वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 3
From जैनकोष
परपरिणतिहेतोर्मोहनाम्नोऽनुभावा-
दविरतमनुभाव्यव्याप्तिकल्माषिताया : ।
मम परमविशुद्धि: शुद्धचिन्मात्रमूर्ते-
र्भवतु समयसारव्याख्ययैवानुभूते: ॥3॥
66―टीकाकार का मूल परिचय―समयसार प्राभृत की टीका करने वाले अमृतचंद्र सूरि महाराज कहते हैं कि मैं किसलिए इस समयसार की टीका कर रहा हूं? मैं कौन हूं और इस समय क्या हालत हो रही है और मैं किसलिए समयसार की व्याख्या करने जा रहा हूँ, ये तीन बातें इस कलश में बतायी गई हैं । मैं हूँ शुद्ध चिन्मात्र मूर्ति । जो भी पदार्थ होते हैं वे अपने आप अपने ही सत्त्व के कारण अपने ही स्वरूप को रखते हुए रहते हैं, फिर उस पदार्थ में जो विकार आते हैं वे किसी पर पदार्थ के संबंध से आते हैं । मैं आत्मा शुद्ध चैतन्यमात्र मूर्ति हूँ, याने मेरा स्वरूप केवल विशुद्ध चेतनामात्र है । देखिये किसी भी पदार्थ में अपने आपकी ओर से विकार, विषमता विभाव नहीं हुआ करते । केवल ही हो कोई भी पदार्थ, तो उसमें समता ही रहेगी और जो परिणति बनेगी वह सब समान-समान बनेगी । विषमता आती है तो किसी पर उपाधि का संबंध आने पर आती है । यद्यपि वह भी परिणमने वाले की योग्यता से हुआ है लेकिन हुआ है पर पदार्थ के सन्निधान होनेपर । तो मैं हूँ शुद्ध चैतन्यमात्र मूर्ति । परम शुद्ध निश्चयदृष्टि से वस्तु का शुद्ध स्वरूप जाना जाता है उस ही प्रयोग में समझो―मैं केवल एक चैतन्यमात्र मूर्ति । परम शुद्ध निश्चय दृष्टि से स्वरूप की ओर से देखें तो न मैं मनुष्य हूं, न स्त्री हूं, न कुटुंबी हूं आदिक कुछ भी मैं नहीं हूँ, मैं हूं केवल शुद्ध चैतन्यप्रकाश । जो अपने आप हो सो मैं हूं, जो परपदार्थ के उपाधि संबंध से हो सो कुछ नहीं हूँ, ऐसे मैं को यहाँ स्वीकार किया गया है―मैं शुद्ध चैतन्यमात्र मूर्ति हूं ।
67-टीकाकार की अंत:परिस्थिति समयसार व्याख्या के लिये प्रेरिका―अच्छा, शुद्ध चैतन्यमात्र हो, ठीक हो, फिर यह काम क्यों कर रहे हो? समयसार की व्याख्या क्यों बना रहे हो? मैं शुद्ध चैतन्यमात्र मूर्ति हूँ, ठीक है, पर इस टीका के रचने का क्या प्रयोजन? सो बताते हैं कि क्या करूँ, हूँ तो शुद्ध चैतन्यमात्र मूर्ति, मगर जो विकार हैं याने मेरे में जो प्रतिबिंब हुआ है, कर्म की छाया हुई है, विकल्प, विचार, इष्ट अनिष्ट बुद्धि ये सब बातें हैं, उनसे यह शुद्ध चैतन्यमूर्ति कलुषित हो गया है, जैसे दर्पण अकेला स्वच्छ है, पर सामने कोई आ जाये तो वह मलीन हो जाता है, इसी प्रकार हम आप सभी जीव अपने स्वरूप को देखें तो स्वच्छ है, केवल चैतन्यमात्र हैं, लेकिन रागादिक भावों की व्याप्ति से हम आपकी मूर्ति कलुषित हो गई है, वर्तमान स्थिति यह है मैं क्या हूं वर्तमान स्थिति क्या है? ये दो बातें बतायी हैं अब तक ।
