वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 158
From जैनकोष
च्छक्त: कोऽपि पर: प्रवेष्टुमकृतं ज्ञानं स्वरूपं च नु: । अस्यागुप्तिरतो न काचन भवेत्तद्भी: कुतो ज्ञानिनो निश्शंक: सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विंदति ॥158॥
1244- ज्ञानी के अगुप्तिभय काअभाव- अज्ञानी जीवों को अगुप्तिभय रहा करता है, जैसे मकान खुला हो, किवाड़ ठीक न हों या अन्य प्रकार से कोई एक आवरण न हो, जहाँ कोई विरोधी जन आ सकें, विरोधीजन जहाँ अपना अधिकार जमा सकें, ऐसी ही कोई वार्ता हो, उसको देखकर उसको अगुप्तिभय हुआ करता है, मेरी रक्षा का कोई दृढ़ साधन नहीं है यह है अत्राणभय। अगुप्तिभय में रक्षा होने का साधन नहीं है, इसका भय है। उस विषय में ज्ञानी पुरुष चिंतन करता है कि कहाँ है मेरी अगुप्ति? जगत में जो पदार्थ है उनका जो स्वरूप है वह स्वरूप उनमें त्रैकालिक है, मजबूत हैं, वहाँ किसी पर का प्रवेश नहीं होता। मैं ज्ञानमात्र हूँ, मेरे स्वरूप में किसी अन्य का प्रवेश नहीं। जो सत् है वह स्वयं सत् है, उसमें दूसरे का कोई प्रवेश नहीं। यह वस्तुस्वभाव है। उस स्वभाव को कौन मेट सकता। मेरे ये प्रदेश मेरा ये स्वरूप यह ही दृढ़ किला है ऐसा मजबूत किला कि जहाँ त्रिकाल भी किसी पर का प्रवेश नहीं हो सकता है। 1245- आत्मप्रदेश में ही विराजे आत्माराम को अज्ञान में स्वापराधकृत कष्ट- देखो, भैया स्वरूप तो सुरक्षित है फिर यह क्यों दु:खी हुआ करता? यह यहीं विराजा विराजा भीतर कल्पनायें मचा मचाकर यही दु:खी होता है। यह ऐसा खेल चल रहा है दु:खी होने का कि जैसे किसी पुरुष को किसी दूसरे पर भ्रम हो जाय, बल्कि वह हितू है, समर्थक है, शुभचिंतक है फिर भी भ्रम हो गया कि यह मेरा विरोधी है, मेरा दुश्मन है, तो अब वह तो भ्रम के कारण भीतर में बड़ी तकलीफ मानता है और वह दूसरा आदमी उसे कुछ भान ही नहीं है, वह कुछ समझता ही नहीं है, वह तो जा रहा, आ रहा, घर में है, कहीं भी है तो देखो वह इकतरफा ही तो दु:खी हो रहा। कोई दूसरा दु:खी करने वाला है क्या? ऐसे ही यह आत्माराम अपने आपमें भ्रम बनाकर दु:खी होता रहता है। दूसरा न कोई विरोधी है, न मित्र है, वे तो सत् पदार्थ हैं, उनका काम उनमें चल रहा है, लेकिन यह भ्रमी, यह बहिरात्मा अपने आपमें बाहरी पदार्थों के प्रति भ्रम परिणति कर डालता है, यह मेरे को भला, यह मेरे को बुरा, यह मेरा गैर, इस तरह भीतर में जो एक भ्रमभाव बना रखा है उससे व्यथित हो रहा है। अपने को दु:खी करने वाला अपना ही अपराध है। दूसरे के अपराध से कोई दु:खी नहीं होता, क्योंकि अपराध शब्द में ही अर्थ भरा है- अपगता: राधा यत्र स अपराध: याने जहाँ राध नहीं है, राध मायने सिद्धि, जहाँ सिद्धि नहीं है, जहाँ आत्मा की उपादाना नहीं है, अपने आत्म स्वरूप की दृष्टि नहीं है तो वह जीव अपराधी कहलाता है। स्वरूपसुध से हटकर भ्रम वाला कोई भाव करें तो वह अपने आप दु:खी होता है। तो यह जीव अपने ही मजबूत किले में बैठा हुआ भ्रम लगाये रखता है। अज्ञानी, बाहरी पदार्थों का चिंतन कर रहा है, उनमें इष्ट अनिष्ट की कल्पना मचाता है और दु:खी होता है, और ख्याल करता है कि मेरी कोई गुप्ति ही नहीं है, कोई ऐसी मजबूत बात ही नहीं है कि मैं दु:खी न होऊँ। 1246- परमगुप्तिमय निजस्वरूप के जाननहार के अगुप्तिभय का अनवसर-
