वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 14
From जैनकोष
588-वस्तुदर्शन की विधियां:—जब हम और आप किसी वस्तु को संयुक्त देख सकते हैं तो उसे असंयुक्त भी देख सकते हैं । संयुक्त-असंयुक्त भी देख सकते हैं । मिली हुई चीजों में से एक को देखना असंयुक्त दृष्टि है । जब यह जीव असंयुक्त दृष्टि द्वारा परमशुद्ध निश्चय नय का प्रयोग करता है तब उसे आत्मा का अबद्ध स्पृष्ट रूप दिखने लगता है अर्थात् वह कर्मों से नहीं बंधा, शरीर और कर्मों से नहीं छुआ गया । रागादिक में कर्म तो फिर भी निमित कहा जा सकता है पर शरीर निमित्त नहीं है । जहाँ एक को निरखा वह बंधा नहीं है । यह डंडा बंधा हुआ है पर उसमें एक-एक परमाणु स्वतंत्र हैं । आत्मा एक अखंड है । जिसमें एक परिणमन हो वह अखंड है । एक प्रदेश पर जो एक परिणमन होता है संपूर्ण वस्तु में ही वह परिणमन हो—उसे अखंड कहते हैं । लोग कहते हैं कि बुद्धि मस्तिष्क में रहती है बाकी और कही नहीं—किंतु बुद्धि का क्षयोपशम समस्त आत्मा में है । पर हम इतने कमजोर है कि हमें ज्ञान मानो इंद्रियों की ही सहायता से होता है । परंतु अनुभव पूरी आत्मा से ही होता है । ज्ञान सब आत्मप्रदेशों में एक होता है । इसी तरह दर्शन आदि शक्तियां भी हैं । कोई भी गुण ले लो वह आत्मा के समस्त प्रदेशों में है । एक अखंड स्वभाव अबद्ध है । जैसे कमलिनी का पत्र पानी में रहकर भी उससे अलिप्त रहता है पानी उसको छुआ भी नहीं है जब भी बाहर निकालो वह सूखा ही है पानी के संयोग में भी वह अलिप्त है । इसी प्रकार कहते हैं कोई कि आत्मा आकाश में रहती हैं किंतु आत्मा, आत्मा में ही रहती है; किसी परपदार्थ में नहीं । 589-शुद्धनय की वृत्ति—जो अभिप्राय आत्मा को अबद्ध, अस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष और असंयुक्त जानता है वही शुद्धनय है । आत्मा अबद्ध, अस्पृष्ट, एक-नियत सामान्य, स्वभाव में तन्मय, पर से भिन्न, अनुभव में आवे वही शुद्धनय का कार्य है । यद्यपि स्वानुभव के समय नय भी विलीन हो जाता है किंतु जब उस एक को जानते हैं शुद्धनय की सहायता से ही । ऐसी अनुभूति वस्तु के एकत्व पर जब प्रयोज्यमान होती है तब अपूर्व आनंद प्रकट होता है । एक का विशेष महत्त्व है । जहाँ विशेष पर दृष्टि गई वहाँ आपत्ति आई । तेरहवीं-चौदहवीं ऐसी गाथा हैं कि इनका मर्म समझ जाओ तो समझो सब समझ गये । इस पुस्तक पर पुट्ठा चढ़ा है पर पुस्तक में पुट्ठा नहीं, और पुट्ठे में पुस्तक नहीं है । पुस्तक में पुस्तक और पुट्ठे में पुट्ठा है । दीवाल पर चूना पोता गया । लोग कहते हैं दीवाल सफेद हो गई पर सफेद दीवाल नहीं हुई—सफेद चूना ही हुआ है । दीवाल तो वैसी ही है । अभी उस चूने को खुरेद कर देखें तो दीवार अपने रूप में और चूना अपने रूप में । ऐसे ही वस्तुस्वरूप को देखने से वह शुद्ध ही दिखता है। यदि पानी में डूबा हुआ कमल का पत्ता देखोगे तो वहाँ कमल और पानी दोनों दिखेंगे और यदि वहाँ एक की दृष्टि से देखो तो वहाँ शुद्ध पत्ता ही दिखेगा । 590-वस्तु को उसके निज निज अस्तित्व में देखने का समादेश—जहाँ भी संयोग दृष्टि जाती है, वस्तु बद्ध दिखने लगती है । रस्सी से बंधी गाय—दोनों के संयोग की दृष्टि से बंधी है जहाँ एक की दृष्टि दो, गाय में गाय और रस्सी में रस्सी है। इसी प्रकार लोग कहते हैं कि हम घर गृहस्थी से बंधे हैं, पर यथार्थदृष्टि से कोई किसी से बंधा नहीं है आपत्ति मेटने की यही एक सर्वोत्तम दवा है—एक की दृष्टि से देखो । वह न बंधा है और न दूसरों से छुआ है । सब विपत्तियां अपने आप दूर हो जावेगी । इसके अतिरिक्त सुख के लिये तीन लोकों का कौना-कौना खोज डालो—उसके कहीं दर्शन भी नहीं होंगे । संसार में कोई किसी का मददगार नहीं है अपनी आत्मा ही अपनी स्वयं की मददगार है । दुनिया को सही दृष्टि का पता हो तो दुनिया ही मिट जाय और वस्तु स्वच्छ हो जाय । चूंकि यह होना संभव नहीं । विषय कषाय की तरह यदि स्वभाव का परिचय हो जाय तो यह संसार ही मिट जाय । ये विकार ही तो संसार है । फिर भी जिन जीवों का हित-समय आ गया वे संसार से मुक्त होंगे ही । लोग कहते हैं कि भारत को धर्म ने बर्बाद कर दिया । धर्म किसी को बर्बाद या दुःखी नहीं करता । धर्म की ओट में जो पाप होते हैं और उस पर धर्म का मुलम्मा चढ़ाकर उसे धर्म की संज्ञा दी जाती है वह ही बर्बाद करने वाला है । सच्चे धर्म से तो तत्काल सुख होता है । 591-बर्बादी की जड़ धर्म की ओट में किये जाने वाले पाप—पाप मनुष्य दो तरह से करता है:-एक तो सरलता में हो जाता है, दूसरा कपट-पूर्वक पाप करता । मैं पाप करता रहूँ और दुनिया न जान पावे यह कपट-पूर्वक पाप है । पाप से भली भांति परिचित है फिर भी पाप करे वह भी यही है । शरीर से या बाह्य किसी साधन से धर्म नहीं होता । अपने स्वभाव को जानकर ही धर्म होता है । लोग कहते हैं वह साधु बन गया—पर साधु कोई बनता नहीं—भीतर से जब वीतरागता प्रकट होती है तब उसके सब क्षणिक त्याग करने के भाव के अनर्थांतर रूप स्वभाव भावना प्रकट हो जाती है । उस समय यह साधुरूप अपने आप बन जाता है । पैसे से भी धर्म नहीं होता । लोग कहते हैं धर्म करो—याने पैसे का त्याग करो परंतु त्याग किया नहीं जाता है—स्वता आत्मा से, अनुभव होने पर । स्वभावदृष्टि आने पर यह संसारी पदार्थ जब कोई अपनाने योग्य नहीं रहते उस समय अपने आप उदारता आ ही जाती है । धर्म तो सम्यग्दर्शन, रत्नत्रय आदि रूप है । 592-आत्मीय समृद्धि ही सच्चा वैभव—स्वयं में तो उन अनंत गुणों का भंडार भरा पड़ा है, जिसके मुकाबले में संसार का समस्त धन कौड़ी की भी कीमत नहीं रखता । परंतु इस आत्मधर्म का जिसे पता नहीं वह ही उस भौतिक धर्म को धन मानता है । लोग कहते हैं कि अपने पूर्वजों की नीति निबाहो अपने पूर्वजों से यह कार्य चला आ रहा है पर अपने पूर्वजों की ओर ध्यान तो दो उन्होंने क्या-2 किया । बड़ों ने कैसा काम किया-धन-वैभव जोड़ा, पर अंत में सब छोड़ दिया और स्वभाव को खोजने जंगल में चल दिये । एक चक्रवर्ती की पुत्री अनंतश्री थी । उसे विद्याधर हर ले गया और उसे जंगल में छोड़ दिया । वहाँ कोई था तो नहीं, भयानकता थी । जीव जंतुओं की चीत्कार, वृक्ष पत्थर ही उसके साथी थे । कुछ दिनों में कपड़े भी फट गये । वह सोचने लगी क्या किया जाय वहीं वह आत्मध्यान करने लगी । हजारों वर्ष तपस्या की । एक समय एक अजगर सांप ने उसे आधा निगल लिया । इतने में उसका पिता चक्रवर्ती अकस्मात वहीं से निकल पड़ा । उसने अपनी लड़की को इस तरह देखकर हथियार से सर्प को मारना चाहा । परंतु लड़की ने पिता से प्रार्थना की कि आप हिंसा का कृत्य क्यों करते हैं, यह तो हिंसक है ही आप क्यों हिंसक बनते हैं। इसे अभयदान दो। सर्प उसे निगल गया और वह अनंतश्री अगले भव में देवी हुई। वहाँ से चयकर विशल्या हुई जिसके शरीर के नहाये हुये एक बूंद पानी से ही भयंकर से भयंकर विष दूर हो जाते थे । अपने शुद्ध भाव रखो उसमें भले ही तुम्हें गरीबी भोगना पड़े । पर हिम्मत करो तभी स्वभाव प्रकट होगा कुछ भी हो हम इसी प्रकार अपने जीवन में अहिंसा और सत्य का प्रयोग करें । जब आपत्ति आ जाय तो अपने स्वभाव का अनुभव करो । सब आपत्ति विलीन हो जायगी । उसी समय सुख शांति प्राप्त हो जावेगी । 593-पदार्थ को परखने के चार उपायभूत आशय—कोई भी चीज हो, चार प्रकार से जानी जा सकती है—1-परम शुद्ध निश्चयनय, 2-शुद्ध निश्चयनय 3-अशुद्ध निश्चयनय, 4-व्यवहारनय । उनमें मूल मुद्दा निश्चयनय है । एक को ही जानना निश्चयनय है । निश्चयनय 3 प्रकार का है:—परमशुद्धनिश्चय, शुद्ध निश्चय और अशुद्ध निश्चय । जो एक को जाने, उसे निश्चयनय कहते हैं । और जो दो या दो से अधिक का संबंध जाने उसे व्यवहारनय कहते हैं । किसी भी चीज को दो ही प्रकार से जाना जा सकता है । जैसे तंतु समूह से व कोली आदि से कपड़ा बना, यह व्यवहारनय है । परमाणुओं से कपड़ा बना—यह निश्चयनय है खालिस जानने को निश्चय और संबंध से जानने को व्यवहार कहते हैं । परमशुद्ध निश्चयनय वस्तु के स्वभाव को जानता है । शुद्ध निश्चयनय वस्तु की शुद्धपर्याय को जानता है । और अशुद्धनिश्चयनय वस्तु की अशुद्ध पर्याय को जानता है । जैसे एक दर्पण है । दर्पण के शुद्ध स्वभाव की दृष्टि से भी दर्पण को देख सकते हैं । मान लिया हमारे पीछे कोई चीज रखी है, दर्पण के सामने होने से दर्पण में उसका प्रतिबिंब आ जावे । यद्यपि प्रतिबिंब निमित्त पा करके आता है तो भी केवल दर्पण को भी देखकर प्रतिबिंब जाना जाता है । माना दर्पण में वृक्ष का प्रतिबिंब है । तो क्या दर्पण और वृक्ष के देखने से ही वृक्ष दिख सकेगा? नहीं, दर्पण में प्रतिबिंबमात्र अशुद्ध पर्याय देखने से भी वृक्ष दिखाई दे सकता है । स्वभाव, परमशुद्ध, शुद्ध और अशुद्ध पर्याय अद्वैत से निश्चयनय से जाना जाता है । वस्तु का संबंध व्यवहारनय से जाना जाता है । शुद्ध पर्याय की मुख्यता से जाने तो शुद्ध निश्चयनय