वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 101
From जैनकोष
जे पुग्गलदव्वाणं परिणामा होंति णाणआवरणा ।
ण करेदि ताणि आदा जो जाणदि सो हवदि णाणी ।।101।।
उपादान और निमित्त का विवरण―उपादान कहलाता है वह जो परिणम रहा है अर्थात् परिणमयिता द्रव्य और जो वर्तमान परिणमन है वह कर्म है तथा जो परिणति है वह क्रिया कहलाती है । तो इस प्रसंग में देखो जीव के विकार हो रहे हैं और कर्म प्रकृति बनने का उपादान कार्माणवर्गणायें हैं और रागादिक विकार होने का उपादान जीवपदार्थ है । ज्ञानी जीव इस प्रसंग में यों देखता है कि जो ज्ञानावरणादिक पुद्गल द्रव्य के परिणमन होते हैं उनको आत्मा नहीं करता है । इस प्रकार विविक्त जो देखता है वह ज्ञानी होता है । इस ज्ञानीसंत ने पदार्थों के स्वरूपास्तित्व को निरखा है कि प्रत्येक पदार्थ अपने ही स्वरूप से है बाहर न उस पदार्थ का गुण है न पर्याय है, न प्रभाव है ।
निमित्त के प्रभाव का उपादान में उपचार किये जाने का कारण―निमित्त के प्रभाव का उपचार उपादान में यों किया जाता है कि वस्तुस्थिति तो यह है कि उपादान पर निमित्त को पाकर स्वयं अपने आप में होने वाली पर्याय प असर को करता है, किंतु जिस पदार्थ को निमित्त पाकर उपादान ने अपना परिणमन किया उस परिणमनरूप असर को निमित्त की ओर से कहा जाता है तो निमित्त का प्रभाव बताया जाता है । निमित्त का गुण, निमित्त का प्रभाव निमित्त का परिणमन सब कुछ उस निमित्तभूत में ही होकर समाप्त होता है । पर विश्व व्यवस्था ऐसी है कि निमित्तनैमित्तिक संबंध परंपरा अनादि से चली आ रही है कि पर निमित्त को पाकर विकृत परिणम सकने वाली उपादान स्वरूप की परिणति में विकार होता है, ऐसा निमित्तनैमित्तिक संबंध है । फिर भी स्वरूपचतुष्टय से देखो तो कोई भी द्रव्य अपने चतुष्टय को छोड़कर किसी पर के चतुष्टय में नहीं आते । स्वरूपदृष्टि से यह निर्णय होता है कि पुद्गल द्रव्य का जो ज्ञानावरणादिक रूप परिणमन होता है उस परिणमन को आत्मा नहीं करता है । यों जो जानता है वह ज्ञानी कहलाता है ।
पर के अकर्तृत्व का दृष्टांत―पर के अकर्तृत्व के विषय में एक दृष्टांत है । जैसे कोई ग्वाला दूध निकालता है और उस दूध में जामन डालता है, दूध दही बन जाता है, तो यह जो दूध दही बना है तो उस पुद्गल द्रव्य में ही बना है । दूध पुद्गल में ही व्याप्त है ग्वाला उसमें व्याप्त नही हुआ । दूध का दही रूप परिणमन हो गया तो यह परिणमन भी पुद्गल में व्याप्त है । इन सब बातों को ग्वाला जानता हुआ रहता है, पर करने वाला नहीं हो रहा है । दूध में जामन डाल दिया गया, अब वह अपने समय पर अपने विधान से कैसा बनता है, कितना खट्टा जामन है, कितनी मात्रा में जामन है, उस ही विधान से निमित्त पाकर यह दूध दही रूप परिणम जाता है । उसमें ग्वाला क्या करेगा । दूध में जामन डाल दिया । अब वह 12 घंटे में दही बनेगा ꠰ ग्वाला के सोचने से और कहीं से वह दूध दही रूप नहीं बन जायेगा । वहाँ जैसा विधान है उस प्रकार से वह परिणम जायेगा । ग्वाला