वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 5
From जैनकोष
व्यवहरणनय:स्याद्यद्यपिप्राक्पदव्या-मिह निहितपदानां हंत हस्तावलंब: ।
तदपि परममर्थं चिच्चमत्कारमात्रं, परविरहितमंत: पश्यतां नैष किंचित् ॥5॥
83―व्यवहरणनय की हस्तावलंबता―जीव का एकमात्र शरण सहज आत्मस्वरूप अखंड है, जो है सो है, उसे न शुद्ध दशा द्वारा ठीक बताया जा सकता न अशुद्ध दशा द्वारा सही बताया जा सकता । तब ही तो इस समयसार को, आत्मा के सहज स्वरूप को कषायवान कह कर नहीं समझाया जा सकता, तो कषायरहित कह कर भी नहीं समझाया जा सकता, क्योंकि कषायसहित होना एक अशुद्ध दशा है, इस प्रकार देखेंगे कषायरहित होना एक शुद्ध दशा है । यह जीव तो अनादि अनंत है अहेतुक कारणसमयसार, किंतु कषायसहित अवस्था व्यक्तित: आदि अंत दोनों से सहित है, परंपरा अनादि है लेकिन सांत भी । कषायरहित अवस्था प्रतिक्षण सादि सांत है और परंपरया सादि अनंत । किंतु यह समयसार अनादि से अनंत काल तक अंतरंग में नित्य प्रकाशमान अखंड विराजमान है । इस समयसार को समझने के लिए व्यवहारनय से भेद करके समझाया जा सकता है । व्यवहारनय परमार्थ को समझा सकता है और इसीलिए व्यवहारनय की महत्ता है । जैसे आत्मा में ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदिक अनंत गुण है, आत्मा में जानना देखना आदि अनंत पर्यायें हैं । आत्मा में कितनी ही पर्यायें गुजर गयीं, कितनी ही पर्यायें गुजरेगी और मोक्षमार्ग, संसारमार्ग, बंधमार्ग जीव की जो-जो अवस्थायें होती हैं उनका कारण कलाप सबका जो कथन है वह व्यवहारनय से हो पाता है और व्यवहारनय से उनकी बातों को समझ पाते हैं और इसी प्रकार चारित्र के भी प्रसंग में, चारित्र तो एक अखंड आत्मस्वरूप में रमण मात्र है, उपयोग का सहजात्मस्वरूप में स्थिरता से रम जाने का नाम चारित्र है याने केवल ज्ञाता द्रष्टा रहे, यही वृत्ति निरंतर रहे उसे कहते हैं चारित्र, लेकिन इस निश्चयचारित्र को जो नहीं पाये हुए हैं ऐसे जीव उसमें उद्यम करते तो आखिर उनके साथ लगे हुए मन, वचन, काय हैं वे क्या करते हैं, बस निश्चयचारित्र का लक्ष्य रखकर जो मन, वचन, काय की चेष्टायें होती हैं उनको कहते हैं व्यवहारचारित्र । व्यवहारचारित्र उपयोगी है, निश्चयचारित्र से गिरते हुए को थामने में और निश्चय चारित्र में न पहुँच होने से उसके निकट पहुँचने में व्यवहारचारित्र का बहुत हाथ है । यों समझो कि व्यवहारचारित्र से गुजरता हुआ आत्मा निश्चयचारित्र के सम्मुख बनता है ।
84―निश्चय व व्यवहार की उपयोगिता―यद्यपि निश्चयचारित्र आत्मा की परिणति से ही होता है लेकिन शुभोपयोग बिना कोई शुद्धोपयोग पा सका क्या? तो वहाँ शुभोपयोग का क्या मतलब है? शुभोपयोग की साधनता है शुद्धोपयोग के लिए वहीं व्यवहारचारित्र की शुद्धता है । फिर भी व्यवहारचारित्र पराश्रित है, निश्चयचारित्र स्वाश्रित है, इतना होने पर भी कितना सहयोगी व्यवहार, उसका कुछ वर्णन इसमें किया है और फिर व्यवहारनय और निश्चयनय दोनों का ही विकल्प हटकर कैसी अनुभूति की दशा होती है यह बताया गया है । जैसे कोई पुरुष पर्वत पर चढ़ रहा है, पहाड़ पर से फिसल गया और कोई हितचिंतक पुरुष उसकी भुजा मजबूती से पकड़ ले तो वह पुरुष वहाँ कुछ मददगार हुआ कि नहीं? अब इसके बाद फिर वह अपनी शक्ति से चढ़ेगा, ऐसे ही निश्चयचारित्र में लगे हुए ज्ञानी जीव जब उससे कुछ थोड़ा फिसलते हैं तो व्यवहारचारित्र उन्हें अधिक फिसलने नहीं देता है, थाम लेता है और फिर उस स्थिति में अपना बल प्राप्त करके यह निश्चयचारित्र में लगता है, अथवा जो पर्वत पर चढ़ा ही नहीं है अब तक, विचार कर रहा है तो उसकी जो क्रिया प्रक्रिया है वह उस चोटी पर पहुंचने में मददगार है कि नहीं? ऐसे ही जिसने निश्चयचारित्र को कुछ समझा ही नहीं ऐसा जीव व्यवहार चारित्र द्वारा और आत्मज्ञान प्रकाश सहित एक भीतरी ज्ञप्ति क्रिया द्वारा बढ़ता है तो निश्चयचारित्र के निकट पहुँचता है । तो यहाँ यह बात बिल्कुल स्पष्ट समझ में आयी है कि जिस भव्यात्मा ने पहली पदवी में धर्मार्थ अपना कदम रखा है, बढ़ाया है निश्चय से उनके लिए व्यवहारनय हस्तावलंबन की तरह है । जो व्यवहार को ही सर्वस्व निश्चय धर्म समझते हैं उनको समझाने के लिए तो यह बताया जायेगा कि व्यवहारनय सर्वस्व धर्म नहीं है । आगे निश्चय की ओर बढ़े । जो व्यवहार में जरा भी न लगे और उल्टे व्यवहार में चल रहे―जैसे व्यसन पाप आदिक के व्यवहार में चल रहे तो उन जीवों को तो यह व्यवहारनय एक हस्तावलंबन है । सो इस प्रकार पहली पदवी में यद्यपि व्यवहारनय एक हस्तावलंबन है तो भी जो परम अर्थ है अखंड चैतन्यचमत्कारमात्र, जिसमें पर का प्रवेश ही नहीं है ऐसे शुद्ध चैतन्य को जो अपने अंत: निरखते हैं । उनके लिए व्यवहार कुछ भी नहीं है ।
