वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 37
From जैनकोष
वर्णाद्या वा रागमोहादयो वा भिन्ना भावा: सर्व एवास्य पुंस: ।
तेनैवांतस्तत्त्वत: पश्यतोऽमी नो दृष्टा: स्युर्दृष्टमेकं परं स्यात् ।।37।।
342―वर्णादिक व रागादिक भावों का आत्मा से पार्थक्य―वर्णादिक भाव हों अथवा मोहादिक भाव हों, ये सभी के सभी इस पुरुष से अर्थात् आत्मद्रव्य से न्यारे हैं, इस अंतस्तत्त्व से जुदे हैं इस कारण तत्त्वदृष्टि से अपने अंतर में देखने वाले ज्ञानी पुरुष के लिए ये सब दृष्ट ही नहीं होते । मात्र एक चैतन्य स्वभाव ही दृष्टिगत होता है । जगत में सर्वोपरि तत्त्व क्या है? बस यही समयसार, कारण समयसार जो अपने आपके अंत: जैसा है, उसकी निरखन तो करो । सर्वसिद्धि सर्व समृद्धि इसी को दृष्टि में, इसी के आलंबन में है । बाहर का पहले भ्रम छोड़ दो । मुझको घर से सुख है, कुटुंब से सुख है, पार्टी से सुख है, मित्रों से सुख दै, ये सब बातें ये सब विकल्प त्याग कर जरा हृदय को स्वच्छ बनाओ । हृदय में अन्य कोई बात न बसे । मैं आत्मा हूँ, मेरे को कल्याण चाहिए । मेरे को मुझमें कल्याण मिलेगा । केवल एक आत्मत्व का नाता रखकर सुनो, देखिये-अपने आपमें एक बार तो उस विशुद्ध अंतस्तत्त्व का अनुभव तो कर लीजिए । अच्छा लो चलो―आज एक यह ही आग्रह करो कि मुझको अपने आपके इस सहज स्वरूप के दर्शन करना है । एतदर्थ अन्य सबका कितना अपोहन करना होगा, विकल्पों का कितना बलिदान करना होगा, उपयोग में कोई दूसरी बात न समा सके । अगर कोई दूसरी बात चित्त में आती है तो यह बेकार है, असार है, झंझट है इस तथ्य का पहले निर्णय कर लीजिये । बाह्य समस्त भावों के झंझटपने का निर्णय होने पर उनमें उपयोग न बसेगा । ये जगत में दिखने वाले वर्णादिक? शरीर हैं, कुटुंबी हैं ये क्या तेरे आत्मा में गड़े हुए हैं? तेरा सत्त्व तुझमें है, इनका सत्त्व इनमें है । इनके द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव का परिणमन इनमें चल रहा । अरे ये तो तेरे रागादि विकार के लिए कारण भी नहीं हैं । तू कारण समझ रहा । इस परिवार के कारण मुझको कष्ट है, इसने मुझे क्रोधी बना दिया, अरे ये तो कारण भी नहीं होते । इनमें कारणपने का उपचार होता । जितने ये बाध्य आश्रयभूत कारण हैं ये निमित्त नहीं, निमित्त के नोकर्म हैं, नैमित्तिक के बाह्य साधन हैं, विषय है । सो बाह्य साधन भी कब बने, जब हमने इनमें उपयोग जुटाया तब बाह्य साधन बने । ये सारे बाह्य प्रसंग, ये तो मेरे लिए कुछ भी नहीं है । इनसे चित्त हटावे । मेरे को यात्रा भविष्य की बहुत पड़ी है, उस यात्रा में कोई काम देगा क्या? बोलो है कोई साथी जो हमारी भावी यात्रा में साथ रहे? जब हमारे भविष्य की यात्रा में साथ रहने को कोई है ही नहीं तो थोड़े जीवन के इन समयों में इन भिनभिनों को, भिन्न भिन्नों को अपना साथी, अपना सर्वस्व मानकर क्यों यह जीवन व्यर्थ गमाया जा रहा है? जरा उन सबसे अपना उपयोग हटाओ ।
