वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 191
From जैनकोष
त्यक्त्वाऽशुद्धिविधायि तत्किल परद्रव्यं समग्रं स्वयं
स्वद्रव्ये रतिमेति य: स नियतं सर्वापराधच्युत: ।
बंधध्वंसमुपेत्य नित्यमुदित: स्वज्योतिरच्छोच्छल-
च्चैतन्यामृतपूरपूर्णमहिमा शुद्धो भवन्मुच्यते ॥191॥
1585- अशुद्धिविधायि परद्रव्य के त्याग का प्रथम कर्तव्य–
यह भव्य आत्मा किस प्रकार शुद्ध होता हुआ समस्त कर्मों से छूट जाता है उसका इसमें चित्रण किया है। इस जीव ने सर्वप्रथम तो अशुद्धि का विधान करने वाले समग्र परद्रव्यों का त्यागा, देखिये बात कुछ भी कहीं जाय आखिर दृष्टि में दोनों हैं, अपने अंतस्तत्त्व का परिचय हुए बिना समस्त परद्रव्यों को त्यागा कैसे जा सकता है? तो यह समझ इसमें अन्डरस्टुड ( Understood ) है, जो सही ज्ञान में, प्रवृत्ति में आयगा, रास्ते में आयगा कि यह जीव सर्वप्रथम समग्र परद्रव्यों का त्याग करेगा, परद्रव्य हैं क्या? समग्र आश्रयभूत पदार्थ, ये अशुद्धि को करने वाले हैं, इनका करने वाला मैं नहीं, पर अशुद्धि का जहाँ निर्माण होता है, वहाँ वह उसका आश्रयभूत है। चरणानुयोग का समग्रविधान इस ही कुंजी पर बना है कि अध्वयसान के आश्रयभूत जो-जो भी द्रव्य हैं उनका त्याग करें और अपने अंतर में अपने स्वरूप को निरखें, परद्रव्यों का त्याग, आश्रयभूत पदार्थों का त्याग, और और भी परिग्रह परिमाण, अन्य अन्य का भी त्याग, इस प्रकार पर द्रव्यों का त्याग करें, क्योंकि ये अशुद्धि के उत्पन्न होने में आश्रयभूत हैं। तथा और कौनसे परद्रव्य का त्याग? निमित्तभूत कर्मद्रव्य का त्याग, उसका त्याग कैसे? यहाँ जानते ही नहीं कि कर्म हमारे बँधे हैं, तो फिर उनका त्याग कैसे करें? अरे ! कर्म के फल में भाव लगा रहा था ना? यह ग्रहण कर रहा था ना? कि यह मैं हूँ तो कर्मफल में अहंकार का, ममकार का जो त्याग बना वह यह साबित करता है कि कर्म का भी त्याग हो गया, और जान लिया इस युक्ति से कि कर्म कोई द्रव्य है अन्यथा ये विपाक, विभाव के निमित्तभाव होते कहाँ से?
