वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 49
From जैनकोष
व्याप्यव्यापकता तदात्मनि भवेन्नैवातदात्मन्यपि, व्याप्यव्यापकभावसंभवमृते का कर्तृकर्मस्थिति: । इत्युद्दामविवेकघस्मरमहो भारेण भिंदंस्तमो, ज्ञानीभूय तदा स एष लसित: कर्तृत्वशून्य: पुमान् ।।49।।
482―निर्मूल कलह की आलोचना―जैसे कभी घर में, पड़ोस में, कोई झगड़ा खड़ा हो गया हो और उसकी कोई जाँच करने लगे तो जाँच करने पर यह पता पड़ता है कि जड़ में बात तो कुछ न थी, कोई खास बात न थी मगर यह सब इतना बड़ा झगड़ा बन गया, ऐसे ही जब यथार्थ दृष्टि से अपने आत्मा में देखो तो यद्यपि झगड़ा इतना बढ़ गया कि यह जीव जन्म-मरण कर रहा, भव-भव में भटक रहा, नये-नये शरीर पा रहा, नाना संकल्प विकल्प हो रहे, दुःख ही दुख, जिसको सभी लोग कहते―संसार में दुःख तो है मेरू पर्वत बराबर और सुख है सरसों के दाने बराबर । इतना बड़ा झगड़ा हो गया है, पर कोई ज्ञानी पुरुष इसकी जाँच करने बैठे कि बात क्या है, क्यों इतना झगड़ा, इतनी विडंबना बढ़ गई । तो यही अध्यात्म दर्शन में दिखाया जा रहा है कि आत्मा में बात क्या है? क्या गुजर रहा, किस तरह गुजर रहा, तो देखिये यहाँ प्रसंग यह बताना है कि कौन किसका कर्ता है? बस इतनी आलोचना में, इतने ही परीक्षण में सब निर्णय बन जायेगा कि कौन किसका कर्ता है । पहले कर्तापने की परिभाषा निर्धारित करें । असल में कर्ता वह हैं जो तन्मय हो और उस परिणति का स्वामी हो ।
483―व्याप्यव्यापक भाव की संभवता के बिना वास्तविक कर्तृकर्म स्थिति की चर्चा करना उपहास मात्र―जैसे कहते न कुम्हार ने घड़ा बनाया, अब इस समय में दो बातें सामने आती हैं―मिट्टी का घड़ा बना या कुम्हार का? उस घड़े का कर्ता मिट्टी है या कुम्हार? देखिये―उत्तर तो दोनों है, सो उपादान व निमित्त की दृष्टि से दोनों आते हैं यह भिन्न-भिन्न प्रकार से समझना है, घड़े का करने वाला कुम्हार कहा गया है, सो वह निमित्त रूप से है । कहीं कुम्हार ही घड़े रूप नहीं परिणम गया । तो जो अलग-अलग दो चीजें हों और उनका संबंध बताया जाये उसे कहते हैं व्यवहारनय । घड़ा एक कार्य है जो एक मिट्टी से बना है, कुम्हार एक अलग है, और उन दोनों का बताया जा रहा है संबंध कि कुम्हार ने घड़ा बनाया, कुम्हार का निमित्त पाकर घड़ा बना तो इसमें अलग-अलग चीजों का संबंध बताया जाये किसी भी प्रकार का, उसे कहते हैं व्यवहार नय का कथन, तो व्यवहार से निमित्त दृष्टि से कह दिया कि हाँ कुम्हार ने घड़ा बनाया, मगर इस बात को उपादान से देखना चाहिए, क्योंकि उपादान की दृष्टि से कुम्हार ने घड़ा नहीं बनाया, याने वास्तव में कुम्हार ने घड़ा नहीं बनाया उपादान मायने उप आदान उप मायने अपने में, आदान मायने ग्रहण करना, जो अपने में ग्रहण करे उसे उपादान कहते हैं । घट को किसने ग्रहण किया ? घट के परिणमन को, पर्याय को, घड़े की दशा को किसने ग्रहण किया? कुम्हार ने या मिट्टी ने? मिट्टी ने । तो एक ही द्रव्य में बात कहने का नाम है निश्चय और दो भिन्न-भिन्न द्रव्यों में संबंध बताने का नाम है व्यवहार । तो यही बात आयी न कि निश्चय से घड़े का कर्ता मिट्टी है क्योंकि मिट्टी का व्याप्य व्यापक संबंध घड़े में है । घड़े का संबंध मिट्टी में कैसे व्यापक भाव का है, व्याप्य मायने जो व्याप जाये, ठहर जाये, लीन हो जाये उस रूप बने, और व्यापक मायने है कि जो उस रूप को व्याप लें, अंगीकार करें, व्यापक होता है बहुत बड़े क्षेत्र में और व्याप्य होता है जरा सी जगह में, मायने मिट्टी तो रहती है हमेशा, बहुत काल तक और घड़ा जैसे मिट्टी की और और चीजें बनीं वैसे ही कुछ समय को घड़ा बन गया । व्याप्य रहता है थोड़े समय का और व्यापक कहलाता है बहुत समय रहने वाला, तो मिट्टी है व्यापक याने बहुत समय रहता है । घड़ा न बना था तब भी मिट्टी थी, घड़ा बन गया तब भी मिट्टी है, घड़ा फूट गया तब भी मिट्टी है । तो मिट्टी हुई व्यापक और घड़ा हुआ व्याप्य, तो व्याप्य व्यापक भाव घड़े का मिट्टी से है न कि कुम्हार से । कुम्हार तो अत्यंत भिन्न पदार्थ है और उसका व्याप्य व्यापक भाव नहीं । तो निश्चय से कर्ता वही कहलाता है जिसका व्याप्य व्यापक संबंध हो । यह है निश्चय की बात । तो व्याप्य व्यापक भाव किसमें होगा तदात्मा में, याने जो तन्मय हो, एक ही चीज हो, उसमें होगा । जैसे मिट्टीमय है वह घड़ा इसलिए घड़े का व्यापक मिट्टी हुई और मिट्टी घड़े का वास्तव में निश्चय कर्ता कहलायी । मिट्टी पर्याय को पा रही है, उसमें पर्याय आ रही हैं तो निश्चय से घड़े को करने वाली मिट्टी, घड़े का व्याप्य व्यापक भाव कुम्हार में नहीं । कुम्हार तो आदमी है, मिट्टी थोड़े ही है, और घड़ा तो मिट्टीमय है, कुम्हारमय नहीं हुआ तो जब व्याप्य व्यापक भाव नहीं है घड़ा कुम्हार के साथ तो कुम्हार बड़े का कर्ता न कहलायेगा । वह तो केवल निमित्त कारण कहलायेगा ।
