वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 52
From जैनकोष
एक: परिणमति सदा, परिणामो जायेते सदैकस्य ।
एकस्य परिणति: स्यादनेकमप्येकमेव यत: ।।52।।
515―प्रत्येक पदार्थ का परिणमन उसी अकेले का परिणमन―प्रकरण में यह बताया जा रहा है कि जीव और कर्म का परस्पर निमित्तनैमित्तिक योग है अर्थात् कर्म के उदय का निमित्त पाकर जीव में संकल्प विकल्प रूप से, ज्ञानविपरिणमन रूप से रागद्वेषादिक परिणाम होते हैं और जीव के इन रागद्वेषादि परिणामों का निमित्त पाकर पौद्गलिक कार्माण वर्गणा में कर्मत्व परिणमन होता है, इतने पर भी कर्म अकेला परिणमता है, कर्म जीव की कोई बात साथ लेकर नहीं परिणमता है, जीव भी अकेला परिणमता है, वह कर्म की कोई चीज साथ लेकर नहीं परिणमता । जैसे मानो दो आदमी एक साथ गा रहे मैं स्वर में स्वर मिलाकर, फिर भी यह बताओ कि एक दूसरे का कुछ लेकर गा रहा है या वह अकेला ही गा रहा है, दोनों अकेले ही अकेले गा रहे, पर हाँ परस्पर में साश्रय निमित्तनैमित्तिक योग है, उसके लय को निमित्त पाकर वह स्वर मिलाता है, उसमें वह स्वर मिलाता है, पर परिणमना सबका अकेले होता है । कोई समय आता है कि घर के सब दुःखी हो जाते हैं, कोई घटना घटी, घर के सब लोग रो रहे हैं, दुःखी हो रहे हैं, पर यह बतलावो कोई किसी दूसरे का दुःख लेकर रो रहा है या हर एक कोई अपने आपके अकेले के दुःख से रोते हैं, इसी तरह सुखी होते हैं तो सब अपने अकेले-अकेले में सुखी होते हैं । कोई घटना हुई बड़े हर्ष की तो सब सुखी हो रहै हैं, पर यह बतलावो कि कोई किसी दूसरे का परिणमन साथ लेकर सुखी हो रहा या केवल अपने सुख से सुखी हो रहा है? कितना भी कहीं कुछ हो रहा हो, प्रत्येक जीव केवल अपनी परिणति से परिणम रहा है, दूसरे की परिणति को रच ओ ग्रहण नहीं करता, यही बात जीव और कर्म में है, दोनों एक दूसरे का निमित पाकर परिणम रहे हैं, लेकिन दोनों ही अपने में अकेले-अकेले में अकेले ही परिणमते हैं, कोई किसी दूसरे को साथ लेकर नहीं परिणमता । किसी के घर कोई बुरी घटना हुई, कोई गुजर गया तो उसके फेरे में बाहर से रिश्तेदार आते हैं और उसके घर आते ही वे उसके धर रोने लगते हे । सो लोग तो यों कहते हैं कि देखो एक ने दूसरों को रुला दिया, ये दूसरे के दुःख में दुःखी हो रहे हैं, ऐसा लोग बोलते हैं । हम आपके दुःख में तो दुःखी हैं, आपके सुख में सुखी हैं । पर यह बात बिल्कुल झूठ है, ऐसा त्रिकाल हो ही नहीं सकता कि मैं भाप के दुःख में दुःखी हो जाऊं और आपके सुख में सुखी हो जाऊं । हाँ यह हो सकता है कि आपके दुःख को निरखकर मैं अपने में एक नया दुःख बनाकर दु:खी हो जाता हूँ । यह तो कल्पित प्रेम का संबंध हो जायेगा, मगर यह कहना कि हम तो आपके दुःख से दुःखी हो रहे, यह बात यथार्थ नहीं है । आपके दुःख के बारे में विचार कर करके अपने एक अलग दुःख से दु:खी हो रहा हूँ, तथ्य यह है वहाँ हर जगह ।