343―अंतर्निरीक्षण―अब जरा अंदर में विहार करो । अंत: क्या परिस्थिति है? अंत: परिस्थिति यह है कि अनादिकाल से जीव कर्म से बँधा हुआ चला आ रहा है, और जब-जब कर्म बँधे तब-तब इनमें प्रकृति, स्थिति, प्रदेश, अनुभाग ऐसा चार प्रकार का बंधन बन गया था । जब इनका उदय होता है, स्थिति पूरी होती है तो ये कर्म अपने आपमें अनुभाग को खिलाते हुए एक भयंकर अवस्था को रखते हुए ये निषेक उदय में आते हैं, मायने एक भयंकर अवस्था को रखते हुए ये निषेक उदय में आते हैं मायने एक भयंकर अवस्था को धारण कर बिखर जाते हैं । उस समय होता क्या है? इस आत्मा में उसका प्रतिफलन होता । इसके बाहर रहने वाले ये ज्ञेय पदार्थ इनमें उपयोग जुटाते तब यह ज्ञान में आते, मगर निमित्त नैमित्तिक बंधन यहाँ ऐसा है कि ये कर्म अज्ञात है, इन्हें एकेंद्रिय, दो इंद्रिय कहाँ जानते? और बहुत से मनुष्य भी कहाँ जानते कि ये ज्ञानावरण हैं, ये दर्शनावरण हैं, 8 कर्म हैं, दर्शन मोह, चारित्र मोह, इनका कुछ पता है क्या? अरे अज्ञात होकर भी ये प्रतिफलित होते हैं । यहाँ की विशेषता ही यह है ये बाहरी पदार्थ तो ज्ञात होकर प्रतिबिंबित होते, और यह कर्मरस, कर्म अनुभाग, ये अज्ञात होकर भी प्रतिफलित होते । यह ही तो जीव की विवशता अब तक रही, नहीं तो अनादि काल से क्यों भटक रहा इस संसार में? क्यों नहीं इसने पहिले से ही अपने को जाना? क्यों नहीं इसने अपना सुधार कर लिया । आज हम आप जो कर्मरस को निराला देख रहे हैं और अपने इस चैतन्यस्वरूप को अपने स्वभाव में निरख रहे हैं, यहाँ विवशता कैसे रहे? मिट गई ना? क्षयोपशमलब्धि मिली, विशुद्धलब्धि हुई, देशनालब्धि हुई, प्रायोग्यलब्धि हुई और अधःकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्ति करण हुए और इन भव्यों ने केवल निजस्वरूप को ही उपयोग में रखा था, इन करण किरणों में तपन ऐसी विशिष्ट हुई कि ये अनंतानुबंधी आदिक बड़े-बड़े अनुभाग वाली प्रकृतियाँ तड़तड़ करके टूटी । उनमें कैसा हलचल मचता, यह जिनेंद्र देव की वाणी में भली प्रकार दर्शाया गया है । कैसी-कैसी बात है, यह लंबा विस्तार है, उसे यहाँ न कहकर यह जानें कि उनमें जो हलचल हुई, अनुभागखंडन हुआ, स्थितिखंडन हुआ, बंध कम रहा, प्रकृतियां बदल गई, उपशांत हो गई, यह काम वहाँ हुआ, यहाँ के इस विशुद्ध परिणाम का निमित्त पाकर और वहाँ यह हुआ उपशम, तो उसका निमित्त पाकर जीव ने अपने आप में एक ऐसी निर्विघ्न अलौकिक अवस्था पायी कि स्वानुभूति हुई, जाना सहज सिद्ध अपने आपको ।