484―अध्यात्म निरखन―आत्मा में निरखिये अब, आत्मा और कर्म दो बातें कही जानी हैं । यह प्रकरण बहुत उत्तम विधि से भेद विज्ञान कराता है । जीव को अपने से ही काम पड़ता है और अपने से ही सुख दुःख की वृत्ति निकलती है, किसी दूसरे पदार्थ से सुख दुःख नहीं होता, न दूसरे पदार्थ पर हमारा कुछ निर्भर है । यह तो अनेक विकल्पों का झंझट बना रखा है नहीं तो परद्रव्यों का इस आत्मा से ताल्लुक क्या? और यह ताल्लुक जब तक बना रहता है तब तक संसार में रुलना चलता है और जब ताल्लुक न रखेगा तो इसको मुक्ति प्राप्त होगी । तो कैसे भेद विज्ञान बने उसका यह बहुत उत्तम प्रसंग है । लोग भेद विज्ञान की बात करते हैं बाहर में, मकान मेरा नहीं है ऐसा जान लिया तो समझ लिया कि हम बड़े ज्ञानी बन गए । मगर अभी भेद विज्ञान नहीं जगा और अच्छे रूप में मकान से भी न्यारा अपने को समझ पाया । देह न्यारा, मैं न्यारा, यों कुछ बात भी कह दिया और कुछ अंदाज सा बना लिया कि बहुत से मनुष्य मर जाते हैं, देह यहीं पड़ी रह जाती है, जीव निकल गया तो देह न्यारा, जीव न्यारा, मगर इतने मात्र ऊपरी कथन से भेद विज्ञान नहीं बना । और असली मायने में इसने देह से भी अपने को न्यारा नहीं समझ पाया । वह तो कहने की बात है । जैसे कहते हैं तोता रटंत । सुनते जायें, बोलते जायें, भाषा बन गई―सब जुदे, यों आत्मा जुदा । वास्तविक भेद विज्ञान कैसे होता है? कहाँ इसका प्रयोग करना है इसका प्रकरण है आज ।
485―तोतारटंत से भेदविज्ञान सन्मार्गलाभ की अशक्यता―भैया ! तोतारटंत जैसी बात से काम नहीं बनता । एक ब्राह्मण के घर तोता पला हुआ था । एक दिन वह मौका पाकर पिंजड़े से उड़ गया । अब वह ब्राह्मण दूसरा तोता खरीदने चला । एक पंजाबी की दुकान पर एक तोता पला हुआ था । उस पंजाबी से ब्राह्मण ने कहा―भाई क्या यह तोता बेचोगे?....हाँ, बेचेंगे ।....कितने में दोगे?....100 रु. में देंगे ।....अजी तोते तो 1-1 रू में मिलते हैं, जितने चाहे ले लो । इसमें ऐसी क्या खास बात जो इसकी इतनी कीमत कह रहे हो?....अजी हमसे क्या पूछते, इसी तोते से पूछ लो कि तुम्हारी कीमत 100 रु. है या नहीं? तौ ब्राह्मण ने कहा―कहो तोते क्या तुम्हारी कीमत 100 रु. है, तो तोता बोला―इसमें क्या शक । बस इतने ही शब्द उस तोते को पंजाबी ने रटा दिए थे सो तोता बोल रहा था । तोता तो दोहे तक बोल जाते हैं । तो उसका उत्तर सुनकर ब्राह्मण बड़ा खुश हुआ और यह समझकर उसे खरीद लिया कि वास्तव में तोता बुद्धिमान मालूम होता है । अब खरीदकर अपने घर लाया, अच्छा-अच्छा खिलाया पिलाया । दूसरे दिन वह ब्राह्मण रामायण लेकर बैठ गया और श्रीराम की कथा तोते को सुनाने लगा―श्रीराम को 14 वर्षों का वनवास हुआ, लक्ष्मण साथ गए, बताओ कैसा न्याय का काम किया । कहो तोता ठीक है ना? तो तोता क्या बोला? इसमें क्या शक । ब्राह्मण ने समझा कि यह तो एक साधारणसी बात कही―यह तो तोते को दिलचस्प न लगी होगी, कोई ऊँची बात कहना चाहिए । सो ब्राह्मण ने ब्रह्मांड की बड़ी ऊँची बातें कही―बाद में पूछा―कहो तोते ठीक हैं ना?....तोता बोला―इसमें क्या शक । फिर ब्राह्मण ने सोचा कि यह तोता तो बहुत ही समझदार मालूम होता है, इसके सामने ब्रह्म स्वरूप की चर्चा करें―सो कहा ब्रह्म एक अद्वितीय, प्रकृति से परे शाश्वत अद्वितीय तत्त्व है, कहो तोते ठीक है ना?....इसमें क्या शक? अब तो ब्राह्मण को भी शक हो गया कि यह तो बस वही-वही शब्द बार-बार बोलता है और कुछ बोलता ही नहीं है । सो कहा―कहो तोते हमने तो तुम्हें 100 रु. में खरीदा तो वे रुपये पानी में चले गये? तो तोता बोला―इसमें क्या शक? तो केवल तोतारटंत से कुछ लाभ नहीं होने का । पूजा कर ली, वही रटे हुए शब्द बोल लिए, एक दिनचर्या सी बना लिली, इससे काम नहीं चलने का ।