516―दृष्टांतपूर्वक एक के ही परिणमन की सिद्धि―जगत में जितने भी पदार्थ हैं वे सब पदार्थ अपने में अकेले में अपना परिणमन करते हैं, यहाँ कोई किसी दूसरे का परिणमन नहीं करता यह ही बात जीव व कर्म में तकी जा रही है । कर्म प्रकृति, प्रदेश, स्थिति, अनुभाग ऐसे बंधन के रूप से परिणम गए तो कर्म अपने में ही इस रूप परिणमें, जीव की कोई बात लेकर नहीं परिणमें, जीव भी अपने में ही परिणमा, कर्म की बात लेकर नहीं परिणमा, अच्छा एक दृष्टांत लो―समुद्र है, हवा चली बड़ी तेज और समुद्र में लहरें उठने लगीं, देखो हवा के चलने का निमित्त पाकर समुद्र में लहरें उठीं मगर यह बतलावो कि लहरों रूप अकेला समुद्र बना या हुवा और समुद्र दोनों मिलकर लहर बन गई दोनों मिलकर लहर नहीं बनीं । हवा का काम पानी रूप बनता नहीं । हवा का काम बहना है । और उस बहने का निमित पाकर यह समुद्र स्वयं लहररूप परिणम गया, पर लहर रूप थे वल समुद्र परिणमा, दूसरा नहीं परिणमा । और, जब हवा चलना बंद हो गया तो हवा के बंद होने का निमित पाकर समुद्र की लहरें मिटीं, समुद्र निस्तरंग हो गया, गंभीर बन गया । तो क्या हवा और समुद्र दोनों मिलकर गंभीर बने या खाली समुद्र गंभीर बना । समुद्र ही बना गंभीर । हर जगह देखो अग्नि का संयोग पाकर बटलोही में खिचड़ी पकी सो जो वे दाल चावल पके तो क्या आग को साथ में लेकर पके या वे अपने आपमें अकेले पके? अग्नि चावल दोनों मिलकर नहीं पके, केवल चावल पके हैं । निमित्त अवश्य आग है । तो जैसे हम यह सब जगह निर्णय कर सकते ऐसे ही जीव और कर्म का निर्णय करें कि यहाँ भी जीव अकेला ही शुभ अशुभभावरूप परिणम रहा है, कर्म को साथ लेकर नहीं परिणमा । देखो कितनी गंभीर अंदर की बात है । वे रागद्वेष क्या हैं? ज्ञान के उस तरह के विकल्प । सो ये विकल्प तब बने जब कर्मरस का रंग इसमें खुला, तिस पर भी जीव जो परिणमा सो जीव में ही परिणमा, कर्म जो परिणमा सो कर्म में ही परिणमा । अच्छा, अमृतधारा बनती है―कपूर पिपरमेन्ट और अजवाइन के फूल, उन तीनों को बराबर लेकर एक शीशी में रख दीजिए, लो जल बन गया । जल बन गए वे तीनों ही, मगर हर एक के परमाणु, हर एक के स्कंध खुद अपने आपमें परिणमे, दूसरे को साथ लेकर नहीं परिणमे । आप कितनी ही,कठिन से कठिन घटना सामने रख लें, प्रत्येक घटना में तथ्य यही है कि वह अपने में अकेला ही परिणमता दूसरे को साथ लेकर नहीं परिणमता ।
517―अपने आपमें अपने क्रिया के प्रयोजन की पूर्ति―जो ज्ञानी है जो दूसरे जीवों पर दया करते वे किसी दूसरे पर एहसान नहीं करते, किंतु वे अपने आप पर ही दया करते । मान लो किसी भिखारी को भूखा देखकर आपने उसे भोजन कराया तो कहीं आपने उस भिखारी का दुःख नहीं दूर किया, किंतु आपने जो उसके प्रति यह ख्याल बनाया कि बेचारा भूखा है, उसको भूख से चिल्लाता देखकर आपके हृदय में जो एक वेदना हुई उस वेदना को शांत करने के लिए उसे भोजन कराया । आप खूब