344―ज्ञान प्रकाश में अंतर्बाह्य जगत की असारता का प्रतिभास―जहाँ केवल एक चैतन्य मात्र अंतस्तत्त्व ही दृष्टि में रहा उस समय जो इसे अद्भुत आनंद जगा उसका अनुभव करने के बाद यह सारा जगत प्रकट असार बेकार नजर आने लगता है । किसको देखना? किसमें लगाव रखना? सब एक समान परद्रव्य हैं । मैं एक यह चैतन्यस्वरूप, यह ही अंतस्तत्त्व हूँ, जब तक मिथ्यात्व का अनुभाग था तब तक उसके प्रतिफलन में यह जीव एकत्व बुद्धि रखता था कि मैं यह हूँ, कैसी एकत्व बुद्धि? जैसे कहा जाये―घड़ा किसे कहते हैं? जो ऐसा कंबुग्रीव नीचे कम, बीच में चौड़ा, ऊपर कम, फिर मुख उठा हुआ, वहाँ बढ़ा हुआ ऐसा जो कंबुग्रीव आकार जिसमें पाया जाये वह घड़ा । अच्छा जरा आकार को यहीं रखा रहने दो, घड़ा ले आओ तो ला सकते क्या? अच्छा, घड़ा वहीं बना रहने दो और उसका आकार मेरे हाथ पर रख दो, तो रख सकते क्या? अरे घड़ा और घड़े का आकार ये दोनों कोई भिन्न-भिन्न चीज नहीं । यह तो कोई समझदार ही बता रहा कि घड़े में ऐसा आकार है, नासमझ तो इतना भी विश्लेषण नहीं करता, आकार में अभेद जैसे घड़ा, ऐसे ही मिथ्यात्व के प्रतिफलन में अभेद उपयोग वाला यह है मिथ्यादृष्टि, वहाँ यह नजर नहीं आता था कि यह जीव भिन्न है, कर्मरस भिन्न है, मैं वहाँ कोई जुदा अंतस्तत्त्व हूँ । अब 5 लब्धियों के प्रसाद से मिथ्यात्व क्षीण हुआ । आज यह जान रहे हैं, जो कुछ बचा खुचा चारित्र मोह का उदय चल रहा है, यह चारित्र मोह का उदय उसका भी प्रतिफलन हो रहा है, यह कर्मरस है, कर्मरस की झाँकी है, मैं तो ज्ञायक हूँ ।
345―निमित्त नैमित्तिक भाव और ज्ञान वैराग्य का प्रभाव―देखिये―जब जब कर्म प्रकृति का उदय है तब-तब उपयोग में प्रतिफलन है उसे कोई दूर नहीं कर सकता, अनिवारित है, निमित्त नैमित्तिक भाव से हो रहा है, अब यह सम्यग्दृष्टि है । चारित्र मोह का प्रतिफलन उतने पूरे रूप में सफल न होने देना सम्यग्दृष्टि के कमाल की बात है, उसमें ऐसा ज्ञान और वैराग्य जगा कि चारित्रमोह का प्रतिफलन हो रहा और उस प्रतिफलन को यह जान रहा कर्मरस, मेरा स्वरूप नहीं । मैं इससे अत्यंत पृथक् हूँ । जैसे ज्ञानी जान रहा है कि दर्पण में सामने की रंगीन चीज के आने पर दर्पण में प्रतिफलन हुआ, मगर वह प्रतिफलन जुदा है, निराला है, नैमित्तिक है, दर्पण के ही स्वभाव स्वच्छता से केवल निकला हुआ नहीं है; ऐसे ही ज्ञानी जानता है कि चारित्र मोह का उदय है अनुभागरस खिला है, प्रतिफलन हुआ है, यह जुदा, मैं जुदा, ऐसा ज्ञान कर रहा है और उस ज्ञान वैराग्य के कारण जितने अंशों के अनुभाग में आकर ये कर्म प्रतिफलित हुए उसके पूरे अनुरूप भी बंधन नहीं, तथा जितने में स्वभावघाती होना चाहिए था उस प्रतिफलन के अनुरूप, सो अनुरूप हो तो रहा मगर इसके ज्ञान और वैराग्य परिणामों ने ऐसी बाधा डाली कि वहाँ नवीन कर्म कम बंध रहा । अब यहाँ का संघर्ष एक आदर्श संघर्ष है, चारित्र मोह प्रतिफलित होता है, चारित्र मोह जूझता है, बंध तो होता है मगर अनुरूप बंध नहीं होता । ऐसी छाँट होते-होते स्थिति आती है कि उदीरणा निर्जरा अधिक और बंध कम होने लगता है । रही सही सत्ता भी इस संघर्ष में दूर हो जाती है । करणानुयोग के अध्ययन में जब श्रद्धा सहित अध्ययन चलता, सर्वज्ञ की वाणी, सर्व का ज्ञाता, आचार्यजन जब इतना ज्ञान बखान रहे हैं तो