486―कर्मरस को आत्मसात् करने में विडंबना―आत्मा वास्तव में क्या है, कितना है, ऐसा सही स्वभाव जाने बिना परपदार्थों के बारे में कुछ भी कहा जाये वह ठीक नहीं । तो वास्तविक भेद विज्ञान कहाँ करना है उसकी चर्चा आज है यहाँ । जिसकी कुंजी में इतनी बात का निर्णय रख लें पहले कि जहाँ व्याप्यव्यापक संबंध नहीं, तन्मयता का संबंध नहीं, उन दोनों का परस्पर में कर्ता कर्मपना न बन सकेगा, निश्चयनय से । व्यवहार से, निमित्त दृष्टि से तो सब बात व्यवहार में चल ही रही है जिसे दृष्टांत में कहा गया अभी कि घड़े का निश्चय से करनहार मिट्टी है, क्योंकि मिट्टी में ही वह घड़ा बना । एक ही द्रव्य में कर्ता कर्म देखा और व्यवहार से, उपचार से कहो तो कुम्हार घड़े का कर्ता है, तो ऐसे ही आत्मा में कोई बात समझना है? पहले तो घटना जानें कि आत्मा में किस ढंग से क्या बात चल रही है? इस समय भी, सब समय भी । बात यों चल रही है कि दो पदार्थ है―जीव और कर्म, जीव तो है एक और कर्म है अनंत परमाणुओं का पिंड । और जीव में तो चेतना है, जानन देखन है, ऐसे गुण हैं जीव में और उन कर्मों में प्रकृति पड़ी है यह किस तरह कि जीव में फलदान की प्रकृति पड़ी है । उनमें प्रदेश तो हैं ही । स्थिति पड़ी है कि ये कर्म इस जीव में कितनी देर तक ठहरेंगे, और अनुभाग बंधा कि ये कर्म कितनी डिग्री तक के बेहोशी के कारण बनेंगे । तो कर्मों की बात कर्म में है, जीव की बात तो जीव में हैं । कर्म का सब कुछ कर्म में हो रहा है, जीव का सब कुछ जीव में हो रहा है, पर हो रहा है इस तरह कि कर्म का आक्रमण है, कर्म का अनुभाग फूटा, कर्म में एक विडंबना हुई । उदयकाल में ऐसा होता है और उस समय इस जीव में यह बात चलेगी, पर इसका उसका ज्ञानसा नहीं है यों कि मेरे में झलका कर्मरस, अंधेरा है, एक तरह का उस समय यह जीव सुख दुःख मानता है, इष्ट अनिष्ट भाव करता है । तो भूल में तो इस तरह की बात कर्म में है, पर कर्म का बहु प्रतिबिंब है जिसे यह जीव मान लेता है कि यह मेरा काम है । जैसे दर्पण के सामने रहने वाली चीज का फोटो आया और कोई समझ ले कि यह दर्पण ही इस तरह का फोटो बना रहा दर्पण ही यह सब कुछ कर रहा है, इसी तरह से कर्म का फोटो सा आता है जीव में और यह जीव समझ लेता है कि यह सब मेरा ही काम है ।
487―ज्ञेय परतत्त्व को आत्मसात करने में विडंबना―देखिये उस समय में जानना तो आत्मा का काम है, पर वे कर्म अपने में ही अपना सब कुछ नाच नच रहे हैं । इस स्थिति में यह निर्णय करना है कि आत्मा करता किसको है और किसको नहीं करता । अच्छा यह बात जरा कठिन सी लग गई है तो थोड़ी एक सरल सी बात और लीजिए । यह कर्म की बात थी, अब लीजिए कि बाहर में जितने ये पदार्थ हैं भींट, किवाड़, लोग, पेड़, बगीचा दुकान धन वैभव आदिक ये बाहरी पदार्थ, इन बाहरी पदार्थों का जानना बन रहा ना? बन रहा अच्छा और जैसे मानो कोई चक्र चल रहा तो चक्र चल रहा, रेल चल रही, कोई चीज दौड़ रही, तो इस तरह का जानन हो रहा है ना यहाँ? हो रहा है, पर यहाँ कोई भी ऐसा मूर्ख नहीं है जो रेल को दौड़ती चलती हुई जानकर यह कहे कि मैं इतना तेज दौड़ रहा हूँ, इन पदार्थों का अद्भुत नाच चल रहा है और एक यह आत्मा जान रहा है तो जानने में क्या जान रहा? जिस-जिस ढंग का यहाँ नाच चल रहा है, ये काठ की पुतलियाँ जिस-जिस तरह से नच रही हैं उस-उस तरह से आत्मा में ज्ञान बन रहा है, ठीक दोनों एक समान जैसे वहाँ नृत्य है, जैसा वहाँ परिवर्तन है, वैसा यहाँ जानने में समझ बन रही है उस ही प्रकार से मगर कोई मूर्ख ऐसा न मिलेगा कि जो यह कह रहा हो कि मैं नच रहा हूँ, मैं चल रहा हूँ, मैं दौड़ रहा हूँ, यहाँ तो सही बात चलेगी कि मैं जान रहा हूँ, यह नच रहा है यह दौड़ रहा है और मैं जान रहा हूँ, देखो दो दृष्टांत आये । कर्म का दृष्टांत दिया और ये ज्ञेय पदार्थ जो बाहर में जानने योग्य हैं, इनका दृष्टांत दिया ।
488―शीतानुभव में भूल का दिग्दर्शन―अच्छा अब जरा तीसरा दृष्टांत लीजिए बहुत ठंडा पानी रखा है, जाड़े के दिनों में जबकि बर्फ पड़ रही हो, जब ठंड पड़ रही हो उस ठंडे पानी में एक पुरुष ने हाथ डाला, हाथ डालते ही अपने में अनुभव करता है, ओह ठंडा हो गया मैं । अच्छा यह बतलाओ कि ठंडा जीव बन सकता है क्या? कभी ? जीव में रूप नहीं, रस नहीं, गंध नहीं, स्पर्श नहीं कभी जीव ठंडा हो सकता है क्या? वह तो ज्ञानमय पदार्थ है, या पूष के महीने में तेज ठंडी लहरें चल रहीं है और उस बीच में कहते हैं न लोग कि अरे रे रे बड़ी ठंड लग रही है । मुझे बड़ी ठंड लग रही है, तो बताओ क्या उस समय जीव को ठंड लग रही है? जीव को कभी ठंड लग सकती है क्या? जो अमूर्त है, जिसमें रूप, रस, गंध स्पर्श आदिक नहीं हैं, उसमें कहीं शीतपना आ सकता है? आ तो नहीं सकता? फिर क्या हो रहा है? लग तो रही ठंड । बात यह हो रही है कि जितना ठंडा है इस वक्त, उस समय ये पुद्गल स्कंध और उसके संबंध से यह शरीर भी ठंडा हुआ, यह ठंडा स्पर्श हुआ, उसके द्वारा जीव ने ठंड का ज्ञान भर किया, पर उस समय उसे इतना मोह है इस शरीर से कि कर तो रहे हैं ठंडे का ज्ञान और मान रहे हैं कि मैं ठंडा हो गया, बस यह हो रहा है भीतर ।