85―व्यवहार की हस्तावलंबता का चित्रण―अब यहाँ देख लीजिए―दो प्रकार के साधक हुए ना, एक तो ऐसे साधक हैं जो एक अपनी अवस्था को पा चुके, उनके लिए व्यवहारनय कुछ नहीं है । लेकिन जिन्होंने कदम ही रखा उनके लिए तो व्यवहारनय पहले हस्तावलंबन की तरह है, व्यवहारनय और निश्चयनय की उपयोगिता समझने के लिए एक दृष्टांत लें कि जैसे सीढ़ियों पर चढ़कर दूसरी मंजिल पर पहुँच जाते हैं तो दूसरी मंजिल पर पहुँच जाना तो समझो एक साध्य है, अनुभूति है और अंतिम सीढ़ी जो मंजिल से मिली हुई है उसे समझ लीजिए निश्चयनय और बाकी जितनी नीचे की श्रेणियाँ हैं वे हो गई मानो व्यवहारनय के स्थान पर । अब कोई अगर यह कहे कि सीढ़ियों को छोड़ने से ही मंजिल पर पहुंचते हैं, बात तो वह ठीक कह रहा, क्योंकि कोई सीढ़ियों पर ही पैर रखे रहे, छोड़े नहीं तो वह मंजिल पर तो न पहुंचेगा, मगर उसके नीचे रहने वाले लोग अगर यह अर्थ लगा लें कि देखो ये बड़े पुरुष कह रहे हैं कि सीढ़ियों को छोड़ने से मंजिल पर पहुंचते हैं तो हम तो पहले से ही छोड़े हुए हैं, हम तो उन बड़े लोगों की आज्ञा पर ही चल रहे हैं, हम तो अपने आप उस मंजिल पर पहुंच जायेंगे मौज ही मौज में....। तो यहाँ उन्होंने यह न समझा कि इन कृपालु महापुरुषों ने किसके लिए यह बात कही―जो सीढ़ियों पर चढ़ रहे हैं और वहीं सुंदरता देखकर रम रहे हैं उनको आचार्य कह रहे हैं कि भाई उन सीढ़ियों में रमने से तुम मंजिल में न पहुँच पाओगे, उनको छोड़ो, आगे बढ़ो तो सीढ़ियों को ग्रहण करके छोड़ने से, ऊपर ऊपर पहुंचने से ऊपर पहुंचते हैं, अब ‘ग्रहण करके’ इतना पद तो हटा दिया और सीढ़ियों को छोड़ने से मंजिल पर पहुंचते हैं यह गप्प करने लगे तो इसमें सही मार्ग नहीं मिल सकता । क्योंकि सीढ़ियों को ग्रहणकर छोड़ने के बाद ही मंजिल पर पहुंचना होता है । यही बात व्यवहारनय में है । व्यवहारचारित्र, व्यवहारसम्यक्त्व, व्यवहारज्ञान, व्यवहाररत्नत्रय सबकी यही बात है । कोई कहे कि व्यवहार रत्नत्रय के छोड़ने से निश्चय रत्नत्रय प्राप्त होता है तो व्यवहार रत्नत्रय को छोड़े हुए तो अनंत निगोदिया जीव हैं । वे कोई व्यवहार रत्नत्रय को पाल रहे क्या? असंख्यात स्थावर जीव हैं, असंज्ञी पर्यंत सभी हैं और संज्ञी में बहुत संख्या है व्यवहार रत्नत्रय को छोड़े हुओं की, पर यह मार्ग नहीं है, व्यवहार रत्नत्रय में आकर व्यवहार रत्नत्रय को छोड़कर अखंड की ओर बढ़ने में निश्चय रत्नत्रय की प्राप्ति है ।
86―नयों के समुचित प्रयोगों का प्रभाव―जो बात जहाँ जैसी है वहाँ वैसी समझना इसमें हित है इसी पर तो पूज्य समंतभद्राचार्य ने युक्त्यनुशासन में कहा है कि इस पंचमकाल में जो जैनशासन का प्रभाव नहीं बढ़ रहा है उसके मुख्य कारण तीन हैं―एक तो कलिकाल । इस कलिकाल में लोगों के भाव प्रकृत्या ही पतन की ओर रहते हैं, विषयों की ओर बढ़ते हैं, कषायें जगती हैं, दूसरा कारण है―श्रोताओं का कलुषित आशय याने लोगों का अभिप्राय पवित्र नहीं है । श्रोताजन यह चाहते हैं कि हमारी कषाय के अनुकूल शास्त्रों में बात मिले तब तो वह शास्त्र ठीक है, नहीं तो ठीक नहीं । और तीसरा कारण है―वक्ताओं को नयों का ज्ञान नहीं है, सही बोध और प्रयोग नहीं है, तो वक्ताओं का, उपदेष्टाओं का एक बहुत बड़ा उत्तरदायित्व है । वे हर बात को बीच-बीच स्पष्ट करके समझाते हैं कि इस नय से यह बात कही जा रही है । अब जरा मोटे रूप से देखें―वस्तु द्रव्यपर्यायात्मक है कि नहीं? कि केवल द्रव्यमात्र है या केवल पर्यायमात्र है? प्रत्येक सत् द्रव्यपर्यायात्मक है । पर्याय के बिना द्रव्य नहीं, द्रव्य के बिना पर्याय नहीं । तो द्रव्यपर्यायात्मक वस्तु में से जो द्रव्य का वर्णन करने वाला है वह है निश्चयनय और जो परिणमन को, पर्याय को बताने वाला है वह है व्यवहारनय । असत्य तो इन नयों में कोई न रहा फिर भी साधकतम निश्चयनय है । व्यवहारनय का विषय खंडरूप है और उस खंडरूप में हम उपयोग को जमायें तो उपयोग फिट न बैठेगा । वह खंडरूप है, भ्रमेगा उपयोग और कुछ वह उपयोग भी स्वयं एक खंडाकार बन जायेगा । इस कारण से व्यवहारनय को छोड़कर निश्चयनय में आने का उपदेश है । साधकतम है निश्चयनय और व्यवहारनय निश्चयनय की पात्र का सहायक है, तो दोनों ही बातों से समझें कि व्यवहारनय पहली पदवी में हम सबके लिए हस्तावलंबन की तरह है । फिर भी व्यवहारनय के विषय में ही कोई रम जाये तो बस वह वही अधूरे रास्ते में भटक गया, अब उसे मंजिल कैसे मिलेगी इसलिए आगे-आगे बढ़कर इतना बढ़ जायें कि अपने अंतरंग में परमार्थ चैतन्य चमत्कारमात्र समस्त पक्षों से अतीत अपने एकत्वरूप स्वयं को अनुभवने लगे, ऐसी स्थिति बनने पर उसके लिए व्यवहारनय कुछ भी प्रयोजनवान् नहीं है ।