एकदम विशिष्ट श्रद्धा बनती है । स्वभावस्पर्शी ज्ञान भी बनता है, कर्मों में बड़ी हलचल मचती । वहाँ कर्मों का नाश होता है । यहाँ कहीं दया की बात नहीं हैं वे सब कर्म अजीव हैं, अपने आपके स्वभाव की ओर आओ । देखो जिस विशुद्धि के प्रताप से वहाँ अपने आप कर्मरस सूख गया, सूख रहा, उस विशुद्धि का उपयोग न बिगाड़ो, जरा अपनी ओर आओ, थोड़ी देर भी देखो ना अपने आपके अंदर, देखो यह कर्मरस निराला एक चैतन्य शक्तिमात्र अंतस्तत्त्व हूँ । बाहर जो है सो वह भी है । व्यवहार का विरोध करके अंतस्तत्त्व के दर्शन में जानने की सूझ वाला दर्शन का विरोधक है ऐसा विरोधक आत्मानुभव का पात्र नहीं, क्योंकि उसके सम्यग्ज्ञान भी नहीं । वह तो एक अंधेरे में पड़ा हैं वहाँ ज्ञानी जब बाहर देखता है, बात यों हो रही है परस्पर निमित्त नैमित्तिक भाव में, पर मुझको प्रयोजन वहाँ नहीं जच रहा । मेरी दृष्टि तो यहाँ ही गड़ रही है । बाहर तो सब निपट जायेगा जो हो जिसकी परिणति ।
346―ज्ञान प्रकाश में निमित्त नैमित्तिक भाव का मोड़―देखो भैया पहिले निमित्त नैमित्तिक भाव से बँध गए थे कर्म, किंतु अब यहाँ के निमित्त नैमित्तिक भाव का मोड़ दूसरा हो गया । निमित्त नैमित्तिक भाव यहाँ भी हटा नहीं । जगत में निमित्त नैमित्तिक भाव अनादि से अनंतकाल तक समस्त द्रव्यों में प्रवर्तमान है, पर मोड़ की बात समझिये, अब यहाँ मोड़ दूसरा आ गया । पहला मोड़ था दर्शन मोह के उदय से मिथ्यात्व का उदय आया और यह उसमें एकत्व बुद्धि करता था, मैं यह हूँ, जैसे आकार जुदा नहीं, घड़ा जुदा नहीं, वे एक हैं, इसी तरह अज्ञानी जीव दो पदार्थों को एक नहीं बना रहा, किंतु उसे दो की खबर नहीं, अपने आत्मा की सुध ही नहीं वह तो उस अंधेरे को मानता मैं । झट कोई बात हुई, कोई दोस्त से लड़ने लगा तो कहता देखिये घबड़ाइये नहीं, मैं आया । क्या उसकी दृष्टि में यह है कि यह चैतन्य स्वरूप मैं आया, अरे वह तो उस अंधेरे को ही समझ रहा मैं । अपनी दृष्टि नहीं की कि मैं क्या हूँ । अच्छा, गई, बिगड़ी बात को छोड़िये । स्वतत्त्व पर अब दृष्टि दें । अब यहाँ का आलंबन बनावें, इस परमार्थ अखंड विशुद्ध निरपेक्ष चैतन्यशक्तिमय अंतस्तत्त्व की दृष्टि बढ़ावें । बनावें ईमानदारी से एकरस होकर अपना काम ।
347―निमित्तनैमित्तिकभाव होने पर भी वस्तुस्वातंत्र्य―कर्मरस, कर्मलीला यह पर है, नैमित्तिक है, औपाधिक है, आ गया, झलका है, यहाँ यह बात नहीं है कि जब राग होता है तो उदय खड़ा हो जाता है । ऐसा नहीं हैं कि जब दर्पण में प्रतिबिंब होने को होता है तो लाल कपड़ा खड़ा हो जाता है । दुनिया जानती है । ऐसा जानने में हम उस प्रतिबिंब से न्यारा दर्पण को कभी नहीं समझ सकते । दर्पण में दर्पण की योग्यता से प्रतिबिंब आया, आ रहा, बाहरी चीजें खड़ी हो तो, न खड़ी हो तो, वह तो आ रहा । खड़ी हुई, ऐसी जीभ भी क्यों हिलाई जा रही है? क्या कुछ डर लग रहा? एकदम नाम कैसे मिटा