ज्ञानी जान रहा कि जो मेरा स्वरूप है वही परम गुप्ति है, उत्कृष्ट गुप्ति, क्योंकि स्वरूप में कोई भी अन्य पदार्थ प्रवेश करने के लिए समर्थ नहीं, और यह स्वरूप खुद है, सहज है, यही तो उसका सत्त्व है। तो इस जीव के अगुप्ति है ही नहीं, इस कारण ज्ञानी को अगुप्ति का भय नहीं होता। जिसने अपने स्वरूप में आग्रह किया है, यह ही मैं पूरा हूँ। यह ही मेरी सब दुनिया है, यह ही मेरा सर्वस्व है, दूसरे से तो प्रयोजन ही कुछ नहीं। अन्य पदार्थ चेतन अचेतन वे अपने आपके सत्त्व से प्रतिष्ठित हैं। तो जो अपने स्वरूप से प्रयोजन रख रहा है, यह मैं हूँ, पूरा हूँ, यह ही हूँ, स्वरूप से अमुक्त हूँ, इससे कभी छूटता नहीं, अन्य सब परतत्त्वों से मुक्त हूँ, अपने स्वरूप को तो ग्रहण कर रहा हूँ। अंतस्तत्त्ववेदी का मरण भी हो रहा तो भी वह दु:खी नहीं होता। क्योंकि वह जान रहा कि इससे मेरा बिगाड़ क्या? जगत के पदार्थों का कुछ भी परिणमन हो तो भी वह अपना बिगाड़ नहीं मानता, और फिर किसी पर का यहाँ प्रवेश ही नहीं है, ऐसा निर्णय होने के कारण यह ज्ञानी जीव नि:शंक रहता है।
1247- स्वरूपदर्शन व सर्वसाम्य के उपाय द्वारा विकल्पकष्टों का दूरीकरण-
जो लोग बाहरी पदार्थों में इष्ट अनिष्ट की बुद्धि रखते हैं वे ही शंकित होते हैं, दु:खी होते हैं। यह मेरे को भला नहीं रहा, यह मेरे को बड़ा बुरा है, ऐसी बाहरी पदार्थों में दृष्टि है, वह क्या है? अपने आपकी कलुषित परिणति। तो जहाँ कलुषता है वही कष्ट है। यदि कष्ट से दूर होना है तो प्रथम कर्तव्य है कि चित्त में कलुषता न रहे, और इसके लिए एक बार ऐसी उपयोगदृष्टि बनानी होगी, फिर प्रतीति में रहेगा, एक बार पौरुष तो करें कि संसार के जितने जीव हैं वे सब मेरे स्वरूप के समान है। उनमें इसकी थोड़ी भी गुंजाइश नहीं कि यह मेरा और यह मेरा नहीं। स्वरूप को निहारो। इसमें अपने आपकी बड़ी दया है, तत्काल अशांति दूर होगी, शांति का स्रोत बहने लगेगा क्योंकि अशांति है वह सब कलुष परिणाम है। कलुष परिणाम होने का आधार है जगत के इन जीवों में से कुछ को मान लिया अपना और कुछ को मान लिया गैर। यह एक ऐसा विकट आधार है कि इस जीव के कलुष परिणाम बढ़ते रहते हैं। तो जब कोई विडंबना हो, कलुष परिणाम हो वह बड़ी विपत्ति है तो उसे मूल से नष्ट करने का पौरुष करना है। तो मूल में स्वरूपदर्शन और उसी दृष्टि से जगत के सब जीवों में पूर्णतया एक समानता का दर्शन यह भाव जब जगे तो इसका कलुष परिणाम दूर हो। जगत के जीवों पर दृष्टि दें तो समान दिखे और किसी पर दृष्टि न दें तो केवल अपने आत्माराम को देखें, बीच की बात नहीं करनी कि जगत के जीवों को देखें और उनमें यह विभाव बनावें कि यह मेरा, यह गैर, स्वरूपदृष्टि करके एक समता लायें, वहाँ सन्मार्ग प्राप्त होगा।