1586- विकार की परभावता का परिचय होने से स्वयं उपेक्षा-
एक कुंजी है कि जगत में जिन पदार्थों में विकारभाव होते हैं, विलक्षणभाव होते हैं वे अन्य परद्रव्य के संग के निमित्त से होते हैं, अन्यथा विकारभाव, विलक्षणभाव, विषमभाव ये हो ही नहीं सकते। कोई भी पदार्थ अपने आपके ही द्वारा अर्थात् स्वयं निमित्त होकर विकार को उत्पन्न नहीं कर सकता, नि:संग पदार्थ में तो अपने स्वरूप के अनुरूप ही परिणमन बनेगा। परिणमन करने का स्वभाव तो है आत्मा में और स्वयं परिणमने की उसके अंदर बात है फिर भी विभावरूप परिणमने में स्वयं निमित्त नहीं है, वहाँ पर द्रव्यकर्म वही एक निमित्त है, उसके विपाककाल के वातावरण में यह जीव अपनी कमजोरी से अपने आपमें विकार भाव उत्पन्न किया करता है। इसी कारण ये नैमित्तिक हैं, परभाव हैं, और ये परिचय ऐसी उमंग दिलाते हैं कि तेरे स्वरूप नहीं हैं, विभाव तो इनसे निराला है, अविकार स्वरूप है, तो अशुद्धि को करने वाले निमित्तभूत पदार्थ का त्याग कर उस निमित्त सन्निधान में यहाँ उत्पन्न हुए आत्मा के जो विभाव हैं ये नैमित्तिक हैं, वे भी परद्रव्य हैं, इनसे भी उपेक्षा कर। जैसे यहाँ दर्पण में फोटो को निरखते हैं तो यह ज्ञात होता है कि यह लाल, पीला कपड़ा परद्रव्य है, ऐसा ही सहसा ज्ञात होता है निमित्त-नैमित्तिक योग से निरखते हुए में कि यह फोटो भी पर है, तो समग्र परद्रव्यों का पहले त्याग किया। अशुद्धता से विविक्त अपने आपके स्वरूप की परख में उद्यमी, यह भव्यात्मा क्या-क्या कर रहा हैं? अपने द्रव्य में यह रति को प्राप्त होता है।
1587- बाहरी पदार्थ में शरण्यता की असंभवता-
कहाँ प्रीति जगे, कहाँ वात्सल्य उमड़े, किसकी शरण में जाऊँ, वह शरण है स्वद्रव्य। बाहर में कुछ भी इस जीव को शरण नहीं है। राजा भोज के समय में एक बार सभी कवि राज दरबार में उपस्थित थे, तो राजा ने एक कवि के बाप से कहा कि तुम एक समस्या की पूर्ति करो। ‘‘क्वं याम: किं कुर्म: हरिणशिशुरेवं विलयति।’’ अब यह कोई नियम तो नियम तो नहीं है कि कवि का बाप भी कवि ही हो, मगर पूछ दिया कवि के बाप से। अब यह देहाती बिना पढ़ा-लिखा बाप था, वह क्या उत्तर दे सके? कवि से पूछता तो जवाब भी मिलता। तो वहाँ अपने पुत्र कवि से वह बाप बोला- अपनी देहाती भाषा में कि पुरा रे बापा, याने इस समस्या की तू पूर्ति कर दे। तो वहाँ उस कवि ने अपने पिता की शान, इज्जत रखने के लिए कि कोई यह न कह सके कि यह अज्ञानी है, मूर्ख है, सो पुरा रे बापा का ही एक श्लोक बना दिया- ‘पुरा रेवा पारे गिरिरतिदुरारोहशिखरे। गिरौ सव्येऽसव्ये दववहनज्वालाव्यतिकर:। धनु:पाणि: पश्वान्मृगयुशतकं धावति भृशं क्व याम: किं कुर्म: हरिणशिशुरेवं विलयति’। जिसका अर्थ है कि सेवा नदी के एक पार एक हिरणी का बच्चा अपनी माँ से बिछुड़ गया। सैकड़ों शिकारी उसे मारने के लिये पीछा कर रहे। वह हिरण बच्चा शिकारियों से अपने प्राण बचाने के लिए भागे। आगे