489―ज्ञेयाकारों को आत्मसात करने में विडंबना―और भी देखिये इस ज्ञेय पदार्थ मकान की एक भींट गिर गई, ईंट निकल गई तो जिसको मकान में मोह है वह ऐसा अनुभव करता है कि जैसे मानो आत्मा में से ही ईंट निकल गई हो । हुआ क्या? इसने तो ज्ञान किया कि यह ईंट निकली मगर उसके साथ जो उस मकान में मोह पड़ा हुआ है उसकी वजह से ज्ञान की मोड़ उल्टी बन गई है और यह इस तरह से मानने लगा कि मेरी ही बरबादी हो गई । कभी कोई झोपड़ी या दुकान जल रही हो तो जल रही यह वहाँ, पर उसका ज्ञान भर हो रहा कि इसे जाना और लोगों को भी हो रहा है, बाहर के गांव के लोगों को भी हो रहा । ज्ञान सबको बराबर चल रहा, जिसकी दुकान है उसे भी ज्ञान हो रहा, जिसकी नहीं है उन आदमियों को भी ज्ञान हो रहा, मगर ज्ञान में फर्क क्यों आ गया? जिसने यह माना कि मेरी दुकान है, हाय जल गई तो वह रोता सा ऐसा अनुभव करता है कि हाय मैं ही जल गया और जो जाननेवाले लोग हैं उनको तो ऐसा अनुभव नहीं बन रहा बतलाओ विडंबना कहा है, अंदर में या बाहर में ? बाहर में तो कोई विडंबना नहीं, बाहर में कोई आफत नहीं, बाहर में इसका कुछ बुरा नहीं, बुरा है यहाँ अंदर में । कैसा बुरा कि यह मैं करता हूँ । एक जानन का रोजगार हर समय, मैं ज्ञान स्वरूप हूँ, जानता रहता हूँ, जानन ही चल रहा है, सो मैं कर तो रहा हूँ हर समय जानने का ही काम । ठंडा पानी छू लिया तो ठंड का ज्ञान हो गया, मकान दिख गया तो मकान का ज्ञान हो गया, यों ही कर्मों का अनुभाग, फोटो, कर्मरस बनता है उसका ज्ञान, मगर योग्यता ऐसी मलिन है कि कुछ ज्ञान, ज्ञान तक नहीं रह पाते, किंतु जानने से बढ़कर कुछ अपना कदम बढ़ाने लगना, उसका विकल्प करना, इष्ट अनिष्ट मानना, बरबादी और आबादी मानना, इस प्रकार की जो विकल्पनायें चली बस यह इसमें विडंबना है ।
490―भेदविज्ञान के प्रताप से निराकुलता का अभ्युदय―आत्मस्वभाव और कर्मरस में जब तक भेद विज्ञान न जागेगा कि मैं तो इस कर्मप्रक्रिया का जाननहार भर हूँ, मैं नहीं नच रहा हूँ, मैं न सुखी हूं, न दुःखी हूं । यह सुख दुःख वगैरह सब कर्म का नाटक है । यहाँ झलक आती है । मैं क्यों मानूं कि यह मेरा है । भेदविज्ञान जगे बिना आकुलता दूर न होगी । जो इस तरह अंतर में भेदविज्ञान करता है और उन विभावों से अपना हटाव कर लेता है बस उसे कहते हैं ज्ञानी और ज्ञानी को आकुलता नहीं है । बताया गया है कि नरकों में जो ज्ञानी नारकी है, सम्यग्दृष्टि जीव है यद्यपि वह भी मारकाट के बीच है, अनेकों नारकी उसे मारते हैं, काटते हैं, तो वह भी वहाँ दूसरे को प्रतिक्रिया करता है । विरोधी हिंसा तो यहाँ मनुष्य (ज्ञानी गृहस्थ) भी कर डालते हैं । कोई डाकू चढ़ बैठे हथियार लेकर उस गृहस्थ को मारने और उसका धन धर्म लूटने को तो चूंकि अभी ऊँची प्रतिमा नहीं है, वह भी मुकाबला करेगा । उसके ऊपर शस्त्र का प्रहार भी करेगा, वह डाकू मर भी सकता तो ऐसा ज्ञानी गृहस्थ भी कर डालता है । नारकियों ने भी ऐसा ही किया । ज्ञानियों को तो कोई असंभव बात नहीं, मगर उस बीच रहकर ज्ञानी अंतरंग में निराकुल रहता है । क्या बूटी पायी उसने? कौनसा अमृतपान किया उसने जिससे कि नरकों के बीच भी वह ज्ञानी नारकी निराकुल रहता है । किया यही कि उसे अपने स्वरूप का निर्णय बन गया । मैं ज्ञान मात्र हूँ, चैतन्य स्वरूप हूँ, जानन प्रतिभास होना, झाँकी लेना, झलक होना, जिसका काम है इससे आगे यह सब कर्मरस है, यह मेरा काम नहीं, जैसे दर्पण का निजी ईमानदारी का काम क्या है? झिलमिलाना, बस भीतर उजेला रूप रहना । प्रतिबिंब आना, रंग-बिरंगा बन जाना यह दर्पण का, ईमानदारी का काम नहीं, वह तो नैमित्तिक है, जैसा बाह्य पदार्थ का सन्निधान, उस रूप यह परिणमन बना, यह अंतर मे भेदविज्ञान है नारकी को । इस कारण नरक में भी रहकर ज्ञानी निराकुल रहता है, पशु पक्षियों में भी ज्ञानी निराकुल रहता है, देवगति में और मनुष्यगति में भी ज्ञानी निराकुल रहता है । किस ज्ञान के प्रताप से? यह मैं आत्मा ज्ञान मात्र हूँ और यह सब कर्मरस है कर्मरस का कर्ता कर्म है, ज्ञान का कर्ता मैं हूँ, ऐसा भीतर में निर्णय होने से यह कहलाता है भेद विज्ञान यह भीतर में प्रकट हो तो बाहर की वे सब बातें सच हो गई । मकान मेरा नहीं, देह मेरा नहीं, उसे सब सच प्रतिभास में आ रहा है, जिसे सच्चा ज्ञान जगा वह संसार से पार हो जाता है ।