तो एक दर्शक है, जाननहार है, वह करने वाला नहीं है । ग्वाला ने दूध दुहा । दूध दुहने के समय में भी ग्वाला दूध का कर्ता नहीं है वह तो क्षेत्र से क्षेत्रांतर हुआ । निमित्त उसमें ग्वाला की क्रिया है, चेष्टा है, परंतु चेष्टा के होते हुए, अज्ञान में ग्वाला तो यह विकल्प करता है कि मैं दूध बनाता हूँ, पर दूध न्यारी चीज है, संभव है कि वह भी विकल्प ऐसा न करता होगा । वह तो यों ही कहेगा कि मैं दूध निकालता हूँ, दूध उत्पन्न करता हूँ ऐसा विकल्प वह नहीं करता । क्या ग्वाला वहाँ दूध पैदा करता है? नहीं तो । मैं दूध को पैदा करता हूँ, ऐसा आशय उस ग्वाले के भी नहीं है । वह तो जानता है कि जो दूध गाय भैंस के थैले में है उसको निकालता हूँ । और यह तो निकालने का भी कर्ता नहीं है ग्वाला का जीव । वह जीव ज्ञान इच्छा और योग इन तीनों का कर्ता है । उस समय जो ज्ञान किया जा रहा वह, जो इच्छा की जा रही है, वह जो स्वयं के प्रदेश में श्रम योग परिस्पंद किया जा रहा है वह यों तीन भावों का कर्ता है । इस प्रकार ग्वाला तो अपनी इच्छा ज्ञान इन प्रयत्नों का ही करने वाला हो रहा है, दूध का करनेवाला नहीं हो रहा है । फिर तो आत्मा के योग का निमित्त पाकर शरीर में वायु का संचरण हुआ, वायु के संचरण का निमित्त पाकर उसके अनुरूप हाथ चले और हाथ के संबंध से ये जो सब थन थे उनसे फिर दूध झरा । इस प्रकार निमित्तनैमित्तिक परंपरा में वह कार्य हुआ । ग्वाला ने दूध दही आदि को नहीं किया । वह तो तटस्थ है, मात्र कषायानुकूल पास बैठा हुआ है ।
पर का अकर्तृत्व―सो भैया ! जैसे तटस्थ गोरस का मालिक ग्वाला दूध दही आदि परिणामों का व्यापक होकर कर्ता नहीं बनता है, वह जाननहार रहता है और अपनी क्रियाओं का करने वाला रहता है । इसी प्रकार पुद्गल द्रव्य के जो ज्ञानावरणादिक परिणमन होते हैं उन परिणमनों को यह ज्ञानी जीव नहीं करता है किंतु पुद्गल द्रव्य के परिणमन का निमित्त पाकर उन पुद्गल द्रव्य के परिणामों का जिस प्रकार यह निमित्त होता है ऐसी अपनी चेष्टा को अपने ज्ञान से अपने विकल्पों से आत्मा में व्याप्यरूप से बनता हुआ, उसे व्यापकर यह ज्ञान जानता है । सो यह ज्ञानी ज्ञान का ही कर्ता है । जैसे दूध में मीठा डाल दिया ꠰ अब वहाँ दो बर्तनों में एक दूसरे से निकाल कर उड़ेल देने की क्रिया में यह दूध देने बाला व्यक्ति उस सबको देख रहा है, जान रहा है, अब यह ठंडा हो गया, अब इसमें बहुत सा फसूकर निकलेगा मीठा भी बहुत अच्छा हो रहा होगा, इन सब बातों को वह जानता रहता है, पर कर्ता नहीं है । यह गोरसाध्यक्ष ग्वाला उस दूध दही के परिणमन के निमित्त जो कुछ भी ज्ञान बनाए विकल्प बनाए उससे ही आत्मा में व्याप करके वह उन सबको देखता रहता है ꠰ इसी तरह पुद्गल परिणमन और आत्मपरिणमन इनमें परस्पर निमित्त नैमित्तिक भावों से जो कुछ अवस्था बन रही है उस अवस्था को यह ज्ञानी जीव जानता है सो ज्ञानी उस प्रसंग के ज्ञान का ही कर्ता होता है किंतु परद्रव्यों का कर्ता कदाचित् भी नहीं होता ।