68―वर्तमान परिस्थिति का निमित्त कारण―वर्तमान स्थिति यह क्यों हो रही है? यह है तीसरी बात । वर्तमान स्थिति क्या है? परपरिणति कर रहे हैं यह ही तो है कलुषित वृत्ति । किसी पर पदार्थ को निरखा और उसको इष्ट माना या अनिष्ट, और ऐसा मानकर उसके अनुसार जो हम अपने में परिणति बनाते हैं सो अगर इष्ट पदार्थ का विनाश हो रहा तो हम अपना यहाँ विनाश सा समझ लेते हैं, इष्ट पदार्थ का यदि कुछ उत्पाद हो रहा, उन्नति हो रही, विकास हो रहा तो हम अपने आत्मा को उस रूप मान लेते हैं, इसको कहते हैं परपरिणति । जैसे किसी मोही जीव की दुकान जल रही है तो वहाँ दुकान जल रही, यहाँ इसका हृदय जल रहा । अब वह दुकान परपदार्थ है, भिन्न है, वहाँ जल रही है, यहाँ क्या हो रहा? परपरिणति । अच्छा, परपदार्थ में जो परिणति हो रही है उसका कारण क्या है? मोहनीय नाम का कर्म । उसका उदय, अनुभाग का खिलना, बस वहाँ अपने समय पर मोहनीय कर्म का अनुभाग खिल रहा, यहाँ बुद्धि कलुषित हो रही और इसीलिए अब यह जरूरत पड़ गई कि मैं इस बुद्धि की कलुषितता दूर कर दूँ, बस इस ही के लिए समयसार की व्याख्या की जा रही है । चार चीजें क्या बतला रहे हैं, मैं वास्तव में क्या हूँ, मेरी वर्तमान में स्थिति क्या हो रही है? इस स्थिति के होने का कारण क्या है? और समयसार की व्याख्या का कार्य किसलिए कर रहा हूं ? समयसार ग्रंथ भी एक बड़ा उच्च आध्यात्मिक ग्रंथ है, जिसमें नय विभाग द्वारा यह स्पष्ट खोल दिया है कि मेरे आत्मा का तो केवल एक शुद्ध चैतन्यस्वरूप है, बाकी सब पर हैं, अनेक विधियों से खोला । वे विधियाँ तो अध्ययन करने से विदित होगी, पर वर्तमान में एक थोड़ी सी बात कुछ कहें तो यह ही कह सकते हैं कि परपदार्थ में हमने माना कि यह मैं हूँ, यह कहलाया अहंकार । अहं मायने मैं को कार मायने कर देना । मैं को कर देने के मायने क्या है कि जो मैं नहीं हूँ उसको मैं बना देना कल्पना में, तो कलुषित होने का प्रथम कारण है अहंकार । दूसरा कारण है ममकार । ये बाहरी पदार्थ मेरे हैं, ये मेरे विकारस्वरूप रागद्वेषादिक सब मेरे हैं, इस प्रकार का जो ममकार है इसमें बुद्धि कलुषित हो रही है । जब ये दो बातें लग गयीं तो बाह्य पदार्थों में करने की बुद्धि भी जग गयी । मैं ऐसा कर दूँगा, मैं ऐसा कर सकता हूँ, यह बुद्धि कर्तृत्व में लग गई, यह भी मलिनता है । क्यों मलिनता है कि देखो जो पदार्थ होते हैं वे पदार्थ अपने प्रदेश में ही रहते हैं, अपने प्रदेश में ही उनका परिणमन होता है । अपने प्रदेश में ही उनका अपना अनुभव चलता है । अपने स्वरूप से बाहर अपने प्रदेश से बाहर मेरा कुछ वास्ता नहीं । क्यों वास्ता बनाया ? परपदार्थों में कुछ बात बना देने का अहंकार रखा, कर्तृत्वभाव रखा तो यह हुई कलुषित बुद्धि । उसका फल दु:ख ही है, चौथा कारण है कलुषितपने का भोक्तृत्व बुद्धि । बाह्य पदार्थों को मैं भोग रहा हूँ, ऐसा ध्यान आ जाये, वह संसार का कारण है । तो ऐसी वर्तमान में स्थिति है हमारी मलिन । इस मलिनता का कारण है मोहनीय कर्म का अनुभाग ।