दें? अरे घबड़ाने की बात नहीं जब ऐसा योग जुड़ता है कि दर्पण के सामने पदार्थ आता है, रंगीन कपड़ा आता है, निमित्त नैमित्तिक योगवश स्वयमेव ही यह दर्पण अपने आपकी योग्यता से अपने आपमें प्रतिबिंब के आकाररूप परिणम जाता है, उस कपड़े ने नहीं परिणमाया उस दर्पण के प्रतिबिंब को । मगर योग ऐसा ही हुआ करता जैसा कि हम आंखों देखते । तो देखो निमित्त उपादान की कभी किसी अवस्था का कर्ता नहीं है, पर निमित्त का सन्निधान पाकर दर्पण ने अपनी कला खेल डाली । दर्पण ने अपनी इस तरह की कला को सामने की चीज का सन्निधान पाये बिना नहीं खेला । किया किसी ने कुछ नहीं, सब द्रव्य अपने-अपने स्वरूप में हैं, मगर यह एक उपादान की विशेषता है । वह निमित्त तो अपने आपमें जैसा है । वैसा उपस्थित भर है, यह पर में कोई क्रिया नहीं कर रहा । वह अपने द्रव्य क्षेत्र काल में बना हुआ केवल हाजिर मात्र है वह दर्पण में कोई परिणति नहीं कर रहा, मगर निमित्त नैमित्तिक योग ऐसा है कि उसको सामने पाकर यह दर्पण अपनी लीला से, अपनी कला से, अपनी योग्यता से यह खेल खेल बैठा, पर जरा देख तो लो, जरा उस कपड़े को हटाओ तो इसका खेल मिट गया । अब यह दर्पण अपना खेल नहीं खेल रहा । देखो इस तरह से समझने पर यह भी तो ज्ञान में आ रहा होगा कि दर्पण में जो प्रतिबिंब है वह दर्पण की निज की चीज नहीं हे । जानने का तो यह प्रयोजन है कि ये रागादिकभाव जो कुछ भी उठ रहे हैं ये मेरे आत्मा को चीज नहीं हैं, यह समझ में आये ताकि इन विभावों से हटकर हम अपने स्वभाव में निर्विघ्न रूप से लग जायें और अपने को स्वभावरूप अनुभव करें । तो यह ज्ञानी निरख रहा है, हँस रहा है, कर्मरस है यह । और की तो बात क्या, कितना सावधान है वह ज्ञानी, चरित्र मोहनीय के उदय में वह विषयों में प्रवृत्त भी होता है, प्रवृत्त हो रहा, तथापि प्रवृत्ति के समय भी सावधानी रखता है । अरे कर्मरस है यह, लग रहा मगर हृदय यह कह रहा कि हमको स्वभावदृष्टि मिले, इन भोगों का भोगना छूटे, मगर इसके सामने परिस्थितियाँ कुछ ऐसी हैं कि वह अरत है तो भी छोड़ नहीं सकता । उनके बीच रहना पड़ता । जैसे कोई रोगी पुरुष दवाई पी रहा है, दवाई समय पर न आये तो वह झुंझला भी जाता है, मगर वह दवाई पी रहा इसलिए कि यह दवाई मेरी जल्दी छूट जाये, दवाई कब छूट जाये उसके चित्त में यह बात बसी है । इसलिए इस परिस्थिति में उसे दवा भी पीनी पड़ रही है । उसका यह भाव नहीं है कि ऐसी दवा मुझे जिंदगी भर मिले । दो समय मिले चार समय मिले । उस दवा के प्रति उसे रूचि नहीं है मगर पीनी पड़ती है उस दवा को छोड़ने के लिए । यह बात अपनी ईमानदारी की है । भैया, गप्प करने से सिद्धि नहीं मिलती । अगर अपने ज्ञानस्वभाव का दर्शन हो जो कि विभावों के असहयोग पूर्वक हो सकता तो ही अपने क्षणों की सफलता समझिये ।