491―भववासियों में जीव, देह व कर्म का मिलन―अपने आपके बारे में निर्णय किया जा रहा है, देखिये―यहाँ दो बातें तो प्रकट मालूम हो रही हैं―शरीर और मैं जीव । जिसमें मैं हूँ, इस प्रकार का अहं का बोध हो रहा है वह तो है जीव और जो प्रकट बाहर में स्पष्ट दिख रहा है हाथ पैर वाला यह शरीर, यह है अजीव । इन दो बातों में तो सदेह होगा नहीं । मैं हूँ जीव जो जानने वाला है और आनंद का भोगने वाला है याने ज्ञानानंद स्वरूप यह हूँ मैं जीव और यह देह जिसमें रूप, रस, गंध, स्पर्श हैं, यह है एक अजीव । तो दो बातें लगी है, जीव और देह । पर एक बात बताओ कि जीव तो एक स्वतंत्र चीज है, चैतन्य स्वरूप पदार्थ है, देह पौद्गलिक पिंड है, ये दो बातें बिल्कुल अलग-अलग हैं, जब ये अलग-अलग हैं तो ये दो एक जगह क्यों आ गए? और इस देह में जीव का बंधन क्यों बन गया? क्यों ऐसा हो रहा अभी कि देह बिना जीव कहीं नहीं जाता, आज बिना देह भी नहीं चलता । ऐसा जो देह का और जीव का बंधन बना यह किस कारण से बना? बस इसका उत्तर है कर्म । कर्म एक ऐसा सूक्ष्म स्कंध है जो आंखों से नहीं दिखता, पर है वह अजीव, पुद्गल की चीज और उसमें ऐसी ही प्रकृति है कि जीव कषाय करें तो कर्म बँध जायें, कर्म का उदय हुआ तो जीव में कषाय हो जाये, ऐसा कोई एक कर्म पुद्गल है । तो अब यहाँ ये तीन बातें निरखियेगा, जीव, कर्म और देह । यद्यपि कर्म और देह दोनों ही पुद्गल हैं, एक जाति है, मगर यहाँ भी बड़ा फर्क देखा जाता एक ही जाति में । जैसे पत्थर और सोना दोनों यद्यपि पृथ्वी हैं, फिर लाखों वर्षों तक मिट्टी न बन पायेगा, पत्थर न बन पायेगा । उसमें ऐसी प्रकृति पड़ी है कि वह सोना अपने सोने रूप में चमके, तो ऐसे ही पुद्गल दोनों हैं―कर्म और देह, मगर दोनों की प्रकृति जुदी है । कर्म तो प्रकृति, प्रदेश, स्थिति, अनुभाग (फल देने की शक्ति) इन चार बंधों में है, कब तक यह जीव में बंधा रहे ये सब बातें कर्म में हैं किंतु देह प्रकट मूर्ति है ।
492―कर्म की चार प्रकार की मूल प्रकृति―देखो उस कर्म का निमित्त पाकर दो तरह की बातें हो रही हैं, किसी कर्म का उदय पाकर जीव में कषाय जग रही, किसी कर्म का उदय पाकर देह बन रहा । काम तो दोनों हो रहे ना―शरीर का बनना और जीव में कषाय का होना । ये दो काम भिन्न-भिन्न हैं कि नहीं । शरीर शरीर में है, कषाय जीव में है आधार भी दो न्यारे हैं उपादान भी अलग हैं, तो देखो कर्म का कितना काम चल रहा है । किसी कर्म का उदय आने पर जीव में सुख दुःख राग द्वेष विषय कषाय आदिक का विकल्प बनता, किसी कर्म प्रकृति का उदय आने पर शरीर नाना तरह का बनता, कोई बौना हो गया, कोई लंबा हो गया, कुरूप है, सुरूप है और पशु पक्षी है, मनुष्य है, नाना देहों का बनना, ये दो तरह के काम तो नजर आ रहे । अब दो तरह के काम और हैं? कर्म का निमित्त पाकर दो तरह की बातें और होती हैं―क्या । जीव का शरीर में बना रहना, शरीर शरीर है, जीव जीव है, और जीव का शरीर में बना रहना यह भी कर्म प्रकृति का कार्य है और एक कार्य और होता है । जब यह जीव एक भव छोड़कर दूसरा भव धारण करने के लिए जाता है मोड़ा लेकर जाता है तो रास्ते में इस जीव को पुराने देह के आकार रहना और अगले भव का कर्म उदय में आना और उस कर्म की स्थिति ऐसी होती है, जिसे कहो चार्ज सम्हालना । यह भी एक कार्य है । कर्म के चार प्रकार के काम होते हैं, अब आप सोच लो इन चार में से कोई एक बात कम रह जाये तो बात तो भव की फैक्ट्री में बनेगी । तो ये चार प्रकार के कार्य चल रहे हैं उन्हीं के बारे में निर्णय हो रहा है कि कौन सा काम किसमें होता है और उसका कर्ता कौन है? इस तरह का निर्णय चल रहा है, तो अब पुन: दृष्टिपात करें ।
493―कर्मरस प्रतिफलन का अनुभव―जीव है, कर्म है, और देह है, देह की बात अभी कुछ देर बाद कहेंगे । कर्म की बात अभी कुछ कर रहे हैं । कर्म की बात देखिये क्या होता है कर्म से । कर्म में स्वयं एक विष सा भरा हुआ है जिसे कहते हैं विपाक, अनुभाग, फल देने की शक्ति । जैसे दर्पण के आगे कोई बच्चा खड़ा होकर मुख बनाये, जीभ निकाले, आँखें निकाले, बुरा आकार बनाये तो दर्पण में भी उसी तरह का आकार बन गया जिस प्रकार का वह अपने मुख में हलचल कर रहा है तो ऐसे ही जीव में कैसा रागद्वेष विकल्प हुआ जैसा कि कर्म में कर्म का हलचल हो रहा है । यह तो वैज्ञानिक बात है कि किसी एक पदार्थ में किसी प्रकार की खोटी बात आयी, विषम बात आयी, विकार की बात आयी, जब दो पदार्थों का संबंध हुआ, केवल वही-वही पदार्थ हो दूसरे का संबंध न हो तो विकार नहीं आता । हर जगह उदाहरण देख लो । यद्यपि जीव ने जो राग का विकल्प किया वह जीव की परिणति है फिर भी कर्मोदय का निमित्त पाकर हुआ । तो अब यहाँ चार बातें समझिये-कर्म, जीव, कर्मरस और कर्मरस की झलक । देखो-जीव वह है जिसमें अहं अहं का ज्ञान चल रहा है―मैं मैं । कर्म एक पुद्गल, जड़, बहुत सूक्ष्म चीज हैं और उन कर्मों में पड़ा है रस, फल देने की शक्ति । सो जिस समय कर्म में फल देने की शक्ति का उबाल आता है, विस्फोट होता है, उस समय जीव में उस विस्फोट की झलक होती ज्ञान विकल्प होता, यहाँ निरखिये जीव और कर्म दो । तो ये हैं