वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 54
From जैनकोष
नैकस्य हि कर्तारौ द्वौ स्तो द्वे कर्मणी न चैकस्य ।
नैकस्य च क्रिये द्वे एकमनेकं यतो न स्यात् ।।54।।
535―किसी भी पदार्थ का अन्य पदार्थ पर स्वामित्व आदि हो सकने की गुंजाइश का अभाव―इस प्रकरण में यह बताया जा रहा कि लोक के समस्त पदार्थ स्वयं अपने आपके द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से हैं, एक पदार्थ का दूसरे पदार्थ के साथ न तो स्व स्वामी संबंध है, न कर्ता कर्म संबंध है, न भोक्ता भोग्य संबंध है फिर गुंजाइश बताओ, किस वजह से कह रहे हैं कि यह चीज मेरी है, चाहे चेतन पदार्थ हो अथवा अचेतन, कोई भी पदार्थ मेरा कुछ नहीं है, कोई पदार्थ मेरा कुछ लगे इसका कोई कारण तो होना चाहिए, लोग समझते हैं कि यह मेरे घर में पैदा हुआ इसलिए मेरा है, तो पहले यह ही तो सिद्ध कर लो कि क्या यह मेरा घर हैं, तब उस आधार से यह बात बताना कि मेरा है । कोई यह कहे कि यह पुत्र मेरे और स्त्री के संयोग से हुआ है इसलिए मेरा है तो पहले इस देह को ही तो सिद्ध कर लो कि यह देह मेरा है? और उस स्त्री के जीव को सिद्ध तो कर लो कि यह मेरा जीव है तब आगे की बात बोलना, कौन सी वजह है जिस वजह से लोग कहते हैं कि यह मेरा है? कोई कहेंगे कि लड़ के हमारी पूरी आज्ञा मानते हैं, मेरे हुक्म बिना पत्ता भी नहीं हिलता, इसलिए मेरा है, तो यह ही तो सिद्ध कर लो कि ये लड़ के क्या मेरे हुक्म से काम करते हैं? अरे उनके चित्त में यह बात बैठी है कि हम इनका हुक्म मानते जायेंगे तो हम इनको उल्लू बना सकेंगे, याने ये हमारे लिए खूब सुख सामग्री उत्पन्न करने के लिए तत्पर रहेंगे, इस ही कारण से कहना मानते हैं, वास्तव में कहना मानता नहीं कोई । सब कोई अपने आपके भीतरी भाव से ही, भीतरी प्रयोजन से ही चेष्टा किया करते हैं, तो क्या वजह है कि जो इतनी भी गुंजाइश निकल सके कि यह चीज मेरी है, कोई कह कि ये मित्रजन मेरे बहुत समर्थन में रहते हैं इसलिए मेरे हैं, तो अगर वहु धार्मिक काम है तथा उसका समर्थन करते वे, तो अपने आपमें बने हुए धर्म भावों का समर्थन करते हैं या घर वगैरह में है तो वे इसका समर्थन नहीं करते किंतु खुद में जो सोच रखा है उस भाव का समर्थन करते हैं, कछ भी तो गुंजाइश नहीं जो यह कहा जा सके कि यह वस्तु मेरी है, सैद्धांतिक दृष्टि से देखो मैं तो ज्ञान मात्र हूँ, आनंदस्वरूप हूँ, मेरा क्या संबंध है पर से? इसमें पर का प्रवेश नहीं, यह खुद अपने आपमें परिपूर्ण है, इसमें कष्ट का नाम नहीं, यह स्वयं सहज आनंद मय है, यह तथ्य जाने फिर यह क्यों पर के प्रांत भाव रखेगा, रखता है तो वह भ्रम है, एक पदार्थ का दूसरा पदार्थ कुछ नहीं लगता, प्रत्येक पदार्थ अपने आपके स्वरूप में परिणमन करता है, यह बात ऊपर के छंद तक कही गई थी ।