देखा तो नदी का भयंकर तीव्र प्रवाह था, दायें बायें देखा कि भयंकर अग्नि जंगल में जल रही थी अब वह हिरणी बच्चा यह दृश्य देखकर घबड़ाता है कि कहाँ जाऊँ, क्या करूँ? ठीक यही हाल इन संसारी जीवों का है। ये अज्ञानी जीव यहाँ नाना स्थितियों से घबराकर कभी घर में रहे वहाँ भी अशांत, घर छोड़कर वन में रहे वहाँ भी अशांत, त्यागी बने वहाँ भी अशांत, क्या करूँ? कहाँ जाऊँ? यह सोच सोचकर दु:खी होते हैं।
1588- अहंकार, ममकार आदि अज्ञानभावों के दूर होने में ही कल्याणपथ का लाभ-
देखिये, जब तक अज्ञानभाव दूर न हो, स्वद्रव्य के सही स्वरूप का बोध न हो, तब तक इस जीव को शांति नहीं मिल सकती। गृहस्थ हो चाहे त्यागी हो, जैसे चाहे जैन हो, चाहे हिंदू हो, चाहे मुसलमान सबके पैदा होने व मरने की विधि एक है। जिस काम की जैसी विधि है वह काम उस ही विधि से होता है। तो शांति पाने की एक ही विधि है, दूसरी नहीं। अपने आपके सहज निरपेक्षस्वरूप का परिचय करें और उसकी दृष्टि करें, उसमें तृप्त होने का अपना परिणाम करें। दूसरा परिणाम नहीं है शांत होने का। तो इस भव्यआत्मा ने समग्र परद्रव्यों का त्याग किया और निज द्रव्य में इसने रति की, अनुराग किया, वात्सल्य किया, अब यह जीव सर्व अपराधों से दूर हो गया, अपने आत्मा के सहजस्वरूप की प्राप्ति हुई उपयोग द्वारा, पूर्ण विकास हुआ। ज्ञान में ज्ञान आया और यह ज्ञान वहीं रमना चाह रहा, वहीं रमने का उद्यम कर रहा, यह तो अपराध से दूर है। जैसे कभी कोई मास्टर अपने शिष्यों से कहता है कि देखो जिस शिष्य ने यह अपराध किया हो वह बता दे तो उसका कसूर माफ, ऐसे ही यह जैन शासन कहता है कि जिसने ऐसा कसूर किया है वह यदि अपना कसूर समझ ले तो वह माफ हो जायगा। जिसने अपराध किया यदि अपना अपराध स्वीकार कर ले तो उसका दंड कम हो जाता है, अपराध यह हो रहा है कि यह जीव परवस्तुओं में अहंकार रख रहा, और उसका कारण क्या कि इसने अपने स्वभाव का विभाव से भेद नहीं किया। मैं क्या हूँ उस ओर इसकी प्रीति नहीं जगी। अपराध बन रहे, क्या अपराध बन रहे हैं अहंकार- बाहरी पदार्थों में यह मैं हूँ, इस प्रकार का अहंकार भाव, शरीर मैं हूँ और अनंत भिन्न पदार्थ जो एक क्षेत्र में भी नहीं उनके प्रति भी कह रहा, यह मैं हूँ। मोही ऐसा ममकार ममता कर रहा, देखते ही क्या दृष्टि बनती है। खुद का लड़का दिख गया तो भीतर में मन खुश हो गया। भले ही ऊपर से अपनी मुद्रा दूसरों के सामने कुछ बनाये, मगर अंदर से उसका हृदय खिल गया? और चाहे कोई बड़ा धर्मात्मा भी हो, साधु भी हो पर उसके प्रति हृदय में वात्सल्य का भाव नहीं उमडता, यह कितना एक ममता का गहरा विष पड़ा है, तो ममकार यह अपराध है, कर्तृत्व-बुद्धि भी यह जीव कर रहा, मैंने क्या किया, मैं ऐसा कर सकता हूँ, मेरे बिना भला कोई यह काम कर तो लेवे...। यह सब क्या है? अज्ञानभाव। यह अपराध कर रहे, जो अपराधी है वह शांति कैसे पा सकता? भोक्तृत्वबुद्धि- मैं भोगता हूँ, मुझे ऐसा आराम है। मेरे ऐसा पुण्य है, ऐसा प्रताप है, मैं उसको भोग रहा हूँ...ये सब बातें अज्ञानभरी हैं।