विचार कर लो―है ना ऐसा ही । मेरा दुःख दूर होता है मेरी ही क्रिया से, मेरे ही ज्ञान से । मैंने तो अपना दुःख दूर करने के अपनी उस प्रकार की चेष्टा की । एक घटना है कि एक जज साहब अपनी कार से कचेहरी जा रहे थे, शायद जैन होंगे, तो रास्ते में क्या देखा कि सड़क के पास एक बड़े गड्ढे में एक सु अर कीचड़ में फंस गया था, सो वह बड़े जोर-जोर से चिल्ला रहा था । वह दृश्य देखकर जज साहब को सुअर पर दया आयी, अपनी कार खड़ी की और सुअर को अपने हाथों कीचड़ से बाहर निकाल दिया । यद्यपि उसके साथ सिपाही था, उसने मना किया, कहा कि आप रहने दो, हम निकाले देते हैं, पर जज साहब ने न माना और स्वयं ही निकाला । उस प्रकरण में उन, वस्त्र कीचड़ से दग गए, वे उसी हालत में बिना कपड़े बदले कचहरी पहुंचे । सभी लोग जज साहब को उस हालत में देखकर दंग रह गए और पूछ बैठे ? आज जज साहब के वस्त्र कीचड़ से कैसे भिड़े हैं? तो सिपाही ने सारा हाल कह सुनाया । सभी लोगों ने जज साहब को धन्य कहा, और यही कहा कि अरे जब साहब तो बड़े दयालु हैं, उन्होंने सुअर पर कितनी दया को? तो जज साहब बोले―भाई मैंने सुअर पर कोई दया नहीं की । मैंने तो अपने आप पर दया की ।....कैसे?....देखो―हम यदि उसे निकालकर न आते तो यहाँ हमारा चित उस सुअर की तड़फन की ओर लगा रहता, फिर मैं यहाँ कचहरी का कोई काम कैसे कर सकता था? यहाँ पर भो मेरे चित में वेदना रहती । तो मैंने अपनी वेदना को दूर करने के लिए सुअर को निकाला । भैया, सभी प्रवृत्तियों में आप यही सिद्धांत पावेंगे कि जो कोई भी जो कुछ करता है वह अपनी शांति के लिये करता है । और, निश्चयत: कोई करता भी क्या अपने में उपरक्त या अनुपरक्त ज्ञान क्रिया को करता है ।
518―परकर्तृत्व का भ्रम छोड़कर याथात्म्य का निश्चय करने का अनुरोध―भैया ! यह भ्रम छोड़ दीजिए कि घर में ये मुझ से बहुत प्रीति रखते, या ये मुझ से बड़ा द्वेष करते? अरे न कोई किसी से प्रेम करता न कोई किसी से द्वेष करता, कर ही नहीं सकता ।....अच्छा तो फिर क्या कर रहे? हर एक कोई जिसकी जैसी योग्यता है, जैसी गंभीरता है, जैसा वात्सल्य हम उस अपने ही वात्सल्य के कारण; अनेक प्रकार के विचारों के कारण यह प्रीति का व्यवहार करते हैं । अच्छा, धर्ममार्ग में श्रावक गुरुजनों से अनुराग रखते और गुरुजन भी श्रावकों से अनुराग रखते, इसमें भी क्या कारण है? इसमें भी यहाँ कारण है, लेकिन फर्क है कि यहाँ मोक्षमार्ग और धर्म का ख्याल है साथ में, इस कारण से व्यवहार चलता है, पर वास्तविकता यह है कि प्रत्येक जीव अपने आपके कारण से दुःखी है, अपने से सुखी है, अपने भावों का कर्ता है, अपने आपमें अकेला परिणमन करता है । कोई किसी दूसरे को साथ लेकर परिणमन नहीं करता । यहाँ आचार्य देव कह रहे हैं कि सदा कोई भी वस्तु अकेले ही परिणमती है । कोई वस्तु किसी दूसरे को साथ लेकर नहीं परिणमती, याने दो मिलकर नहीं परिणमती । तो