मूल वस्तु, कर्म में कर्मरस है और जीव में विकल्प रस है । कर्मरस का नाम क्या है? मोह राग द्वेष कषाय आदि ये सब कर्मरस हैं, और उनकी जो झलक होती है तो वह बन गया जीव में विकल्प याने ज्ञान का अब विकल्प के रूप में मूड बन गया । यह अच्छा है, यह बुरा हैं, इस तरह सोचना होता है और उस सोचने में मग्न हो जाता है यह है कर्मरस की फोटो । इस जीव में जो विकल्प आया उसका कर्ता है जीव, क्योंकि वह विकल्प जीव में ही व्याप्य है, जीव की ही तो दशा है, जीव की ही परिणति है, इसलिए विकल्प रूप सुख दुःख का, रागद्वेष का करने वाला जीव, सो वह है ज्ञान रूप याने जीव ने ज्ञान की दशा को किया । ज्ञान की दशा ही जीव में तन्मय नहीं, कर्म की दशा तन्मय नहीं । तो कर्म में जो मोह रागद्वेष जगा है, चूंकि कर्म खुद अजीव है इस कारण वह अनुभव नहीं कर सकता । अगर दर्पण के सामने वाली चीज में रग बिरंगापन है तो दर्पण भी रंग बिरंगापन हुआ । तो रंग बिरंगापन मूल में कपड़े का है, ऐसे ही जीव में जो राग द्वेष झंझट का विकल्प जगा सो ये विकल्प मूल में कर्म के हैं, कर्मरस का प्रतिफलन हुआ सो वह संकल्प विकल्प रूप में उभरा । अच्छा दृष्टांत में चार बातें लो । एक दर्पण है और उस दर्पण के सामने एक कबूतर बैठा है और दर्पण में कबूतर का फोटो आया तो अब यहाँ चार बातें देखो―दर्पण, कबूतर, कबूतर का रंग चित्र विचित्र, सफेद है, नीला है, कत्थई है । और वहाँ दर्पण का प्रतिबिंब है । तो कबूतर और कबूतर का रंग और दर्पण और दर्पण का प्रतिबिंब ये चार बातें हुई अब यहाँ देखो कि वह प्रतिबिंब किसमें तन्मय है? दर्पण में, दर्पण की वह दशा है । अच्छा, और कबूतर का रंग किसमें तन्मय है? कबूतर में । वह कहीं कबूतर से बाहर नहीं आया । तो ऐसे ही समझिये कि अंदर में जो मोह रागद्वेष उठ रहे हैं यह कर्म की दशा है और उस कर्मदशा का जो विचित्र ज्ञान बन रहा, विकल्प बन रहा अच्छा बुरा इस तरह का जो ज्ञान में व्यायाम चल रहा है यह है जीव की दशा । तो कर्म की दशा का करने वाला कौन ? यह यहाँ प्रश्न रखा है । कर्म की दशा करने वाला कर्म, जैसे कबूतर के रंग का करने वाला कबूतर, दर्पण तो नहीं, क्योंकि उसका वहाँ ही तन्मय संबंध है । ऐसे ही जो रागद्वेष सुख दुःख विकल्प जाल जो कुछ हो रहे हैं उनका करने वाला पुद्गल कर्म है उनका उपादान कार्माण स्कंध है और फिर उसकी जो झलक हो रही है, जो ज्ञान विकल्प कर रहा है बाहरी पदार्थों के प्रति आकर्षित हो रहा है, ऐसा जो ज्ञान का परिश्रम चल रहा है उसका करने वाला है जीव, अर्थात् प्रत्येक कार्य का कर्ता उसका उपादान होता है । जिसमें कार्य हो निश्चय से वह उसका कर्ता है । जीव में ज्ञान हुआ विकल्प रूप से उसका तो व्याप्यव्यापक संबंध है जीव के साथ, मगर जो कर्मरस है मोह, राग, द्वेष, इसका व्याप्य व्यापक संबंध है कर्म के साथ । उसका निमित्त पाकर जीव भी गड़बड़ा गया । गड़बड़ाया ज्ञान रूप से, जैसे दर्पण में रंग आया, पर किस ढंग से रंग आया?इस ढंग से नहीं आया जैसे कबूतर में है,कबूतर उड़ गया तो भी रंग उसके साथ है मगर दर्पण में वह रंग दर्पण के साथ तो नहीं रह पाता । वह ऊपरी रंग है, केवल एक तैरने का रंग है, दर्पण में समाया हुआ दर्पण से ही उठा हुआ रंग नहीं है, किंतु वह केवल एक तैरने वाला रंग है, ऊपर-ऊपर आया हुआ रंग है, बस ऐसा जिसने बोध किया कि मैं चेतन हूँ, मैं ज्ञान के काम के सिवाय और कुछ काम नहीं करता, कर्म भी आड़े आता है, उसका निमित्त पाकर उसका ज्ञान बदल जाता है, गड़बड़ा जाता है, यह बात तो हो जाती है मुझमें मगर मैं ज्ञान को ही करता हूँ, कर्मरस का करने वाला नहीं हूं ।
494―जीव में देह कर्तृत्व का अभाव―अब देह की भी बात समझिये यहाँ भी दो बातें हैं-देह और जीव, जीव तो है चेतन और देह है अचेतन । अब देह में जो बात बन रही है, जैसे रंग होना, इसका आकार होना, मजबूती होना, गंध होना, स्पर्श होना, इसमें रस भी है तो ये सब बातें देह में उठ रही हैं तो वे रूप, रस, गंध आदिक का जिसे सुंदरता भी कहो, कुरूपता भी कहो, टेढ़ा मेढ़ा आकार बन गया, यह किसमें तन्मय है जीव में या देह में? देह में, जीव में नहीं । जीव तो अमूर्तिक है । जो यह आकार है, रूपादिक है, सो वह देह में तन्मय है । तन्मय मायने व्याप्य व्यापक संबंध वाला, देह तो व्यापक है और रूप व्याप्य है जो कुछ बतला रहे हैं वह इसमें समाया हुआ है, समाया हुआ और समा लेने वाला याने व्याप्य और व्यापक, समाया हुआ क्या है? रूपादिक । और समाने वाला कौन है? किसमें समाया है? देह में, तो जिसमें समाया नहीं है जो समाया नहीं है उसका कर्ता कर्म संबंध नहीं है । जीव में रूपादिक नहीं है सो जीव रूपादिवान देह का कर्ता नहीं याने जीव देह के रूप का करने वाला नहीं । देह के रूप का कर्ता निश्चय से देह है । हां, देह विषयक जो मैं ज्ञान कर रहा हूँ, कि मेरा यह रूप है और इतना तक मान लेता हूँ कि मेरा गोरा रूप है, काला रूप है या मुझमें ऐसी गंध है उतना भर ज्ञान कर रहा, कहीं गंध या रूप जीव में नहीं आता । तो जीव कर्म की बात का कर्ता नहीं, जीव तो सब जगह ज्ञान का ही कर्ता है और कुछ नहीं करता ।