1589- अज्ञानापराध के दूर होने पर सत्समृद्धि का लाभ-
पहले यह तो परख कर लो कि मेरे ऐसी प्रवृत्ति चल रही या नहीं, चल रही तो इतना बड़ा तो अज्ञान बसाए हुए हैं, खुद तो इतने अधर्मी हैं फिर दूसरे जीवों के प्रति क्यों प्रतिकूल व्यवहार? अपराध रहित बनें तो शांति मिलेगी। अपराध रहते हुए शांति नहीं रह सकती। अब यह जीव जिसने कि परद्रव्यों से उपेक्षा की, निज सहज स्वभाव में रुचि की, वह अपराध से दूर हो गया। अपराध से दूर हुआ कि बंध का ध्वंस हो गया। बंधन तो अपराध तक था, अपराध की वासना तक था। जहाँ अपराध दूर हुआ वहाँ बंध तोड़ दिया गया। अब इस जीव को जिसने स्वाभावाश्रय के बल से समग्र पर द्रव्यों से नितांत उपेक्षाभाव सिद्ध कर लिया और जब उससे ऊपर बढ़ गया, धुन हो रही तो बीच-बीच में जो विघ्न आते हैं, विकल्प उठते हैं, आश्रयभूत पदार्थों में बसने के कारण विकल्प जग रहे हैं तो इतने समग्र आश्रयभूत का त्याग करना है। बाह्य में कैवल्य, अंतरड्.ग में कैवल्य, दोनों का सहारा लेकर चलना है, निर्ग्रंथ केवल ज्ञानमात्र की धुन होना है। अपने आपके आत्मा में जो साधु हैं, जो परमेष्ठी है उनके उपयोग में मैं साधु हूँ, ऐसी आस्था नहीं होती। मैं चैतन्यस्वरूप मात्र हूँ, अपने लक्ष्य को लिए जा रहे हैं, लक्ष्य में बढ़ते चले जा रहे हैं, अब समाधि बढ़ती जा रही, श्रेणी में पहुँच गए। वहाँ शुक्लध्यान चल रहा। शुक्लध्यान-अग्नि से स्वभावाश्रय के प्रयोक्ता के जो एकाग्रता से ध्यान चल रहा, स्वभावरूप अपने ज्ञान को प्रवर्त रहा ऐसा जीव कर्मों का ध्वंस करता जा रहा है। और अब उसके ऐसा ज्ञान प्रकट हुआ, वह भव्यात्मा ऐसा शुद्ध हुआ कि अब वह नित्य उदीयमान है।
1590- प्रभुस्वरूप की नित्य उदीयमानता-
कहते हैं ना कि यह सूर्य तो उदय होता और अस्त को प्राप्त होता, पर हे प्रभु ! आपका गुण, आपका पद, आपका प्रकाश यह अस्त को प्राप्त नहीं होता। ‘नास्तं कदाचिदुपयासि न राहुगम्य: स्पष्टीकरोषि सहसां युगपज्जगंति। नांभोधरोदरनिरुद्धमहाप्रभावं:, सूर्याति शायिमहिमासि मुनींद्र लोके’। लोग सूर्य को देवता कहा करते हैं। क्यों ? लोक में प्रसिद्धि है कि उसके कारण बड़ा उपकार चल रहा है। खेती अच्छी होती है। सूर्य की किरणें न मिलें तो खेती खतम, आराम खतम। एक दिन सूर्य न निकले तो देख लो लोगों की क्या दशा हो जाय? हरा-भरा रहना, यह सब उपकार देख करके पहले यह बात थी कि जिसका उपकार समझा उसी को देवता मानने लगते थे, उसी के प्रति बड़ी भक्ति रखते थे, सो लोकजन सूर्य को आराधनीय देवता मानते हैं। भैया, सूर्यदेव तो जरूर है ज्योतिषी देव, मगर आराध्य देव नहीं। उपकार तो हो रहा उसके निमित्त से, उपकार कोई किसी का करता नहीं, मगर पर के सान्निध्य में ये बातें चल रही हैं ऐसे ही सूर्य से भी अतिशायी है आपकी महिमा। वह