87―खंड करके समझ बनाकर अखंड में प्रवेश―सभी जानते अपने को, खंड-खंड करके भी जानने की जरूरत है अन्यथा उस अखंड आत्मा को कौन समझेगा? और अखंड आत्मा को समझने की भी जरूरत है, नहीं तो अखंड आत्मा में प्रवेश कैसे होगा? मगर अखंड आत्मा में लीन होने में साधकतम निश्चयनय है, व्यवहारनय नहीं हैं, जब कि एक अनुभव के रास्ते में बढ़े चलें तो आत्मा की जानकारी के अनेक साधन हैं । द्रव्य से जाना कि आत्मा क्या है? गुण पर्याय का पिंड । क्षेत्र से जाना कि आत्मा क्या है? असंख्यात प्रदेशों का ऐसा विस्तार वाला । जैसे कि हम आज मनुष्य हुए है, कालदृष्टि से समझा कि आत्मा क्या है । आत्मा की जो इस समय कुछ भी परिणति हो रही हो अशुद्ध या शुद्धाशुद्ध, अशुद्ध भी है आत्मा । और गुणदृष्टि से आत्मा जो एक है, इसमें ज्ञानगुण है, दर्शनगुण है, चरित्रगुण है, बखानते जाइये । गुणदृष्टि से आत्मा को जाना तो, मगर उपयोग को इस ही दृष्टि के माध्यम से लेते रहें तो अनुभव कुछ नहीं बनता आत्मा का । गुणपर्याय का पिंड, बस एक खंड कर दिया पिंड कह के । क्षेत्र से खंड किया, काल से खंड किया, गुण से खंड किया । तो उस अखंड आत्मा का खंड-खंड करके अनुभव नहीं बनता, किंतु इन खंडों पर दृष्टि न दो और एक अखंडस्वभाव चित्स्वभाव याने मन जब विश्राम पाता है उस समय जो यहाँ विषय बनता है, जो ज्ञेय बनता है ऐसा यह अंतस्तत्त्व यह है अखंड स्वभाव । यह उपयोग में आये तो अनुभव बने । तो यहाँ ही देख लो खंडरूप जो परिचय है वह अनुभव नहीं बन सकता, मगर खंडरूप परिचय किए बिना अनुभव करने के पात्र भी नहीं बन सकते, यह भी तो मानना चाहिए क्योंकि इस व्यवहारनय की कृपा से हम इतना योग्य बन पाये हैं कि निश्चयनय के रहस्य को समझ लेते हैं और हमारे लिए अब व्यवहारनय कुछ नहीं है । अब जरा दृष्टि दो अखंड परमार्थ गुण नजर में रहें, ऐसी स्थिति पाने पर हम औरों को यह उपदेश दें कि व्यवहारनय से विकृत अलग हटे रहना, हम भी व्यवहारनय को छोड्कर इस निश्चय अंतःस्वरूप में आये हैं तो यह तो दूसरों पर एक अन्याय करना हुआ, क्योंकि हम जिस प्रकार से चलकर एक इस परमार्थ में पहुंचे उस प्रकार की बात उन्हें तो कहा नहीं और कहते―व्यवहार है इसलिए छोड़ो तो यह उन पर अन्याय है । व्यवहारनय कहाँ तक कैसा काम देता है यह बात समझनी होगी, और अंत में लक्ष्य है निश्चयनय का, निश्चयनय में पहुंचने के लिए ही व्यवहार का प्रयोग है, व्यवहार में रमने और अटकने के लिए नहीं है । सो यह ही बात इस कलश में अमृतचंद्रजी सूरि कहते हैं कि पहली पदवी में जिन्होंने आगे कुछ कदम बढ़ाया है उनके लिए व्यवहारनय हस्तावलंबन की तरह है । पर जिन्होंने अपने अंत: परमार्थ स्वरूप को देखा है उनके लिए यह व्यवहारनय कुछ भी नहीं है । देखिये उपयोग लगाने और लक्ष्य में बढ़ने की बात है । वस्तु की ओर देखें तो वस्तु सदाकाल द्रव्यपर्यायात्मक है, तब न निश्चयनय की बात छूटी न व्यवहारनय की बात छूटी । जैसे वस्तु द्रव्यपर्यायात्मक है ऐसे ही तत्त्वज्ञान निश्चयव्यवहारात्मक है । इतना होने पर भी पर्याय का आलंबन लेने से मोक्षमार्ग नहीं मिलता, ऐसे ही व्यवहारनय में रमने से मोक्षमार्ग नहीं मिलता । बढ़ना चाहिए । आगे बढ़ें, अंतःस्वरूप में पहुंचे तो ऐसे ही इस अंतःस्वरूप में पहुंचने के लिए यह व्यवहारनय पात्रता बना रहा है ।
88―व्यवहार व्यवहार विवेक करने की आवश्यकता―देखो आगम के निर्देश के अनुसार नय 7 बताये गये हैं―नैगमनय, संग्रहनय, व्यवहारनय, और शेष चार नय और बचे―ऋजुसूत्रनय, शब्दनय, समभिरूढनय और एवंभूतनय । ये 7 किसके भेद हैं? द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिकनय के । तो तीन भेद बताये नैगम, संग्रह, व्यवहार, सो व्यवहारनय द्रव्यार्थिकनय का अंग है और पर्यायार्थिकनय में चार बताये―ऋजुसूत्रनय से शुरू किया, तो व्यवहारनय दो प्रकार के हुए―एक तो हुए, क्षण-क्षण में होने वाली जो अवस्था है उसे जो बता, सो एक तो हुआ पर्यायार्थिक वाला व्यवहार और एक वस्तु में ही समझने के लिए गुण पर्याय के खंड किये जायें वह है द्रव्यार्थिकनय में भेद वाला व्यवहार । तो व्यवहार नाम सुनकर हर जगह