कर्तृत्व कर्मत्व व करोति का पर में अभाव―भैया ! जो परिणमता है उसको कर्ता कहते हैं ꠰ जो परिणमन है उसे कर्म कहते हैं और जो परिणति है उसे क्रिया कहते हैं । ये तीनों कुछ जुदा-जुदा नहीं मालूम पड़ते, एक ही पदार्थ है, ये अपनी परिणमनशीलता के कारण अन्य भाग अन्यरूप, परिणमन रूप, परिणमते चले जाते हैं । यह ज्ञानी इस प्रकार ज्ञान का ही कर्ता होता है । जैसे ज्ञानावरणादिक कर्मों को इस प्रसंग में घटित किया गया है कि इन पुद्गल द्रव्य के परिणमनों को ज्ञानावरण प्रक्रियावों को जीव नहीं करता है किंतु जीव तो उनके निमित्त जो कुछ भी विकल्प बनाता है, ज्ञान का परिणमन है उस परिणमन को ही अपने में व्यापकर उस परिणमन का ही कर्ता होता है और अपने उस ज्ञानविकल्प का ही कर्ता होता है इसी प्रकार सब धर्मों में बात समझो । यह ज्ञानी पुरुष यों देख रहा है कि जो पुद्गल दर्शनावरण वेदनीय आदि कर्म रूप हो रहा है उसका करने वाला यह आत्मा नहीं है । यह आत्मा अपनी ही परिणति में अपने ही क्षेत्र में परिणत होकर समाप्त हो जाता है, अपनी पर्याय को समाप्त कर देता है । यों जानने वाला आत्मा ज्ञानी आत्मा कहलाता है । दर्शनावरण के परिणमन को यह आत्मा नहीं करता, वेदनीय, मोहनीय, आयुकर्म, नामकर्म, गोत्रकर्म, अंतरायकर्म इन सबको यह आत्मा नहीं करता । ऐसा जो जानता है वह ज्ञानी कहलाता है ।
परभाव का अकर्तृत्व―भैया ! यह तो बताई गई है निमित्तरूप परद्रव्यों के कर्तृत्व के निषेध की बात । अब परभावों के कर्तृत्व के निषेध की बात देखो। मोह, राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ ये परभाव कहलाते हैं । द्रव्यरूप तो ये है नही, क्योंकि स्वयं इनकी सत्ता नहीं है । द्रव्य उसे कहते हैं जो गुणों का आश्रयभूत हो, और प्रदेशवान हो । ये रागादिक न तो प्रदेशवान हैं और न गुणसहित है, ये तो परिणमन हैं और परिणमन भी विकारी अध्रुव परिणमन है । ये पर द्रव्यों का निमित्त पाकर होते हैं इसलिए इनका नाम परभाव हैं । ज्ञानावरणादिक परद्रव्य हैं रागद्वेष मोहादिक परभाव है, इनका भी तो आत्मा कर्ता नहीं है ऐसा जो जानता है उसे ज्ञानी कहते हैं ।
शेष समस्त परद्रव्यों का अकर्तृत्व―अब और भी कुछ परद्रव्यों की बात कह रहे हैं कि इस प्रकार कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय, श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसना, स्पर्शन इन सब परद्रव्यों का भी यह आत्मा कर्ता नहीं है । ये सब द्रव्यरूप और भावरूप दो-दो प्रकार के होते हैं जो भावरूप हैं वे सब परभाव है और जो द्रव्यरूप हैं वे सब पर द्रव्य है । इन सबका यह जीव निमित्त रूप से भी कर्ता नहीं है । ऐसी ही दृष्टि से और भी बातों की तर्कणा कर लेना चाहिए । यह ज्ञानी जीव पर द्रव्यों का और परभावों का कर्ता नही है । जीव के अज्ञान की प्रगति का संबंध पर में कर्तृत्वबुद्धि से है और पर में स्वामित्वबुद्धि से है । दो ही महा रोग संसारी जीवों के लगे हुए हैं । एक अपने को पर का स्वामी मानना और दूसरा अपने को पर का