69―जीव और कर्म का संघर्ष―जीव और कर्म इन दोनों का विवरण जैन शासन में इतना सुव्यवस्थित है जिसका भली प्रकार ज्ञान करने वाले तो स्वयं ही भेदविज्ञान करके अपने आत्मा में परमात्मस्वरूप का अनुभव करता हुआ शांत रहता है । क्या है संक्षेप में कि जीव जब कषाय करता है, मिथ्या अभिप्राय करता है तो इसी जीव के ही प्रदेशों में अनंतानंत कार्माणवर्गणाओं के परमाणु ऐसे लगे हैं जो इस समय तो कर्मरूप नहीं हैं मगर कर्मरूप बनने के लिए तैयार हैं । तो कषाय के होते ही वे सूक्ष्म कार्माणवर्गणायें कर्मरूप हो जाती हैं । कर्मरूप हुए कि वहाँ प्रकृति बँध गई कि ये कर्म इस प्रकार का फल देंगे । उनकी स्थिति बँध गई कि ये कर्म इस जीव के साथ इतने दिन तक ठहरेंगे । फिर उसमें प्रदेश तो हैं ही, अनुभाग भी बन गया कि इतने दर्जे तक का तीव्रमंद ये फल देंगे । अब तो अनुभाग काल आया तो कर्म में अनुभाग खिला सो कर्म में ही कुछ गड़बड़ी हुई पहले साक्षात् और उसका सन्निधान पाकर उपयोग में उसकी छाया आयी, प्रतिफलन हुआ अब उस प्रतिफलन में हम अपना लगाव न लगायें और यह जानें कि यह तो कर्मोदय की बात है, हो गई, यह मेरा कुछ नहीं है । उनमें अपना लगाव न जोड़ें बस यहाँ से मेरा कल्याण आरंभ होता है । तो अनुभाग खिला वह परपरिणति का कारण बना । सो निरंतर हो ही क्या रहा है कि ये कर्म उदय में आ रहे, यह छाया पड़ रही, यह जीव अपने स्वभाव से चिग गया और वहाँ छाया में आसक्तिपूर्वक लग गया ।
70―समयसार व्याख्या का प्रयोजन आत्मविशुद्धि―अमृतचंद्रसूरि स्वयं कहते हैं कि मैं यद्यपि शुद्ध चैतन्यमात्र मूर्ति हूँ लेकिन मैं रागादिक की व्याप्ति से कलुषित हुआ हूँ । तो अब उस कलुषितता की निवृत्ति के लिए अथवा कहो अनुभूति की विशुद्धि के लिए मैं इस समयसार की व्याख्या को करूँगा । इस व्याख्या के द्वारा मेरी अनुभूति परमविशुद्ध रहो, यह ही मैं चाहता हूं । जीव स्वयं आनंदस्वरूप है । इसको आनंद कहीं बाहर से नहीं लाना है, यह स्वयं ही आनंदस्वरूप है, जैसे तिल का स्वरूप ही तैल है । तिल को तैल कहीं बाहर से नहीं लाना पड़ता, ऐसे ही मेरा स्वरूप स्वयं आनंदस्वरूप है । आनंद कहीं बाहर से नहीं लाया जाता । जब कभी ऐसा ख्याल होता हि अमुक फल में सुख है, अमुक भोजन में आनंद है तो उस वक्त भी जो आनंद भोगा जा रहा है याने बिगाड़ करके जो सुख भोगा जा रहा है वह इस ही आनंदगुण का परिणमन है, कहीं बाहरी चीज से सुख न आयेगा । तो ऐसा यह मैं शुद्ध चैतन्यमात्र अमूर्त भगवत् तत्त्व हूँ, बाहर तो सब पुद्गल की छाया है, पुद्गल का परिणमन है तो शुद्ध दृष्टि से देखें तो वह पहली बात समझ में आयी कि मैं शुद्ध चैतन्यमात्रमूर्ति हूँ । व्यवहारनय से देखो याने पर्यायदृष्टि से देखें तो यह दृष्टि में आया कि मेरी यह चिन्मात्र मूर्ति रागादिक विभावों से कलुषित हो रही है, फिर और कारणरूप व्यवहार से देखो कि आखिर में इसका कारण है क्या? तो नजर आया कि मोहनीय नामक कर्म के अनुभाग का उदय है । यह है लोकस्थिति । भीतर में मैं शुद्ध चैतन्यमूर्ति हूँ, बाहर में मैं रागादिक भावों से व्याप्त हो गया हूँ, अब ऐसी स्थिति में क्या करना योग्य है सो बताओ? करने योग्य क्या है? यह कलुषता न रहे, यह आत्मा विशुद्ध-बने तो उस विशुद्धि के लिए प्रारंभिक ये उपाय हैं―देवदर्शन करना, सत्संग करना, स्वाध्याय करना, पूजन करना, सेवा भाव करना, परोपकार करना । ये सब उसके उपाय हैं कि हमारे अपवित्रता न बढ़े । उस अपवित्रता को रोकना है । तो समयसार की जो व्याख्या की जा रही है यह भी इसी प्रयोजन के लिए है कि मेरी कलुषता दूर हो जाये । और मेरे में परम विशुद्धि प्राप्त होवे ।
