वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 83
From जैनकोष
एकस्य नित्यो न तथा परस्य चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ ।
यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ।।83।।
771―नित्यत्व व नित्यत्व के निषेध के विकल्प से अतीत चित्त्व का वर्णन―एक नय की दृष्टि में तो जीव नित्य है तो एक नय में जीव नित्य है ऐसा नहीं है । देखो यहाँ एक नय की दृष्टि से नित्य है तो दूसरे नय की दृष्टि से नित्य नहीं है मायने अनित्य है, ऐसा अर्थ न लेना । देखो एक मूड की बात होती है । याने आप परखें कि इस तत्त्ववेदी का मूड कैसा है । नय दो बन गए । एक कहता है कि नित्य है ऐसा नहीं है मायने अनित्य है यह अर्थ न लेना । ये दो पक्ष नहीं हैं यहाँ । अनित्य है वह तो आ गया सांत में मगर यहाँ देखो शुद्धनय और व्यवहारनय दो की बात । व्यवहार से देखो तो मालूम पड़ा कि जीव नित्य है । लोग पसंद करते हैं कि निश्चयनय से जीव नित्य है । जब व्यवहारनय से अनित्य कहा जा रहा तो निश्चयनय से नित्य है यह सही है और जब व्यवहारनय से नित्य है ऐसा कहा जा रहा तो शुद्धनय से नित्य है ऐसा नहीं हैं इतना जाना । अब दृष्टियों से देखें तो मालूम पड़ जायेगा । नित्य है ऐसा देखने पर यह मूड में आया कि आत्मा सदा रहेगा, त्रिकाल रहेगा ऐसा जीव है । भला ऐसा सोचते हुए किसी को स्वानुभव हुआ है क्या? अच्छा, क्योंकि उसने तो तीन काल पर दृष्टि डाली, सदा रहेगा । इतना बड़ा, तीनों कालों में व्यापक, जैसा इसने एक विकल्प बनाया वह तत्त्ववेदी अभी नहीं हो रहा । जो स्वानुभव के अत्यंत निकट है, अभी नहीं बन रहा । तो जब शुद्धनय से देखा तो शुद्धनय में अनित्य है, इसकी तो चर्चा ही नहीं है, वह तो किसी दर्जे का व्यवहार है । उस व्यवहार को पार करके फिर नित्य है के व्यवहार में आया । वह यों दिख रह है, जब उसने स्वभाव का स्पर्श किया, स्वभाव के निकट आ रहा है तो वह स्वभाव की ओर आ रहा । द्रव्य इतना बड़ा, इतना व्यापक, इतना बोझ अपने में न ला देगा क्योंकि उसे तो निर्विकल्प तत्त्व में जाना है । तो वह 'नेति' यह नित्य है ऐसा नहीं । यह है एक शुद्धनय का विषय । मगर जो ज्ञानी जीव है वह दोनों विकल्पों से अतिक्रांत होकर कुछ ऐसी स्थिति में है कि वह जानता है चित् चित् ही है । आप अमृत तत्त्व का पान करें ।
772―मंगल, लोकोत्तम, शरण्य आश्रेय तत्त्व―बात तो चली थी कुछ थोड़ी गहरी मगर उससे प्रयोजन यह निकालें कि हमको ऐसे शांति धाम में पहुंचने का काम पड़ा है जिसको छोड़कर और कोई हमारे लिए शरण नहीं, आश्रय के योग्य नहीं । कहाँ हम अपना उपयोग लगावें, कहां हम ज्ञान करें कि जो हमारे लिए हितरूप हो । ऐसा कोई तत्त्व है वह तत्त्व बाहर कहीं नहीं पड़ा है, खुद ही में पड़ा है । जैसे दूध में घी जान सके तो जान लें और निकाल सके तो निकाल लें, ऐसे ही इस जीव में वह सहज परमात्मतत्त्व जान सकें तो जान लेवें, प्रकट कर सकें तो प्रकट लेवें? बाहर कहीं भटकना नहीं है कि मैं इसकी शरण गहूं, इसकी शरण और बाहर में व्यवहार में कहीं शरण होता भी है, वह इस प्रयोजन के लिए । पंच पंचपरमेष्ठी व्यवहार में शरण है, वह इस प्रयोजन के लिए शरण हैं तब ही तो देखो जब चत्तारि दंडक पड़ते हैं तो उसमें बोलते हैं कि चार मंगल हैं, लोकोत्तम हैं मैं चार की शरण को प्राप्त होता हूं । कौन-कौन? अरहंत, सिद्ध, साधु और केवली भगवान द्वारा प्रणीत धर्म । ठीक है, अरहंत और सिद्ध तो मंगल होने ही चाहिए क्योंकि वे कर्मबंधन से रहित है अब तीसरे जो साधु हैं जिनके अंतस्तत्त्व की साधना की धुन बनी है, शरीर मात्र जिनका परिग्रह रह गया है । ऐसे जो अंतस्तत्त्व के रुचिया हैं सो ठीक है वे भी मंगलरूप हैं, मगर इतनी बात सुनकर अभी इस अनुभवी संत को संतोष नहीं होता, उसे संतोष होता यहाँ केवलि पण्णत्तो धम्मो मंगलं―केवली भगवान द्वारा कहा गया जो धर्म है वह मंगल है, यह भी एक संकेत हैं, लेना क्या है? आत्मा का स्वरूप । बस उसका आश्रय, मंगल है, लोकोत्तम है । वह शरण है इसके मायने यह नहीं है कि उन तीनों का अनादर है, मगर वह तीन की पूजा क्यों? तीन का आदर क्यों? वह इस ही तत्त्व के आधार पर है । जैसे मान लो किसी की ससुराल है दूसरे गांव में और स्त्री भी बहुत दिनों से ससुराल में है । अब उस ससुराल के गाँव के कोई दो चार आदमी आ जायें जिनसे इसकी कोई रिश्तेदारी नहीं, मगर उन लोगों को भी वह आदर के साथ बैठाता है, खिलाता पिलाता है उनकी खातिरी करता है, फिर उनसे धीरे से अपनी ससुराल के घर के सब हालचाल पूछता है । सबसे कुशलता पूछता है । ससुराल के जिन-जिन पर उसकी आंख लगी है उनके हाल पूछता है । तो उनकी वह खातिरी किसकी खातिरी है? ससुराल वालों की । ऐसे ही समझो कि जिसका स्वरूप साम्य है ऐसे अरहंत सिद्ध परमेष्ठी, इनका आदर किसलिए है? इसलिए कि अपने में बसा हुआ जो सहज परमात्मत्व है उसकी बात ज्ञात हो । जो शुद्ध नय का विषय है वह तो ऐसा है कि जिसके प्राप्त होने पर फिर कुछ करने को नहीं होता, मगर जब तक नहीं प्राप्त है तब तक ये मन वचन काय की प्रवृत्ति तो करेंगे ही । तब हमको कहाँ कैसे चलना चाहिये यह सिखाता है चरणानुयोग । अगर चरणानुयोग की अवहेलना करके हम चलें तो इतनी अटपट बात होगी कि जो फिट न बैठ सकेगी, अत: चरणानुयोग शास्त्रों का हमारा प्रयोग विधि से खास संबंध है ।