जैसे एक दृष्टांत में समझा होगा कि जब तेज हवा चली और समुद्र में लहरें उठीं, समुद्र रूप हुआ तो यह बतलावो कि उस लहर का करने वाला कौन? निश्चय दृष्टि से उत्तर आता है―एक का एक में एक को देखना तो निश्चय में लहरों का करने वाला कौन? समुद्र । क्योंकि जो लहरों रूप परिणमें वही करने वाला निश्चय से कहा जाता है । और, दूसरी बात भी देखिये―कि लहर समायी है समुद्र में । समुद्र ने लहर को समा लिया तो व्याप्य व्यापक भाव समुद्र के साथ है, एकमेकपना लहर का समुद्र के साथ है हवा के साथ नहीं, इस कारण लहरों का करने वाला केवल समुद्र ही नजर आया । इन लहरों को इस समुद्र ने किया । निमित्त अवश्य है वह हवा, मगर निश्चय से कर्तृत्व लहर का समुद्र में है उसी प्रकार अपने आपके बारे में ऐसी नजर डालें कि जो रागद्वेष रूप परिणम रहा हो सो यह अकेला ही रागद्वेष रूप परिणम रहा ।
519―वस्तुस्वरूप के परिचय से सन्मार्ग की स्पष्टता―वस्तुस्वरूप के परिचय से हितमार्ग की अनेक बातें स्पष्ट होती है । मेरा शरण मेरा यह परमात्म स्वरूप है, अपने आप ही अपने आपकी रक्षा करने वाला है । कोई दूसरे का साथी नहीं है । अचानक मानो कोई उपद्रव आ जाये, छत गिर जाये, या यहीं कोई सांप निकल बैठे या कोई बड़ी घटना घट जाये तो सब अकेले-अकेले अपनी-अपनी जान लेकर भागेंगे ? हाँ अगर थोड़ी गुंजाइश हुई तो सोचेंगे कि लावो अपने बच्चे को भी उठा लें और यदि गुंजाइश न हुई तो अपने-अपने प्राण लेकर भागेंगे । तो स्थिति देख लो―वास्तविकता क्या है, और यह तो वस्तु की सीमा है, इसका बुरा न मानना चाहिए । यह तो द्रव्य का स्वरूप है कि प्रत्येक द्रव्य अकेला ही परिणमता है । कोई किसी दूसरे को साथ लेकर नहीं परिणमता । एक भजन है जिसकी टेक है―चिद्रूप हमारा, इसका ही सहारा । मैं चैतन्य स्वरूप हूँ, मेरा यही सर्वस्व है और मेरे को इसका ही सहारा है । और इसका अंतरा है “वस्तुस्वरूप ही नहीं कि पर से कुछ मिले । खुदगर्ज भी किसको कहें सब सत्त्व के भले” यही स्थिति है । वस्तु का स्वरूप ही नहीं ऐसा कि किसी पर पदार्थ से किसी दूसरे में कुछ मिल जाये, कोई गुण आये, कोई पर्याय आये ।
520―एक का स्वयं के एक में ही परिणमन की संभवता पर कुछ दृष्टांत―व्यवहार में कहते हैं ऐसा कि देखो दीप का प्रभाव, सारे कमरे को प्रकाशित कर देता है, पर तथ्य क्या है? दीपक जो एक अकेला है, जो लौ है उसका नाम दीपक है । दीपक का गुण, दीपक का परिणमन, दीपक का प्रभाव दीपक के प्रदेशों में ही रहेगा । उसके बाहर न जायेगा । कितना बड़ा है दीपक ? देखो जितनी लौ जल रही उतना बड़ा है दीपक । दीपक का फिर बाहर प्रकाश कैसे बन गया? जो प्रकाश में आये हैं पदार्थ उनकी ही ऐसी कला है कि वे अपनी कला से दीपक का सांनिध्य पाकर अंधेरी अवस्था को छोड्कर प्रकाश अवस्था में आये तो अपने में अकेले ही परिणम करके आये । कोई किसी दूसरे को साथ लेकर नहीं परिणमता । भैया? हर