एक निर्णय न रखना चाहिये कि यह व्यवहारनय झूठ है । जैसे दूध कितने होते हैं―गाय का दूध, भैंस का दूध, बकरी का दूध, ऊटनी का दूध, आक का दूध आदि । आक एक पेड़ होता है जिसमें बहुत दूध निकलता है । कोई 7-8 पत्ते ही तोड़ लिए तो एक छोटी कटोरी भर दूध निकल आता है । अब दूध तो आक का भी है पर यह दूध अच्छा थोड़े ही होता, इस दूध के पानी से तो पीने वाले के प्राण तक भी चले जाते हैं । यह दूध अगर किसी की आँख में पड़ जाये तो आंख भी फूट जाये । अब आक के दूध में तो यह बात दिखी कि यह प्राणघातक है, पर कोई सभी दूधों के लिए चिल्लाये कि दूध सारे प्राणघातक हैं तो यह कोई विवेक की बात तो न रही । अरे आक का दूध प्राणघातक है न कि गाय, भैंस आदिक का । लोग तो गाय को माता कहकर पुकारते, और गाय के दूध को बड़ा पवित्र मानते । तो इस प्रकार व्यवहार-व्यवहार अनेक प्रकार के होते हैं, कुछ व्यवहार उपचार वाले हैं, कुछ व्यवहार सत्य प्रदर्शित करने वाले हैं, तो इसका विवेक होना चाहिए और सत्य के प्रदर्शक, परमार्थ के प्रतिपादक व्यवहार के आलंबन से हम परमार्थ तक पहुंचने का अपना पौरुष बना लें । कितना उपकारी है यह व्यवहार कि जो व्यवहार अपने को मिटाकर भी साधक को उच्च दिशा में, निश्चय की स्थिति में पहुंचा देता है । ऐसी माँ जो खुद मिटकर पुत्र को सुरक्षित रख दे, बस वही स्थिति इस व्यवहार की है कि यह व्यवहार खुद मिट जाता है मगर साधक को निश्चय की ओर ले जाता है । तो यों है व्यवहार और निश्चयनय की स्थिति । व्यवहारनय प्राक् पदवी में हस्तावलंबन है । जब ऊपर पहुँच गए, निश्चय की स्थिति में पहुँच गए, परमार्थत: जो चैतन्य चमत्कार मात्र है उसको जब जिसने पा लिया उसके लिए व्यवहार कुछ नहीं है । तो इन स्थितियों से अगर कोई व्यवहार की उपयोगिता सुनकर खुश हो, आज तो व्यवहार की अच्छी बात कही तो उसकी रुचि व्यवहार में अटकी कहलायी ना । वह तो ज्ञेय तत्त्व है, जो अत्यंत उपादेय है वह स्थिति व्यवहार की नहीं है ।
89―व्यवहार की अरम्यता―कोई बंबई को मान लो यहाँ से पंजाब मेल से जा रहा, तो रास्ते में बड़े सुंदर-सुंदर स्टेशन मिलते हैं । बड़े सुंदर चित्र, बड़ी सुंदर छाया, बड़ी सुंदर पेड़ों की कतार, तो वह यात्री अगर उस स्टेशन में लुभा जाये और वहाँ ठहर जाये तो उसकी क्या स्थिति बनेगी? वह बंबई न पहुंच सकेगा । यदि ऐसा कोई कर डाले तो उसे लोग पागल कहेंगे । तो बीच में जो सुंदर-सुंदर स्टेशन आते हैं और आते ही हैं, वह रास्ता ही है, मार्ग में मिलते ही हैं, तो मार्ग में मिलने वाले इन सब स्टेशनों को वह देखता जायेगा, पर ये रमने के लिए नहीं हैं । रमने के लिए, ठहरने के लिए तो वह बंबई का लक्ष्य बनाया सो है । इसी तरह एक परमार्थ में चित्स्वभाव में इसकी पहुंच है, वहाँ पहुंचने के लिए हम पौरुष करते हैं, मन, वचन, काय का एक पुरुषार्थ बनाते हैं और अपने ज्ञान द्वारा एक तत्त्वज्ञान का भी पुरुषार्थ कर रहे हैं, चल रहे हैं, अब यदि हम उस ही में अटक जायें जो वर्तमान में ज्ञान बनाया, एक अद्भुत बल बन गया, उसमें ही रम गए, वही दिख रहा है, इस प्रकार व्यवहार संयम आदिक में ही रम गये तो अब हम बस आगे नहीं पहुंच सकते । हमारी उन्नति समाप्त हो गई, इसलिए व्यवहारनय का यथावसर अपना प्रयोग रखें ।
90-निश्चय और व्यवहारनय का ढाल और प्रहार की तरह उपयोग―निश्चय तक पहुंचाने में यह व्यवहार तो काम करता है ढाल का और निश्चय काम करता है हथियार का । जैसे युद्ध में सुभट चलता है तो वह दोनों प्रकार के साधन रखता है, शत्रु आक्रमण करे तो हम कैसे बचें, उसका साधन रखता है, उसे कहते हैं ढाल । पहले जमाने में ढाल ओर ढंग के होते थे, आजकल ओर तरह के ढाल हो गए, और शत्रु पर जो प्रहार करे वह है शस्त्र । तो इन विकार विभाव कर्मों को, शत्रुओं को नष्ट करने के लिए एक अद्भुत विशाल जंग में पहुंचा हुआ यह ज्ञानी वीर व्यवहार की ढाल से तो पाप व्यसन आदिक शत्रुओं का आक्रमण बचाता है । अध्ययन में न रहें, क्रियाकांड में न रहें, प्रभु भक्ति में न रहें, प्रतिक्रमण में न चलें, गुरु आज्ञा में न रहें और जो समय-समय की रात दिन की चर्या बतायी गई है उस पर न चलें तो अब वह बेकार हो गया, और स्थिति ऐसी है नहीं कि वह अंतस्तत्त्व में रमा ही रहे तो इससे इसका भला तो न हो सकेगा । यह व्यवहार, यह व्यसन और पाप के आक्रमण को दूर करता है इसलिए यह ढाल है और उसमें सुरक्षित होकर फिर तत्त्वज्ञान का, ज्ञानदृष्टि का अधिकाधिक प्रयोग करे तो यह हो गया विकार पर, कर्म पर शस्त्रप्रहार । काम दोनों करने