495―सर्वत्र प्रत्येक की क्रिया का उस ही प्रत्येक में दर्शन―अच्छा जरा लौकिक प्रसंग ले लीजिए-आप किसी कारखाने में गए तो इसे सम्हाला, उसे सम्हाला, यह देखा, वह देखा, प्रयोग किया, ये सारे काम आप कर रहे हैं, मगर निश्चय से तो बताओ कि उस फैक्ट्री के ये सब काम करते हुए भी आप वास्तव में क्या कर रहे हैं? आप केवल ज्ञान ही ज्ञान कर रहे हैं, जब आप कोई पुर्जा चला रहे हैं, प्रयोग करने के लिए तो वहाँ आप जो जीव हैं वह केवल बोध कर रहे हैं और उस ज्ञान को इच्छारूप से कर रहे हैं, मैं ऐसा बना हूँ, आप भाव कर उस भाव करने से जीव में ऐसी हलन चलन हुई, उस हलन के माफिक शरीर की वायु चली और शरीर में जैसी वायु चली उस माफिक ये हाथ हिले और जैसे ये हाथ हिले उसमें फंसा था कोई पुर्जा तो उसी प्रकार वह पुर्जा चला । देखो कितना निमित्त के अंतर के बाद वह पुर्जा चला, अगर अज्ञान है तो यह जीव सोचता है कि मैंने इस पुर्जे को चला दिया । किया तो केवल जीव ने ज्ञान ही ज्ञान । ज्ञान के सिवाय और कुछ नहीं कर सकता वहाँ, मगर ज्ञान हुआ इच्छा जगी और आत्मा में उस तरह का परिस्पंद हुआ, हलन चलन हुआ, तो उस ढंग से देह में वायु चली, अंग चले, फिर जो हाथ में आया हुआ पुर्जा था वह चला और उसका निमित्त पाकर चक्का चला । चक्के का निमित्त पाकर डंडा चला । तो क्या से क्या चलने लगे वे सब एक दूसरे का निमित्त पाकर चलने लगते हैं । पर वस्तुत: प्रत्येक पदार्थ अपना काम अपने में कर रहा है, कोई दूसरे का काम नहीं कर रहा । स्पष्ट देखो डंडा अगर बराबर चल रहा और चक्के मैं चक्का चल रहा, पुर्जे में पुर्जा चल रहा, हाथ में हाथ चल रहा है, जीव में जीव का काम चल रहा है । कैसा नंगा नाच है, एक पदार्थ दूसरे का परिणमन करने वाला है ही नहीं, फिर जो कुछ हो रहा है यह सब निमित्त नैमित्तिक योग वश हो रहा है । तो यहाँ यह ही बात निरखना है कि जगत का अणु-अणु प्रत्येक जीव अपने आपकी सत्ता में है, अपने आप में अपना परिणमन करने वाला है । एक दूसरे का स्वामी नहीं, एक दूसरे का कुछ लगता नहीं ।
495―देह और कर्म के साथ जीव के कर्तृकर्मत्व की वास्तव में असिद्धि―देखिये―अनादि काल से जो कर्मचक्र में चले आ रहे, कर्मबंधन में बंधे आ रहे, उनका इतना प्रभुत्व है कि हम आप बड़ा ज्ञान लगाये तो भी फिसलते रहते हैं । हम उद्यम करते हैं, श्रद्धान करते हैं, ज्ञान करते हैं, प्रयत्न करते हैं, मेरे मोह न उठे, मेरे में व्यग्रता न आये, मेरे में झुंझलाहट न आये, मेरे में राग मत जगे, विरोध मत जगे । मन को समझाते हैं, मन कुछ काम पर लगता है फिर भी फिसल जाते हैं । तो ये जो स्थितियाँ बन रहीं ये क्या हैं । यह बड़ा संघर्ष है, और यह संघर्ष मूल से तब तक नहीं मिट सकता जब तक हम अपने इस सहज स्वरूप को न पहचान लें, जो संघर्ष से बिल्कुल अछूता है जिसका स्वभाव संघर्ष रूप नहीं है, यह स्वयं शांत है, निराकुल है, पावन है परमात्मा की तरह पवित्र स्वरूप है जब तक इस स्वरूप का हम ध्यान न कर लें तब तक हमारा यह संघर्ष मिट नहीं सकता । तो इस प्रकरण में बतलाया जा रहा है कि देखो जो कुछ भीतर में कर्म की चक्की चल रही है वह कर्म में समायी हुई है, इसलिए उसका कर्ता कर्म है, ज्ञान नहीं है । तू तो उनका निमित्त पाकर जो अपना ज्ञान बुरे प्रकार में बना रहा है अच्छा है, बुरा है, कुछ सुख रूप महसूस किया, बस इस ज्ञान की दशाओं का ही तू करने वाला है, इसके आगे तू और कुछ करने वाला नहीं । इसी तरह शरीर में जो कुछ हो गया, फोड़ा फुन्सी हो गया, बुखार हो गया, रोग कोई हो गया, ये सब बातें देह में हो रहीं है । यद्यपि यह संबंध तो है कि जब तक जीव का यह निवास है देह और प्रतिकूल आहार विहार हो गया, ठीक न खा सके, अपच्य खा लिया, अधिक खा लिया, तो रोगादिक हो गए मगर रोग का उपादान शरीर है, जीव नहीं, रोग शरीर में समाया है, जो चीज जिसमें समायी हो निश्चय से उसका करने वाला वह है । यह यहाँ कुंजी कही जा रही है । तो देह की जो दशा हो रही है, इसको करने वाला देह है ।
