वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 80
From जैनकोष
एकस्य भावो न तथा परस्य चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ ।
यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ।।80।।
762―वस्तु का चतुर्दृष्टियों से परिचय―वस्तु का परिचय 4 दृष्टियों से होता है―द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव । जैसे किसी एक वस्तु का कोई परिचय करा रहा हो मानो एक घड़ी का परिचय किया जा रहा है―घड़ी जो यह पिंड है, जो हाथ में लिए हुए है वह तो है द्रव्य और उसका जो घेर हैं, जितने में वह फैला हुई है वह प्रदेश है क्षेत्र और उसकी जो परिणति है, परिणमन है, पर्याय है नई पुरानी, मजबूत आदिक वह है काल और उसमें जो गुण है वह है भाव । तो ऐसे ही सबकी पहिचान होती है, यह तो एक दृष्टांत बनाया गया है । पहिचान तो इस तरह होती जैसे आत्मा । आत्मा गुण पर्यायों का पिंड हैं । गुण पर्यायवान को द्रव्य कहते हैं । तो जो गुण हैं और पर्याय है उन सबका जो पिंड हे वह है द्रव्य दृष्टि से आत्मा । क्षेत्र दृष्टि से आत्मा परखा जाता है―असंख्यात प्रदेशी है, देहाकार है, उतने में फैला हुआ है । इसी तरह से काल दृष्टि से पहिचाना जाता है उसकी परिणतियां देख-देखकर, क्या परिणतियाँ हो रही हैं, पुरानी, नवीन, खोटी, अच्छी, कषाय, अकषाय, यह काल से परिचय है । भाव दृष्टि से परिचय होता है, यह ज्ञान गुण वाला, दर्शन गुण वाला, ऐसी-ऐसी अनंत शक्तियाँ हैं । तो इस कलश में बतला रहे हैं भाव दृष्टि से जीव को पहिचानना । तो एक नय दृष्टि में याने व्यवहार नय के मत में तो यह जीव भावस्वरूप है, चैतन्यस्वरूप ज्ञानस्वरूप अनंत शक्तिरूप । यह जीव भावस्वरूप है तो निश्चयनय के पक्ष में माना गया है “भावस्वरूप है ऐसा नहीं है” शुद्धनय से परंतु आचार्य देव कहते हैं कि चेतन में यह दो पुरुषों का दो प्रकार का नय पक्ष है । परंतु जो तत्त्वज्ञानी जीव है, जिसने सर्व नयों से वस्तु का निर्णय करके प्रमाण से प्रमाणित कर एक अखंड तत्त्व को पहिचाना है ऐसा तत्त्वज्ञानी पुरुष पक्ष से रहित हुआ करता है उसके लिए तो यह चेतन चित् स्वरूप ही है ।
763―छह द्रव्यों में छह चिह्नों की प्रधानता―यहाँ एक बात और परखना है कि सभी द्रव्यों का यद्यपि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से परिचय है, साथ ही नाम और स्थापना से भी परिचय होता है तो वस्तु को समझने के लिए 6 उपाय होते हैं―नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, और इसमें किस मुख्यता से किस द्रव्य का पहिचान होती है, इसका समन्वय किया जाये तो द्रव्य से तो पुद्गल क्योंकि सुगमतया वह पिंड रूप जाना जाता है, क्षेत्र से आकाश, काल से काल द्रव्य, नाम से धर्म द्रव्य, क्योंकि नाम चलाने का हेतुभूत है व्यवहार चलने का, या कुछ भी आगे प्रसंग चलने का । जैसे नाम एक बीजभूत है ऐसे ही जीव पुद्गल के चलने का हेतुभूत धर्मद्रव्य है । स्थापना से अधर्मद्रव्य और भाव से यह आत्म द्रव्य समझ में आता है ।
764―भाव और नेति के विकल्प से उन्मुक्त होकर चित्स्वरूप में स्वत्व के अनुभव का महत्त्व―निश्चय नय का विषय क्या था? आत्मा चैतन्य मात्र है चित्स्वरूप है, अभेद भाव में जाये तो परमशुद्ध निश्चयनय का स्वरूप बनता है । वह भी एक कथन होने से व्यवहार । व्यवहारनय से जीव भाव स्वरूप है यह जाना गया किंतु शुद्धनय नेति को विषय करता है । जीव भावस्वरूप है ऐसा नहीं है, पर स्वानुभूति के लिए दोनों प्रकार के पक्ष बाधक हैं । जब भेद दृष्टि की कि जीव के भाव है तो व्यवहार नय का पक्ष जब तक रहेगा तब तक विकल्प होने के कारण तो स्वानुभूति की अवस्था नहीं बन पाती । और जब उसका निषेध किया जा रहा कि भावस्वरूप है ऐसा नहीं है तो इस निषेध के विकल्प में भी स्वानुभूति नहीं बनती । स्वानुभव उनके ही हो पाता है जो दोनों प्रकार के नय पक्षपात से रहित हैं । अब अपने आपमें अपनी बात समझना है कि हम विकल्प में कितना समय व्यतीत किया करते हैं और उन विकल्पों में हम पौरुष क्या किया करते हैं? किसी न किसी बाह्य आश्रयभूत वस्तु का आलंबन लिया करते हैं और उस आलंबन से हम अपने में कितना विषय, इच्छा रूप बनाया करते हैं और दुःखी हुआ करते हैं । यहाँ जीव के खास परिचय का साधन भाव है और उस भावस्वरूप को ही व्यवहारनय का विकल्प बताया है और उसका निषेध करने वाला निश्चयनय अथवा शुद्धनय के विकल्प, इसको भी स्वानुभूति में बाधक बताया है । तो भला जो बड़े खोटे-खोटे विकल्प उत्पन्न हुआ करते हैं उनका फल क्या होता है? उनका फल है यही अनंत संसार । संसार में जन्म मरण करते रहना, दुर्गतियों में जन्म लेते रहना और कष्ट भोगते रहना, यह ही उन विकल्पों का फल प्राप्त होता है । तो यह जानकर कि स्वानुभव ही एक अमृत है, जीव की रक्षा स्वानुभव में ही है, स्वानुभव ही एक ऐसा बीज है मुक्ति का कि जिसके बिना सम्यग्दर्शन न हो सकेगा चारित्र का अंकुर और वृक्ष न बन सकेंगे और न मुक्ति प्राप्त हो सकेगी । वर्तमान में भी जितने क्षण आत्मा में निर्लेप रूप में अनुभव किया जा सकेगा उतने क्षण अद्भुत आनंद मिलेगा । आत्मा तो स्वयं आनंदस्वरूप है । विकल्प से दुःख बन गया और विकल्प मिटा दिये जायें तो स्वयं सहज जो आनंदस्वरूप है उसका लाभ हो जायेगा । तो कर्तव्य हमारा यह है कि हम जगत के प्रत्येक पदार्थों को स्वतंत्र परस्पर अत्यंत भिन्न और स्वयं-स्वयं की परिणति से परिणमने वाले हैं ऐसा निरखें और उनकी उपेक्षा का भाव रखते हुए अपने आत्मा की विशुद्ध स्थिति का मनन करें, स्वीकार करें कि यह ही मैं एक विशुद्ध चैतन्यस्वरूप हूँ । अन्य कुछ नहीं हूँ । इस आत्मप्रतीति के बल से ही हम यहाँ शांत रह सकेंगे और अगले भवों के संकटों से छूट सकेंगे ।