जगह ऐसी बात निरखते जाइये । यह तो एक आश्रयभूत की बात कह रहे हैं । किसी का गाली गलौज सुनकर मुझे क्रोध आ गया तो यह बताओ कि क्रोधरूप अकेला मैं ही बना या गाली वाला और मैं दोनों ही मिलकर मैं अपने क्रोघरूप बना । गाली देने वाला अपने में क्रोधरूप बना, सुनने वाला अपने में क्रोध रूप बना । कोई किसी दूसरे का परिणमन साथ लेकर नहीं बनता । कहते हैं कि भाई महिला ने रोटी बनायी, बनायी रोटी, पर यह बतलावो कि रोटी जो बनी, रोटी का जो परिणमन हुआ सो आटा ही अकेला रोटी रूप बना था आटा और महिला दोनों मिलकर रोटी रूप बने? सीधी बात है । कोई यह न कहेगा कि महिला और आटा ये दो मिलकर, गुँथकर रोटी बने । महिला अपने में है, रोटी आटे में है, तो रोटी रूप गोल होकर आटा ही परिणमा । महिला कितना ही हाथ हिलाये मगर वह रोटी रूप नहीं परिणम सकती । जगत में प्रत्येक पदार्थ केवल अकेला ही अकेला परिणमन करता है, अपनी परिणति करता है । कोई किसी दूसरे का परिणमन नहीं कर पाता । निमित्त अवश्य है, परंतु परिणमन एक में उसी एक का है ।
521―अपनी भूल से हुए क्लेशानुभव का पर को कर्ता न मानने से शांतिमार्ग का लाभ―एक का एक में ही कर्तृत्व की बात सुनकर हमें क्या शिक्षा लेना चाहिए कि जब हम दुःखी होते हैं तो अपने एक अकेले परिणमन से ही दुःखी होते हैं, किसी दूसरे की वजह से दुःखी नहीं होते । और, साथ ही यह भी जानें कि जो दुःख रूप परिणमन मुझमें हो रहा वह केवल मेरे अपराध से हो रहा है, दूसरे के अपराध से नहीं, जो भी दुःखी होता है, कभी कोई मुनि दुःखी हुआ तो वह अपने ही अपराध से, राजा दु:खी हुआ तो वह अपने अपराध से, व्यवहार से लगता है ऐसा कि देखो मुझको तो इसने दुःखी कर डाला और कहते ही हैं लोग कि मुझको तो इस बच्चे ने दुःखी कर डाला, मुझको अमुक ने हैरान कर दिया । किसी को कोई दूसरा हैरान नहीं कर सकता । यह त्रिकाल सत्य है कि जो हैरान हो रहा है, जो दुःखी हो रहा वह अपने ही अपराध से हो रहा, दूसरे के अपराध से कोई दूसरा दु:खी नहीं होता । आप कोई घटना देवें, आप कहेंगे कि मैं तो इस बच्चे का इतना काम करता हूँ इतनी मदद करता हूँ, इतना प्यार से रखता में, फिर भी यह देखो ऐसी हरकत करता कि इसने मुझे दुःखी कर डाला, अरे नहीं, उसकी हरकत ने दुःखी नहीं किया, किंतु तुम्हें खुद एक मोह है, राग है, उसे कुछ और तरह देखना चाहा है, ऐसा चले, ऐसा रहे और वहाँ बात वह बन नहीं रही क्योंकि आपका अधिकार कुछ नहीं, प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र है, तो आप अपने में अपना विकल्प बनाकर अपने में हैरानी कर रहे हैं, दूसरा कोई हैरानी नहीं करता । अच्छा बताओ मुनिराज पर कोई उपसर्ग करता है, मुनिराज बहुत सच्चे, सीधे, ज्ञानी ध्यानी है, एक यह ही बात देखो पार्श्वनाथ भगवान पर कमठ ने उपसर्ग किया और उनके हर भव में प्राणघात किया, जब हाथी थे तो, और किसी भव में थे तो, पार्श्वनाथ के