से जाना जाता है । स्वभाव की मुख्यता से जाने तो परमविशुद्ध निश्चयनय से जाना जाता है । अशुद्ध पर्याय की मुख्यता से जाने तो अशुद्ध निश्चयनय कहलाता है । जीव रागी है, द्वेषी है, क्रोधी है, मानी है—यह अशुद्धनिश्चयनय का विषय है । परमशुद्ध के मुकाबिले में अशुद्ध निश्चयनय व्यवहारनय का विषय है । निश्चयनय का विषय अखंड एक होता है । शुद्ध निश्चयनय का दृष्टांत—आत्मा निष्कषाय है, शुद्ध है तथा सिद्धपर्याय । तीन काल रहने वाले स्वभाव को देखना परम शुद्ध निश्चयनय हैं । जैसे मतिज्ञान पर्याय है वैसे ही केवलज्ञान भी पर्याय है । अध्यात्म तपस्या करने पर ही केवलज्ञान प्राप्त होता है । फिर भी वह पर्याय है । ज्ञान गुण है, केवलज्ञान पर्याय है । परमशुद्ध निश्चय में आत्मा चैतन्यमात्र है, ऐसा जानना । केवलज्ञान पर्याय है तो वह प्रति समय नये परिणमन में होता है । जैसे बिजली दो घंटे से जल रही है । ऐसा नहीं कि वह दो घंटे से एक ही जल रही है और एक ही काम कर रही है । वह प्रतिसमय नई-नई जल रही है । और नया-2 काम कर रही है केवलज्ञान भी इसी के सदृश है । केवलज्ञान की पर्याय भी प्रतिसमय बदलती रहती है । लेकिन वह मालूम नहीं पड़ता है । क्योंकि वे ज्ञानपरिणमन सब सदृश हैं। व्यवहारनय संबंध को जानता है । आत्मा कर्म के उदय से क्रोधी है, यह व्यवहारनय है । मैं धनी हूँ, गरीब हूँ, स्त्री हूँ, पुरुष हूँ—इन सब पर्यायों को देखना भी व्यवहारनय है । क्योंकि इनमें भी एकद्रव्य नहीं देखा गया । 594-संबंध की दृष्टि रखने में आकुलता:—अशुद्ध निश्चयनय से देखने वाले जीव के आकुलता बनी रहती है । केवलज्ञान पर्याय को तुमने जाना, पर्याय क्षणिक है । इस उपयोग का विषय तुमने क्षणिक बनाया, जिस उपयोग का विषय तुमने क्षणिक बनाया, वह अधिक समय तक रह ही नहीं सकता है । जिस उपयोग ने परपदार्थ को विषय किया वह अधिक समय तक रह ही नहीं सकता है । उपयोग बदलना ही दु:ख का कारण है । लौकिक मामले में भी देखो जिस समय खा रहे हैं उस समय के उपयोग का बदलना ही तो दुःख का कारण हो रहा है । जिसका उपयोग न बदले समझो उसको मोक्ष होने ही वाला है । यह एकत्ववितर्क ध्यान में होता है । परपदार्थ को मानते समय उपयोग बदलता ही है । ईश्वर भक्ति से भी मोक्ष नहीं मिलता है, क्योंकि ईश्वर-भक्ति परपदार्थ है । जो परपदार्थ है, उससे उपयोग अवश्य बदलेगा । जहाँ मोक्ष की प्राप्ति की बात है, वहाँ ईश्वर-भक्ति से मोक्ष नहीं मिलता है । भगवान का ध्यान आत्मस्वभाव की परख में साधक बन सकता है । अत: उस पर दृष्टि डालना चाहिये । 595-निज के सत्त्व का मर्म:—निज स्वभाव के उपयोग से सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है । परमशुद्ध के उपयोग से स्वानुभव व स्वानुभव से ही सम्यक्त्व पैदा होता है । स्वानुभव होने के बाद चाहे उस समय स्वानुभव न भी हो, सम्यग्दर्शन प्रत्येक समय रहता है। सम्यक्त्व तो एक बार उत्पन्न होकर सदा ही बना रहता है जब तक कि घात न हो । स्वानुभव उत्पन्न होने के बाद रहता भी है, नहीं भी रहता क्योंकि स्वानुभव उपयोग है । आत्मा के स्वरूप को ढाँकने वाली 7 प्रकृतियों के उदय से सम्यग्दर्शन नष्ट हो जाता है । इस बोध का मर्म अभेद दृष्टि से जाना जाता है । उसे समझने के लिये व्यवहार पहिले उपयोगी है । चार नयों से हम वस्तु का परिज्ञान करते हैं । परमशुद्ध निश्चयनय और व्यवहारनय उनमें मुख्य हैं । अब हम आत्मा को किस दृष्टि से देखें कि परमशुद्ध निश्चयनय बना रहे और सम्यग्दर्शन भी पैदा हो जाए । ज्ञानी आत्मा को अबद्ध देखता है । यह निश्चयनय का विषय है । और, आत्मा को संबद्ध देखना व्यवहारनय का काम है । बंधी हुई अवस्था में भी वस्तु को अबद्ध देख लेना ज्ञान कला का काम है । जैसे कहीं गाय बंधी है । लोग कहते हैं कि गाय गिरमा से बंधी है । कभी भी कोई भी गिरमा से गाय को नहीं बांध सकता है । गिरमा-गिरमा से ही बांधा जा सकता है । लेकिन सभी उसे गाय को गिरवा से बंधा कहते हैं । यदि केवल गाय को देखे तो गाय गिरमा से भिन्न है और गाय स्वतंत्र है । यदि गाय व गिरमा को एक साथ दृष्टि में लाओ तो गाय बंधी मालूम पड़ती है । आत्मा को अबद्ध निरखना, नियत एक रूप देखना, चैतन्य का पिंड रूप देखना-इस तरह से आत्मा को असंयुक्त देखना शुद्ध निश्चय का विषय है । 596-स्वभाव के आश्रय से अपूर्व आनंत का लाभ:—इस आत्मा को चैतन्य स्वभाव की दृष्टि से जिसने अभी तक नहीं देखा वे इस संसार में अभी तक भटक रहे हैं । बड़े-बड़े चक्रवर्तियों ने इस स्वभाव को देखने के लिये छह खंडों के राज्य को भी छोड़ दिया अत: स्वभावदृष्टि षट् खंड के राज्य से भी बड़ी विभूति है । स्वभाव का आश्रय करने पर उनको अपूर्व आनंद आता है इसीलिये तो वे उसे नहीं छोड़ते हैं । अन्यथा वे निसंग अवस्था को छोड़कर छह खंडों का राज्य फिर से प्राप्त कर लेते । वे समझते हैं, यदि यह स्वभाव दृष्टि प्राप्त हो गई तो हमारा कल्याण निश्चित है । अनियत, चल विचल, नाना शक्तियों वाली दृष्टि अपरमार्थ दृष्टि है । लोक में आदर विशेष का है । मोक्षमार्ग में सामान्य का आदर होता है । विशेष के आदर से हमें संसार में भटकना पड़ता है । दुनिया विशेष का आदर करती है । ज्ञानी सामान्य का आदर करते हैं । जैसे कमलिनिपत्र होता है, उस पर पानी चिपटता नहीं है । वह पानी पत्र पर मोती की नाई ढलकता रहता है । वह कमल-पत्र खूब नीचे पानी में रख दो, उसके ऊपर नीचे पानी है । फिर भी कमल-पत्र जल से बिलकुल भिन्न है । कमल-पत्र के स्वभाव को देखो कमलपत्र जल से भिन्न है, बिलकुल भी छुआ हुआ ही नहीं है । जब तुम कमल-पत्र और पानी को एक साथ संयोग दृष्टि से देखो तो तुम्हें कमल-पत्र जल से संबद्ध जान पड़ेगा । यह सब बात व्यवहारनय की अपेक्षा से मालूम पड़ती है, स्वभाव मात्र देखना निश्चयनय है । आत्मा अनादिकाल से सदा शिव चैतन्य स्वरूपमय निश्चयनय से देखा जाता है । इसी प्रकार आत्मा आत्मा है, कर्म कर्म हैं, पृथक-पृथक वस्तु है तो भी अनादि बद्ध जीव है इसे बद्धत्व पर्याय से अनुभव करो तो जीव कर्म से बंधा यह भूतार्थ है अर्थात् सत्य है, किंतु मात्र वस्तुत्व की दृष्टि से देखो तो आत्मा पुद्गल से बंधा है यह अभूतार्थ है । इसी तरह स्पृष्टत्व पर्याय से अनुभव करो तो जीव शरीर से स्पृष्ट है, यह सत्य है परंतु वस्तुत्व दृष्टि से केवल आत्म स्वभाव को उपयोग में लेकर अनुभव करो तो आत्मा ही है, आत्मा आत्मा में है यह प्रतिभात है वहाँ यह बताना कि आत्मा शरीर से स्पृष्ट है तो यह अभूतार्थ है । वास्तव में भूतार्थता तो यही है कि पदार्थ अपने आप स्वभाव से जैसा है वैसा ही जानना । यदि आत्मा को स्वभावदृष्टि से देखा तो आत्मा अबद्ध स्पृष्ट भी दिखाई देता है । आत्मा के चैतन्य स्वभाव के अनुभव का नाम ही वेदांत है, जहाँ ज्ञान का अंत है । स्वभाव के अनुरूप ही पर्याय का बन जाना ही भगवान कहलाता है । ज्ञान का आनंद तत्काल प्राप्त होता है । जिस काल में ज्ञान प्राप्त किया उसी समय ज्ञान का आनंद प्राप्त होता है । 597-भ्रम महती मलीमसता—शरीर को और आत्मा को एकमेक मानना गंदी अवस्था है । शरीर आत्मा भिन्न-भिन्न हैं, यह भी सोचना कोई ऊंची अवस्था नहीं है । केवल आत्मा के विषय में ही विचार करना चाहिए, शरीर के विषय में उस समय कुछ भी नहीं सोचना चाहिये । आत्म-स्वरूप पर दृष्टि डालना ऊंची चीज है । और अत्र आत्मस्वभाव का अनुभव सर्वोच्च चीज है । जो कार्य करो उसे अध्ययन की दृष्टि से करना चाहिए । जो विद्यार्थी समझकर अध्ययन या स्वाध्याय करता है, वह ज्ञान जल्दी प्राप्त कर लेता है । आत्मा की अनुभूति के अर्थ ज्ञान का प्रयत्न करना चाहिये, यही सबसे बड़ी विभूति है । योगीजन सदा स्वभावदृष्टि पर ही निगाह रखते हैं । दृष्टि विशुद्ध नहीं तो प्राणायाम भी क्या करें । एक योगी 6 घंटे तक प्राणायाम करते थे । यह समाचार राजा के पास पहुँचा । राजा ने योगी से कहा यदि आप ऐसा कर देंगे तो हम आपको मुंह मांगी दौलत देंगे । योगीराज ने सोचा हम तो काला घोड़ा मांगेंगे । प्राणायाम समाप्त करते ही योगीराज बोले, लाओ काला घोड़ा । वे प्राणायाम करते हुए भी सोच रहे होंगे हम तो काला घोड़ा लेंगे । इस प्रकार उनका उपयोग काले घोड़े की ओर ही था । ज्ञानदृष्टि में केवल आत्मस्वभाव ही रहता है । तपस्या करना आत्मस्वभाव को जानने में बाधक नहीं, साधक है । ज्ञान बिना कर्मों की निर्जरा नहीं होती । 