536―एक परिणमन में दो पदार्थो के कर्तृत्व की अभाव―उक्त छंदो में तो यह बात कही गई थी कि प्रत्येक पदार्थ अपने आपमें अकेले-अकेले अपनी दशा बनाया करता है, दो मिलकर एक दशा नहीं बनाते, अब आज यह कर रहे हैं कि एक के दो कर्ता नहीं होते, मायने एक का एक काम हुआ उसको दो पदार्थ करते हों सो नहीं, देखिये वस्तुस्वरूप की दृष्टि से परखना है, एक किसे कहते, जो परिणमन जिसमें पूरे में हो, जिससे बाहर कभी न हो उसे एक कहते हैं, परिणमन मायने बदलना, दशा, अवस्था, जैसे घड़ा बना तो घड़ा परिणमन हुआ, घड़ा फूटा, खपरिया बनीं, जो बन रहा नया-नया काम उसे कहते हैं परिणमन, एक परिणमन के दो कर्ता नहीं है, क्योंकि यदि कोई ऐसा माने कि एक चीज के दो कर्ता हो गए, जैसे प्रकरण में यह मैं जीव अपने परिणामों को भी कर दूं और कर्म की परिणति को भी कर दूँ, अपनी दशा बना लूँ और कर्म की दशा बना जाऊं यों यह मैं अकेला दो के काम को कर दूं, ऐसा जो कोई मानता है वह अज्ञानी है, विपरीत दृष्टि है, मिथ्यादृष्टि है । जरा एक मोटा उदाहरण लो, कर्म के मायने क्या है कि अपनी अभिन्न क्रिया को करना, जैसे यह दाहिना हाथ चला तो दाहिने हाथ की क्रिया दाहिने हाथ में है ना, दाहिने हाथ से अलग तो नहीं? नहीं, और दाहिने हाथ का काम दाहिने हाथ से बाहर हो सकता क्या? निश्चय दृष्टि से देखो-यह हाथ जो कुछ कर रहा है सो इस हाथ में कर रहा, हाथ से बाहर कुछ नहीं कर रहा, यदि आप कहो-जैसे कोई चीज उठाकर धर दी तो हाथने तो धर दी, नहीं । नहीं, हाथ ने नहीं धरी, तो क्या किया हाथ ने हाथ ने बस मुट्ठी बाँधी और चल दिया और मुट्ठी खुली, इतना काम हाथ का है, अब उसमें चीज हाथ में फंस गई तो इस चलते हुए हाथ का निमित्त पाकर चीज भी चल गई और हाथ खुल गया तो उसका निमित्त पाकर चीज गिर गई । हाथने नहीं चीज को चलाया? न उठाया, न गिराया, अच्छा यह बात कैसे समझ में आये? तो माना वह चीज अदृश्य हो जाये जिसको उठा रहे, उठाकर चल पड़े और उठाकर रहे, उस समय क्या दिख रहा? हाथ ही हाथ दिख रहा, चीज नहीं, तो हाथ अपने में ही काम करता है । हाथ अपना भी काम करे और दूसरे पदार्थ की भी परिणति करे, ये दो काम नहीं कर सकता कोई भी पदार्थ, क्योंकि काम करना कहलाता है, अपनी अभिन्न क्रिया से, अपने में अभिन्न काम करना । जैसे अंगुली अगर मोड़ दी गई, मुड़ गई, तो अंगुली का जो मुड़ने का काम है वह अंगुली से मिला हुआ है य अंगुली से बाहर हैं? जो मुड़ने की क्रिया है वह अंगुली से बाहर नहीं है । और इसमें जो मोड़ बनी है वह भी अंगुली से बाहर नहीं । अंगुलि ने क्या काम किया? अंगुली का ही काम किया और अंगुली ने किस क्रिया के द्वारा किया? अंगुली से जो अभिन्न क्रिया है उसके द्वारा किया ।