1248- गुप्ति अगुप्ति का तात्पर्य- गुप्ति मायने क्या है? लोग बताते हैं छुपाना, इस बात को गुप्त रखना मायने छुपाकर रखना, यह भी अर्थ मान लो मगर वास्तव में गुप्त रखने के मायने छुपाकर रखना नहीं है, किंतु सुरक्षित रखना है। व्याकरण में गुप् संरक्षणे धातु है, उससे बनता है गोपन, संरक्षण करना। चूँकि संरक्षण छुपाकर होता है, इसलिए गुप्त का अर्थ छुपाना प्रसिद्ध हो गया। वास्तव में गुप्त का अर्थ छुपाना नहीं है। जैसे किसी ने कोई जेवर दिया स्वर्ण का और कहा कि इसको अपने पास गुप्त रखना तो वह क्या करता कि उसको किसी अपनी तिजोरी में सुरक्षित कर देता है, याने उस तिजोरी में वह बंद कर देता है, क्योंकि वह जानता है कि सुरक्षा इसी तरह होती है। तो देखने में यह आया ना कि तिजोरी में छुपा दिया तो गुप्त का अर्थ छुपाना प्रसिद्ध हो गया, पर गुप्त का अर्थ छुपाना नहीं है, किंतु गुप्त का अर्थ है सुरक्षित रखना। 1249- अपनी गुप्ति अर्थात् सुरक्षितता की निरख-
अब यहाँ गुप्ति अर्थात् सुरक्षिता निरखिये। वह सुरक्षितता यह है कि यह बिखर न जाय, यह कहीं छिन्न-भिन्न न हो जाय। कैसे बिखरे, कैसे छिन्न-भिन्न हो? तो दूसरा कोई प्रवेश करे, इसे ले जाय, इसको तोड़ेमरोड़े तो ना यह छिन्न भिन्न होवे आत्मा का स्वरूप, सो इसे कोई ताड़ने मरोड़ने के लिए नहीं आ सकता है। ऐसा है यह गुप्त स्वरूप सुरक्षित दृढ़ किला। वस्तुत्व है ना। अपने स्वरूप से सत् रहे, पररूप से असत् रहे। साधारण गुण यह बतला रहा कि उसकी कोई अगुप्ति नहीं। ऐसा जान करके यह ज्ञानी अगुप्ति का भय नहीं करता, तब नि:शंक होता हुआ स्वयं सहज ज्ञानस्वभाव का अनुभव करता है।
1250- अकंपपरमज्ञानस्वभावस्थता से पहिले अनुकूल ज्ञानप्रकाश की तैयारी- देखिये ज्ञानस्वभाव का अनुभव करने से पहले नय के द्वारा विज्ञान चला था ना? तो निश्चय नय व्यवहारनय इन दोनों के द्वारा निर्णय किया था और वहाँ रूप क्या था कि निश्चय नय के मायने एक वस्तु में एक की ही चीज को निरखना। व्यवहारनय मायने संयोग संपर्क निमित्त नैमित्तिक भाव आदिक जो यथार्थ हैं, घटनायें हैं उनकी अपेक्षा का निर्णय करना, लेकिन जब और आगे चलते हैं तो इन नयों के रूप और बदलकर ऊँचे बनते हैं, वे क्या बनते कि जो बोले सो व्यवहार और निषेध करें सो निश्चय। कुछ भी बोलो, तुम निश्चय की बात बोलो सो व्यवहार और निषेध करो सो निश्चय। जैसे जब बतलाया कि अच्छा यह जीव ज्ञाता है, यह जीव सूक्ष्म है, तब ज्ञाता है ऐसा नहीं, सूक्ष्म है ऐसा नहीं है, यह निश्चय हो गया- इसी को कर्तृकर्माधिकार के अंतिम कलशों में एक जगह बताया कि एकस्य सूक्ष्मों न तथा परस्य एकस्य भातो न तथा परस्य इत्यादि। एक नय के मत में यह जीव प्रतिभास होता है। लग रहा ना निश्चय नय मगर बोल रहा सो व्यवहार। प्रतिभास है ऐसा नहीं यह हुआ निश्चय विकल्प। एक बात और ध्यान में दो। उन कलशों के अर्थ करने में एक के मत