598-सम्यक्त्व से उद्धार का प्रारंभ:—सम्यक्त्व के होने पर अहं भाव नष्ट हो जाता है । सम्यक्त्व यह भी स्वीकार नहीं कराता कि मैं मुनि हूँ, आदि । मुनि तो पर्याय है । पर्यायबुद्धि के कारण ही क्रोध आता है । मुनि को जब यह ख्याल आता है अरे, मैं तो मुनि हूँ, अमुक गृहस्थ है, अमुक ने मेरे प्रति ऐसा क्यों किया? इस पर्याय बुद्धि में वह गुस्सा करने लगता है । मोक्षमार्ग के लायक हमारी योग्यता है, अत: सम्यग्दृष्टि बन कर मोक्षमार्ग में अग्रसर होना चाहिए । घर गृहस्थी के झंझटों को छोड़कर यदि बाहर किसी शांत आश्रम में रहा जाये तो सभी चिता समान चिंताओं से छुटकारा मिल सकता है । वर्ष में कम-से-कम एक माह ऐसा अवश्य करना चाहिये कि घर गृहस्थी के झगड़ों से दूर रहकर ज्ञानप्राप्ति करना चाहिये । जो अपने को गति प्राप्त हुई है, ये सब पर्याय हैं । इन पर्यायों में जो व्यक्ति ‘मैं’ मानकर चलता है, वह पतित है । जैन दर्शन में उद्धार का मार्ग वर्णित है । जैनदर्शन वस्तु के वास्तविक स्वरूप को बतलाता है । घर से दूर आश्रमों में रहने वाला श्रावक ज्ञान प्राप्त कर स्व-पर कल्याण-साधक बन सकता है । यह सुगम उपाय है स्वभावदृष्टि से अपने को निर्मल बनावो । पर पदार्थ चाहे अनुकूल परिणमें या प्रतिकूल, आकुलित न हो । एक किसान दंपती थे । किसान बहुत अशांत था । वह प्रतिदिन अपनी पत्नी को पीटने का उपाय विचारता रहता था, लेकिन उसे पीटने का कोई अवसर प्राप्त न होता । किसान इससे और भी हैरान रहने लगा । एक दिन वह अपने खेत में हल में बैलों को उल्टा जोतकर खेत जोतने लगा । और सोचा, अब किसाननी आवेगी, इस विषय में मेरे से विवाद अवश्य करेगी । फिर क्या, फिर तो मैं किसाननी की खाल उधेड़ दूंगा । किसाननी रोटी देने के लिये आई । बैल उल्टे जुते देखकर वह सब बात ताड़ गई कि यह मुझे पीटने के लिये स्वांग बनाया है । उसने सोचा, खैर कोई परवाह नहीं । वह किसान से बोली आप उल्टा जोते या सीधा हम तो अपने काम करके (रोटी देकर) लो यह चले । इस घटना से किसान के हृदय में परिवर्तन हो गया और वह शांत रहने लगा । शांति को बात समा जावे तब शांति आना कुछ कठिन नहीं । चैतन्य दृष्टि आने पर तो सभी बातें अपने आप आ जाती है । 599-पदार्थ को जानने के प्रकार—पदार्थ दो प्रकार से जाना है (1) पदार्थ को स्वभाव की दृष्टि से जानना, (2) अनेक पदार्थों के संबंध की दृष्टि से जानना । वस्तु का स्वभाव सत्यार्थ है । संबंध सत्यार्थ नहीं । स्वभाव की दृष्टि से यदि जानो तो आद्योपांत वस्तु एक ही दिखाई देती है । आत्म स्वभाव भूतार्थ है, अत: स्वभाव की दृष्टि में आनंद आता है । अभूतार्थ का संबंध करने से क्लेश होता है । मोह दूर करने का उपाय स्वभावदृष्टि है । किसी परमाणु को मिला हुआ ही मत देखो । जब कोई स्कंध ही नहीं दिखेगा तो कैसे मद होगा कि अमुक वस्तु मेरी है? पदार्थ को चैतन्य स्वभाव की निगाह से देखो तो मोह पैदा हो ही नहीं सकता है । पर्याय को पर्याय की दृष्टि से देखना चाहिये । यदि मनुष्य को यह विश्वास हो जाये कि जैसे सबके शरीर जलाये गये, उसी प्रकार मेरा भी शरीर जलाया जाना है, तो शरीर से उसको मोह हो ही नहीं सकता । प्रत्येक वस्तु को स्वभाव दृष्टि से देखते जाओ, सभी से मोह हट जायेगा । जितने जड़ पदार्थ हैं उन्हें भिन्न दृष्टि से देखो, उनसे भी मोह हट जायेगा । स्वभाव सदा स्वभाव बना रहता है, और पर्याय नष्ट होती रहती है । मनुष्य होना वस्तु का स्वभाव नहीं, अपितु पर्याय है । 600-संबंध हौव्वा मात्र—अपने को इन्सान न समझो, चैतन्य स्वरूपात्मा समझो तो सब क्लेश मिट जायेगा । अन्य संबंध आदि रूप न देखो संबंध अवस्तु है । जैसे इस चौकी पर यह पुस्तक रखी है । हम लोग कहते हैं कि पुस्तक और चौकी का संबंध है । लेकिन यथार्थ में पुस्तक और चौकी में संबंधपना है ही नहीं । संबंध न द्रव्य है, न गुण है, न पर्याय है । संबंध नित्य वस्तु नहीं अत: न द्रव्य है, न गुण है । संबंध यदि पर्याय है तो बतावो कि वह संबंध चौकी की पर्याय है या पुस्तक की पर्याय । यदि चौकी की पर्याय है तो वहाँ से पुस्तक हटाने पर चौकी में संबंध परिणमन होता रहना चाहिये । यदि संबंध पुस्तक की पर्याय है तो वहाँ से पुस्तक हटा लेने पर पुस्तक में वह संबंध परिणमना चाहिये । तात्पर्य यह है कि यदि उसमें संबंधपना होता तो चौकी पर से पुस्तक हटा लेने पर पुस्तक में या चौकी में संबंधपना बना रहना चाहिये । लेकिन ऐसा नहीं होता है । अत: संबंध को अवस्तु समझो। हौव्वा कल्पना की वस्तु को कहते हैं । अर्थात् पदार्थों में संबंध की अपनी कल्पना मात्र है । चौकी और पुस्तक का संबंध वास्तव में नहीं है । मस्तिष्क में जैसा विचार लिया उसी का संबंध मान बैठे । आत्मा और शरीर को मोही प्राणियों ने उल्टी कल्पना और दिमाग के बल पर ऐसा चिपका लिया कि वह अब अलग नहीं हो सकता है । शरीर और आत्मा की जैसी कल्पना की है, उससे आत्मा शरीर परंपरा से निकल नहीं पाता है । 601-नयों की दृष्टिमूलता—नैमित्तिक जितनी भी पर्याय हैं, सभी अभूतार्थ हैं जैसे मिट्टी है । कुम्हार व्यवस्था से ही उस मिट्टी को घड़े रूप में परिवर्तित कर देता है । पहले वह मिट्टी से लौंदा बनाता है, लौंदे से पिंड निर्माण करता है । पिंड से थेप-थेपकर कुठिया जैसा बनाता है । कुठिया से वह घड़ा बनाता है । घड़े के फूटने के पश्चात् कपालादि बनते हैं लेकिन मिट्टी उसकी प्रत्येक अवस्था में विद्यमान है । स्वभाव दृष्टि से देखने से प्रत्येक अवस्था में मिट्टी है । पर्याय देखने से वहाँ विभिन्न पर्याय बनती हैं । सभी पर्याय न्यारी-न्यारी हैं । न्यारी-न्यारी चीजों से न्यारा-न्यारा काम चलता है । अत: पर्याय दृष्टि से सभी पदार्थ न्यारे-न्यारे दिखाई देते हैं । स्वभाव की दृष्टि से देखने से मिट्टी ही मिट्टी दिखाई देती है । आत्मा को पर्याय दृष्टि से देखो सभी न्यारी है । लेकिन स्वभाव की दृष्टि से देखो आत्मा सभी पर्यायों में रहता हुआ भी एक है । पर्यायदृष्टि से जानना व्यवहारनय की अपेक्षा से है । स्वभाव-दृष्टि से देखना निश्चयनय की अपेक्षा से है । उस मिट्टी को पिंड, कुटिया, घड़ा, कपाल आदि पर्याय रूप से अनुभव किया, उपयोग लगाकर जाना वहाँ पिंड, कुट आदि पर्याय भूतार्थ हैं, सत्य हैं । किंतु उस मिट्टी के स्वभाव को तो उपयोग मत करो जो कि पिंड कुटिया आदि उन सबमें रहता है उनमें से किसी भी पर्याय से स्खलित नहीं होता है, इस स्वभाव-दृष्टि में मृत्पिंड आदि सब अभूतार्थ हैं, क्योंकि वहाँ तो वस्तु का वस्तुत्व ही देखा जाता है । यह दृष्टांत भी स्थूल है कारण कि मिट्टी द्रव्य नहीं । किंतु पर्याय है, किंतु दृष्टांत में मिट्टी को द्रव्य स्थानीय कर लो, प्रायोजनिक हल के लिये दृष्टांत संयुक्त बैठता है । इसी प्रकार नर नारकादि पर्याय रूप से अनुभव करने पर, जानने पर वे पर्यायें भूतार्थ हैं नहीं ऐसी बात नहीं है, परंतु उस आत्म-स्वभाव का तो अनुभव करो जो कि नर नारकादि सब पर्यायों में रहता है, उनमें से किसी भी पर्याय में स्वभाव स्खलित नहीं होता, इस स्वभाव दृष्टि में नर-नारकादि पर्याय अभूतार्थ हैं वहाँ तो आत्मवस्तु का आत्म वस्तुत्व अनुभव में है । स्वभावदृष्टि का अपूर्व चमत्कार है । स्वभावावलंबन करने पर आत्मा अंतरात्मा हो ही जाता है । कहीं यहाँ पर्याय का मना नहीं किया । पर्याय भी है । 602-दृष्टि का प्रभाव—पर्यायों से भिन्न-भिन्न काम निकलता है । जैसे, मनुष्य पर्याय से मरकर देव बना । उसमें पर्याय एक से दूसरी हो गई । लेकिन आत्मा दोनों पर्यायों में वही है । फिर भी उनके कार्य न्यारे-न्यारे होते हैं । देवों के कंठ से अमृत झरता है, तो उनकी भूख दूर हो जाती है, मनुष्य को भूख पूर्ति के लिये भोजन करना पड़ता है । यदि मनुष्यों की भूख देवों की तरह बिना परिश्रम के दूर होने लगे तो एक दूसरे की कत्ल करने लगे । मनुष्य पर्याय में तपस्या कर मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है, देव लोग तपस्या कर ही नहीं सकते । यदि देवों में तपस्या हो सके तो वे 6-6 माह के उपवास करके जल्दी से मोक्ष पर अधिकार कर लेवें । आत्मा को निरपेक्ष सत्य की दृष्टि से देखा तो उसका स्वभाव दिखा इस निश्चयनय की दृष्टि की अवस्था में क्लेश का नामोनिशां भी नहीं है । पर्याय पर निगाह डाली तो व्यवहारनय से देखा, जिसमें आसक्ति है तो क्लेश ही क्लेश है । पर्याय की निगाह से आत्मा को मत देखो, स्वभाव-दृष्टि से आत्मा को पहिचानो । मनुष्य शुरु से नाम के लिये मरता है, लेकिन उसका फल घृणा, द्वेष, ईर्षा होता है । मृत्यु के पश्चात् उसके साथ मकान के पत्थर पर लिखा हुआ नाम नहीं जाता, उसके साथ मिथ्यात्व, पाप, कलुषता जाते हैं । पर्याय पर दृष्टि डालने के कारण ही मनुष्य को अपनी इज्जत की फिक्र पड़ती है । पर्याय पर दृष्टि न डालकर मैं चैतन्य स्वरूपात्मा हूँ, ऐसी दृष्टि डालो । इसमें अनंत इज्जत की संभाल होती है । 