के हैं, पर मुख्य गौण की बात, आगे पीछे की बात सब विवेकपूर्वक समझने से चित्त में सही उतर जाता है । इसी सब संकेत को आत्मख्याति टीका करने वाले सूरीश्वर अमृतचंद्र महाराज इस 5वें कलश में कह रहे हैं कि यद्यपि व्यवहारनय पहली पदवी में इस अंतस्तत्त्व की ओर जिसने कदम बढ़ाया है, रखा है उनके लिए हस्तावलंबन की तरह है । जैसे गुरुभक्ति, गुरुचरणों में रहकर अध्ययन करना ये सब उपयोगी चीजें हैं, ये हस्तावलंबन हैं । कैसे यहाँ बढ़ें फिर भी चैतन्य चमत्कारमात्र परम अर्थ जिसका कि अन्य कुछ दूसरा नहीं है । निश्चय से देखें तो मेरा स्वरूप एक चैतन्यमात्र है, जिसमें पर और परभाव का प्रवेश नहीं । इस अंतस्तत्त्व को जो अंतरंग में देख रहे हैं उनके लिए व्यवहारनय कुछ नहीं है । है ही नहीं, वहाँ दृष्टि ही नहीं । अनुभव में समाया हुआ है तो ऐसा कल्याण चाहने वाले पुरुष को व्यवहारनय और निश्चयनय को उपयोगिता को सही-सही जानकर बढ़ें । काम तो अपने को अपना करना ही है, वह प्रयोग सिद्ध हो, उस प्रकार से अपने को लगायें ।
91―अनुभवनों के मूल आधारभूत स्रोत में रमने का लक्ष्य―हम आप सब जीव पदार्थ हैं, जिसमें जानने देखने की शक्ति है और जानते देखते रहते हैं । अब कभी हम को सुख होता, कभी दुःख होता, इसका कारण क्या है कि जब बाहरी पदार्थों को इस ढंग से जानते हैं कि ये मेरे इष्ट हैं, ये मेरे भले हैं तब सुख मानते हैं । जब इस ढंग से जानते हैं किसी भी चीज को कि यह मेरा विरोधी है, तब दुःख होता है । तो सुख और दुःख जानने पर निर्भर है । हमारा जैसा जानना बनेगा वैसा सुख अथवा दुःख होगा । बाहरी चीजों के कारण से सुख दुःख नहीं । किसी के पास कितना ही वैभव हो, करोड़पति हो तो करोड़ होने से सुख नहीं है, किंतु जो मन में एक भाव लाये, ज्ञान किया कि मैं करोड़पति हूँ, मैं सबसे अच्छा, हूँ, इस प्रकार का जो जानन चला उस जानन से कल्पित सुख मिला, इसी तरह कभी वैभव मिट जाये या किसी का वियोग हो जाये तो किसी के वियोग में दुःख नहीं होता, किंतु हाय वह बड़ा अच्छा था, मेरे बड़े काम का था, वह मिट गया, इस तरह का जो जानन चल रहा है उससे दुःख हुआ, अब एक चीज है आनंद जो सुख और दु:ख से परे है याने जिसका आनंद गुण का परिणमन न सुख है, न दुख, किंतु आनंदमय है, वह आनंद कहलाता है, आकुलता न होना, ज्ञाता दृष्टा रहना । भगवान के आनंद, ज्ञानियों के आनंद है तो वह भी ज्ञान से मिलता । जहाँ यह जाना कि इन बाहरी पदार्थों से मेरे को क्या मतलब । ये भिन्न चीजें हैं, इनसे मेरा संबंध नहीं । मेरा तो मैं ज्ञानमात्र हूँ । ऐसा जानकर जो ज्ञान में ज्ञान रमाये उसमें आनंद मिलता है । तो निष्कर्ष यह है कि हम चाहते हैं आनंद या सुख तो उसका कारण है जान, सो ज्ञान को सही बनाये तो आनंद और शांति मिले । तो वह ज्ञान सही क्या है कि अपने आपके बारे में यह जानना कि मैं मनुष्य नहीं, पशु नहीं, तिर्यंच नहीं । जो ज्ञानी हैं वे जानते हैं कि मैं सेठ नहीं, व्यापारी नहीं, मनुष्य नहीं, स्त्री नहीं, बच्चों वाला नहीं, अमुक जाति का नहीं, यह तो सब देह के साथ लगे हैं ना, और देह कभी अलग हो जायेगा तो ये मेरे कैसे कहलाये? तो मैं जब देह से न्यारा हूँ तो मेरा तो सिर्फ ज्ञानस्वरूप है । और मेरा जगत में अन्य कुछ नहीं । तो ऐसा जो अपना ज्ञानस्वरूप है उसको देखना, उसमें रमना यह अपना कर्तव्य है ।
92―ज्ञानरमण का लक्ष्य होते हुए भी ज्ञानरमण न हो पाने तक आवश्यक कर्तव्यों में भगवद्भक्ति का प्रथम कर्तव्य―अब जब तक ज्ञानरमण की बात भली प्रकार न बने तब तक अपने को क्या करना चाहिए कि हम उस ज्ञान के मार्ग से न हटे रहें । उसके लिए बताया है आचार्यों ने श्रावकों के लिए 6 कर्तव्य । ये रोज के करने के हैं । लोग शिथिलता करते हैं तो परिणामों में भी शिथिलता आ जाती है । इनमें एक भी छोड़ने की चीज नहीं है, वे 6 कर्म क्या है? देवपूजा, गुरुपास्ति, स्वाध्याय, संयम, तप और दान । देवपूजा मायने जो देव है, भगवान है, उत्कृष्ट आत्मा है, परमात्मा है, जहाँ रागद्वेष जरा भी नहीं और ज्ञान इतना महान है कि तीनलोक तीनकाल की बातें सब ज्ञान में आ रहा और विकल्प कुछ है नहीं, तो ऐसा जो वीतराग सर्वज्ञ आत्मा हो सो भगवान । तो उस भगवान की हमें पूजा करना, उपासना करना, भगवान का ध्यान रखना, क्योंकि जो भगवान हो गए हैं वैसा ही मैं हो सकता हूँ, वही मेरा स्वरूप है, मैं तो ज्ञान और आनंद स्वरूप हूँ और भगवान भी ज्ञानानंदरूप हैं । हमारा ढका हुआ है ज्ञान और आनंद और भगवान का प्रकट है । तो हम को ज्ञान और आनंद के