248―विभावों से असहयोग व स्वभाव के आग्रह का पाठ लेकर शेष समय उपयोग भूमि को अध्यात्म शाला बनाने का सुझाव―विभावों का कुछ भी सहयोग लाभदायक नहीं हो सकता और विभावों का असहयोग तब ही जीव कर सकता है जबकि कर्मों का यथार्थ निमित्त नैमित्तिक योग का परिचय पाये । ये विभाव ये मेरे चैतन्य रस से उठे हुए भाव नहीं है, यह कर्म की झलक है । और बड़ी विकट झलक तो बिलकुल खतम हो गई जिससे कि मोह उत्पन्न होता था, लेकिन अब यह झलक, इसका सन्निधान पाकर कुछ क्षोभ तो हो रहा, पर यह क्षोभ भी डगमगाता हुआ क्षोभ है, क्योंकि ज्ञान और वैराग्य का इस ज्ञानी में ऐसा विशिष्ट बल है कि इस क्षोभ से भी अंतर में आकुलित नहीं होता । हो तो रहा, पर ज्ञान वैराग्य, श्रद्धा इनके बल से अंदर में आकुलित नहीं होता । भाई असहयोग करें । समझो यह है पाठशाला, मनन करने की जगह होगी आपका घर, अध्यात्मशाला आपकी दुकान, आपका गुशलखाना, आपके टहलने का क्षेत्र आदि सभी चीजें । वे सब हैं अध्यात्मशाला । कहीं भी स्थिर आसन से बैठ गए और भावनायें भा रहे, अंत: दृष्टि बना रहे, अंतःदृष्टि बनाने के साधन जुटा रहे, कदाचित् नहीं भी बन पा रही अंत:दृष्टि और देखो घर में पड़े हैं, मगर कहो किसी दिन अचानक ही आपकी यह दृष्टि बन जाये, आपका सारा समय कहो अध्यात्मशाला का बन जाये । पता नहीं कब किस क्षण अपने आपकी दृष्टि जग सकती है । देखो यह सब कर्मरस, सब कर्म लीला मुझसे भिन्न है । मैं हूँ एक चित्शक्ति से व्याप्त है सर्वस्वसार जिसका ऐसा यह निरपेक्ष अंतस्तत्त्व । अन्य सब कुछ मेरा नहीं, वर्णादिक मेरे नहीं, और रागद्वेषादिक मेरे कुछ नहीं ।
349-आत्मा के रूपादिकवत्त्व का तथा रूपादिक गुण रूपत्व का अभाव―थोड़ी कुछ शंका सी होती है कि ये रूप, रस, गंध, स्पर्श आदिक मेरे कैसे नहीं है? तहसील में तो रजिस्ट्री भी है मकान की, देखें इसे कौन छुड़ा लेगा, वह तो मेरा ही है । कैसे मेरा नहीं? अरे भैया प्रभु के ज्ञान में रजिस्ट्री करा सको तो आपका काम पक्का हो पायेगा । यहाँ की रजिस्ट्री काम न देगी । जबरदस्ती करो, लड़ों,, कुछ करो, जब तक यह भव हैं तब तक मजा लेते रहो, उसका निर्णय हो जायेगा मरने के बाद । यह रजिस्ट्री कुछ नहीं है । ये रूपादिक मेरे कुछ नहीं लगते । क्यों नहीं लगते मेरे ये रूपादिक ? रूप क्या? पुद्गल द्रव्य । अभेददृष्टि से देखें तो रूप मायने क्या है? पुद्गल । क्या मैं पुद्गल द्रव्य हूँ जो मैं यह समझूँ कि रूप मैं हूँ, शरीर का रूप देखकर झट विचार बना लेते कि रूप मैं, यह मैं गोरा, यह मैं काला, यह मैं साँवला आदि, यही मैं हूँ । अरे यह तो पुद्गल द्रव्य है, तुम पुद्गल द्रव्य नहीं हो, तुम रूप गुण वाले नहीं हो । तुम रूप गुण से न्यारे हो । अपने चैतन्यरस को देखो―मैं चैतन्य स्वरूप हूँ, मैं पुद्गल नहीं । अच्छा, भाई न सही पुद्गल, पर मैं रूप तो हूँ खुद । मैं रूपवाला न सही, पर मैं रूप तो हूँ । अरे क्यों भ्रम करते, जब रूप वाले तुम नहीं हो तो रूप कैसे? रूपवाला तो पुद्गल होता । तुम पुद्गल ही नहीं तो रूप कैसे बन जावोगे?