603-आत्मा का नियत स्वभाव—आत्मा का स्वभाव अनादिकाल से एक चला आ रहा है और अंत तक भी वही स्वभाव रहेगा । आत्मा के स्वभाव में कोई परिणमन नहीं होता । स्वभाव नियत है । पर्यायों में ही परिणमन होता है, अत: पर्यायें डगमग हैं । जैसे जल के ढेर का नाम समुद्र है तो समुद्र डगमग ( अस्थिर) नहीं दिखाई देगा । यदि समुद्र की चल तरंगों पर दृष्टि दी तो डगमग (अस्थिर) दिखाई देगा । यदि समुद्र को वृद्धि हानि की दृष्टि से देखोगे तो अनियत मालूम पड़ेगा । यदि समुद्र को एकरूप देखो तो नियत मालूम पड़ेगा । उसी प्रकार आत्मा का स्वभाव भी नित्य व्यवस्थित है । उस दृष्टि से देखने से आत्मा नियत है । आत्मा को वृद्धि हानि की दृष्टि से देखो तो अनियत मालूम पड़ता है इस दृष्टि में समुद्र का अनियत होना भूतार्थ है । परंतु, नित्य व्यवस्थित समुद्र के स्वभाव को सन्निकट उपयुक्त होकर देखो तो यह अनियतपना अभूतार्थ है । वास्तव में भूतार्थ दृष्टि से तो समुद्र नियत है । इसी प्रकार आत्मा में जो गुणांशों की वृद्धि हानि की पर्यायें चल रही हैं उनकी दृष्टि से आत्मा का परिचय करें तो वृद्धि हानि भूतार्थ है । परंतु, नित्य व्यवस्थित चैतन्यस्वरूप आत्मस्वभाव के अनुभव किये जाने पर वृद्धि हानि सब अभूतार्थ हैं । वास्तव में भूतार्थ दृष्टि से तो आत्मा आत्मस्वभाव में नित्य अचल व्यवस्थित है । निश्चयनय के 3 भेद हैं—परम शुद्धनिश्चयनय 2—शुद्ध निश्चयनय 3—अशुद्धनिश्चयनय । परमशुद्धनिश्चयनय का विषय यहाँ बताया जा रहा है । शुद्ध निश्चयनय शुद्ध पर्याय को एक अर्थ में बताता । अशुद्ध निश्चयनय अशुद्ध पर्याय को एक अर्थ में जानता । निश्चयनय यह बताता है कि कषाय हमीं से उत्पन्न होती है और कषायें हमीं में नष्ट होगी। 604-षट् कारक—कारक आध्यात्मिक दृष्टि से 6 ही होते हैं । सात कारक हिंदी और संस्कृत वालों ने ही माने हैं । अध्यात्म संस्कृति में संबंध कारक नहीं होता है । संबंध किसी का नहीं बनता क्योंकि यह कल्पना मात्र है । कल्पना के कारण ही हम लोग सांसारिक पदार्थों का संग्रह करते हैं अत: लड़ाई झगड़े होते हैं । यह कल्पना से होता है । सम्यग्दृष्टि निर्धनता में और धनी अवस्था में भी आनंद मानता है । सम्यग्दृष्टि लौकिक सुख से सुखी होता हुआ भी क्लेश अनुभव करना चाहता है जैसे धनी व्यक्ति हलुआ खाते-खाते अघा जाते हैं, तो उन्हें भुने चने खाने की इच्छा हो जाती है । इन इंद्रियों के व्यापार को ज्यादा मत बनाओ । यदि इंद्रियों के विषयो को ग्रहण न किया तो आनंद ही आनंद है आत्मा के स्वभाव की दृष्टि में आकुलता नहीं है । आत्मा में आनंद स्वयं है किंतु पर की ओर दृष्टि बनने से प्राप्त साधन का आनंद नहीं ले पाता यह आत्मा । एक वृद्धा थी, उसके सात लड़के थे । उनमें से एक मर गया, तो बुढ़िया उसके मरने पर रोने लगी । उसे बार-बार उसका ख्याल आने लगा । उसके शेष 6 लड़कों ने बहुत समझाया कि मां मत रो, हम छ: तो है । यदि तू ज्यादह रोवेगी तो हम में से भी एक मर जायेगा । बुढ़िया बोली क्या करूं बेटे, मरे की याद ज्यादह आती है । छ: में से भी एक मर गया, बुढ़िया उसी को रोने लगी । उसके अवशेष 5 लड़कों ने कहा, मां हम तो हैं तू क्यों रोती हैं । वह फिर कहती है कि बेटा मुझे उसी की याद आती है । इस तरह से उनमें एक और मर जाता है । इस तरह 6 बच्चे मर जाते हैं । अब अंत में एक बचता है । वह कहता है, अम्मां तू मत रो । मैं तो हूँ । तू मुझे देखकर ही संतोष धारण कर । लेकिन बुढ़िया रोती रहती वह वर्तमान पर संतोष नहीं रखती । सातवां पुत्र भी मर जाता है । इन मोहवश वृद्धा की तरह मनुष्य हजारपति होकर लखपति होने की इच्छा रखता है । वह लखपति नहीं बन पाता है, यह दुःख उसे रहता ही है, लेकिन वह हजार रुपयों की तरफ कोई ध्यान नहीं देता है अत: यह हजार रुपयों के सुख को भी नहीं भोग पाता है । लखपति करोड़पति बनने की अरबपति बनने की इच्छा रखता है, लेकिन अधिक चाहने के कारण दु:ख ही दु:ख भोगता है । अथवा यदि लखपति को हजार का टोटा पड़ गया तो उसकी दृष्टि हानि पर तो है किंतु वर्तमान समागम पर नहीं अत: भैय्या, वर्तमान संतोष रखना चाहिए । मैं तो सदा अपनी विभूति को अपनाऊंगा, इसी से मनुष्य सुखी हो सकता है । 605-स्वभावदृष्टि दृढ़ करने का अनुरोध—स्वभावदृष्टि को मजबूत बनाने के लिए 3 प्रकारों का वर्णन आया । 1—पर वस्तु के संसर्ग को न देखो—अन्य पदार्थ के संसर्ग के देखे जाने पर वस्तु का स्वभाव नहीं देखा जा सकता है । आत्मा को जानना है तो केवल आत्मा को जानो । 2—आत्मा को जानना है तो परिणमन को मत देखो । पर्यायादि आत्मा का बगीचा है । पर्याय को मत देखो । नहीं तो उस पर्यायरूपी बगीचे में सदा भटकना पड़ेगा भेद विकल्प संकल्प छोड़कर अनुपम विश्राम करो । इस निष्पक्षता और सुविश्राम के परिणाम में आत्मा के शुद्ध स्वरूप के अर्थात् परमात्मतत्त्व के दर्शन होंगे । यद्यपि स्वभाव व परिणमन ऐसा नहीं कि दोनों अलग रहते हों । वस्तु का परिणमन अवश्य होता है । चीज की प्रति समय हालत अवश्य बदलती रहती है । किन्हीं ने आत्मा को हालत बिना माना है किंतु वह युक्तियुक्त है ही नहीं । प्रत्येक समय वस्तु कुछ न कुछ रूपक अवश्य रखती है । प्रति समय वस्तु का परिणमन होता रहता है । जो सत् है, वह अवश्य बदलता है । पर्याय एक समय होती है, दूसरे समय में नष्ट हो जाती है । स्वभाव सदा वही रहता है । परिणमन होता रहता है । स्वभाव व पर्याय बराबर की चीज नहीं है । पर्याय एक समय रहती है । स्वभाव त्रिकाल बना रहता है । परिणमन एक नहीं रहता । दूसरे समय में दूसरा परिणमन । तीसरे समय में तीसरा और इसी प्रकार चौथे समय में चौथा आदि । अपने स्वभाव को दृढ़ बनाने के लिये पर्यायों को मत देखो । ऐसा नहीं कि पर्याय न हों, पर्याय तो अवश्य होती है । आत्मा का स्वभाव चैतन्य गुणमय है । आत्मा ज्ञान-दर्शनमय है । और भेद करने पर चरित्रमय भी है । चैतन्य का अर्थ है, जो प्रतिभास करे, जाने, देखे । प्रतिभास करना, यह तो पर्याय है । प्रतिसमय नया-नया प्रतिभास होता है । एक स्वभाव जो नाना पर्यायों को धारण करके भी विचलित न हो वह स्वभाव कहलाता है । उसने जो काम किये वह पर्याय हैं । जो स्वभाव है, उसका कार्य है, जिसका कार्य है, उसका परिणमन अवश्य होता है । आत्म-स्वभाव के परिणमन का नाम ही चैतन्य का परिणमन है । यदि हम चैतन्य स्वभाव को जानना चाहें तो हमें पर्यायों पर दृष्टि नहीं डालनी चाहिए । पर्याय तो हमेशा रहती है, लेकिन उसको उपयोग में न लावे तभी स्वभाव को जाना जा सकता है । सहभावी गुण अथवा पर्यायों के भेद भी निश्चयनय से सही नहीं हैं । सुवर्ण में स्निग्धत्व, पीतत्व, गुरुत्व आदि अनेक धर्म हैं ऐसे उन धर्मों के रूप से अनुभव किये जाने पर ये सब धर्म भूतार्थ हैं, सत्य हैं तो भी केवल सुवर्णत्व के स्वभाव को जहाँ समस्त गुण धर्म भेद अस्त हो जाते हैं, अनुभव करने पर वे सब धर्म अभूतार्थ हैं । इसी प्रकार ज्ञान, दर्शन आदि गुण धर्म (पर्याय) के रूप में आत्मा के अनुभूयमान होने पर यह विशेषपना भूतार्थ है, सत्य है, तो भी उस आत्मस्वभाव के अनुभूयमान होने पर जिसमें कि समस्त गुणधर्म (विशेष) अस्त हो गये हैं, ऐसे अखंड व निर्विकल्प आत्मस्वभाव के अनुभूयमान होने पर ये सब विशेष अभूतार्थ हैं । 606-परमपारिणामिक भाव देखने का अनुरोध—जब पर्याय की ओर तथा गुणभेद की ओर उपयोग न हो, तभी हम स्वभाव की ओर उपयोग लगा सकते हैं । जब हमें वस्तु का स्वभाव जानना है तो वस्तु की पर्यायों की ओर दृष्टि न डालें । हम पर्यायों पर ध्यान न दें और स्वभाव पर ध्यान दें - यह भी एक पर्याय है । इस पर भी ध्यान न दें, किंतु स्वभाव के परिचय का आनंद पावें । हमें अपनी ऐसी हालत बनाना चाहिए कि हम अपने स्वभाव को जान-देख सकें । स्वभाव दृष्टि को मजबूत बनाने के लिए तीसरा प्रकार यह है कि हम आत्मा की हीनाधिकता पर ध्यान न दें । प्रश्न:—पर्याय पर ध्यान न दें, इसी का अर्थ है, वृद्धि हानि पर ध्यान न दें फिर अनन्य व नियत इनको अलग-अलग क्या कहा? समाधान:—क्रोध, मान, माया लोभ—ये आत्मा के परिणमन समझ में आते हैं किंतु इनकी वृद्धि हानि सूक्ष्म विषय है । मनुष्य आत्मा का परिणमन है । यह जल्दी समझ में नहीं आता । क्योंकि मनुष्य पुद्गल और आत्मा इन दो द्रव्यों के संयोग में बना है । यह असमानजातीय द्रव्य पर्याय कहलाता है । शरीर में अनंत परमाणु हैं । कर्म भी एक-एक करके अनंत परमाणुओं का ढेर है । औदारिक परमाणु अनंत हैं, कर्म परमाणु अनंत हैं । और तेजस परमाणु अनंत हैं, आत्मा सिर्फ एक है । वह व्यंजन पर्याय है वहाँ हानि वृद्धि पृथक-पृथक द्रव्यों में है । यह अंतर है पर्याय और वृद्धि हानि में । पर्यायदृष्टि बिना अनन्य व वृद्धि हानि बिना नियत होता है । दृश्य एक भी चीज ऐसी नहीं कि जिसमें जीव न था । जो चीजें आंखों से दिखाई देती है उनमें कोई अवश्य था । कोई भी स्कंध नहीं कि जिसमें जीव न आया हो और वह बन गया हो । प्राय: ये चीजें पृथ्वीकायिक जीव होती हैं: लोहा, चूना, सीमेन्ट आदि सब खान (खदान) में थे बाद में इनमें से जीव निकल गया और इनकी यह पर्याय हो गई । मिट्टी का तेलादि पृथ्वीकायिक जीव थे । जीवत्व ग्रहण किये बिना कोई चीज नहीं बनी । स्वभाव को परखने के लिये इन सब हानि-वृद्धि को गौण कर दो । नियत स्वभाव का आश्रय करने से स्वभाव की परख हो जायेगी । अब चौथा प्रकार कहते हैं:—जैसे एक सुवर्ण है । ‘सुवर्ण’ समझना है तो ‘सुवर्ण’ इतना कहने से ही समझा जा सकता है । उस समय इसमें स्निग्धत्व, गुरुत्व, पीतत्वादि विशेषताएं अभूतार्थ हो जाती हैं । आत्मा को समझने के लिये आत्मा के विशेषणों को गौण करना पड़ेगा । आत्मा में ज्ञान-दर्शन, चारित्रादि पर्याय हैं । स्वभाव को जानने के लिये ये सब अभूतार्थ हो जायेंगी । ज्ञान के बल पर ही सम्यग्दर्शन पैदा होगा । धर्म के नाम पर भी उत्सव करलो, बिना ज्ञान के सम्यग्दर्शन नहीं हो सकता है । जिन चीजों को अपने से दूर करना है, उनका भी तो ज्ञान करना पड़ेगा । 