आत्महित करना है केवल यह ही एक शुद्ध भावना हो और कभी पार्टी आदि का कोई प्रसंग चित्त में न आवे, ऐसी स्थिति बने तो स्वानुभव का पात्र बनता है और जिसके स्वानुभव है वह नियम से मोक्ष जायगा। भले ही कोई ऐसा पूर्वकृत पाप का उदय आये कि सब कुछ बाह्य चीजें छूट जायें। तो यह निश्चित है कि जिसके एक बार सम्यक्त्व हुआ है वह नियम से मोक्ष जायगा। मुक्त हो, सब झंझटों से अलग हो फिर फिर उसे किसी भी प्रकार की अशांति न रहेगी। तो ऐसे निर्मल आलोकमय परम संतोष को धारण करते हुए अब यहाँ ज्ञान प्रकट होता है सो यह शाश्वत उदित होता हुआ ज्ञान प्रकट होता है। आऊँ उतरूँ रमलूँ निज में। मैं बहुत दूर तक चला गया विकल्पों द्वारा, कहाँ कहाँ उपयोग भटकता रहा, अब वापिस आऊँ, मायने उनमें मैं न भटकूँ। वह भटकना छोड़कर मैं अपने आपके स्वरूप के अंदर आऊँ मायने अपने ज्ञान में अपने को वासित कर लूँ, रम जाऊँ और अपने आपमें रमण कर लूँ, वहीं रम जाऊँ, काम यह करना सो निज की निज में दुविधा ही क्या? ज्ञानी ज्ञान कर रहा है, ज्ञान में ज्ञान कर रहा है, उसमें इसको कौनसा विघ्न है? बस ऐसी बात जहाँ हुई कि निज ‘‘अनुभवरस से सहज तृप्त’’ अपने आपके अंतस्तत्त्व का अनुभव हुआ, मैं अनुभव रस से सहज तृप्त हूँ, ऐसा यह मैं सहज आनंद स्वरूप वाला परमात्मतत्त्व हूँ। अपनी ऐसी दृष्टि बने कि जो दर्शनज्ञानस्वरूपी है, जिसका स्वरूप जानन देखन प्रतिभास है, यह अन्य पदार्थ में नहीं मिल सकता। यह मैं स्वतंत्रहूँ। ऐसी अपने आपके विषय में प्रतीति रहे, यह है एक अंतस्तत्त्व में तत्त्व का मिलना, जहाँ कर्मों का क्षय होता, कर्मों का सम्वर होता। इस प्रकार यह सम्वर अधिकार पूर्ण हो रहा है। तो यह एक नाटक के रूप में इसकी टीका की गई है। यह सब देखा जा रहा है कि इस उपयोग भूमि पर जीव अजीव अपना भेष बनाकर आये थे। जब उनका सही स्वरूप पहिचान लिया तो वह अपना भेष छोड़कर निकल गया। ये कर्म पुण्य पाप के रूप में आये थे। जब इनका भेद जान लिया तब यह भी अपना भेष छोड़कर निकल गया। आस्रवतत्त्व इस उपयोग भूमि पर आया था याने जानकारी में आ रहा था तो उसकी असली लीला की जानकारी हुई तो निकलना ही चाहिये, तो आस्रव भी निकल गया। तो क्या सम्वर को भी यों ही निकलना चाहिए? यहाँ निकलने की बात नहीं कही जा रही है।याने ज्ञान में यह कौनसातत्त्व आया बस यह ही बात है यहां, याने यहाँ तक सम्वर तत्त्व का विचार था और अब सम्वर तत्त्व यहाँ से निकला मायने उसका विचार हो चुका अथवा सम्वर तत्त्व भी पर्याय है सो शुद्धोत्मोपलंभ होने पर संवर हो ही रहा है, किंतु उपयोग में शुद्धात्मा है, संवर नहीं, यों संवर निष्कांत हुआ। अब निर्जरा तत्त्व का विचार चलेगा इसलिए भी कहा है कि यह सम्वर तत्त्व निष्कांत हुआ।
अथनिर्जराधिकार