जीव की और से कभी कोई विरोध की बात नहीं आयी । खैर वहाँ दु:खी रहा कोई तो क्यों दुःखी रहा? अपने ही अपराध से । अरे पूर्व जन्म में पहले जो कर्म कमाया, जिस तरह का बंध बाँधा उस तरह से दुःखी हुआ, और नहीं तो जब दुःखी होता है कोई मुनि तो कुछ राग आया ना उसको अपने में ? यह मुझ पर उपसर्ग कर रहा, कुछ राग आया तो उस राग के कारण यह दुःखी हुआ । जो भी दुःखी होता है वह अपने ही अपराध से दुःखी होता है, कोई किसी दूसरे को दुःखी नहीं कर सकता ।
522―परकर्तृत्व का भ्रम निकालने से भी बढ़कर अपने में सहज चैतन्यस्वरूप के स्वातंत्र्य का अनुभव लेने का संदेश―वास्तविकता जानवर सब जीवों में हस सहज परमात्मस्वरूप को देखो―सब भगवान हैं, जितने जीव हैं सब भगवान स्वरूप हैं । किसी का अनादर न करना, किसी को तुच्छ न मानना, भले ही कोई जीव आज कीड़े की पर्याय में है, कर्मों का उदय है, ऐसी स्थिति बन गयी, मगर जो जोव है वह तो उस स्वरूप को लिए हुए है जो प्रभु का स्वरूप है, तो यह ज्ञान, वस्तु की स्वतंत्रता का ज्ञान, प्रत्येक पदार्थ न्यारा-न्यारा अपना-अपना सत्त्व रखता है इस प्रकार की आजादी का बोध, यह जन्ममरण को दूर करेगा भैया, जितना भी कष्ट है जीवों को, वह सब मोह का है । मोह नहीं तो कष्ट का काम नहीं । जहाँ कष्ट है वहाँ, अवश्य ही मोह है; राग है; द्वेष है । जब तक यह मोह है तब तक कष्ट है, कष्ट से अलग होने की सबकी भावना रहती है, मुझ पर संकट न रहे, मुझ पर कष्ट मत रहे, सबके चित्त में यह भावना रहती है, मगर उस कष्ट को मिटाने का उपाय सब उल्टा करते हैं । जिस बात से कष्ट होता है उसी को कष्ट निवारण का उपाय समझते हैं, ऐसी एक मोहिनी धूल पड़ गई इस जीव की बुद्धि पर कि जिस चीज से कष्ट होता है उस हो को कष्ट विनाशक समझते हैं, मोह से कष्ट होता तो उस कष्ट को दूर करने के लिए बस मोह को ही-करते हैं, तो यह उल्टा उपाय है ना । तो सीधा उपाय क्या है? सच्चा ज्ञान प्रकाश वित्त में लावें तो कष्ट दूर हो जायेगा । वह सत्य ज्ञान प्रकाश क्या? वस्तु की स्वतंत्रता का बोध । प्रत्येक जीव स्वतंत्र हैं, अपने आपमें अपने आप ही परिणमन करते हैं । दूसरा पदार्थ तो निमित्त मात्र है, हाजिर भर है । हाँ बात यह अवश्य हैं कि वह निमित्त न हो तो यहाँ विकार की बात नहीं बनती, मगर निमित अपने से हटकर उपादान में कोई परिणति करता हो सो बात नहीं है, अन्यथा वस्तु का अभाव हो जायेगा । तो यों निरखो―जैसे उस समुद्र में यह देख रहे हैं कि हवा भले ही चल रही, मगर लहरों रूप केवल समुद्र ही बन रहा । ऐसे ही अपने आत्मा में भी यह बात देखिये कि मुझमें रागद्वेष हो रहे हैं, कर्मों के उदय का सन्निधान पाकर हो रहे हैं, मगर मैं अकेला ही इस राग विकल्प रूप परिणम रहा हूँ । कर्मों से मिलकर मैं रागरूप नहीं परिणमता, ऐसा अपने आपमें देखें और अपने आपकी स्वतंत्रता का अनुभव ले ।