537―दो पदार्थों के विकार परिणमनों में परस्पर निमित्तनैमित्तिकभाव की संभवता होने पर भी परस्पर कर्तृकर्मत्व का अत्यंत अभाव―और दृष्टांत लो कुम्हार घड़ा बना रहा, जिसे व्यवहार में कहते हैं कि वहाँ मिट्टी का लोंधा रखा, चाक पर रखा, चाक घूमा और वह कुम्हार उस-उस तरह का हाथ चला रहा है जिस-जिस तरह का हाथ चलने से घड़ा बनता ना तो घड़ा जिस तरह बन जाता है उस तरह उसके अनुकूल कुम्हार अपने हाथ का व्यापार कर रहा, मगर यह तो बताओ कि कुम्हार की क्रिया क्या है? जो कुम्हार से अभिन्न हो मायने एकमेक हो । कुम्हार की क्रिया वह क्या है जो कुम्हार में ही रहती हो? अपने हाथ का चलाना, और मिट्टी की क्रिया क्या है जो मिट्टी में ही रहती हो? मिट्टी का पसरना, कुछ ऊपर सिकुड़ना बस यह मिट्टी की क्रिया जो मिट्टी से ही अभिन्न बन रही है वह है मिट्टी की क्रिया । तो अभेद से निर्णय करें, निश्चय दृष्टि से कि कोई पदार्थ क्या करता है? तो हुआ क्या वहाँ? जैसे घड़ा बनता है उसके अनुकूल कुम्हार अपना व्यापार कर रहा है, वह व्यापार चेष्टा कुम्हार से अभिन्न है । तो अभिन्न क्रिया के द्वारा कुम्हार जो कुछ कर रहा है बस वह करना देखो, पर पदार्थ में वह करतूत न देखो क्यों कि प्रत्येक पदार्थ स्वतंत्र-स्वतंत्र हैं । दो पदार्थों के परिणाम में निमित्त नैमित्तिक योग तो है, मगर कर्ता कर्म संबंध नहीं है, और, मिट्टी क्या कर रही वहाँ? कुम्हार के उस व्यापार का निमित्त पाकर मिट्टी में मिट्टी की अभेद क्रिया से मिट्टी का ही घडे रूप परिणाम बन रहा है, सो मिट्टी की बात मिट्टी में देखते जावें, कुम्हार की बात कुम्हार में देखते जावें, जो निर्मित नैमित्तिक योग है उसके मात्र ज्ञाता रहें, और निर्णय बना लें कि एक द्रव्य दो का काम नहीं करता । कुम्हार ने कुम्हार का ही कार्य किया । मिट्टी ने मिट्टी का ही कार्य किया ऐसे हो आत्मा और कर्म इन दो में देखो―इस जीव के साथ कर्म लगे हुए हैं । वे कर्म चीज हैं, केवल एक बोलने की ही बात नहीं है । जैसे देखने में ये चौ की चटाई आदिक आ रहे हैं, यह स्थूल है, वह सूक्ष्म है कर्म वर्गणा, मगर पुद्गल है वह भी । तो जीव जब कोई भाव ए?करता याने अपने उपयोग को पुद्गल कर्म के उदय के अनुसार विकल्प रूप ढालता है उस समय कर्म बंध जाते हैं, सो जीव ने तो अपने रागद्वेष मोह अज्ञान का परिणाम किया । कर्म ने जीव विकल्परूप परिणाम नहीं किया, कार्मण वर्गणाओं ने अपने में कर्मपना किया, परंतु कर्म में कर्मपना कर्म से ही आया । कर्म में कर्म की बात देखो । यद्यपि यह संबंध है कि जीव कषाय भाव रखता है, ज्ञान विकल्प अटपट करता है तो उसका निमित्त पाकर कर्म बंधते हैं, मगर कर्म तो अभिन्न क्रिया से ही कर्मरूप बनते हैं, जीव अपनी अभिन्न क्रिया से ही मोहादिक रूप बनता है । एक द्रव्य दूसरे का कर्ता कुछ नहीं है । न वह दूसरे का कर्ता है, न अपना व पर का, दोनों का कर्ता है । प्रत्येक पदार्थ अपने आपका कर्ता है ।
537―एक का परिणमन उस एक ही में प्रतिभात होने की मंगलरूपता―भैया ! ऐसी भावना बनावें कि मेरी ऐसी सुलझी हुई दृष्टि रहे हर एक घटना को देखकर, अपने आपको निरखकर ऐसी सुल्झी दृष्टि रहे कि प्रत्येक द्रव्य अपने आपकी परिणति से अपना परिणाम कर रहा है, कोई द्रव्य अपना भी परिणमन करे और दूसरे का मी कर दे ऐसा नहीं होता, वस्तु के स्वरूप की बात देखिये लोक व्यवहार में कहते ही हैं ऐसा कि उसने अपना भी काम कर लिया, दूसरे