तो बादलों से ढक जाय, पर हे प्रभो ! आपका ज्ञान किसी से नहीं ढकता, यह नित्य उदीयमान है। क्या हो रहा है वहाँ? उनकी ही स्वयं की जो ज्योति है ज्ञानप्रकाश, उस आत्मप्रकाश में जो बहुत स्वच्छ उछलता हुआ अमृत-प्रवाह है उससे जिसकी महिमा भरपूर है ऐसा वह सिद्ध होता हुआ समस्त कर्मों से युक्त होता है। नीति में कहते हैं न ‘शीतलाश्र्चंदन चंद्ररश्मयो’ आदि याने शीतल चंदन नहीं, शीतल कूपजल नहीं, शीतल कोल्डस्टोरेज नहीं, शीतल एयरकंडीसन नहीं, शीतल तो सज्जनों के वचन हैं। मगर परमार्थत: शीतल तो अपने ज्ञान की स्वच्छ रश्मियाँ हैं, जहाँ केवल प्रतिभास है, रागद्वेष का कोई कालुष्य नहीं, विशुद्ध प्रतिभास। शीतलता तो वहाँ है, यही है चेतन अमूर्त। वह प्रवाह उनके निरंतर चल रहा है। ज्ञानस्वभाव में से स्वभाव-विकास प्रतिसमय उठता चला जा रहा है। जैसे बड़े तेज प्रकाश में और कुछ रश्मियाँ भी दिखती, हल्के एक तीव्र प्रकाश के कण नजर आते और मानो वही-वही घूम रहा, प्रवाह हो रहा, ऐसा नजर आ रहा ना? ऐसे ही उस शुद्ध ज्ञान में चूँकि वहाँ ही विकास है अरहंत प्रभु का, सिद्ध प्रभु का, तो वह जो शुद्ध ज्ञान-प्रकाश है तो मानो उस शुद्ध स्वभाव से उस अनुरूप निरंतर अमृत का प्रवाह चलता है। उसी से जिसकी महिमा है।
1591- अनंत आनंद के अनुभव की सर्वोत्कृष्ट महिमा-
देखिये, भगवान की महिमा किस बात से है- सहज परम उत्कृष्ट आनंद का अनुभव होने से। और, यह हो रहा है उस अनंत ज्ञान के कारण, सो यह अनंत ज्ञान, यह विशुद्ध सहज प्रकाश, इससे प्रभु की महिमा है। वहाँ तीनों लोकालोक ज्ञेय हो रहे, इससे महिमा नहीं, वह तो स्वरूप ऐसा है कि इन सब पदार्थों को अपना समर्पण वहाँ करना पड़ता है। इतना एक अतुल विकास है कि तीनों लोक को अपना समर्पण करना पड़ता है। वह वही है, मगर ज्ञेयाकार तो सब आया, उसी को कहा जाता कि समस्त पदार्थों को अपना ज्ञेयाकार समर्पण करना पड़ रहा है, हो रहा है। यह उस अद्भुत ज्ञान की महिमा है मगर इसके कारण भगवान हमारे लिए बड़े नहीं, किंतु एक अद्भुत अलौकिक आनंद के कारण भगवान बड़े हैं। तो सहज परम उत्कृष्ट आत्मीय आनंदरस से परिपूर्ण तृप्त हैं इस कारण बड़े हैं। देखो, बड़े तो दोनों से हैं। अगर कहा जाय कि आपको हम बहुत ज्ञान करायेंगे- यह कला भी सिखायेंगे, वह कला भी सिखायेंगे, मगर आपको रोटी न देंगे...तो भला यह बात मंजूर करेगा क्या? न मंजूर करेगा। जब कभी देश में आंदोलन चलता तो रोटी, कपड़ा पहिले देते, तो ऐसे ही अपने को चाहिये निराकुलता, अपनी रोटी यह है। अपने को निराकुलता चाहिए, शांति चाहिए। चाहे तीनों लोक का ज्ञान न हो मगर शांति चाहिए। एक कल्पना करो कि तीनों लोक का ज्ञान भी जग जाय और आकुलता बढ़ जाय, होता नहीं ऐसा मगर क्या आप उस ज्ञान को पसंद करेंगे? अरे ! आप तो आनंद चाहेंगे। उस शांति का मेल है केवल ज्ञान का, इसलिए स्वरूप बताया है कि केवल ज्ञान एक यह उत्कृष्ट तत्त्व है, ऐसी वहाँ अनाकुलता भी है। ऐसा अनुकूल स्वरूप, वह सहज ज्ञान, परिपूर्ण ज्ञान वहाँ उदित हुआ है, कैसे हुआ? जैसे हुआ वैसे अपना काम करें।