607-‘‘ओ3म्’’ से मोक्षमार्ग का प्रदर्शन:—‘‘ॐ’’ इसके बुद्धि में 5 टुकड़े करो:—उ - 0, 0, 0 । ‘उ’ यह व्यवहारनय का प्रतीक है, क्योंकि इसमें याने बहुत गुडेरी हैं । इसमें विकल्प होते हैं । जो ‘उ’ के डंडे पर शून्य लगा है, यह निश्चयनय का प्रतीक है । शून्य जैसे आदि मध्य अंत करि रहित है, निश्चयनय का विषय भी आदि मध्य अंत से रहित है । ‘डंडा’ प्रमाण का प्रतीक है । प्रमाण निश्चयनय और व्यहारनय को भी संबद्ध किये रखता है । देखो, यह डंडा भी उव0 इन दो प्रतीकों को संबद्ध किये रखता है । दोनों सापेक्ष हैं । व्यवहारनय और निश्चयनय यदि निरपेक्ष है तो अप्रमाण है । व्यवहारनय और निश्चयनय का मिलना प्रमाण है । चीज वही है जो व्यवहार निश्चयात्मक है प्रमाण से वस्तु को जानने के बाद चंद्रकला ( ̐) स्वानुभव को कहती है । प्रमाण और नय के विकल्पों से रहित अनुभव स्वानुभव है । स्वानुभव स्वयं प्रमाणरूप है । किन प्रमाण और नयों के विकल्पों से रहित है । जब स्वानुभव प्राप्त कर लोगे तो शून्य (0) —रागद्वेषादि से रहित—बन जाओगे । निश्चयनय का आश्रय करना चाहिये । प्रमाण से वस्तु को ठीक-ठीक जान लेना चाहिये । शास्त्र इसलिये पढ़े जाते हैं कि हम शास्त्रों को पढ़कर भूल जायें । भूलना—विकल्पों को छोड़ना । इस भूलने का महत्त्व बिना शास्त्रों के पढ़े नहीं आता । अत: शास्त्रों को भी पढ़ना ही पड़ेगा । आत्मा में गुण शक्ति के भेदों को मत करो—यही चौथा प्रकार है । तभी अखंड स्वभाव अनुभव में आयेगा एकेंद्रियादि सभी के विकल्प चलते हैं । निर्विकल्प अवस्था किसी जीव की यहाँ नहीं है किंतु निर्विकल्प का उपयोग तो किया जा सकता है । 608-शांति मार्ग में सामान्य दृष्टि का महत्त्व—सामान्य विशेषात्मक पदार्थ को सामान्य की मुख्यता से जानो । विशेष की मुख्यता से जानने में बहु विकल्प हैं सामान्य की दृष्टि से जानने में भी एक विकल्प है । एक और बहु दोनों विकल्प दूर हों, तभी निर्विकल्पक अवस्था होगी । विशेष दो रूप होता है:—1-तिर्यगंशरूप (एक ही समय में रहने वाले विशेष), 2-ऊर्ध्वांशरूप (भिन्न-भिन्न समयों में होने वाले विशेष), गुण और पर्याय का नाम विशेष है । सारांश यह है कि सब प्रकार के विशेष विकल्पों को छोड़ दो । स्वानुभव एक भी कहा नहीं जा सकता । ज्ञानी को स्वानुभव होने पर संसार की समस्त बातें नीरस जान पड़ती हैं उस उपयोग में जो वृत्ति है वही पहिचान है । निर्विकल्पक ज्ञान को स्वानुभव कहते हैं । स्वानुभव प्राप्ति होने पर कर्मों की निर्जरा होने लगती है । स्वानुभव एक उपयोग की दशा है । ऐसी दशा में भी कषाय-चक्र चलता रहता है । स्वानुभव में उपयोग से ही शुद्ध रहता है । वह द्रव्य की दृष्टि से शुद्ध होने जा रहा है । 609-आत्म-स्वभाव की पहिचान से बढ़कर अन्य व्यवसाय का अभाव—आत्मा के स्वभाव की पहिचान ही सबसे बड़ी विभूति है । बड़े-बड़े राज्य भी उसके सामने कुछ नहीं है । उसको पहिचानने का पांचवां उपाय—जैसे जल उष्ण हो जाता है । नैमित्तिक को यदि न देखें तो जल का स्वभाव स्वयं देखा जा सकता है । कषाय से भिन्न जब अपने को देखें, तभी आत्मा की परख हो सकती है । जीव का साथी ज्ञान के अतिरिक्त अन्य नहीं है । जब तक पुण्य का उदय है तभी तक लोग पूछते हैं । पुण्य का उदय समाप्त होने पर कोई नहीं पूछता । 610-कमाने को घमंड की व्यर्थता—हम लोग व्यर्थ घमंड करते हैं, कि मैं कमाता हूँ तथा अन्य मेरी कमाई खाते हैं। यह पता नहीं कि जो शुभोपयोग करते हैं उनका पुण्य कमाई करता है । एक सेठ था । उसके 4 लड़के थे । उनमें एक कमाऊ था, दूसरा जुआरी था, तीसरा अंधा था । और चौथा पुजारी था, कमाऊ पुत्र कमाता, और सब खाते । कमाऊ पुत्र की स्त्री प्रतिदिन कहती, तुम न्यारे क्यों नहीं हो जाते? जब प्रतिदिन स्त्री यही कहती तो कमाऊ पुत्र ने पिता से जाकर कहा, पिता जी, हम न्यारे होना चाहते हैं क्योंकि कमाने वाला तो मैं अकेला हूँ । और खाने वाले सब हैं पिता ने कहा, बेटा, तुम अलग तो हो जाना, पहले सब मिलकर एक तीर्थयात्रा कर लो फिर अलग हो जाना । पुत्र ने भी हां कर ली । शुभ मुहूर्त में सब यात्रा करने निकले । वे रास्ते में एक जगह ठहरे । उनको लगी भूख । कमाऊ पुत्र को सर्वप्रथम भोजन लाने के लिये 10) दस रुपये दिये गये । वह व्यापार कुशल था, अत: उसने उसमें किसी प्रकार से दो रुपये पैदा कर लिये । 10+2=12) बारह रुपये का वह भोजन लेकर रवाना हुआ और सबको खिला दिया । दूसरे दिन जुआरी को भोजन लेने के लिये भेजा गया । जुआरी भी 10) भोजन के लिए लेकर चला । रास्ते में उसे लोग जुआ खेलते हुए मिले । उसने सोचा 10) का क्या आयेगा, चल, एक बाजी ही लगा लेवे । भाग्य से वह जीत गया । तो वह 10+10=20) बीस रुपये का सामान लेकर घर पर पहुंचा । तीसरे दिन अंध-पुत्र को 10) देकर भोजन लाने के लिये भेजा गया । बीच में ठोकर लग गई, तो अंधा पुत्र जमीन पर गिर पड़ा । उसने सोचा, इस पत्थर को रास्ते में से हटा दें, जिससे दूसरे को चोट न लगे । पत्थर के नीचे से उसे हजारों रुपये हन्डे में मिले, तो वह बहुत सा समान लेकर पहुँचा और वे रुपये भी भेंट किये । चौथे दिन उस पुजारी पुत्र को 10) रुपये देकर भेजा गया । उसे रास्ते में एक देवालय मिला । उसने सोचा, पेट तो हम रोज भर लेते हैं । आज चलो, भगवद् भजन करें । यह सोचकर वह बाजार में जाकर पूजा के लिये चांदी का कटोरा, माचिस, रुई और धन खरीद लाया । मंदिर जाकर तन-मन से भगवान की आरती करने लगा । उसे आरती करते-करते शाम हो गई । मंदिर के रक्षक देवता को फिक्र हुई । उसने सोचा, यह तो भगवान की भक्ति में लीन है, इसके माता-पिता भूखे बैठे होंगे । यह सोचकर उसने उसी पुत्र का वेष धारण करके गाड़ियां, मोटरों, ऊंटों और घोड़ों आदि पर नैवेद्य लादा और उसके माता-पिता के पास जाकर अर्पित कर दिया । माता-पिता-बंधु उसके भाग्य पर बड़े प्रसन्न हुए इसके बाद पुजारी को माता पिता की याद आई और वह चांदी के लोटे को भी मंदिर में चढ़ाकर पिताजी के पास आया और कहने लगा, पिताजी आपको भूख लगी होगी । पिता बोला, बेटा तू क्या कह रहा है? अभी तो तू गाड़ी भर करके नैवेद्य लाया था । अब सेठ ने चारों लड़कों को बुलाया और कमाऊ से कहा अब देखो तुम कुछ भी नहीं कर रहे हो, सब अपने भाग्य से खाते पीते हैं । अब तुम अलग होना चाहोगे? पुत्र बोला, नहीं पिता जी अभी तक मैं भूल में था । 611-स्वभावदर्शन से सर्वत्र भलाई—आत्मा के स्वभाव को देखने पर जो राग रहता है उससे तीव्र पुण्य का बंध होता है । सम्यग्दर्शन होने पर इस भव में तो गरीब हो सकता है, लेकिन अगले भव में दरिद्र नहीं हो सकता । भवों की दरिद्रता तो भव में भी नहीं रह सकती । स्वभावदृष्टि की बड़ी महत्ता है । पानी में गर्मी का संयोग है अग्नि उपाधि का निमित्त पाकर। यह बात तब सही है जब उनके मिश्रण पर दृष्टि हो । यदि पानी के शीत स्वभाव पर दृष्टि है तो पानी का उष्णत्व अभूतार्थ है । इसी प्रकार कर्मउपाधि का निमित्त पाकर होने वाले मोह से समवेत है यह आत्मा, यह बात पर्याय रूप से अनुभव किये जाने पर भूतार्थ है, सत्य है, किंतु स्वतःसिद्ध आत्मस्वभाव के अनुभव किये जाने पर मोहादि संयुक्तता अभूतार्थ है । गुस्सा करना आत्मा का स्वभाव नहीं । किसी से कहा जाये तुम दो मिनट तक एकसा गुस्सा करो कोई एकसा गुस्सा कर ही नहीं सकता क्योंकि अस्वभाव देर तक नहीं रहता । क्रोध, मान, माया, लोभ करना आत्मा का स्वभाव नहीं है । यदि आत्मा का स्वभाव होता तो गुस्सा उसमें सदा बना रहना चाहिए । आत्मा का स्वभाव ज्ञान है । यदि किसी से कहा जाये तुम एक घंटा तक शांत बैठे रहो तो वह शांत बैठ सकता है । क्योंकि शांति आत्मा का स्वभाव है । लेकिन कोई निरंतर क्रोध नहीं कर सकता है । शास्त्र स्वाध्याय से यही लाभ है कि परवस्तु से राग छूट जाये । उसी का जीवन सफल है जो राग से दूर है । साथ-साथ कोई नहीं जाता है । पति मरता है, पत्नी मरती है—लेकिन साथ कोई किसी के नहीं जाता । दुःख का कारण संयोग है । द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव—सब इसी में तन्मय है । मौलिक ज्ञान बिना यदि कोई जीव चाहे कि हमारा मोह दूर हो जाये तो बिना ज्ञान के मोह दूर नहीं हो सकता है । 