496―धर्माश्रय से च्युत न होने के लिये सब परिस्थितियों में धर्म की आस्था―देखो जहाँ कर्म और देह इनसे भी न्यारा होना यहाँ निरखा जा रहा है तो वहाँ इस बात का जरा भी महत्व न देना चाहिए कि घर मेरा है, कुटुंब मेरा है, मित्र मेरे हैं, अमुक मेरा है, अरे ये प्रकट पराये हैं । यहाँ एक बुद्धिमानी तो आपने की है कि कहीं धर्ममार्ग से बिल्कुल च्युत न हो जाये पाप के उदय में, कर्म के प्रभाव से, इसलिए एक गृहस्थी बसा ली कि अब देख लो परस्त्री में वेश्या में अनर्गल कहीं पर मेरा भाव न लग जाये इस प्रयोजन से आपने एक स्त्री से विवाह किया । गृहस्थी में विवाह विषयों के भोग के लिए नहीं किया किंतु दुनिया में जो और स्त्रियाँ हैं, वेश्यायें हैं, उनमें दिल न जाये, इसके लिए । स्त्री का प्रसंग ही करते रहें, इसके लिए भी विवाह नहीं । वह घटना आधार है और काम क्या करना आपको कि सब स्त्रियों से हमारा चित्त हट जाये, यह काम किया, गृहस्थ ने । ऐसी ही सबकी बात है । जो-जो कुछ भी समागम रखा गृहस्थ ने वह धर्म में सहायक बनने के कारण से रखा हुआ है । कहीं उसमें क्लेश होने के लिए नहीं रखा । इतनी बात तो है गृहस्थी में, सो समझना चाहिए कि कुछ गुजारा करने के लिए घर की कमेटी बनाये हुए है, जिसे गुजारा कमेटी कह लो, जिससे कि कोई व्यग्रता न आये ओर धर्म के कार्यों में हमारा चित्त बना रहे । अब बतलाओ धर्म के कार्य क्या हैं? मूल में तो धर्म यह है कि अपनी सुध बनी रहे कि यह मैं सबसे निराला ज्ञान ज्योतिर्मय तत्त्व हूँ । यह साहस बना रहे तो सबसे ऊँचा धर्म यह है ।
497―सहज ज्ञानस्वभाव स्थितिरूप धर्म में न ठहरने पर श्रावक की 6 प्रकार की वृत्तियां―जब हम निश्चय धर्म में नहीं ठहर पाते हैं तो 6 कर्म बताये गए हैं―देवदर्शन करना, देवपूजा करना, इससे प्रभु के स्वरूप का स्मरण होगा, कुछ अपने आपकी सुध आयेगी । भाई, पुरुषों की सेवा करो, गुरुओं का सत्संग करो, कुछ थोड़ा बहुत उनके प्रति भक्ति अनुराग रखो, उनके निकट बैठो उनके भीतर जो ज्ञान प्रकाश जगा है, जो एक दृष्टि मोक्षमार्ग को बनाती है उसका भी कभी-कभी ध्यान करो । अच्छा तीसरा कर्म है―स्वाध्याय । निराकुल रूप से 15-20 मिनट बैठकर स्वाध्याय करें, इस ढंग से करें कि चाहे दो लाइन ही पढ़ने में आयें मगर उनको अपने पर घटावें मायने यह सब मेरे लिए ही कहा जा रहा है । अपना जीवन संयम में बिताओ । ऐसी आदत छोड़ो कि जब खोन्वा वाला आया तब कुछ चाट पकौड़ी लेकर खा लिया, जब सामने कुछ खाने की चीज दिखी तब ही खा लिया । हालाँकि ऊपर से ऐसा लगेगा कि क्या हुआ, उसका दिल रख दिया मगर जो खाने-खाने की इच्छा चल रही है और उसका संस्कार बसा हुआ है रात दिन उसके कारण इस आत्मा के स्वरूप की सुध नहीं है, इसी कारण कुछ समय पहले गृहस्थी में यह रिवाज था कि जैसे ही भोजन करके उठे कि यह ठान लिया कि अब हमारा 4 घंटे का, या 6 घंटे का या 8 घंटे का भोजन का त्याग रहेगा । इसके लिए तो आप अपने ही घर के पुराने लोगों की याद करलो । उनमें खाने का ही संस्कार नहीं बना रहता था, आत्मा की सुध आने के अवसर आते थे । तो यहाँ संयम बड़ा जरूरी है । जीवों की रक्षा करना क्या सोचकर कि ये भी मेरे ही समान स्वरूप वाले जीव हैं । मेरे जरा से प्रभाव से यदि इनका संक्लेश मरण हो गया तो वे जिस गति में थे उससे नीची गति में जन्म होगा । जैसे मनुष्य है और मोह में मरण हो गया, तो उसको खराब दशा मिलेगी कोई तीन, चार इंद्रिय का जीव बन जायेगा । याने इससे भी नीचे की इंद्रिय का जीव बन जायेगा । संक्लेश मरण का यह प्रभाव होता है । तो मेरे जरा से प्रमाद के कारण यदि किसी जीव का संक्लेश मरण हो जाये तो वह कितना विकास से दूर हो गया । तो यह कितना बड़ा पाप लगा । तो संयम से रहना यह हमारा एक परम कर्तव्य बताया है । तप याने इच्छाओं का निरोध करना । आज के समय में लोग ऐसा सोचते हैं कि बढ़िया टिपटाप हो, बढ़िया वाहन हों, बढ़िया सौंदर्य हो और अनेक प्रकार के देखने के साधन हों । होता क्या है कि उनमें इच्छा पड़ी रहती है, उनमें भाव लगे रहते हैं, उन सब खटपटों को देखकर खुश हो रहे हैं, आत्मा की सुध से वे अलग होते हैं, अब आगामी कोई लाभ न मिलेगा । तो जो विवेकी जन हैं उनको आत्मा की सुध वाला काम अधिक करना चाहिए । यह भी एक कर्तव्य है । और अंतिम है दान करना, त्याग करना । अब मानो एक वर्ष में 5-6 हजार रुपया खर्च हो गया, मोटर, स्कूटर आदिक में या और और बातों में, कल्पना करो कि उस खर्च को हजार दो हजार में ही निपटा लेते और 4-5 हजार रुपये का दान करते रहते तो दान आपकी विभूति और ऐश्वर्य का गुण गाने वाला बनता, मगर क्या है―खाया खोया बह गया, तो ये 6 प्रकार के कर्म बताये गए हैं, उनमें रहकर यह जीव आत्मा की सुध लेता रहेगा । करने का काम है अपनी सुध बनाये रहना कि मैं सबसे निराला केवल जानन देखनहार आत्मतत्त्व हूँ ।