कर्ता मानना । देखो कर्तापन की बात को अपने मुंह से कहते हुए भी संकोच होता है । भरी सभा में कोई स्कूल बनवा देने वाला या धर्मशाला बनवा देने वाला व्यक्ति सबके बीच खड़ा होता है, उससे पहिले लोगों ने उसकी तारीफ की हो कि इन्होंने बड़े-बड़े काम किए हैं, मंदिर बनवाया, धर्मशाला बनवाया इत्यादि बातें कह चुके हों पूर्ववक्ता, तो बनवाने वाला खड़ा होकर यदि यह कह दे कि यह सब मैने बनवाया है तो उसकी इज्जत खतम हो जाती है । वह निषेध करता है भैया मैने क्या बनवाया । आप लोगों की कृपा हुई है और ये बन गये है या बनने थे सो बन गए हैं । कुछ भी कहकर अपने में कर्तृत्व की बात न लाये तब तो उसकी शोभा है और जो कर्तृत्व की बात ला दी तो उसका अपमान है ꠰ कोई कहे तो सभा में खड़े होकर कि मैंने यह किया है, मैंने यह बनवाया है आप लोग इसे देखिये । ऐसा कर्तृत्व की बात कहने में भी एक विवेकी पुरुष को लाज आती है ।
कर्तृवाच्य, कर्मवाच्य व भाववाच्य में अंतर―भैया ! कर्तृत्व की बात कहने में अहंकार पुष्ट होता है । और प्रयोग करके भी देख लो । किसी भी बात को यदि कर्तृ वाच्य में बोलेंगे तो उसमें व्यक्त अहंकार जंचता है, यदि उसी बात को कर्म वाक्य में बोलेंगे तो उसमें कुछ विनय टपकती है और भाववाच्य में बोला जाये तो वहाँ अहंकार का कुछ सवाल ही नहीं है । जैसे कुछ पढ़कर कोई कहे कि मैंने इसे पढ़ा और इसी बात को यों बोले कि मेरे द्वारा यह सब पढ़ा गया है और इसी बात को यों बोले कि यह सब तो पढ़ लिया गया है। यद्यपि पढ़ लिया गया है यह भाववाच्य का प्रयोग नहीं है, छुपा हुआ कर्मवाच्य है फिर भी मेरे द्वारा या इस प्रकार भी जो कुछ नहीं बोला गया है इससे भाववाच्य होने की सकल में बन गया । इस पुस्तक को मैंने पढ़ा है यह मेरे द्वारा पढ़ी गई है; यह पुस्तक पढ़ ली गई है; तीनों प्रकार में उत्तरोत्तर विनय बढ़ती जा रही है, अहंकार घटता जा रहा है । देखो लाज आती है अपने का कर्तारूप से उपस्थित करने में, क्योंकि जीव का स्वभाव कर्तापन नहीं है । जीव तो अपने स्वभाव में परिणमता रहता है ꠰ इसको अन्य पदार्थों के करने का स्वभाव नहीं मिला है । फिर जो बात असंभव है उस बात को कहने में एक बार तो संकोच आ ही जाता है ।
जीवद्रव्य में पर के कर्तृत्व की असंभवता―यह जीव इन कर्म नोकर्म, मन, वचन, काय और इंद्रिय का भी कर्ता नहीं है न उपादान रूप से कर्ता है और न निमित्तरूप कर्ता है । निमित्तकर्ता भी किसी पर्याय के लिए कोई पर्याय होती है । यद्यपि पर्याय द्रव्य से अलग नहीं है ꠰ पर्याय अलग मिल जाये और द्रव्य अलग मिल जाये ऐसा वहाँ होता नहीं है फिर भी पर्यायस्वरूप और द्रव्यस्वरूप ज्ञानी जीव के द्वारा अलग-अलग पहिचाना जा सकता है । अपने स्वरूप से देखा गया शुद्ध द्रव्य किसी पर द्रव्य के कार्य का निमित्त होती है द्रव्य की पर्याय । शुद्ध द्रव्य का जहाँ शुद्ध परिणमन है वहाँ भी काल द्रव्य धर्मादिक द्रव्यों के परिणमन का निमित्त नहीं है, किंतु काल द्रव्य की वर्तना नामक परिणति पर द्रव्य के