1592- आप्तवाणी की मंगलमयता-
आप्त की वाणी ही प्रामाणिक है। आप्त का सही अर्थ क्या है, जो धातु से निष्पक्ष हो। आप्त मायने पहुँचा हुआ होना। जैसे कोई बहुत बड़ा ज्ञानी हो तो कहते हैं कि साहब यह तो बहुत पहुँचे हुए आत्मा हैं। अरहंत भगवान तो बहुत पहुँचे हुए जीव हैं मायने जो समग्र तत्त्वों का ज्ञान करे, संसार पार कर जो उत्तम धाम में पहुँच चुके हैं उनकी वाणी पूर्ण प्रामाणिक है। जैसे कोई नदी को पार करके दूसरे किनारे पर पहुँच गया है उसका कहना सत्य है, अधिकारपूर्ण बात है कि इस दूसरे किनारे खड़े हुए लोगों से कहे कि देखो तुम इस गली से आओ, वहाँ गड्ढा है, वहाँ अमुक विपद है, वहाँ से हम चल करके पार हो गए, आप लोग सब इस रास्ते से चलो और इस किनारे आ जावो, ऐसे ही मानो प्रभुवाणी में यह ही संकेत कर रहे कि जैसे हम जिस जिस गली से चल-चलकर इस संसार-नदी को पार करके इस मोक्ष के किनारे पर लग गए हैं, ऐसे ही है भव्य जीव ! तुम भी इस गली से आना। अन्य किसी दूसरी गली से न आना, क्योंकि अन्य अगल बगल की गलियों में विपत्ति है, क्या विडंबना है, सो इस सही सुगम सहज इस रास्ते से आओ, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र की गली से आओ और इस किनारे पर आ जाओ जिस पर हम हैं। प्रभु वाणी में यह ही तो संकेत है, यह रत्नत्रय का रास्ता बड़ा अच्छा है, अपनी शांति कर लो, सहज अपना ज्ञान करो और अपने स्वरूप में रम जाओ। और गलियाँ बड़ी खराब हैं, पर वस्तु में रमे, तो उसकी आशा, प्रतीक्षा करनी पड़ेगी, उससे कृपा चाहेंगे, यह जरा प्रसन्न हो जाय तो मुझे सुख मिले। अरे !इन विषयों की गली छोड़ो, इनमें तो बहुत पराधीनता है, पर व्यर्थ के अज्ञान से पराधीनता बनी हुई है, तो इस गली से मत आइये नहीं तो डूब जावोगे, जिस गली से हम चले हैं उस गली से चलकर आओ और जहाँ हम है वहाँ आ जाओ, प्रभुवाणी में यह ही बताया है, जैसे हो वैसे इस स्वभाव का आदर करो। स्वभाव का आश्रय लो, अपने में सहज निरपेक्ष चैतन्य स्वरूप मात्र है, ऐसी अपन प्रतीति करें, सब कुछ मिलेगा इसके प्रमाद से। एक को साधा तो सब सध जायगा और जगत में बाहरी पदार्थों में किसी को मनायें, किसी का आश्रय लें तो न वह मिलेगा, न यह मिलेगा। वह तो यों न मिलेगा कि विनश्वर चीज है, आपका उस पर हक भी नहीं और खुद यों न मिलेगा कि आपने इन बाहरी पदार्थों में रुचि की वहाँ प्रभु प्रसन्न नहीं होता। वह मिलेगा कैसे? सो एक निज सहज निरपेक्ष अंतस्तत्त्व का आश्रय रखें, इसके प्रताप से अपना काम बनना है, और जैसा बनेगा यह पूर्ण विकसित हो जायगा। इस प्रकार ये प्रभु अपने स्वरूप में रमकर अपनी महिमा को पूर्ण कर शुद्ध होकर सदा के लिये संसार संकटों से, कर्मों से सबसे छूट गए और अनंतकाल के लिए अपने निज सहज आनंद का ही अनुभव करेंगे।