71―कुंदकुंदाचार्य के शैशवकाल में अध्यात्म वातावरण―कुंदकुंदाचार्य एक इस युग में प्रधान आचार्य हुए हैं, जिनके समय में समस्त दिगंबर जैन-समाज एक स्वर से उनकी आज्ञा में था । वह उस समय चतुर्विध संघ के नायक थे । उनकी अध्यात्मसाधना सहज थी । उनकी कृति है समयप्राभृत जो उस जमाने की भाषा में है । उनके जमाने की भाषा है प्राकृत, अपभ्रन्श । उस समयप्राभृत ग्रंथ पर टीका की है अमृतचंद्रजी सूरि ने । सो टीका करेंगे तब तो उसमें भाव रहता है ना लिखने का । वस्तुस्वरूप लिखने में रहता है तो उस समय में परिणाम निर्मल होते हैं, विशुद्धि जगती है, उस ही विशुद्धि के प्रयोजन के लिए यह समयसार की व्याख्या की जा रही है, ये जितने भी बड़े महापुरूष हुए हैं सो इनकी स्वयं की तो विरक्ति और योग्यता कारण है ही, मगर जिस घर में उत्पन्न हुए उस घर के बड़े पुरुषों का सदाचार तत्त्वज्ञान और उससे उत्पन्न हुआ विशुद्ध वातावरण वह भी बहुत मददगार था । कुंदकुंद जब बालक थे तो पालने में (झूलने में) झूला करते थे । तो झुलाने के लिए डोर खींचने वाली माँ ऐसा गायन करती थीं कि जिस गान में अध्यात्म का प्रकाश भरा हुआ है । शुद्धोऽसि बुद्धोऽसि निरंजनोऽसि, संसारमायापरिवर्जितोऽसि । यों बड़े मौज से, एक आध्यात्मिक मस्ती के साथ वह माँ पालना झुलाते समय गाती थी जिसका अर्थ है कि हे बालक तू शुद्ध है, बुद्ध है, निरन्जन है, संसार की माया से तू रहित है । अब देखिये―माँ की दृष्टि कुंदकुंद देव के अंत: स्वरूप पर पड़ी वह स्वरूप है ऐसा कि शुद्ध है, बुद्ध है, ज्ञानमय है, निरन्जन है और संसार की माया से दूर है ऐसा जिसके बचपन में एक शुद्धतत्त्व की अनुभूति के लिए संस्कार पड़ गया था सो कुंदकुंदाचार्य ने विरक्त होकर उसको स्पष्ट रचित कर दिया ।
72―समयसारव्याख्या के प्रयोजन में सूरीश्वर अमृतचंद्र देव के उद्गार―समयसार टीका में अमृतचंद्र सूरि यह बात बतला रहे हैं कि कैसे होता है कर्म का सन्निधान पाकर जीव के उपयोग में विकार? तो देखो जैसे किसी एक पोटली में चूना का ताजा डला बँधा है । बहुत दिन हो जायें तो समय पर या बीच में ही उस पर पानी पड़ जाये तो चूने का डला फूलता है और उसमें गर्मी भी होती है । भींट में कलई पोतने के लिए? पानी उस पर डाला । उसका विपाक हुआ, इतनी गर्मी निकली कि उस चूने में हाथ नहीं डाला जा सकता, जब कलई एकदम ठंडी हो जाये तब उसका भींट में पोतना शुरू करते हैं, तो उस पोटली में चूने का डला रखा है और उस पर पानी पड़ गया है और फूल गया है तो यह बताओ कि विकार किसमें हुआ? उस डले में । फूला कौन? डला, मगर उस डले का संबंध पाकर कपड़े में भी असर आया या नहीं? कपड़ा जल जाये, कमजोर हो जाये, दाग लग जाये, कुछ स्थिति बन गई, तो ऐसे ही हमारा उपयोग इस जीव विभाव में बँधा पड़ा हुआ है । यह कर्मों का डला, भव-भव में बाँधे हुए कर्म, इन्हीं कर्मों का जब अनुभाग खिलता है तो उसका असर कहां पड़ा ? कर्मों में ही । पर उस कर्मोदय का निमित्त पाकर जीव जिसमें कि ये कर्म बँधे हैं, अनुभाग खिला, इसके उपयोग होने