का भी कर लिया, पर निश्चयत: प्रत्येक जीव अपने भावों को ही कर सकता है, अन्य दूसरे पदार्थ का कुछ नहीं कर सकता । भले ही निमित्तनैमित्तिक योग है, जैसे यहाँ आत्मा में जो राग परिणाम बना सो पुद्गल कर्म के उदय के अनुसार बन रहा वह काम, फिर भी जीव अपने परिणमन का ही कर्ता है, कर्म अपनी परिणति का ही कर्ता है, ऐसे ही कर्म जो बँधे रहे हैं वे जैसे जीव के भाव बनते हैं उसके अनुसार बन रहे हैं, मगर जीव अपने भावों का ही कर्ता है, कर्म का कर्ता नहीं है । कर्म में परिणमन कर्म को परिणति से हो रहा है, तो मुझको सर्वत्र यह ही दृष्टि बने कि एक द्रव्य अपने आपका ही कर्ता है, दूसरे पदार्थ का करने वाला नहीं, और अपना भी कर ले, दूसरे का भी कर ले, ऐसी दो क्रियावों का करने वाला नहीं । देखिये―समस्त उपदेश इसलिए होता कि जीव का मोह, रागद्वेष, भ्रम, व्यग्रता, आकुलता ये सब नष्ट हो जायें, ये सब नष्ट कब होतीं? जब पर पदार्थ में इसका मोह नहीं रहता । केवल एक को देखने पर मोह कहां रहेगा, गुरूजी एक दृष्टांत कहा करते थे कि जिसके एक ही लड़का है उसको क्या चिंता, जौ कुछ धन है वह सब उस एक को पहुंचना है, जिसके चार बेटे हैं उसे फिकर होती है―अमुक का यह, होते-होते कलह हो जाये तो वहाँ आपत्ति में आ जाता । तो यह दृष्टांत देने का प्रयोजन उन्हें यह बताना था कि जो पदार्थ केवल एक अकेला ही परिणम रहा, अकेला ही एक दृष्टि में है उस जीव को कहा विपत्ति है? विपत्ति तो उस जीव को है जो किसी द्वैत पदार्थ में, बाह्य पदार्थ में अपना लगाव रखता है ।
539―समीचीन ज्ञान द्वारा ही हर स्थितियों में शांति की संभवता―देखो गृहस्थावस्था में गृहस्थजन सुनकर थोड़ा सोचते होंगे कि क्या बात कही जा रही है, ऐसे काम चलता क्या? घर भी देखना होता, दूकान भी देखनी होती, सत्र की खबर रखनी होती, ठीक है उन्हें सोचो, मगर यह भी सोचो कि इन 24 घटों के अंदर अगर 10-15 मिनट इस तथ्य पर दृष्टि जाये कि मैं एक अकेला हूँ और मैं अपने आपमें अपने आपका हो परिणमन करता हूँ, किसी दूसरे का कुछ नहीं बनाता और मैं अपना भी बना, दूसरे का भी बनाऊँ, ऐसा दो का भी नहीं करता । चिंतन करते-करते अपने उस सहज स्वरूप को जो केवल मेरा ही स्वरूप है उस स्वरूप पर दृष्टि पहुंचे तो वह एक ऐसा अमृतपान है कि जिस अमृतपान के बाद आपका दिन भर बड़े शांति संतोष में गुजरेगा । जैसे किसी को कोई रोग होता है और वह दिन में एक बार दवा खा ले होम्योपैथिक की या आयुर्वेदिक औषधि तो दिन भर उसका ठीक गुजरता है ऐसे ही आत्मा में देखो कि इस आत्मा में रोग बहुत लगे हैं जिनसे बड़ी व्यग्रता होती है, मगर एक बार इस एकत्व-विभक्त अंतस्तत्त्व की दृष्टि का अमृतपान कर लें तो इसके प्रताप से आपका पूरा दिन भला गुजरेगा । यह जीव सुखी शांत कब होता है? जब अपना अकेलापन नजर आता है, मेरे ये हैं, मैं अकेला नहीं हूँ, मेरे साथ अनेक लोग हैं, इस तरह की जब दृष्टि होती है तो वहाँ चूंकि वह स्वस्थ नहीं है, अपने आत्मा के स्वरूप में ठहरा