परिणमन का निमित्त है ꠰ इस दिशा से अन्य-अन्य कार्य भी विचार लेना चाहिये । किसी भी पर कार्य को यह जीव न निमित्तरूप से करता है और न उपादान से करता हैं । किंतु जीव की विकार अवस्था का निमित्त पाकर पौद्गलिक कर्मवर्गणावों में कर्मत्वरूप परिणमन होता है और कर्मोदय का निमित्त पाकर जीवविकार होता है ऐसा परस्पर में निमित्तनैमित्तिक संबंध है किंतु कर्ता कोई किसी दूसरे का नहीं है । इस प्रकार ज्ञानी जीव ज्ञान का ही कर्ता है यह बताया गया है ।
पर में अव्यापी होने से जीव में पर का अकर्तृत्व―जीव परद्रव्य का न तो उपादानरूप से कर्त्ता है और न निमित्तभाव से भी कर्ता है । अच्छा तब फिर जीव किसका कर्ता है इसके उत्तर में ये गाथायें चल रही है । जीव दो प्रकार के हैं―एक शुद्ध उपादान वाला जीव, एक अशुद्ध उपादान वाला जीव । जो मिथ्यात्व विषय कषाय का त्याग करके निर्विकल्प समाधि में स्थित हुआ जीव है वह शुद्ध उपादान वाला है ऐसा वीतराग स्वसम्वेदन ज्ञानी जीव शुद्धनय से अर्थात् शुद्ध उपादानरूप से शुद्ध ज्ञान का ही कर्ता है । वह जानता है कि कार्माणवर्गणा के योग्य पुद्गल परमाणु ज्ञानावरणादिक द्रव्य कार्यरूप होते हैं पर जीव उनमें व्यापता नहीं है । जैसे मिट्टी से घड़ा बनता है तो घड़ा में मिट्टी व्याप्त है उसी प्रकार उन कर्मों में आत्मा व्यापता नहीं हैं । और जैसे दूध दही बनाने वाला ग्वाला केवल तटस्थ है जानन देखनहार है, वह दूध दही में कुछ नहीं करता है । इसी प्रकार यह जीव भी अपने प्रदेशों से बाहर किसी भी परद्रव्य में कुछ करता नहीं है, ऐसा जो जानता है, और जानता ही नहीं, ऐसा जानकर पर से उपेक्षाभाव करके विषय कषाय के त्यागपूर्वक निज निर्विकल्प समता परिणाम में रहता है, वह शुद्ध उपादानरूप से शुद्ध ज्ञान परिणाम का ही कर्ता है ।
दृष्टांतपूर्वक ज्ञानी के शुद्धभावकर्तृत्व की सिद्धि―जैसे कि स्वर्ण किसका कर्ता है? क्या स्वर्ण स्वर्ण पहिनने वाले पुरुष के हर्ष परिणाम का भी कर्ता है? स्वर्ण तो अपने ही कलेवर में रहने वाले तत्त्व आदि का ही कर्ता है । अग्नि किसका कर्ता है? क्या अग्नि भोजन कराकर मौज बनाने का कर्ता है ? अग्नि अपने में उष्ण आदिक गुणोंरूप बनी रहे, परिणमती रहे इतनी मात्र अग्नि की करतूत है । सिद्ध परमेष्ठी किसके कर्ता है? अनंतज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत सुख, अनंत शक्ति रूप से परिणमते रहें इसके ही कर्ता हैं । इसी प्रकार यहाँ का यह ज्ञानी पुरुष भी सब ज्ञानस्वरूप को ज्ञान में ले रहा है उस समय वह शुद्ध ज्ञान आदि भावों का कर्ता है, पर रागादिकरूप अज्ञानभाव का कर्ता नहीं है । अपने-अपने परिणमनरूप से परिणमना इसही का नाम कर्तृत्व है और इस ही का नाम भोक्तृत्व है । इस प्रकार ज्ञानी ज्ञानभाव का ही कर्ता है यह सिद्ध किया गया है । अब दूसरे प्रकार का जीव जो कि अज्ञानी है उसके संबंध में प्रश्न होता है, कि अज्ञानी तो पर का कर्ता होगा ना? उसका निषेध करते हुये कहते हैं कि पर का अज्ञानी भी कर्ता नहीं है ।