मार्ग पर चलना है, इसके लिए ही जीवन है तो उनकी पूजा हमको रोज करना । जहाँ मंदिर हो पास वहाँ मंदिर में स्थित होकर ध्यान करना, मंदिर न हो तो बैठकर साक्षात् अरहंत भगवान की मुद्रा ध्यान में रख लेना, प्रभु का गुणगान करना, विनती पढ़ना, यह है देवपूजा । यह रोज का काम है, सुबह उठे और निपटकर पहला काम है भगवान का ध्यान करना और जो नहीं करते हैं उनका समय कैसे जाता है और और बातों में, खाने में, और और तरह के आरामों में या विषय कषाय के कामों में । प्रभु की भक्ति में लगे तो यह काम देगा आगे के भवों के लिए । तो देवपूजा एक ऐसा व्यवहार है कि जिसकी वजह से हम भ्रष्ट न हो पायेंगे, ज्ञान के अपात्र न हो पायेंगे । ज्ञान के मार्ग के योग्य रहेंगे इसलिए देवपूजा श्रावकों का पहला कर्तव्य है । अब देवपूजा में ध्यान क्या बनाना है? सो कोई सी विनती पढ़ें उसमें सब बात आयेगी और वही ध्यान बनेगा । भगवान सारे विश्व को जानने वाले हैं फिर भी वे अपने में ही आनंद रस में लीन हैं । बस भगवान का यह ही स्वरूप है, प्रभु विश्व को करने वाला नहीं, सृष्टि करने वाला नहीं, जगत का करने वाला नहीं । इसमें तो उन्हें बड़ी आफत आ जायेगी । वे तो सबके जाननहार हैं और अपने सहज आनंदरस में लीन हैं और ऐसा हमेशा बने रहेंगे, और यही स्वरूप हमारा है, हम उस मार्ग पर चलें तो यह ही बात हम में प्रकट हो जायेगी । प्रभु के गुणों का गान करना वह है प्रभु पूजा ।
93―ज्ञानमरण का लक्ष्य होते हुए भी ज्ञानरमण न होने तक आवश्यक कर्तव्यों में से द्वितीय कर्तव्य गुरूपास्ति व तृतीय कर्तव्य स्वाध्याय―दूसरा कर्तव्य है गुरुओं की सेवा । गुरुजन कौन हैं? जो संसार से विरक्त हैं, आत्मकल्याण में लगे हुए हैं? जो जगत के वैभवों की कोई वांछा नहीं रखते हैं ऐसे साधुजन गुरु कहलाते हैं । उनकी सेवा में रहेंगे तो मान कषाय दूर होगी, पहला लाभ यह है । उन गुणों की प्राप्ति का उपाय बनेगा, दूसरा गुण है यह । तीसरा―चारित्र के प्रति हमारी भक्ति जगेगी जिससे हम में ही गुण का उत्कर्ष होगा । तो गुरुओं के सेवा यह हमारा दूसरा कर्तव्य है । अब गुरुजन कहीं न मिलें तो उनका स्मरण करना और जो कोई ज्ञानी पुरुष मिलें उनकी सेवा करना यह है गुरूपास्ति । यह चारित्र में उमंग दिलाने वाला कर्तव्य है । तीसरा कर्तव्य है स्वाध्याय―अपना अध्ययन करना । मैं क्या हूँ इसका मनन बने । इसके लिए आध्यात्मिक ग्रंथ पढ़ें और मनन बनेगा । कोईसा भी वर्णन आप पढ़ें स्वाध्याय में, उस वर्णन से अपना ही मनन बनता है । अगर वर्णन आया कि दुनिया इतनी बड़ी है, इसमें तीन भाग हैं―ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक, अधोलोक । तो यह बात पढ़ने से यह ज्ञान बने कि हमने यदि अपनी सम्हाल न की तो ऐसे-ऐसे दु:खों को हमें भोगना पड़ेगा जैसे कि इसी कारण अब तक भोगते आये । कभी शरीर की बात आ गयी―एकेंद्रिय का ऐसा शरीर, दोइंद्रिय, तीनइंद्रिय का ऐसा शरीर, यों कितनी तरह के शरीर हैं कितना बड़ा शरीर है यह वर्णन आ गया तो उससे हम को यह शिक्षा मिलती है कि हमने यदि आत्मा के स्वरूप की सम्हाल नहीं की तो ऐसे-ऐसे देहों में हमें जन्म लेना पड़ा । कोई सा भी प्रकरण पढ़ें, साक्षात् या परंपरया शिक्षा आत्मा के अध्ययन की होवे । जिसने अपने आपकी पहिचान नहीं की वह कभी संतोष नहीं पा सकता, क्योंकि देह को जाना यह मैं, तो उसका सारा जीवन तृष्णा में बीतेगा । केवल चैतन्यमात्र आत्मा का भान रहे तो तृष्णा नहीं होती ।
94―ज्ञानरमण का लक्ष्य होते हुए भी ज्ञानरमण न होने तक आवश्यक कर्तव्यों में से चतुर्थ कर्तव्य संयम―चौथा कर्तव्य है संयम । संयम से रहना, जीवरक्षा करना, प्राणिसंयम करना और खुद विषयों में लीन न होना सो अपनी दया वाला संयम ही मन को जैसा चाहे वैसा स्वछंद रखना यह धीरता को नष्ट कर देता, इसलिए मन को काबू रखने के लिए पांचों इंद्रियों का संयम चाहिए । मैं गान तान, सिनेमा, संगीत गायन ऐसी-ऐसी चीजें न सुनूँगा सदा अच्छी बात सुनूँगा, इस प्रकार का संयम रहे सो कानों का संयम हो गया । ज्ञानी पुरुष किसी के रूप पर दृष्टि न लगायेगा, लो आंखों का संयम हो गया । नाक का संयम क्या है? कौन लौकिक नहीं चाहता कि सुगंधित चीज मिले, दुर्गंधित चीज न मिले । अरे जो मिले, सो ठीक है । इस प्रकार से घ्राणेंद्रिय को वश में किया । रसना इंद्रिय को वश में करना । याने मनमाना खाने पर न चलना । जब चाहे जैसा चाहे न खा लेना । कुछ बार खाना, शुद्ध शाकाहारी बनना, जीवन चलाने के लिए तो अधिक से अधिक दो तीन बार खाना इससे ज्यादह बार न खाना । 6-7-8 बार का खाना यह कोई स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद बात नहीं है । बल्कि उससे तो स्वास्थ्य बिगड़ता है । अगर एक दो बार का, संयम का खान-पान रहेगा तो उससे स्वास्थ्य अच्छा रहेगा, शेष समय भी शांति में बीतेगा । तो संयम एक अपना कर्तव्य है ।