हुआ नहीं हैं इसलिए वहाँ भी उसे व्यग्रता रहती है, जिस क्षण अपने आप पर दृष्टि जाये कि मैं अकेला अकेले का ही कर्ता हूँ, जो वास्तविकता है, बाह्य पदार्थ जैसा चाहे परिणमें मेरा किसी बाह्य से कोई संबंध नहीं । एक देहाती कहावत है कि लेवा मरे या देबा, बल्देवा करे कलेवा । कलेवा नाम है नाश्ता का । नाश्ता का अर्थ है―न सता । याने भूख सता रही थी, थोड़ासा खा पी लिया तो यह नाश्ता हो गया मानो खाने वाला थोड़े से भोजन को कह रहा है कि न सता, न सता, और कलेवा किसे कहते? तो कलेवा में भी पूर्ति नहीं, पर काम बन जाता, मायने शरीर, लेवा मायने लेवे, अर्थात् जो शरीर लेवे, खावे सो कलेवा । तो अव अहाने का अर्थ देखो―मानो कोई आढ़ती है अनाज की दूकान वाला और बलदेवा था दलाल, जो कि किसानों का अनाज लेकर आयी गाड़ियां बिकवा दे, दोनों का मिलान करा दे, कुछ कमीशन किसान से ले ले कुछ दूकानदार से । दलाल का तो काम यही है । तो उस बलदेवा दलाल ने किसी का अनाज बिकवा दिया । अब खरीदने वाला तो सोचता है कि मैंने महंगा ले लिया, बेचने वाला सोचता है कि मैंने सस्ता बेंच दिया । दोनों परस्पर में कुछ अफसोस सा कर रहे थे, विषाद सा मान रहे थे । उसी प्रसंग में वह बलदेवा दलाल क्या करता है कि एक नीम के पेड़ के नीचे बैठ जाता है, अपने नाश्ता की पोटली खोलता है और खाता हुआ कहता जाता है कि लेवा मरे या देवा, बलदेवा करे कलेवा । वह दुःखी हो तो हो, यह दुःखी हो तो हो, मैं तो आराम से बैठकर कलेवा कर रहा । उसे क्या गम? कमीशन बेचने वाले से भी लिया और खरीदने वाले से भी लिया । यों ही ज्ञानी पुरुष किस तरह चिंतन करता कि भाई जगत में कोई पदार्थ आता है तो आवो, आता है तो अपने परिणाम से जाता है वह अपनी पर्याय से । मेरा न आने में कोई लाभ है न जाने में कोई लाभ ! मैं तो एक ज्ञान मात्र हूँ, सो वह अपने में ही तृप्त रहा करता । तो सुख शांति का आधार ज्ञान है, इसे चाहे कोई ताँबे के पत्र पर लिखाकर रख ले, चाहे पत्थर पर लिखा कर रख ले, इसमें अन्य बात नहीं आ सकती ।
548―शांति का आधार सम्यक् ज्ञान―शांति का आधार ज्ञान है । बाह्य संग परिग्रह का मिलना शांति का आधार नहीं । और, वैसे भी देखो―बाह्य संग पर आपका कुछ अधिकार नहीं । पुण्योदय है उसके अनुसार आता है । यह बात एक निमित्तनैमित्तिक योग की है, पर आपका जो जीव है, आत्मा है, ज्ञान है, उपयोग है उसमें बाह्य पदार्थ का न तो रंच प्रवेश है, न आपका अधिकार है किसी पर में, तो सोचिये जब मेरा किसी पर पदार्थ में अधिकार नहीं तो उसके विषय में उसके संग्रह की बुद्धि रखकर क्यों अपना रौद्र ध्यान बनाऊँ? जो चल रहा है उसका ज्ञाता द्रष्टा रहूं । आया है जान लिया, चला गया, जान लिया । उसके विषय में लिपटाव न हो, वह पुरुष शांत रहेगा । अगला अपना भविष्य सुधार लेगा । जहाँ एक अंदर मैं मुश्किलात है, पाप कर्म का उदय, बुद्धि का बिगड़ना, बाह्यपदार्थों में राग उत्पन्न होना । एक यह भी अपने को कठिनाई है, क्या, कि यह सारा एक जमाना, प्राय: सभी लोग धन की ओर होड़ मचा रहे हैं यहाँ बड़े बड़े पद लेकर, और ऊ ची स्थिति पाकर और और पद लेकर धन वैभव के संग्रह की । वहाँ भी मात्र इज्जत की भावना न रही कि ऐसे भी रहें कि चलो, लोगों का उपकार करें, लोग सुखी होंगे तो हमारा भी यश रहेगा । अब उस यश की भी कीमत आजकल न रही । कोई एक जमाना था अब कि लोग यश की बड़ी कीमत समझते थे । आज कल तो लोगों ने धन को महत्त्व अधिक दे दिया है । अधिकारी हो गए तो बस धन जोड़ने लगे और उसे विदेशी बैंकों में जमा करने लगे । चुनाव हो तो अधिकाधिक धन लोगों से लेना, फिर बाद में चाहे जो कुछ हो, चीजें रहें या न रहें, चाहे जो स्थितियाँ आयें । तो मतलब यह है कि जमाना जो धन की ओर बढ़ रहा है उनको जब हम आप देखते होंगे तो एक कठिनाई यह है कि दिल वश में नहीं रहता, वह तो इतना बढ़ गया, हमको इतना बढ़ना चाहिए । उन दूसरों को देख करके चित्त में तृष्णा जग जाती है । बाहर की कठिनाई एक यह है तो हर समय आखिर करने का काम क्या है? करने का काम है अपने में सत्य ज्ञान उत्पन्न करना, अन्यथा वही तृष्णा और उस तृष्णा में देखो एक दो अधिकारी अच्छे भी होते हैं, लेकिन जहाँ बहुलता इस तरह की हो जाती है तो वे एक दो भी अच्छी गिनती में नहीं आते । उनके प्रति भी लोग शक करते हैं । यह एक आजकल का जमाना है, पर जमाना देखकर अपने आपमें आत्मा का निर्णय बनाना है । आत्मनिर्णय आत्मा को देखकर बनावें, बाहर में देखकर न बनावें । मोह न रहे, रागद्वेष न हो, केवल ज्ञानधन यह अंतस्तत्त्व मेरी दृष्टि में हो, इसके लिए पहले यह ज्ञान करना होगा कि प्रत्येक पदार्थ अपनी-अपनी सत्ता में हैं ।
541―एक पदार्थ दूसरे पदार्थ की अभिन्न क्रिया से न परिणम सकने के कारण एक का दूसरे में कर्तत्व मानने की गुंजाइश का अभाव―भैया, कोई गुंजाइश नहीं कि अनेक साथ मिलकर एक हो जायें । एक परिणाम के दो कर्ता होते नहीं एक पदार्थ के दो काम होते नहीं, न एक पदार्थ की दो क्रियायें होती, क्योंकि जो एक है सो एक है, वह अनेक नहीं हो जाता । जैसे ये दो अंगुलियाँ हैं ये दो किस कारण से हैं कि एक अँगुली दूसरी अंगुली का काम नहीं करती अभेद बनकर, निमित्त की बात नहीं कह रहे, निश्चय की कह रहे । एक-एक ही है । एक दो नहीं बन गया । क्यों नहीं बन गया कि एक ने एक का हो काम किया । एक अंगुली दूसरे का काम कर ले ऐसा हो नहीं सकता । अन्यथा एक भी न रहेगा, एक-एक ही है अनेक नहीं होता, इससे सिद्ध है कि प्रत्येक पदार्थ स्वतंत्र है । एक को दूसरा नहीं करता । भ्रम को त्याग दें कि यह मेरा बच्चा है, यह मेरा अमुक है । यह मेरा अमुक होगा, यह बड़ा अंधेरा है और इस अंधेरे में खुद को ही विपत्ति भोगनी पड़ेगी । उसकी फिकर भी तो रखो कि मेरी जन्म मरण की परंपरा न चले, इस काम को बना लें तो यह सच्ची बुद्धिमानी है । यहाँ के कामों में व्यावहारिक बातों में चतुराई करने को सच्ची चतुराई नहीं कहते । तो उन दुःखों से छूटने का उपाय मिलेगा पदार्थों को स्वतंत्र-स्वतंत्र निरखने से ।