612-स्वभाव के आश्रय से सम्यक्त्व की निष्पत्ति—सम्यग्दर्शन स्वभाव के आश्रय से होता है । निमित्त हरेक चीज में होता है । उस पर-द्रव्य की दृष्टि से कल्याण नहीं। सदा स्वभाव की दृष्टि रखना चाहिए, तभी कल्याण हो सकता है । जरासी देर में बिगड़ जाना, यही अपने को दु:ख देने वाली चीज है । ऐसा मानकर अपने स्वभाव को सत्यपथ पर लाओ । अपना कल्याण अपने हाथ में है, यह सोचकर दु:ख का मार्ग छोड़कर सुख का मार्ग ग्रहण करो । भैया ! निमित्त उपादानादि का विचार कर स्वभाव पर दृष्टि लाना चाहिए । यदि विचार करो कि यह शरीर हमारे से अलग है, तभी स्वभाव पर दृष्टि जा सकती है और अपना कल्याण हो सकता है । इस गाथा में जो यह बताया है कि आत्मा को अबद्धस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष व असंयुक्त देखो इसका तात्पर्य है कि संयोग संबंध से रहित, व्यंजन-पर्याय से परे, गुणपर्याय से परे, गुणभेद से परे एवं औपाधिकता से परे अखंड आत्मस्वभाव को देखो । 613-नयों के द्वारा विभिन्न प्रकार से वस्तु का ज्ञान—व्यवहारनय और निश्चयनय का उसमें निरपेक्ष विचार न करें । पदार्थों का विज्ञान, नयों का ज्ञान सब ही दृष्टि से करें । प्रमाण से पदार्थ को जानकर निश्चयनय की मुख्यता से देखना है, वह सापेक्ष ज्ञान है । प्रमाण का ज्ञान करके निश्चय की मुख्यता से वस्तु को निरखो । एक बार भी निश्चय की मुख्यता से परख लिया जावे तत्त्व, तो उस तत्त्व की स्मृति इसके बाद रहती है । सब विकल्पों से रहित स्वसंवेदन की अवस्था जब होती है तब जिसको स्वसंवेदन हो जाता है, उसके कोई विकल्प नहीं होता है । पश्चात् तो उसका स्मरण होता है । आत्मा पर्यायरूप है, आत्मा में नाना गुण हैं । यह पर्याय उसकी वही होती है । इस शैली से ज्ञात करके एक शुद्धनय का कार्य, स्वानुभव के होने पर बद्धस्पृष्टादि भाव नहीं आते, अत: स्वानुभव ही प्राप्त करना योग्य है । आत्मा को देखने वाले उसका स्वाद लेते जाते हैं । आत्मानुभव न करने वाले आत्मस्वरूप से बहुत दूर चले जाते हैं । उन आत्मा को समयसार, कारण परमात्मा आदि कई नामों से पुकारते हैं । संज्ञी जीवों में ही यह योग्यता है कि वे उस आत्मा का ज्ञान कर सकें । ‘‘विद्यते बालक: वक्षे नगरे भवति घोषणा’’ अर्थात् जो वस्तु अपने पास में है, उसे अपन लोग ढूंढ़ते फिरते हैं—ऐसा कितनी ही बार हो जाता है । जो चीज हमारे हाथ में या पास में होती है, उसे हम सर्वत्र ढूंढ़ते फिरते हैं । संज्ञी जीव बनकर तथा इतनी योग्यता (आत्मस्वरूप को जानने की शक्ति) प्राप्त करके यदि उस बात को न समझे तो कब समझोगे? भैया वह तो यही है, केवल दृष्टि की आवश्यकता है । यहाँ आचार्य देव कहते हैं—हे संसार के मोही प्राणियों ! उस स्वात्मा का अनुभव करो । आत्मा हर समय ज्ञान का काम तो करता है, लेकिन धन को आत्मा (स्वयं) नहीं कमाता है । आत्मा का काम विचार या भाव करना मात्र है । विशेष पर दृष्टि मत डालो सामान्य को देखो । जहाँ विशेष पर दृष्टि गई, वहीं समझिये आपत्ति-जंजाल है । दुनिया के लोग विशेष के लिए तरसते हैं, योगी सामान्य के लिये लालायित बने रहते हैं । सामान्य का आश्रय ही कल्याणकारी है, उसको प्राप्त करने में आकुलता नहीं है । अत: सामान्य पर ही दृष्टि रखना चाहिये। 614-सामान्यावलोकन रस की उपासना—कोई भी व्यक्ति एक-रसता में नहीं रह सकता है । सभी दुःखी हैं । कोई किसी चीज को प्राप्त करना चाहता है, कोई कुछ प्राप्त करने के लिये उत्सुक रहता है । उच्च पदस्थ व्यक्ति तथा उच्च पदों पर रहने वाले या बैठने वाले व्यक्ति कुछ समय के लिये इधर उधर जन-साधारणों के पास बैठकर आनंद लेते हैं । वे 5 मिनट के लिये जन-साधारणों में बैठने के लिये लालायित रहते हैं । नेताओं को संसद की चारदीवारी बुरी लगने लगती है । जैसे नेहरूजी कभी थककर देहातियों के पास बैठकर श्रम को दूर करके आनंद की प्राप्ति करते हैं । सामान्य भोजन में भी आनंद है, विशेष भोजन तो अपच व हानिकर होता है । कहने का प्रयोजन यह है कि एकांतत: विशेष कभी हित नहीं करता । जब लाभ हुआ तो सामान्य से लाभ होता देखा गया है । यहाँ विशेष पद्धति शरीर और आत्मा के संबंध की बताई गई है । जैसे पुस्तक और चौकी का संबंध है या पुस्तक चौकी पर रखी है । लेकिन यह कहना कल्पना मात्र है । क्योंकि चौकी और पुस्तक में कोई संबंध गुण नहीं है । यह तो कल्पना मात्र है । संबंध किसी का कुछ नहीं । द्रव्य सभी न्यारे-न्यारे हैं । जो समान कषाय करता है वे परस्पर में मित्र हो जाते हैं । जैसी इच्छा या विचार हमारे हैं, यदि उसी इच्छा या विचारों का अन्य व्यक्ति मिल जाये तो वे आपस में मित्र हो जाते हैं । लेकिन संबंध कारक होता ही नहीं है । सो एक वस्तु कभी भी दूसरे की नहीं बन सकती । विशेष (पर्याय) भी क्षणिक है । एक सामान्यात्म का अनुभव करो, जिसके अनुभव करने से सब विपत्तियों से मुक्ति हो जाती है । बुद्धिमान् लोग वर्तमान भूत और आगत के बंधन को बहुत ही जल्दी भेद करके तथा मोह का क्षय करके अपने आत्मा का अनुभव कर लेते हैं।
615-भूत, भविष्यत् और वर्तमान के बंधन को काटने वाला सम्यग्दृष्टि—जो चीज गुजर गई, उसका क्या खेद करना—भूतकाल का बंधन भी दु:खकारी होता है । जो कल रईस बना गुलछर्रे उड़ाता था, वह आज यदि निर्धन हो जाता है तो दुःखी होता है । जो संबंध था, वह तो चला गया तो फिर उसको बंधन बनाने से क्या लाभ है? भूतकाल की बातें बीत जाने पर भी डींग मारना, पूर्व का जिक्र करना यह आकुलता का कारण है । ज्ञानी भूतकाल का बंधन नहीं बनाते । भविष्यत्काल का बंधन भी प्राय: प्रत्येक व्यक्ति बनाता है । आगामी समागम के लिये जो हमारे मन में कल्पना उठती है, यह भविष्यत्काल का बंधन है । शादी हुई नहीं सगाई होने पर ही निदान बांध लेते हैं । फलाना अमुक होगा, यही भविष्यकाल का बंधन है । ज्ञानी भविष्यकाल का बंधन कभी नहीं बनाता है । वर्तमान का बंधन भी ज्ञानी के लिये बंधन नहीं होता है । क्योंकि वह वर्तमान में मिले हुए समागम के बारे में सोचता है कि यह कब टले? फलानी चीज नहीं चाहिए । भोगों में स्वत: वियोगबुद्धि है । यहाँ भी तो पकवानादि खाओ पेट भर गया तो उससे भी वियोग बुद्धि हो जाती है । ज्ञानी की इससे भी विशेष बात है—वे सोचते हैं कि यह परवस्तु है, कौन दिन आये कि इसका विकल्प छूट जावे? उसमें उसकी वियोग-बुद्धि रहती है, क्योंकि उसमें इच्छा नहीं होती है । भूत भविष्यत् वर्तमान के बंधन को भेदकर यह सुधी आत्मा का अनुभव करता है । आत्मा की महिमा आत्मानुभव से ही जानी जा सकती है । हमारे पास हमारी तो वस्तु नहीं है पर वस्तु खिलौनों को देख कर रोते हैं । परंतु यह खिलौने मिल नहीं सकते हैं । जो (खिलौना) अपना है, जिसमें योगीजन स्मरण करते हैं, वह मिल जाये तो फिर दूसरे के खिलौने की आवश्यकता नहीं हो सकती है। वह खिलौना आत्मा का स्वभाव है । वह स्वभाव कर्मकलंक से रहित है । गाय को रस्सी से कोई नहीं बांधता । जो बांधता है वह रस्सी से रस्सी ही बांधता है । गाय को रस्सी से बांधना संभव नहीं है जो ऐसा प्रयास करेगा वह गाय की गर्दन तोड़ डालेगा । जब शरीर और आत्मा को एक साथ देखते हैं तब आत्मा शरीर से अभिन्न मालूम पड़ता है । जिसने इस चैतन्यस्वभाव को देखा है वही सिद्ध है । ज्ञानी अपनी आत्मा को नित्य कर्म-कलंक पंक से विकल देखता है । ऐसा आत्मा ज्ञानी जीव के अनुभव में आता है ।
616-ज्ञानमय खुद खुद के जानने में न आने का कारण—खुद की बात जब खुद के समझ में नहीं आई, यही कारण है कि 84 लाख योनियों में भ्रमण कर रहे हैं हैं । धन, मकान, संपत्ति से भी मोह हट जाये, तब भी सम्यग्दृष्टि दरिद्र नहीं हो सकता है क्योंकि:—‘‘भवतु स दरिद्रो, यस्य तृष्णा विशाला । मनसि च परितुष्टे, कोऽर्थवान को दरिद्र: ।।’’ एक साधु था । उसने सेठ से कहा कि हे राजन्, आप अर्थ के (धन के) स्वामी हैं तो हम भी अर्थ के (शब्दार्थ) के स्वामी हैं । दरिद्र वह है, जो असंतुष्ट है । ‘किं दारिद्रयम्?’ असंतोष: । संतोषी प्राणी ही धनवान् है । मन उसी का संतुष्ट होता है, जिसके पास सम्यग्ज्ञान है । सम्यग्ज्ञान को प्राप्त करने के लिये स्वाध्याय अध्ययन, मनन करो । उन्नति तभी हो सकती है जब कि विद्यार्थियों के ढंग से अध्ययन किया जाये । यदि स्वाध्याय भी करते हो तो इस ढंग से करो कि कुछ पल्ले भी पड़े । शास्त्र भी यदि विद्यार्थियों के ढंग से पढ़े व सुने जाये तो भी अच्छा है । विद्यार्थियों के ढंग से पढ़ने से शीघ्र ज्ञान प्राप्त हो सकता है । शुद्ध नयात्मक जो आत्मा की अनुभूति है, उसी का नाम ज्ञान की अनुभूति है । 