95―ज्ञानरमण का लक्ष्य होते हुए भी ज्ञानरमण न होने तक आवश्यक कर्तव्यों में पन्चम व षष्ठ कर्तव्य तप और दान―5 वाँ कर्तव्य है तप―इच्छाओं का निरोध करें । मान लो मन में आया कि हम खीर खायें तो झट खीर का त्याग कर दो, क्यों आया खीर का ध्यान? यह हुआ इच्छा का निरोध । मन में इच्छा जगी कि अधिक धन मिले तो उस इच्छा का निरोध करो । कर्तव्य है कि, दुकान में बैठे, दफ्तर में बैठें, आजीविका संबंधी कार्य करें, पर उदयानुसार जो धन प्राप्त हो उसमें ही धर्म और व्यय का विभाग बनाकर संतुष्ट रहे, आगे की इच्छा न करें । अपने आत्मस्वरूप के चिंतन की धुन रहे । मेरा हित कैसे हो, कैसे मैं अपने आत्मा में समाऊं, इसकी चेष्टा रहे । तो तप कहते हैं इच्छा के निरोध को । कोई प्रकार की इच्छा न पनपने देना यह तपश्चरण है । छठा कर्तव्य है दान । देखिये गृहस्थी में रहकर धनोपार्जन करना यह भी एक कर्तव्य है मगर जितने धन का व्यय अपने ऐश आराम के लिए किया जाता उसका कम से कम आधा भाग या चौथाई भाग दानमें, परोपकार में, धर्म के कामों में लगना चाहिए । और, यह दान रोज करने का है । आहारदान―गुरुजन हों, त्यागीजन हों, व्रतीजन हों, ज्ञानीजन हों उनको भक्ति पूर्वक अनुराग से आहार करायें । यह हुआ आहारदान । ज्ञानदान―बच्चों को ज्ञान सीखने के लिए उनकी मदद करना, स्वाध्याय के लिए शास्त्र मंगाना यह सब ज्ञानदान हें । बच्चों को पढ़ाये । तो ज्ञानदान भी एक महान कर्तव्य है । जो ज्ञानविषयक दान करते हैं उनको तो केवलज्ञान मिलने का सिलसिला है वहाँ । यह ज्ञानदान है । औषधिदान और अभयदान । कोई रोगी हो दुःखी हो उसे औषधि दिलाना, औषधि दान है कोई बहुत घबड़ाया हुआ हो, उसमें शांति दिलाना, उसको धीरज बँधाना अभयदान है । इन 6 आवश्यक कर्त्तव्यों से यह जीव सम्हला हुआ रहता है और उसकी फिर यह भावना रहती है कि मैं कैसे अपने आत्मा में रमूँ, और बाहर से जो क्षोभ हैं, विकल्प हैं उनसे कैसे हटूं । यदि वह व्यवहार सही-सही रहे तो इससे जीव को बड़ा फायदा रहता है ।
96―ज्ञानरमण का लक्ष्य होते हुए भी ज्ञानरमण न होने तक अन्य अनेक कृत्य व्यवहार―ज्ञानरमण की पात्रता के लिए और और प्रकार के भी व्यवहार हैं जैसे सब जीवों के प्रति मित्रता का भाव रखना, मुझसे अधिक कोई नहीं और मैं किसी अन्य से अधिक नहीं, सब एक समान हैं, जो स्वरूप सब जीवों का है वहीं मेरा स्वरूप है आनंदधाम, ज्ञाननिधान, उसका अनुभव करें, मनन करें और सब जीवों के प्रति फिर उसके सद्भावना बनेगी तो यह भी एक व्यवहार उत्तम है कि जिससे हम एक मोक्षमार्ग की लाइन में तो हैं अभी । दूसरा कर्तव्य है―कभी गुणी जन दिख जायें विद्वान, चरित्रवान तो उनको देखकर मन में आल्हाद उत्पन्न हो धन्य है मेरा भाग्य जो इनका दर्शन हुआ । प्रमुदित मन रहा इसकी निशानी यह है कि फिर उन ज्ञानी विद्वानों की सेवा में अगर तन लगे, मन लगे, धन लगे, वचन लगे तो वह सब कुछ करने को तैयार रहेगा । तीसरा व्यवहार यह है कि दुनिया में कोई दुःखी जीव मिलें तो अपनी श्रद्धा और शक्ति माफिक तन, मन, धन, वचन लगाकर उनका दुःख दूर करें । चौथा कर्तव्य है कि जो विरोधीजन हों, दुश्मन हों, ऐसे जीवों में माध्यस्थ्यभाव रखें । अगर विरोधी को ललकारने लगे, हटाने लगे तो उसमें भी तो कोई शक्ति है, उसे अपमान महसूस होगा, वह भी अपने इरादे बनायेगा, तब फिर चैन कहाँ मिल पायेगी? तो जो उल्टी बुद्धि वाले लोग हैं उनमें राग करें तो आफत । जिन्हें कहते हैं गुंडा लोग, उनसे प्रेम करें तो आफत, उनसे द्वेष करें तो आफत, इसलिए उनसे माध्यस्थ भाव रखना । ऐसा व्यवहार बनाने से हम आप में ऐसी योग्यता, पात्रता बनती है कि हम उस ज्ञानस्वरूप भगवान की आराधना के पात्र रहते हैं । अपने निकट जितना आयेंगे उतना ही आनंद मिलेगा । अपने से बाहर जितना दौड़ेंगे, भागेंगे उतना ही कष्ट में रहेंगे । बड़े-बड़े चक्रवर्ती ने भी जब यह रहस्य जाना तो सब त्याग दिया और अपने आप इस स्वरूप में आ गए । तो यह सद᳭व्यवहार अपना कर्तव्य है ।