के कारण विकार परिणति बन गई । जैसा कर्मों में हो रहा वैसा यहाँ झलक गया । बस जीव तो है केवल एक दर्पण की तरह जिसमें कि विपाक झलक जाये, इतनी योग्यता रखने वाला और यह जो झलक बनी, प्रतिबिंब बना उसमें यह जीव लग गया, अपनी सुध भूल गया, सो मानने लगा कि यह मैं हूँ । जैसे कोई बालक कोई नाटक खेले, किसी का पार्ट अदा करे और बड़ी कुशलता से पार्ट अदा कर रहा है तो वह उस समय भूल जाता है कि मैं अमुक लड़का हूँ । वह तो अपने आपको उसी रूप अनुभव करता है जिसका कि वह पार्ट अदा कर रहा, तो ऐसे ही यह जीव जिस प्रकार की कषाय का पार्ट अदा करता है उस रूप ही, अपने को समझ लेता है तो ऐसी मलिनता छा रही है । उसकी विशुद्धि के लिए श्री सूरीश्वर जी समयसार की व्याख्या का प्रारंभ करते हैं ।
73―अंतर में उपयोग की उपयुक्तता में उपयोग की संयुक्तता―देखो अपने को अंदर, देखो अपने को बाहर, अंदर में जो सहज है उसका कारण कुछ न होगा, बाहर में जो बीतेगा उसका कोई कारण होगा । इसीलिए तो जब उपयोग किसी बाहरी पदार्थों में लगता है तो यह उपयोग वहाँ फिट नहीं बैठ पाता, हिलना डुलना बना ही रहता है, क्योंकि उपयोग लग जाते हैं परघर में, और परघर में कोई अधिकार जमा पाता नहीं, और जब वह उपयोग अपने निजी घर में लगे याने एक चैतन्यस्वरूपमात्र मैं हूं ऐसा उपयोग बने, अनुभव बने तो इसका उपयोग अपने स्वरूप में फिट बैठ जायेगा । इससे शांति के लिए केवल एक ही काम रह गया है कि हम तत्त्वज्ञान सीखें । तत्त्वज्ञान से जब यह बात स्पष्ट हो जाती कि प्रत्येक जुदे-जुदे हैं, मैं आत्मा सब आत्माओं से जुदा हूँ, सब आत्माओं का स्वरूप एक समान है, मगर जुदे-जुदे पदार्थ हैं ये सब, मेरा किसी अन्य पदार्थ से कुछ संबंध नहीं, अन्य का मेरे से संबंध नहीं, तो एक लगाव की वासना छूट जाती है, और जहाँ लगाव की वासना छूटी बस वहाँ अपने शाश्वत आनंद का अनुभव होता है । मैं चिन्मात्र हूँ, चैतन्यमात्र हूँ, ज्ञानमात्र हूँ, ज्ञान ही ज्ञान हूँ, जपते जाइये, निरखते जाइये, ज्ञान ही ज्ञान हूँ, निरखने का यत्न करते जाइये, कब तक? जब तक कि शरीर वैभव आदिक ये सब विस्मरण को न प्राप्त हो जायें । केवल एक ज्ञानप्रकाश ही मेरे ज्ञान में रहे, ऐसा हूँ मैं शुद्ध चैतन्यमात्र मूर्ति परम निश्चय नय से, पर हो क्या रहा है? रागद्वेष के विकल्प । ये क्यों हो रहे हैं? बाह्य वस्तु का संसर्ग बनाया और उससे अपना छुटाव न कर सके, उनमें हम लगे हैं ।
74―सगुन के क्षण―जब मान होगा अपने को कि मैं यही आनंदमय हूँ उस समय इस जीव को एक अलौकिक संपत्ति अपने आप में मालूम पड़ेगी कि मैं परिपूर्ण हूँ, मैं अधूरा नहीं हूँ, मेरे में पर का प्रवेश नहीं है । दुनिया में जितने सगुन माने जाते हैं वे क्यों सगुन हैं कि उनको देखकर आत्मा की सुध होती है । बाहरी पदार्थों में मोह रहे, राग रहे तो यह सगुन है क्या? अरे यह तो असगुन है, । सगुन तो वह है कि जहाँ अपने आत्मा का प्रकाश जगे । जैसे पानी से भरा हुआ कलश लाते हुए कोई स्त्री या पुरुष दिख गया तो उसे लोग सगुन मानते । वह क्यों सगुन है? उसे देखकर अपने आत्मा की सुध हुई कि जैसे घड़ा पानी से अनवर