350―इंद्रियों के आलंबन से रूपादि हेतु की रूपादिक से संबंध सिद्ध करने की अशक्यता―शंकाशील पुरुष भीतर उत्सुकता मचा रहा है-अरे अरे रूप कैसे नहीं हूँ? देखो मैं इन इंद्रियों के द्वारा देखा करता हूँ, तो इन रूपी इंद्रियों ने ही तो दिखाया, रूपी ही ने दिखाया । रूप देखा, मैं कैसे रूप नहीं हूं? ऐसे शंकालु को आचार्य समाधान देते हैं-अरे अरे वही पहली वाली गलती अब भी कर रहे । अरे द्रव्येंद्रिय तुम नहीं हो, और जो यह भ्रम लगा रखा है कि इन द्रव्येंद्रियों के द्वारा मैं रूप देख रहा हूँ तो यह बात नहीं है । ये इंद्रियां तो एक खिड़की का जैसा काम करती है । जैसे एक मकान में खिड़की हो, अब कोई पुरुष बाहर की चीजों को जान पाता है तो खिड़की से देखकर जानता है, तो बताओ वह जानने वाला उस खिड़की से चिपक जाये क्या? उसे गले से लगा ले क्या कि ऐ खिड़की तुम बड़ी प्रिय हो, तुमने हमें बाहर की चीजों का ज्ञान करा दिया? अरे ज्ञान करने वाला तो पुरुष है, वह चारों ओर से देख लेता, मगर यह कारागार में बँधा पड़ा है, ऐसा कारागार है कि वह सब ओर से देख नहीं पाता, ऐसी बेड़ी है कि वह चारों ओर से चीजों को जान नहीं पाता । खिड़की कोई मिल गई तो जान लिया कि ऐसी चीजें पड़ी है । ऐसे ही यह जीव इस शरीर कारागार में बद्ध है । और यही क्या? वह जो ज्ञानावरण आदिक का उदय, क्षयोपशम है, उसमें जितना जो कुछ ढंग बन रहा वैसा उस कारागार में बद्ध है, वह सब ओर से नहीं देख सकता । जो कारागार से मुक्त है भगवान वे सब ओर से देखते, हम आप सब ओर से नहीं देख पाते । अभी हमारी कैद पूरी होने की स्थिति नहीं है । कैद जब छूट जायेगी तो मैं सब ओर से जानूंगा, इस समय जहाँ खिड़की मिली उससे ताक लेता हूँ । ये भिन्न-भिन्न खिड़की । देख लिया । इस द्रव्येंद्रिय के द्वारा तुम जानते नहीं, उससे रुचि छोड़ो, ये तुम नहीं । अरे इस तरह भी तो हम रूप से संबंध रखने वाले नहीं हुए । अच्छा, चलो, इसे छोड़ दो लेकिन हम अंतर में इस भावेंद्रिय के द्वारा तो जान रहे । द्रव्येंद्रिय जड़ हैं, इनके आलंबन से जानना नहीं होता उस रूप का, रस का, मगर ये जो भावेंद्रिय हैं, जो अभी प्राण है मेरा, उस भावेंद्रिय द्वारा तो मैं सब कुछ रूपादिक को तो देख रहा हूँ । कैसे कहते कि तुम्हारा रूप से जरा भी संबंध नहीं? अरे संबंध तो है क्यों बहकाते हो? देखो ना इस ज्ञान के द्वारा भीतर में, इस भावेंद्रिय के द्वारा हम इन सब की परख कर रहे हैं....अरे भाई नहीं है ऐसा तुम अपने घर से बहुत ज्यादा दूर निकल गए, बाहर भटक रहे, सो तुम जगह-जगह भ्रम बना रहे हो । यहाँ भावेंद्रिय के द्वारा भी तुम्हारे जानने का काम नहीं है । तुम्हारे में क्षायोपशमिक भाव होना स्वभाव नहीं, यह एक परिस्थिति है, और उस परिस्थिति में यह काम करना पड़ रहा है । कैदी भी तो परिस्थिति में चक्की भी पीसता, खेत भी तो जोतता, दरी भी बुनता, रस्सी भी बटता, और बिजली के पंखे न थे तब कचहरी में जज के ऊपर लगे हुए लंबे पट्टपट के पंखे की रस्सी भी खींचता, उसकी वे सब परिस्थितियाँ हैं, ये सब काम बन रहे हैं मगर ये तेरे स्वरूप नहीं, स्वभाव नहीं, इस तरह भी तू रूप को नहीं जान पाता, रूप से तेरा संबंध नहीं है ।
