वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 156
From जैनकोष
निर्भेदोदितवेद्यवेदकबलादेकं सदानाकुलै: । नैवान्यागतवेदनैव हि भवेत्तद्भी: कुतो ज्ञानिनो निश्शंक: सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विंदति ॥156॥
1232- ज्ञानी के वेदनाभय का अभाव-
सम्यग्दृष्टि जीव 7 भयों से रहित है इस कारण वह नि:शंक है। सम्यग्दृष्टि जीव नि:शंक है इस कारण से 7 भयों से रहित है। वे 7 भय कौन-कौनसे हैं?उनमें से दो भयों का नाम तो कल आ गया था, आज बतलाते हैं कि सम्यग्दृष्टि जीव वेदनाभय से रहित है। वेदनाभय नाम किसका है? शरीर में कोई वेदना हो, किसी प्रकार की अन्य वेदनायें हों तो उनका भय करना या वेदना भी न हो तो भी पहले से ही भय करना। मेरा शरीर स्वस्थ रहे, अब बुढ़ापा आ गया, न जाने मेरी अब क्या हालत होगी। थोड़ी सी भी हरारत हुई तो यह न जाने कैसा ज्वर जायगा? कहीं मियादी बुखार न हो जाय, कहीं कोई जटिल बीमारी न बन जाय आदिक वेदना के संबंध में भी भय करते। वेदना नहीं भी हो रही है तो वेदना का ख्याल करके भय बनाना यह सब वेदनाभय कहलाता है। तो यह वेदना भी अज्ञानी के होती है ज्ञानी के नहीं। अच्छा- बताओ, यदि ज्ञानी पुरुष के बुखार चढ़ा हो तो वह काँपेगा कि नहीं, वह लिहाफ ओढ़ेगा कि नहीं, वह वेदना का कुछ अनुभव करेगा कि नहीं? करेगा, मगर उसके वेदनाभय नहीं होता। जब थोड़ा आत्मा की सुध लें तो फिर वेदना का भय नहीं होता।
1233- आत्मा की सुध में शारीरिक वेदना का अपरिचय-
बताया है कि आत्माकी सुध रखना शारीरिक बीमारी का आधा इलाज है। इस संबंध में एक घटना बताते हैं कि जब हमारे गुरु श्री गणेशप्रसादजी वर्णी ललितपुर में थे तो उनकी जंघा में एक बड़ा भारी फोड़ा हो गया था। उन दिनों हम मुजफ्फर नगर में थे। हमारे पास भी उस फोड़े के संबंध में खबर पहुंची तो हम भी देखने आये। जब तक हम आये तब तक उनके फोड़े का आपरेशन हो चुका था। वहाँ लोगों ने बताया कि जब आपरेशन होने को था तब डाक्टर ने बताया कि बेहोश करके आपरेशन करना होगा, पर वहाँ गुरुजी ने कहा- अरे बेहोश करने की जरूरत क्या, यों ही आपरेशन कर दो। आखिर गुरुजी ने उस समय आत्मा की ओरविशेष ध्यान रखा, उन्हें यही पता न पड़ा कि कब कैसे आपरेशन हुआ। यह था आत्मा की सुध का प्रताप। आखिर वहाँ गुरुजी का फोड़ा देखते हमारी खुद की आँख के ऊपर भी एक फुंसी हो गई। उसने अपना काफी बड़ा रूप रख लिया। खैर हम मुजफ्फर नगर चले गए, वहाँ जो चिकित्सक लोग चलते फिरते जर्राहा होते इनमें से कोई एक चिकित्सक मेरे पास आया, उसने कहा कि हम इस फुंसी को ठीक कर देंगे।...कैसे?...बस इसे फोड़कर।...अच्छा भाई ठीक कर दो।...उस समय हमने अपनी आत्मा की ओरविशेष ध्यान दिया। उस समय उस चिकित्सक ने उस फुंसी को फोड़ दिया। दर्द तो काफी हुआ, पर उसकी ओरदृष्टि न होने से उस दर्द का कोई विशेष असर हमारे ऊपर न पड़ा। तब से हमें प्रतीति हुई कि होता तो आत्मा की सुध रखने पर ऐसा प्रभाव। तो कदाचित् कभी कोई कष्ट की बात भी आ पड़े तो आत्मा की ओरसुध होने से वह कष्ट कष्ट नहीं महसूस होता।
1234- ज्ञानी की परमार्थ वेदना- यहाँ मूल बात यह बतला रहे कि वहाँ वेदना का कुछ काम हो नहीं ज्ञानी के। वेदना नाम है किसका? वेदना नाम है वेदन करने का, जानने का। वेदना शब्द विल्द धातु से बना, जिसका अर्थ है जानना। तो ज्ञानी की एक ही वेदना है जो केवल अवल अकंप ज्ञान उसके द्वारा वेदा जा रहा यह है वेदना ज्ञानी की। ज्ञानी के वेदना है क्या? हाँ है, डटके। और अज्ञानी के वेदना है क्या? हाँ है, डट के। अज्ञानी के वेदना है उस रोग पर ख्याल रखकर, अनेक प्रकार का भय बनाकर और ज्ञानी के वेदना है डटकर कि अपना जो अकंप स्वरूप है उसका जानन चल रहा है, उसका वेदन अपने स्वरूप में हो रहा है, और अज्ञानी का वेदन बाहरी पदार्थों का विकल्प करके हो रहा है, तो ज्ञानी की यह वेदना जिसकी बात सुनकर आत्मकल्याणार्थी को वहाँ स्पर्धा हो सकती है, मैं भी ऐसा ही चाहूँ, ऐसा ही बनूँ, यह अविचल ज्ञानस्वरूप का वेदन कैसे होता हे? अभेद वेद्य वेदक बल से होता है। जाननहार कौन? यह आत्मा। जानने में आया कौन? यह आत्मा। ज्ञान जाननहार है। ज्ञान ही जानन में आया है, दूसरा कोई जाननहार नहीं और जानने में दूसरा नहीं आया, यह बात उस अज्ञानी के नहीं बन पा रही क्योंकि जाननहार अज्ञानी वह एक और उसके जानन में क्या आ रहा है? वह रोग वेदना शरीर, ये ज्ञेय विषयभूत, उसकी अपेक्षा द्वैविध्य ही रहा, तो उसको घबड़ाहट होती है, और जहाँ वेद्यवेदक भाव एक बन रहा है वहाँ घबराहट का नाम नहीं। तो ज्ञानी के यह अकंप परम ज्ञान की वेदना चल रही है। तो वह निर्व्यग्र है, निराकुल है। 1235- वेदना की अन्यागतता का अभाव-
जिन ज्ञानियों के द्वारा यह निर्भेद वेद्यवेदक भाव अभ्युदित हुआ है उनका दृढ़ निर्णय है कि यह वेदना जो परमार्थ है मेरे स्वरूप में है, वह वेदना अन्य कहीं से नहीं आती। कुछ बाहरी दृष्टि भी लगाकर अर्थ लगाओ तो वेदना पीड़ा किसी बाहरी वस्तु से नहीं आती। ज्ञान में ही विकल्प बनता है। तो वह ज्ञान से ही वह वेदनाभाव आया, बाहर से नहीं आया। किसी का मकान जल रहा है, बड़ी तेज आग लग गई है, दमकलें भी आयीं, आग बुझा रहीं, पर आग बुझती नहीं, वहाँ मकान जल रहा, यहाँ इस मोही का हृदय जल रहा। जैसे जैसे आग की ज्वाला बढ़ रही वैसे ही वैसे इसके हृदय की ज्वाला बढ़ रही। मकान जलने से वेदना नहीं हो रही, क्योंकि मकान पर क्षेत्र में हे। वहाँ से वेदना नहीं आ रही, पर उसका विकल्प बनाकर जो ज्ञान विकल्प किया जा रहा है, हाय सब मिट गया, मेरा तो सब नाश हो गया, बरबाद हो गया, ऐसा जो विकल्प चल रहा वहाँ वेदना आयी। सो अगर उस लौकिक वंदना की भी बात कहें तो वह भी अन्य पदार्थ से नहीं आयी, लेकिन यहाँ ज्ञानी की वेदना की बात चल रही है। जो अकंप ज्ञानस्वभाव का वेदन चल रहा है वह वेदन अन्य कहीं से नहीं आया। आत्मा से ही हुआ। तो जब वेदना अन्य पदार्थ से आती नहीं तो उसका भय ज्ञानी के कहाँ से हो?
