वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 77
From जैनकोष
एकस्य सूक्ष्मो न तथा परस्य चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ ।
यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ।।77 ।।
742―सूक्ष्म विकल्पों से भी अतिक्रांत होने पर स्वानुभूति की संभावना―समयसार का अनुभव किसे होता है यह प्रकरण चल रहा है । समयसार का अनुभव मायने अपने केवल आत्मा का अनुभव । वह सहजस्वरूप जो निरपेक्ष है, अपने आपकी सत्ता से है, पर के संबंध से रहित है, ऐसा अपना स्वरूप किस तरह अनुभव में आ सकता है? इसको बताने के लिए यह नयपक्ष से उल्लंघन वाला प्रकरण चल रहा है । यहाँ एक पुरुष कहता है कि आत्मा सूक्ष्म है, एक परिचय दिया और यह परिचय है व्यवहारनय से । तो शुद्धनय यह कहता है कि आत्मा सूक्ष्म है ऐसा नहीं है । ये दो प्रकार के एक-एक पक्ष हैं । आत्मा सूक्ष्म है यह बात सही तो है मगर सूक्ष्म है ऐसा कहने पर आत्मा के क्षेत्र पर दृष्टि आयी । यह ‘सूक्ष्म है या सूक्ष्म है ऐसा नहीं है,’ या यह आकाश की तरह बहुत ही एक सूक्ष्म है, तो ऐसा कहने से किसी चीज में ही तो विकल्प आया और जहाँ विकल्प है वहाँ आत्मा का अनुभव नहीं है । तो सूक्ष्म है आत्मा यह व्यवहार का पक्ष है, और इस पक्ष पर जब तक निगाह है तब तक स्वानुभव नहीं होता । तो दूसरा है शुद्धनय, वह कहता है कि सूक्ष्म है ऐसा नहीं । यद्यपि यह दृष्टि आत्मा के और निकट की ओर ले गई―लेकिन विकल्प यहाँ भी रहा । सूक्ष्म है ऐसा नहीं । यह विकल्प भी जब हटे और इससे अंतरंग में और बढ़े कि विकल्प कोई न हो, और केवल-ज्ञानमात्र स्वरूप का अनुभवन ही रहा करे तो यह है निश्चयनय से शुद्धनय से ऊपर उठी हुई अवस्था । और, जिसके पक्ष नहीं रहता उसके यह अनुभव होता है सो उसके अनुभव में तो यह चेतन चेतन ही है याने आत्मा का जब हम अच्छा परिचय चाहें तो हमें सोचना तो सब तरह से पड़ेगा कि यह गुणपर्यायों का पिंड है यह असंख्यात प्रदेशी है, सूक्ष्म है, अमूर्त है, इसकी प्रतिसमय परिणतियाँ होती रहती हैं और यह तो शक्ति मात्र है, जीव स्वरूप है, यह बात सब सोचना तो पड़ता है क्योंकि आत्मा के बारे में सब तरह की बात समझे बिना हम अनुभव नहीं पा सकते हैं । लेकिन ये सब बहुत जानकारियां हैं । सब तरह से आत्मा को जान लें और जान करके फिर इन सब विकल्पों को तज दें तो निर्विकल्प आत्म का अनुभव बन सकेगा । अब सोचो कि जब ऐसे बारीक विकल्प भी स्वानुभव में बाधक बन रहे हैं और आचार्य संतों का उपदेश है कि आत्मा सूक्ष्म है इस तरह के विकल्प से भी परे हो और सूक्ष्म है ऐसा नहीं है इस तरह के विकल्प से भी आगे उठो । जहाँ यह उपदेश है वहाँ एक ओर देखो तो संसारी जीवों की मनुष्यों की आज क्या दशायें हो रही हैं । इतना घोर अंधकार है कि परवस्तु को मानते हैं कि यह मेरी ही तो है और उसमें इतना अधिक लगाव है कि अपने आत्मस्वरूप की कुछ सुध नहीं है । उस पर वस्तु के लगाव में इतना बड़ा हर्ष मानते कि हमने सब कुछ समृद्धि पायी और यह वैभव गिर जाये या नुकसान हो जाये कहीं चला जाये तो इसमें यह विषाद करता है कि मेरा बहुत अधिक नुकसान हुआ । मगर नुकसान तो इसका विषय कषाय से है । आत्मा में भ्रम रहे, मोह रहे विषय कषाय की बात जगे तो यह है पूरी मलिनता । आत्मा की बरबादी इसमें है कि जहाँ नाना विकल्प कर्मबंध बंधते हैं और उन कर्मों के उदय में इसको दुर्गति भोगनी पड़ती है । इससे वह आत्मा धन्य है कि जो निर्मोह रहता है, बाहरी पदार्थों को जानता भर है ।....यह अभी मेरे साथ है और अभी इसमें जीवन चलाना पड़ रहा है, मगर हैं ये मेरे कुछ नहीं । इस प्रकार का निर्णय जिसका रहता है, वह सुखी शांत रहता है, क्योंकि बाह्य पदार्थ तो इसके अधीन है नहीं । वे रहें तो, उनका सुधार बिगाड़ इसके हाथ नहीं, अज्ञानी जीव समझते हैं कि इन पर मेरा अधिकार है तो वे दुःखी होते हैं और ज्ञानी पुरुष जानता कि ये सब मेरे से भिन्न हैं, इनसे मेरा क्या मतलब ? वह अपने स्वरूप की दृष्टि रखकर संतुष्ट रहा करता । तो ऐसे सूक्ष्म से सूक्ष्म विकल्पों से भी अतिक्रांत होता है, तब हम अपने आत्मा में बसे हुए चैतन्य स्वरूप का अनुभव कर सकेंगे ।