523―वस्तुस्वातंत्र्य के दर्शन का सदुपयोग कर मोहक्षोभरहित होकर शांति पाने का संदेश―भैया ! परतंत्रता के ध्यान में बहुत कष्ट पाये और दूसरों की परतंत्र रखने, बनाने, समझने के ध्यान में भी बड़े कष्ट पाये । कोई समझता हो कि यह पुरुष बड़ा है, हुकुम चलाता है, यह तो बड़ा सूखी होगा, देखी इन हजारों आदमियों पर हुकुम चला रहा है, ये हजारों आदमी हुकुम मान रहे हैं, पर वह बड़ा भी दुःखी याने हुकुम देने वाला भी दुःखी और हुकुम मानने वाले भी दुःखी । हुकुम मानने वालों से भी अधिक दुःख हुकुम देने वाले को रहता है । हुकुम मानने वालों ने तो यह सोच रखा है कि जो हुकुम मिला सो कर दिया, आगे कोई झंझट नहीं, मगर हुकुम देने वाले को कितनी उल्झनें हैं, कितना बड़ा उत्तरदायित्व हूँ, उस पर कितना बड़ा बोझ है । क्या-क्या नहीं करना पड़ता, किस-किस ढंग से उसे क्या नहीं करना पड़ता । तो हुकुम मानने वालों से हुकुम देने वाला अधिक दुःखी है । यह ही बात सर्व ने लगा लीजिए । वस्तुत: दुःखी कोई नहीं । कषाय का नाम दुःख है वह तीव्र दुःखी है, जिसके जितनी कषाय हैं, तीज कषाय है, वह तीव्र दुःखी है, मंद कषाय है तो वह मंद दुःखी हे । कषाय कहते ही उसे हैं, जो आत्मा को कसे, आत्मा को दु:खी कर दे । यदि दुःख मिटाना है तो अज्ञान और कषाय इन दो को दूर कीजिये, इसके सिवाय अन्य कोई उपाय नहीं है जो इसका दुःख दूर कर दे । अज्ञान तो यों मिटा लो कि प्रत्येक जीवको, प्रत्येक परमाणु को अपने-अपने सत्त्व में देखें । कोई किसी का करने वाला नहीं है, यों समझें कि कषाय मैं रखूँगा तो मेरे को निरंतर पाप का बंध होगा और कर्मबंध तो एक आसान है, मगर जब उसका उदय आयेगा तो उस समय बहुत बड़ा कष्ट भोगना पड़ेगा । क्यों पाप कर्म बाँधे? क्यों मैं चित्त में कषाय रखूं? अपनी दया के लिए कषाय का त्याग करना है, दूसरों पर एहसान डालने के लिए कषाय का त्याग नहीं । व्रत, तप, संयम, धर्मपालन अपनी दया के लिए करना है, किसी दूसरे पर एहसान धरने के लिए नहीं करना है, अपने ही उपकार के लिए सब कुछ किया जायेगा । तो अज्ञान दूर हो, कषाय दूर हो, सदा यह ही नजर में आये कि, मैं अकेला हूँ, अपने परिणमन से ही । परिणमता रहता हूँ, यह किसी दूसरे का परिणमन साथ लेकर नहीं परिणमता । तो इस छंद में कह रहे । हैं कि यह जीव अकेला एक ही परिणमता है, और इसका जो परिणाम होता है उस रूप ही होता है और एक की ही परिणति होती है और ऐसे ये अनेक परिणमन हो जाते हैं । एक पदार्थ की अनेक दशायें हो जाती हैं, मगर सब अनेक दशायें ये केवल । उस रूप ही हैं, कहीं कूदी-जुदी नहीं होती हैं । जैन लोग, जैसे मानते हैं क्षण-क्षण में यह आत्मा परिणमता है, इसके बजाये बौद्ध के यहाँ वे जुदे-जुदे पदार्थ हैं तो ऐसा नहीं किंतु उसकी पर्यायें अनेक हैं, मगर वे सब पर्यायें उस द्रव्यरूप ही हैं । ऐसा अपने आपमें । देखें, वाह का यहाँ कोई प्रवेश नहीं, मोह को छोड़े तो शांति का मार्ग मिलेगा ।