1236- ज्ञानबल से अभयत्वलाभ-
भैया, घबड़ायें हुए पुरुष को अभयदान दो। उसका भय दूर हो जाय। सो कुछ तो बाहर भी प्रयोग हो जाता। जैसे प्यास से घबड़ाया तो पानी दे दिया। कोई रात बेरात को कहीं से घबड़ाया हुआ आया तो उसे ठहरने को जगह दे दिया...ये तो बाहरी बातें हैं।कोर्इघबड़ाहट ऐसी होती कि जिसका बाहर में काम नहीं देता। जैसे मानो किसी का इकलौता बेटा गुजर गया तो अब इसकी पूर्ति कोई कहाँ से करे, कैसे करे, उसकी घबड़ाहट कैसे मिटे? तो उसकी घबड़ाहट मिटेगी तब जब कि उसके ज्ञानबल पैदा हो। अन्य किसी प्रकार घबड़ाहट नहीं मिटेगी। ऐसे आदमी के घर मानो रिश्तेदार आये, मामा आया, फूफा आया, बुआ आयी, मौसी आयी, समझाने के लिए और उन्होंने समझाना शुरू किया, बड़ा-अच्छा बेटा था, गुजर गया। अब कैसे क्या होगा...तो वहाँ दु:ख मिट जायगा क्या? घबड़ाहट मिटेगी क्या? वे तो दु:ख का और भी ख्याल कराने आये, घबड़ाहट ऐसे कैसे मिटेगी? और ऐसा करने वाले भी कैसे देखे गए? मान लो उन्हें कहीं दूर से आना है, मान लो सतना या कटनी से चलकर रेल से आये तो वहाँ तो ताश खेलते आये, जो फेरे में आये वे हसँते हुए आये पर जब आपके जबलपुर आये तो मान लो स्टेशन पर उतरे तो वहाँ भी आनंद रहा। तनिक और निकट आये। और, जब घर पास में आया, रिक्शा या ताँगे से उतरे तो वहाँ से रोनी सूरत बनायी, और जब घर में आये तो रोने लगे, बताओ वहाँ उनको वेदना है क्या? नहीं है वेदना। अब जो घबड़ाया हुआ है उसकी वेदना को कौन मिटायेगा? घबड़ाहट को मिटायेगा ज्ञानी जीव। जब प्रतिबोध करेगा कि अरे तू अपने को देख, तू तो शरीर से भी निराला है केवल ज्ञानमात्र, जिसे लोग हवा भी कह देते हैं देहाती लोग कह देते हैंना कि हवा निकल गई। और, और ढंगों से भी बोलते। वह एक वास्तविक पदार्थ है आत्मा। वह आत्मा ही तेरा सहाय है, दूसरा कोई सहाय नहीं। तेरे साथ कुछ जाने का नहीं। सब जीव अपने-अपने कर्मोदयवश जन्म लेते, मरण करते, किसी का किसी से क्या संबंध? और, कोई यों भी समझा देगा कि वह तो तेरा पूर्वभव का बैरी था जो थोड़ी उमर में गुजर गया, वह तो बैर भँजाने (बदना चुकाने) आया था। खैर किसी भी ढंग से समझाये, जब वह समझे कि इसमें तो कुछ हानि नहीं हुई। मेरा आत्मा तो पूरा का पूरा है। वहाँ कोई बिगाड़ नहीं होता, ऐसा कोई बोध आता है तो उसे धैर्य जगता है।
1237- धैर्य और ज्ञानानुभव का उपाय स्वयं का प्रतिबोध-
धैर्य जगने का उपाय स्वयं का प्रतिबोध है। दूसरा कोर्इ उपाय नहीं। जैसे बाहर से वेदना नहीं आती ऐसे ही बाहर से ज्ञान भी नहीं आता। वह भी अपने आपमें अभ्युदित होता है। तो ज्ञानी जीव के भय कहाँ से हो? क्योंकि उसको दृढ़ विश्वास है कि बाहर से वेदना आती नहीं, और वास्तविक वेदना तो यह ही है कि मैं अपने आपमें अपने आपका जानन कर रहा हूँ। ऐसी दृढ़ प्रतीति के कारण वह ज्ञानी जीव नि:शंक होता हुआ निरंतर स्वयं निज सहज ज्ञान का अनुभव करता रहता है।