लबालब निरंतर सघन भरा हुआ है याने उस भराव के बीच में एक सूत भी जगह पानी से अलग नहीं है, खाली नहीं है, जैसे बोरे में गेहूँ, चने आदि भर दिये जाते तो उनके बीच-बीच में खाली जगह रहती है मगर घड़े में पानी भरा हो तो वह खाली नहीं रहता । तो जैसे यहाँ बीच में कुछ भी खाली जगह नहीं है, सर्वत्र जल ही जल भरा हुआ है ऐसे ही यह आत्मा अपने सर्व प्रदेशों ज्ञान ज्ञान से ही व्याप्त है । इसमें एक भी प्रदेश ऐसा नहीं है कि जिसमें ज्ञान न हो । ज्ञानरस से ही भरा हुआ है, ऐसे ज्ञानमय आत्मा की सुध हुई तो उस जलपूर्ण घट को सगुन मान लिया । कोई मुर्दा चला जा रहा हो तो उसे देखकर लोग सगुन मानते, असगुन नहीं, तो क्यों सगुन है कि उस मुर्दा शरीर को देखकर सभी के चित्त में एक बार यह बात उठती है कि बाहर में सब कुछ असार है, कुछ भी करने योग्य नहीं है, बस एक आत्मा ही सारभूत है आत्मा का कल्याण करें, यह भव छूट जाने वाला है । तो वैराग्य जगा, ज्ञान जगा, आत्मा की सुध हुई इसलिए वह मुर्दा भी सगुन है । तो जो-जो कार्य मेरे आत्मा की सुध करायें वे तो मेरे लिए सगुन हैं और जो-जो घटनायें, जो-जो प्रसंग हमारे आत्मा को भुलावा देने में कारण हैं वे सब मेरे लिए विपत्ति हैं ।
75―शुद्धस्वरूप और उसके तिरस्कार का विधान तथा तिरस्कार का हटाव―मैं हूँ एक शुद्ध चैतन्यमात्र । केवल को देखें, वही दृष्टांत में लेवें, जैसे केवल चौकी क्या है? जो काठ में से निकाली गई, वह चौकी, अब उस पर जो सही रंग है वह उसका असली रंग है, निरपेक्ष रंग है, और उस पर लाल, पीला आदि कोई रंग पोत दिया गया तो जो उसका असली स्वरूप है वह ढँक गया, तिरस्कृत हो गया । अब वह चौकी तो एक अजीव पदार्थ है, उसका तिरस्कार हो जाये तो वह आफत नहीं मचा सकता, मगर जीव तो एक चैतन्य है ना । तो चेतन का असली स्वरूप तो एक शुद्धचैतन्य सामान्य है, प्रतिभास हो गया सब, मगर उसमें वह अच्छा है, यह बुरा है, यह इष्ट है, यह अनिष्ट है ऐसी बुद्धि नहीं बनती । तो ऐसा जो सामान्य चैतन्यप्रकाश है वह है उसका असली स्वरूप । मगर जब कर्मानुभाग बड़ा क्षोभ मचाता हो, अपने आपमें बड़ा विरस बनता हो तब सामने आया कर्मानुभाग, तो चूँकि जीव उपयोगमयी है ना, ज्ञान स्वरूप है ना, तो इसमें उस सबकी झलक पड़ी । झलक पड़ने से ज्ञान का तिरस्कार हुआ । ज्ञान का तिरस्कार होने से यह जीव घबड़ाकर आफत मचा देता है, विषयों में लगता है, अनेक आपत्तियाँ पैदा कर देता है । तो भाई अपना स्वरूप जो अपने स्वभाव में सहज सुसिद्ध है चैतन्यमात्र, उसमें अनुभव करें कि यह मैं हूँ तो इस अनुभूति के प्रसाद से इस जीव को कभी संकट नहीं आ सकता । भव-भव के बाँधे हुए कर्म क्षण मात्र में कट सकते हैं । अत: इस जीवन में कर्तव्य यह है कि मैं अपने आत्मा के स्वरूप का सही अनुभव कर लूं । मैं यह हूँ, बस कृतकृत्य हूँ । जब तक अपने आत्मा की थाह नहीं पायी तब तक इसका जन्म मरण का संकट चलता है, और जहाँ आत्मस्वरूप का भान हुआ वहाँ इसके जन्म मरण के संकट दूर होने लगते हैं । तो अपना कर्तव्य है कि अपने को ऐसा अनुभव करें कि मैं समस्त विश्व से निराला केवल चैतन्यप्रकाशमात्र हूँ ।