में सूक्ष्म है, एक के मत में सूक्ष्म नहीं है, ऐसा जोड़ा न मिलाना, किंतु एक के मत में सूक्ष्म है, एक के मत में सूक्ष्म है ऐसा नहीं है, यह जोड़ा चलेगा। खूब मनन के साथ परखेंगे तो सभी में इस तरह के विकल्प बनेंगे। जहाँ इतनी सूक्ष्म बात बताया कि यह प्रतिभात है, वेद्य है, दृश्य है तो यह तो सब निश्चयनय की बात है। एक का एक में निरखना हो रहा है, मगर प्रतिपादन होने से व्यवहार बना, विकल्प होने से व्यवहार रहा, उस रूप और वहाँ नीति से निश्चय बनाया ऐसा नहीं, वेद्य है ऐसा नहीं ज्ञाता है ऐसा नहीं। कुछ भी बोलें, ऐसा नहीं। अच्छा, तो ऐसा नहीं, क्या इस पर डटे रहें,... नहीं नहीं, वह भी विकल्प है। दोनों विकल्पों से अतिक्रांत होकर ज्ञानी समयसार का अनुभव करेगा। सहज ज्ञानस्वरूप के अनुभव के लिए बड़ी समाधि बने, जहाँ किसी प्रकार का विकल्प न जगे, ऐसी स्थिति बने वह सहज ज्ञानस्वभाव का अनुभव करता है। 1251- परप्रयोग की ज्ञानानुभव में प्रतिबंधकता का प्रभाव-
यहाँ प्रसंग में कह रहे कि सम्यग्दृष्टि को अगुप्ति का भय नहीं, उसने गुप्तिमय आत्मतत्त्व का पूरा निर्णय किया। अरे कोई यहाँ से उठा देगा तो वहाँ चला जाऊँगा, मैं तो पूरा रहूँगा, मेरा तो कुछ विनाश नहीं। वहाँ मैं भी सुरक्षित। किसी ज्ञानी को कोई कैद कर ले, अपराध हो न हो, किसी प्रकार जेल में बंद कर दे, रस्सी से बाँध दे, तो भला बतलाओ वह बँधा क्या? वह अपने में कुछ अनुभव कैद का कर रहा क्या? अगर वह ज्ञान का ज्ञान में उपयोग रख रहा तो उस काल में उसे कैद कहाँ। कोई किसी को जबरदस्ती पकड़कर रखे या शरीर पर जबरदस्ती हो रही मगर ज्ञानी का उपयोग करते समय की बात कह रहे- जो जीव अपने ज्ञानस्वरूप में उपयोग कर रहा है ऐसी स्थिति में उसको यह अड़चन नहीं है। भले ही किसी को रोक दिया कि तुम इस कोठरी से बाहर नहीं जा सकते, पर इसे कोई रोकेगा क्या कि तुम ज्ञानानुभव नहीं कर सकते। किसी को खंभे में बाँध दिया जाय, पहरेदार भी उसको ताकने के लिए नियुक्त कर दिये जायें, पर कोई यह जबरदस्ती कर सकता क्या कि तुम अपने ज्ञानस्वरूप को ज्ञेय नहीं कर सकते? कोई प्रतिबंध नहीं कर सकता। भले ही कोई स्वयं घबड़ाकर अधीर होकर व्यग्र हो तो हो, मगर कोई दूसरा व्यग्र न कर सकता। इस ज्ञानी ने ऐसा गुप्त सुरक्षित स्वरूप पाया।
1252- गुप्त में गुप्त की गुप्त साधना- अच्छा गुप्ति का अर्थ गुप्त ही रख लो छिपा हुआ, यह गुप्त तो है ही, छुपा हुआ है। अच्छा और इस गुप्त को देखेंगे तो यह प्रकट दिखेगा कि गुप्त होकर दिखेगा? अरे गुप्त ने गुप्त को देखा उस समय में क्या बात बनेगी? कल्याण यह गुप्त है कि खुला है? वह भी गुप्त। गुप्त में गुप्त को गुप्त करके गुप्त का अनुभव करना है, इसका ऐसा सुरक्षित गुप्तस्वरूप है। उसका निर्णय करने वाले ज्ञानी जीव नि:शंक होकर निरंतर सहज ज्ञानस्वरूप का वेदन करते हैं। वेदन में जानना, अनुभवना, वेदना वे सब बातें आ जाती हैं इसलिए एक सीधा प्रत्येक कलश में ‘‘विंदति’’ का प्रयोग किया है।