351―रूपादिसंवेदन से रूपादिक का आत्मा से संबंध सिद्ध करने की अशक्यता―अच्छा चलो, इससे भी संबंध न सही, मगर इतना तो अनुभव है ना कि मैं तो रूप को जान तो रहा हूँ । रूप को जानने के कारण तो मुझमें रूप आयेगा ना? कैसे तुम कहते कि रूप से संबंध नहीं अरे चैतन्यरस की सुध भूलकर बाहर में दिमाग लगाने वाले पुरुषों ! जरा यह तो जानो कि क्या केवल तुम रूप को ही देख रहे हो? अरे तेरे में तो सर्व कुछ ज्ञात हो रहा है । तू तो सर्व का जाननेवाला है तो क्या मैं यह कह दूं कि मैं विश्वात्मक हूँ ।....हाँ कह दो कुछ परवाह नहीं । थोड़ी दृष्टि दो । अपने ज्ञान के विश्वात्मक होने में खराबी नहीं, भगवान भी तो ऐसा बन रहे है । समस्त द्रव्य आक्रमण करते हुए की भांति सब झलक रहा है, मगर ऐसे काल में सारा विश्व ज्ञान में आ जाये यह कैसे हो सकता? जैसे कोई पुरुष मात्र एक अपनी स्त्री में राग कर रहा, बाकी सबका राग छोड़ दिया । अब यदि वह कहे कि मैं तो अब सच्चा सम्यग्दृष्टि बन गया, सिर्फ एक खुद की स्त्री भर का राग रह गया, जिस दिन उसका भी राग छूट गया, बस मेरा कल्याण हो जायेगा तो उसका यह कहना केवल कहना मात्र है । यह संभव है कि जब एक स्त्री में राग है तो वह अधिक तीव्र राग रहेगा और जब राग को अनेक जगह फैला दिया तो खुद की स्त्री में भी कम राग रहेगा । राग फैलकर सूख भी सकता है । अरे कल्याण चाहिए तो सबका राग छोड़ो । अभी तुम उस एक को ही तो नहीं जान रहे, तुम एक रूप को ही तो नहीं समझ रहे । तुम तो सबके ज्ञाता हो । सब कुछ जान सकते हो । सकल साधारण सम्वेदन है, इसमें तुम रुचि करो न कि “मैं रूप हूँ क्योंकि मैं रूप को जानता हूँ” । अच्छा ऐसा न सही, मगर जिस समय मैं रूप को जान रहा हूँ, यही जान रहा हूँ, तब उस रूप के ज्ञान में परिणत हो गया ना मैं, ज्ञान बन गया ना यह सारा रूपाकार ज्ञान बन गया । जब जान रहे है तब जब जिस चीज को जान रहे है, तब इस प्रदेश में ज्ञान में ज्ञेयाकार परिणति हो गई ना । अरे-अरे यहाँ भी समझो इतनी बात । यहाँ मेरा कुछ है ऐसी बात मुख से मत निकालो । समस्त ज्ञेय और यह एक ज्ञायक इनका त्रिकाल भी तादात्म्य नहीं होता है । और प्रसंग चलते-चलते भी वह जानन प्रति पर्याय में जुदा-जुदा चलता है । उससे समस्त ज्ञेयों के साथ भी रंच भी तादात्म्य नहीं बन रहा है । तू इस कल्पना को छोड़ दे कि मेरा रूप, मेरा कुछ, पुद्गल मेरा कुछ, अन्य मेरा कुछ । किसी का नाम लेकर कह दिया कि फलाने लाल बहुत अच्छे है तो देखो रुचि हो गयी शब्द में । अरे यह शब्द तू नहीं है । उसमें तू क्यों बहक रहा? तू तो इन सबसे रहित एक चैतन्यशक्तिमात्र उस अंतस्तत्त्व को देख और कुछ क्षण अन्य कुछ दृष्टि में न रख, एक इसी अंतःस्वरूप को दृष्टि में रख । जब कि और कुछ भी दिखे ही नहीं केवल वही-वही दृष्टिगत हो, बस ऐसे क्षण मेरे सदाकाल व्यतीत हो, भीतर से आवाज हो ।