97―ज्ञानरमण की पात्रता व कर्तव्यों की पात्रता के लिये मिथ्यात्व अन्याय अभक्ष्य के त्याग की आवश्यकता―कर्तव्यों के पात्र बनने के लिए मिथ्यात्व अन्याय और अभक्ष्य का त्याग होना चाहिये । मिथ्यात्व दो प्रकार को होता है-एक तो गृहीत मिथ्यात्व, जैसे सांसारिक देवी-देवता पूजने लग गए, जो रागी द्वेषी देवता है उनमें आस्था रखना, वह गृहीत मिथ्यात्व है और शरीर को मानना कि यह मैं हूँ, उसका साज शृंगार करना, उसको बार-बार देखना, शरीर में अहंभाव रखना अगृहीत मिथ्यात्व है । यह क्या है? एक अपवित्र शरीर हैं और उसमें ममता बसा रखी है तो ममता का त्याग करना और ज्ञानानंद स्वरूप में मग्न होना, यह हम आपका कर्तव्य है । यह शरीर जो मिला है तो इसे पाकर हम कुछ ज्ञान करें और अपने जीवन को सफल करें । दूसरा है अन्याय का त्याग । अन्याय किसे कहते हैं? जो बात अपने को बुरी लगे वह बात दूसरे पर करें उसका नाम है अन्याय । कोई हमारा दिल दुखायें तो हमें बुरा लगता है, तब फिर हम किसी दूसरे का दिल दुखायें तो अन्याय होगा । कोई हमारे बारे में झूठ बोलता, निंदा करता है तो हम को बुरा लगता है, तो हम किसी के बारे में झूठ बोलें, निंदा करें तो वह अन्याय कहलाता है । कोई हमारा धन हर ले जाये तो हम दुःखी होते हैं, तो कोई किसी का धन हरे तो वह अन्याय कहलाता है । कोई परस्त्री पर कुदृष्टि करे, ऐसा कोई अपनी स्त्री पर तो नहीं सह सकता ना । तो कोई किसी परस्त्री या पर पुरुष पर कुदृष्टि करे तो यह अन्याय है । तृष्णा परिग्रह की लालसा अधिक रखना यह तो अपने आप पर अन्याय है और दूसरे पर अन्याय है । अगर हम परिग्रह जोड़कर रख रहे तो इसके मायने यह है कि दूसरों के भोग में न आ सके तो वह अन्याय हुआ ना । जो भगवान महावीर के सिद्धांत में कहा है वह सिद्धांत आजकल के लोग मानने तो लगे । मुख से तो कह बैठते हैं मगर, पालन नहीं करते । समाजवाद की बात सब कहते, पर करते कोई नहीं, खुद तो विदेशी बैंकों में अपना खाता खोले रहते, और धनार्जन करते रहने का अपना मुख्य उद्देश्य बनाये रहते, तृष्णा में पड़े रहते । तो इस परिग्रह की तृष्णा में न बढ़े, तृष्णा अपने लिए न्याय की बात नहीं है । तीसरी बात यह है कि अभक्ष्य पदार्थों को न खायें―जैसे―अंडा, मांस, शराब, गोभी का फूल, शहद आदि । ऐसी अभक्ष्य चीजों का त्याग होना यह एक अपनी पहली बात है । तभी हम जैन कहलाने के पात्र हैं । तो यों अभक्ष्य का त्याग करना यह एक अपना सद᳭व्यवहार है । तो ऐसे व्यवहार में जो रहता है उस पर व्यसन, आपत्ति, खोटी संगति ये सब असर नहीं कर पाते और ऐसा सुरक्षित रहकर हम ज्ञान के मार्ग में लगें तो हम अच्छी तरह आगे बढ़ सकते हैं । इससे अपना व्यवहार सही रहे और ज्ञानस्वरूप भगवान की पूजा, उपासना, आराधना बनी रहे, इसमें अपना कल्याण है ।
98―ज्ञानरमण का लक्ष्य होने पर ज्ञानरमण न होने के काल में साधुओं के आवश्यक कृत्य―
व्यवहारनय प्राक् पदवी में हस्तावलंब है । साधुदशा होने पर भी जब तक ज्ञानरमण की स्थिति नहीं होती तब तक साधु जनों के षट् कर्तव्य हस्तावलंब है । समता, वंदना, स्तुति, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय व कायोत्सर्ग ये छह साधुओं के आवश्यक कृत्य हैं । यहाँ आवश्यक का अर्थ है अवश पुरुषों के कर्तव्य । अवश उन पुरुषों का नाम है जो इंद्रिय और मन के विषयों के वश नहीं है । ऐसे अवश साधुजनों के 6 कर्तव्य हस्तावलंब हैं । रागद्वेष न कर साम्यभाव धारण करना समता है । मन वचन काय से प्रभु के प्रति नम्र होना वंदना है । प्रभु के गुणों का गान करना स्तुति है । लगे हुए दोषों का प्रायश्चित करना प्रतिक्रमण है । प्रभु की दिव्यध्वनि की परंपरा से चले आये ऋषिप्रणीत ग्रंथों का, वचनों का अध्ययन मनन करना स्वाध्याय है । शरीर से ममत्व का त्याग कायोत्सर्ग है । इन आवश्यक कृत्यों को करते रहने से साधु अज्ञानवासना के शिकार नहीं हो पाते, प्रत्युत ज्ञानरमण की पात्रता प्राप्त करते हैं ।
99―तत्त्वज्ञान के संबंध में व्यवहारनय की हस्तावलंबता―तत्त्वज्ञान के संबंध में परमार्थ तो अखंड नित्य अंतःप्रकाशमान एकत्व विभक्त सहज चित् का प्रकाश है । उसकी उपलब्धि के लिये जिन्होंने अपना कदम रखा है उन पुरूषों के लिए प्राक् पदवी में व्यवहरणनय हस्तावलंब है । यहाँ जितना कथन है वह सब व्यवहरणनय है और जिस अखंड तत्त्व को लक्ष्य में लेने के लिए व्यवहरणनय ने निर्देश किया है वह परमार्थ है । यह व्यवहरणनय नव तत्त्व से विशिष्ट पदार्थ का प्रतिबोध कराता है । नवतत्त्व की संतति का उपयोग अशुद्ध द्रव्य का प्रतिबोधक है
वह शुद्धता का साधक नहीं, किंतु शुद्धता के साधक शुद्धनय की पात्रता बनाये रखने में उपयोगी है अत: व्यवहरणनय प्राक् पदवी में हस्तावलंब है ।