617-अनुभव करने वाला ज्ञान—यदि ज्ञान ही अनुभव में आये तो ज्ञान ही ज्ञेय है व ज्ञाता भी है । भगवान के ध्यान में अपना एकपना नहीं बन पाया । ध्यान करने वाला ज्ञान है, ध्येय भगवान् है भगवान् ज्ञान से पर वस्तु है अत: वह ध्यान उत्कृष्ट ध्यान नहीं कहलाया । ज्ञान का ही ध्यान करना चाहिए। इसमें अशक्त होने पर इस ही तत्त्व के प्रसाद के ध्येय से ज्ञानी के भगवान का ध्यान होता है । निजध्यान है वही ऊंची वस्तु है । ज्ञान धर्म है, धर्मी आत्मा है । धर्म वाले आत्मा का धर्म ज्ञान है । आत्मा गुणी है ज्ञान गुण है। आत्मा द्रव्य है, ज्ञान गुण है । गुण का ज्ञान तभी किया जा सकता है, जब गुणी का ध्यान किया जा सके । ज्ञान का ज्ञान तभी हो सकता है, जब कि आत्मा को पहचाना जाये । आत्मा दो प्रकार से देखा जाता है, एक जाति की आत्मा दूसरी व्यक्तिगत आत्मा । आत्मा ‘सत्’ भी है और असत् भी है । आत्मा यदि जाति आत्मा की अपेक्षा से सत् है तो व्यक्ति आत्मा की अपेक्षा से असत् है । जाति आत्मा की अपेक्षा से आत्मा एक रूप है । व्यक्ति आत्मा की अपेक्षा से आत्मा नाना रूप है । आत्मा सर्व-व्यापक भी है अव्यापक भी है । आत्मा व्यक्ति आत्मा की अपेक्षा से थोड़े से क्षेत्र में है, जाति आत्मा सर्व-व्यापक है । पूरी आत्मा को एक साथ देखो तो आत्मा त्रिलक्षण है । आत्मा को अंश की अपेक्षा से देखो तो अत्रिलक्षण है । इस प्रकार आत्मा त्रिलक्षण भी है और अत्रिलक्षण भी । शंका—आत्मा के अखंड होते हुए इतने भेद क्यों किये? समाधान:—आत्मा के इतने भेद किये बिना वह समझ में नहीं आ सकता है । युक्ति से आत्मा को समझना है । अत: भेद करना ही इसका उपाय है । 618-विराग संतों की युक्तियां सत्य और परंपरा की अविरोधिनी—आत्मा को हम दो क्रमों से फैलाते हैं:—1-तिर्यक (विष्कंभ) क्रम, और 2-उर्ध्वक्रम । एक ही समय के फैलाव को विष्कंभ क्रम कहते हैं और भिन्न-भिन्न समय के फैलाव को उर्ध्वक्रम कहते हैं । विष्कंभ क्रम से आत्मा असंख्यातप्रदेशी है, असंख्यात प्रदेश एक ही समय में होते हैं । दूसरी चीज-गुणों को बताना भी विष्कंभक्रम है क्योंकि एक ही समय में वे सब गुण हैं । आत्मा को प्रदेश और गुण बताकर ही समझाया जायेगा । नारकी, क्रोधी, देव, मनुष्य पर्यायों वाला आत्मा ऊर्ध्वक्रम में आता है, क्योंकि ये पर्याय एक समय में नहीं हो सकती । क्रम-क्रम से होंगी । प्रदेश और गुण विष्कंभक्रम में जायेंगे, और गुणांश उर्ध्वक्रम में जायेंगे । द्रव्य, प्रदेश, गुण और पर्याय इन्हीं चारों से आत्मा समझाया जाता है । मगर यह नहीं समझना कि ये गुण और पर्याय मिलकर आत्मा बनी हो । ऐसा नहीं है, समझने के लिये भेद किये गये हैं । आत्मा में ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं सुखादि हैं—ऐसा भान होता है, लेकिन ऐसा नहीं है । हां, आत्मा को समझने का यही उपाय है और कोई नहीं। आत्मा को समगुण पर्याय समझो । पर्याय द्रव्य में एक समय में एक होती है। एक ही पर्याय के नाना फल हैं आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा । देखो तो इन सबकी कारण एक पर्याय बन रही है । वही पर्याय मोक्षमार्ग और संसार मार्ग का भी कारण है । शुद्ध दशा निर्विकल्प है सिद्ध भगवान के ज्ञान में जंबूद्वीप आ रहा है, लेकिन वे यह नहीं विकल्प कर रहे कि जंबूद्वीप एक लाख योजन का है । भगवान का ज्ञान निर्विकल्पक है, अपने लोगों के ज्ञान में विकल्प उठते रहते हैं । 619-निश्चयनय से प्रभु के ज्ञान की पद्धति का अनुसरण—संयोग न जीव का गुण है न द्रव्य का। संबंध नाम की कोई चीज है ही नहीं । हम लोग जो चीज नहीं है उसको (संबंध को) भी जान लेते हैं । नैगमनय सत् व असत् रूप है, इस प्रकार दोनों प्रकार से जान सकते हैं, हम लोग तो असंभव बात (गधा के सींग) भी जान सकते हैं, यह कल्पना मात्र है । कहने का तात्पर्य यह है कि जो भगवान के ज्ञान में आता है, वही सही है । हमारे ज्ञान में जो हम कल्पना करते हैं सब असत्य है। जिसे भगवान् नहीं जानते और तुम जानते हो वह सब गलत है । शरीर मेरा है, ऐसा सोचो, किंतु शरीर इसका है ऐसा भगवान् नहीं जानते हैं । यह जंबूद्वीप एक लाख योजन का है, ऐसी भगवान के कल्पना नहीं हैं । जो हम जानते हैं वह सब भगवान के ज्ञान में झलक जाता है वह ज्ञेय हमारी परिणति है जंबूद्वीप में एक लाख योजन जैसा कुछ अगुरुलघु का परिणमन नहीं चल रहा है । चौकी एक हाथ लंबी चौड़ी है, यह ज्ञान का विषय नहीं है । यह सब हमारी कल्पना की बात है । जो वस्तु भगवान के ज्ञान में आती हैं वे भूतार्थ है और जिन वस्तुओं को भगवान् नहीं जानते हैं, वे अभूतार्थ हैं । निश्चयनय से जो अपने ज्ञान में आता है, वही भगवान के ज्ञान में भी है । व्यवहारनय से जैसा हम जानते हैं, यह कल्पना ही संसार में भटकाने वाली है । यही कल्पना ही दुखदायी है । भगवान् ज्ञान में तीनों लोकों के पदार्थ एक साथ स्पष्ट झलकते हैं । अर्थात् भगवान् ऐसा जानते हैं जैसा कि हम निश्चयनय से जानते हैं, व्यवहारनय के विषय के ढंग से नहीं । जो शुद्धनयात्मक ज्ञान की अनुभूति है, वही आत्मा की अनुभूति है । अनुभव करने वाला ज्ञान है । 620-शुद्ध आत्मतत्त्व का परिचायक शुद्धनय—शुद्धनय के द्वारा शुद्ध आत्मतत्त्व जाना जाता है । वह शुद्धनय क्या है? इसके उत्तर में यह गाथा आयी है कि जो आत्मा को अबद्ध अस्पृष्ट देखता है, अनन्य, वही-वही देखता है नियत निरखता है, विशेषता रहित सामान्यरूप को देखता है और असंयुक्त देखता है उसे शुद्धनय जानना चाहिये । जिस ज्ञान में ऐसा देखा जा रहा हो कि आत्मा न कर्मों से बँधा है, न कर्मों से छुआ है, वह ज्ञान शुद्धनय है, यह कब निरखा जा सकता है जब अपने अंतरंग में प्रयोग करके निरखे कि यह मैं आत्मा अमूर्त आकाश की तरह निर्लेप हूँ । जैसे आकाश में किसी चीज का लेप नहीं हो सकता है इसी प्रकार आत्मा में किसी भी दूसरी वस्तु का लेप नहीं हो सकता है । आकाश में कोई रंग डाले तो क्या आकाश रंगीला हो सकता है? नहीं, इसी प्रकार इस आत्मा में किसी भी प्रकार का बंधन स्पर्श नहीं होता । ऐसी निरखन हो तो वह शुद्धनय है । अब इसका प्रताप देखिये कि जब हम अपने आपके आत्मा को ऐसा शुद्ध निरखते हैं तो कितनी ही आकुलतायें दूर होती हैं । मैं आत्मा केवल ज्ञान स्वरूप हूँ, आकाश की तरह अमूर्त हूँ । इसका स्वरूप मात्र प्रतिभास है । इस रूप में जब अपने को देखा जाता है तो ममत्व नहीं रहता, राग नहीं उठता, इसी से इस बोध में बड़ी शांति मिलती है वहाँ भी समझ लीजिए, निश्चय कर लीजिये कि आत्मा में रूप, रस, गंध स्पर्श हैं क्या? जो समझनहार है, जानने वाला है ऐसा जो यह आत्मा है इस आत्मा में काला पीला आदिक कोई रंग है क्या? अथवा रस, गंध, स्पर्श आदिक हैं क्या? तब कैसा हुआ? आकाश पदार्थ की भाँति अमूर्त हुआ। अब देख लो आकाश में कुछ बंधन हो सकता है क्या? नहीं हो सकता । इस आत्मा को कोई बाँधकर ले जाए यह भी नहीं हो सकता लेकिन यह प्रश्न हो बैठेगा कि आत्मा तो बँधा हुआ है, शरीर इसे ले जाता है, तो शरीर के चलने पर आत्मा भी चला जाता है, और शरीर में ही यह आत्मा रुका हुआ है । भले ही प्रश्न उठे, इतने पर भी साक्षात् पुद्गलों की भांति एक ने एक को बाँध दिया, रोक दिया, इस तरह का बंधन नहीं है, न इस तरह का रोकना है किंतु निमित्त नैमित्तिक संबंध वाला रुकना और बँधना है । 621-विकल्पों का बंधन:—आकाशवत् आत्मा अमूर्त है तो भी इसमें चैतन्य नामक गुण अथवा उपयोग होने से ऐसी विशेषता है कि इसमें विचार विकल्प संभव हैं, अजीव पदार्थों में विचार विकल्प संभव नहीं है पर यहाँ तो उठते हैं विकल्प तो उन विकल्पों से हम अपने आपको कस लेते हैं, बाँध लेते हैं विकृत करते हैं, बंध जाते हैं । जैसे एक मोटा दृष्टांत लो—एक या दो दिन का जाया हुआ कोई गाय का बछड़ा है । उस गाय को किसी दूसरे गांव ले जाना है तो वह ले जाने वाला क्या करता है? उस बछड़े को अपनी गोदी में लेकर आगे-आगे चलता जाता है और वह गाय उसके पीछे-पीछे भगती आती है। तो वह पुरुष उस गाय को बांधे है क्या? अरे वह तो खुद ममता से बंधी हुई है जिससे पीछे-पीछे भागी है । तो बंधन है ममता का । अपने आप में ममता का विकल्प कर रखा है सो स्वयं ही यह जीव बंधा-बंधा फिरता है । आप रेलगाड़ी का सफर कर रहे हो, किसी गल्ती के कारण टिकट चेकर ने आपकी टिकट अपने पास रख लिया हो, आप से कुछ अधिक पैसे लेने को कह रहा है । और देर से रसीद देने को कह कर चला जाय तो आप उस टिकट चेकर के पीछे फिरते हैं । भला बतलावो वहाँ बंधन क्या है । यों तो कोई बंधन नहीं दिखता, पर आप बंधे-बंधे फिर रहे हैं । तो उस बंधे-बंधे फिरने का कारण क्या है? आपकी कल्पनाओं का, आपकी मंसा का, आपकी ममता का बंधन । तो यह उपयोग नामक गुण है आत्मा में। इस कारण इसका बंधन बन गया है नहीं तो बाकी और अमूर्त पदार्थ देख लो । किसी भी पदार्थ में बंधन होता हो तो बताओ। धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाश द्रव्य तथा काल द्रव्य में कुछ बंधन हैं क्या? यह आत्मा तो एक अमूर्त पदार्थ है, वहाँ तो कुछ बंधन नहीं, कोई विडंबना नहीं है तो यह आत्मा अमूर्त, पर कैसा बंधन में पड़ गया है । तो यह बंधन पुद्गल की भांति साक्षात् का नहीं, छुवे का नहीं, किंतु निमित्त नैमित्तिकभाव का बंधन है । और वहाँ यह प्रकृति है कि जहाँ निमित्त नैमित्तिक भाव का ऐसा अद्भुत बंधन चलता है जिसकी उपमा किसी अन्य द्रव्य में मिल ही नहीं सकती, वहाँ निमित्तभूत पदार्थ एकक्षेत्रावगाह होकर आत्मा में ठहरे हैं । तो जो कुछ होना होता, जो विधि विधान है वह सब कुछ होता रहता है किंतु पुद्गलों की भांति छूने बंधने का नाता आत्मा में नहीं होता । बंधन होकर भी देख लो बंधन नहीं है । तो जो ज्ञान जीव के स्वरूप को देखता है उसका सहज स्वरूप, तो उसके निरखने में जो सहज शुद्ध तत्त्व आया उसमें बंधन नहीं पड़ा है । तो इस आत्मा के अबद्ध अस्पर्श्य देखने की जो दृष्टि है उस दृष्टि का नाम है शुद्धनय ! स्वभाव को देखो तो अबद्ध, अस्पर्श्य नजर आया । दृष्टांत में कमल का पत्ता ले लो । जो जल में पड़ा रहता है हरा भरा बड़ा चिकना-सा लेकिन पानी ने उस पत्ते को छू नहीं रखा वह वहाँ भी (पानी के भीतर) सूखा रहता है । उसे निरखना हो तो पानी से निकालकर देखो, यह अनुमान भी नहीं हो सकता कि यह पत्ता अभी तुरंत पानी में पड़ा हुआ था । तो स्वभाव है उसका ऐसा । तो जब स्वभाव को देखेंगे तब यह समझ में आयगा कि कमल पत्र पानी से निराला है । इसी प्रकार जब आत्मा के स्वभाव में देखेंगे तब ही समझ में आयगा कि यह मैं आत्म समस्त पदार्थों से निराला हूँ सबसे बड़ी विभूति यही है । लोग तो इस पायी हुई छोटी मोटी संपदा को अपना प्राण सा समझ कर उसे छाती से लगाये रहते हैं। फल यह होता है कि ऐसे ज्ञान की बात, ऐसे अंतस्तत्त्व की समझ उनके चित्त में घर नहीं कर पाती । 622-आत्मतत्त्व की अनन्यरूपता—यह स्वभाव बहि दृष्टि होने के कारण जब ज्ञान में नहीं समाता है, ज्ञान इसका समझ भी नहीं पाता है तो यों देखते हैं कि यह कीड़ा है यह वृक्ष है, यह मनुष्य है, इस प्रकार की नाना परिणतियाँ दिखा करती हैं । बद्ध दिखता, स्पृष्ट दिखता, अंतस्तत्त्व का भाव भी नहीं है । यह जीव समस्त पर द्रव्यों से निराला है, केवल अपने स्वरूप में है, यह एकत्व पर द्रव्यों के नास्ति रूप से है । काल की दृष्टि से देखिये तो यह मैं आत्मा तीन काल में वही एक हूँ, सत् हूँ । जो सत् होता है वह कभी नष्ट नहीं होता । चाहे उसका कुछ से कुछ परिणमन बन जाये किंतु मूल से नष्ट नहीं होता । तो मैं आत्मा हूँ और जिस चाहे समय जिस चाहे प्रकार से परिणमता रहता हूँ इतने पर भी मैं मूल में वही का वही जीव हूँ । जैसे एक अंगुली सीधी हो अथवा टेढ़ी कर ली जाय, अथवा गोल बना ली जाय, वह तो वही की वही है इसी प्रकार यह आत्मा चाहे किसी रूप परिणमन कर रहा हो पर आत्मा तो वही एक है । किंतु मिथ्यादृष्टि लोभी मोही जीवों को ये नानारूप ध्यान में आते हैं जिसने जो पर्याय पायी उस ही पर्याय रूप इस जीव को समझता है पर जैसे एक चाक में मृत्पिंड से (मिट्टी के लोंधा से) घट आदि नाना पर्यायें बनती है क्रम-क्रम से । उन समस्त घट आदिक को पर्यायों रूप से न देखकर केवल उस मृत्पिंड को ही देखे तो उसमें वही नजर आयेगा । यह वही है, जैसे माता अपने पुत्र को बचपन में भी, जरा बड़ा हुआ तब भी, किशोर हुआ तब भी, जवान हुआ तब भी वही निरखती है, मेरा वही तो है और उस माँ को उस पुत्र की सारी अवस्थाओं में पुत्र के प्रति दया का भाव रहता है । वह हर जगह वही-वही बेटा है जैसा पहिले था, वही नजर आता है । एक मोटा दृष्टांत कह रहे हैं क्योंकि उस माता का लक्ष्य एक पुत्रत्वमात्र पर है । यों ही उस मिट्टी में अनेक पर्यायें बन रही हैं उन पर्यायों में भी ज्ञानी पुरुष वही-वही मात्र एक मिट्टी देखता है । किंतु पर्यायदृष्टि से, उपयोगिता की दृष्टि से वे सब न्यारे-न्यारे समझ में आते हैं । तो आत्मा को भी एक मूल स्वरूप की दृष्टि से देखें तो कितनी भी पर्याय इसकी हो जायें किंतु समस्त पर्यायों में वही-वही एक दृष्टिगत होता है । ऐसे उस स्वभाव का अनुभव करना, स्वभाव के अनुभव के पास ले जाना यह सब कृपा शुद्धनय की है । 623-आत्मतत्त्व की नियतता व अविशेषता—शुद्धनय आत्मा को नियत निरखता है । वही एकमात्र नियत जो था सो ही तीनकाल में है, चिन्मात्र चाहे कितनी भी छोटी अवस्था हो गयी हो निगोद, कीट पतिंगा आदिक, समस्त हालतों में वह एक चैतन्यस्वरूप है । उस स्वरूप को ग्रहण करने वाली दृष्टि भी धन्य है । स्वरूप दृष्टि से वह आत्मा एक है, नियत है जैसा है तैसा ही है, अन्य रूप नहीं है, और यह शुद्ध दृष्टि ही आत्मा का विशेष गुण है । आत्मा में जो विशेषतायें नजर आती हैं, परिणतियों से, आकार प्रकार से उपाधि के संबंध से नानापन दृष्टि में आता है लेकिन आत्मा के उस सहज ज्ञान भाव पर दृष्टि दें तो यही निरखा जायगा कि यह आत्मा केवल एक ज्ञान दर्शन सामान्यात्मक चित्स्वरूप है । स्वभाव दृष्टि से देखो तो उसमें विशेषतायें नजर नहीं आती । वह समस्त विशेषों से रहित है विशेष नाम भेद का भी है । वस्तुत: आत्मा अखंड है, उसमें कल्पना से भेद करें तो कल्पना में ही तो किया । कहीं अखंड आत्मा में भेद तो न होगा । उस ही एक अखंड आत्मस्वरूप को इसका कुछ से कुछ चिंतन कर करके बात जोड़े तो वह हमारी कल्पना की बात है, इससे कहीं उस वस्तु में भेद न पड़ जायगा तो ऐसा यह आत्मा जब स्वभाव दृष्टि से निरखा जाता है तो अविशेष निजस्वभावमात्र दृष्टि में आता है, जो दृष्टि आत्मा को ऐसा विशेष रहित सहज ज्ञानस्वरूप निरखे उस दृष्टि को शुद्धनय कहते हैं । 624-आत्मतत्त्व की असंयुक्तता—यह शुद्धनय आत्मा को असंयुक्त देखता है । आत्मा अपनी ओर से जिस सहज भावस्वरूप में है बस उसी स्वरूप है । उसमें क्रोध, मान, माया, लोभ आदिक कषायें नहीं हैं । और यदि ये कषायें आ गई तो ये संयोगरूप है, आत्मा के स्वरूप नहीं हैं । स्वभावदृष्टि की तैयारी में यह ज्ञानी देख रहा है इस कारण क्रोध, मान, माया, लोभ, विषय कषायों को संयोग रूप में देख रहा है । यद्यपि इनका कथंचित् तादात्म्य संबंध है पर जो जिस मूड में हो उसे वस्तु में मूड के अनुसार दिखता है । जैसे कि आप प्रसन्न हो तो लोगों का बोलचाल जो कि बड़ी दूर से देखा जा रहा है, पर न स्पष्ट दिख रहा, न स्पष्ट सुनाई पड़ रहा, किंतु समझ में आ रहा कि वह अपने स्वरूप से सहज कैसा है, असंयुक्त है, संयोग भाव बताया गया है तादात्म्य वाला भाव नहीं कहा गया है । कथंचित् तादात्म्य होने पर भी चूंकि यह पुरुष आत्मा के सहज विशुद्ध स्वभाव को ग्रहण करने का आशय लिए हुए है अत: उसे तो यह आत्मतत्त्व विकारशून्य निरख में आ रहा है और विकारशून्य उस शुद्ध आत्मतत्त्व को निरखकर यह ज्ञानी अपने चित्त में प्रसाद पा रहा है और आकुलताओं से दूर हो रहा है । तब इन विकारों का ऐसा संयोग कहा गया है । संयोग शब्द एक जान रहित शब्द है । है क्या संयोग में दम? काठ पर बीट पड़ी है तो जरा से पानी की रगड़ से साफ हो जाता है । उस संयोग में दम क्या? तेल में पानी का संयोग है, तेल पानी के ऊपर पड़ा है, विधिपूर्वक धीरे से उसे निकाल ले तो तेल अलग हो गया । लो क्या रहा संयोग में दम? दूध में पानी मिला, दोनों मिल जाने पर भी यंत्र कुछ ऐसे आते हैं कि पानी अलग हो जाता, दूध अलग हो जाता । कुछ ऐसी औषधियां आती हैं। हंस की चोंच तो स्वयं ऐसी औषधि है कि मिले हुए दूध पानी में हँस की चोंच गिर जाय तो स्वत: ही दूध अलग, पानी अलग हो जाता । तो यह संयोगभाव है तब ही तो अलग कर दिया जाता, यों ही ज्ञानी जानता है कि विकल्प तोड़कर यदि केवल अपने आत्मा में उपयोग को बसा लिया जाय तो उस समय विकार नहीं ठहरते । राग-द्वेष, आकुलता, चिंता, व्याकुलता ये स्थान नहीं पाते । तो इन विकारों में भी क्या जान रही? जब अपने आपके विशुद्ध ज्ञायकस्वरूप को सम्हाल लें तब इन संयोगों में क्या जान रही? कर्म भाग जाते हैं विभाव समाप्त हो जाते हैं और विशुद्ध ज्ञानस्वरूप को अनुभव में ले लिया जाता है तो यह आत्मा असंयुक्त है, उन समस्त संयोगी भावों से निराला है । यह देखा शुद्धनय ने। अशुद्धनय तो कितना ही लिपटाव बताता रहता है । कभी कोट सिलाया, ठीक नहीं सिला तो वहीं तेज गुस्सा आ जाती है और कहते हैं कि तूने तो मेरा नाश कर दिया । अरे कोट अगर अच्छा नहीं सिला तो तेरे आत्मा का नाश कहाँ से हो गया? क्या हो गया? पर दृष्टि नहीं है अपने स्वभाव पर इस कारण ऐसी चिंता करते हैं । कभी कोई बड़ा नुकसान हो जाय, लाख 50 हजार का टोटा पड़ गया, पर ज्ञानी जीव उस स्थिति में अपने को सम्हाले रहता है । वह जानता है कि इसमें मेरे आत्मा का नुकसान क्या हो गया? ये तो बाहरी बातें हैं । इसमें मेरे आत्मा का क्या रखा । 625-शुद्धनय की उपकारिता—जब स्वभाव पर दृष्टि जाती है तो मोह ममता राग-द्वेष मिट जाने से स्वयं लाभ होता है । यही मात्र एक इलाज है दुःख से छूटने का, सुख शांति में आने का । यही एक मात्र इलाज है । यह बात होती है 7 तत्त्वों के यथार्थ परिज्ञान से । तो हम उनको भूतार्थनय से जान जाते हैं जो कि अभी इससे पहिली गाथा में ही कहा गया था । तो जो नय इस तरह आत्मा को अबद्ध, अस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष निरखता है वह ज्ञान वह दृष्टि शुद्धनय कहलाती है । लखो उस स्वभाव को, करो इस स्वभाव का अनुभव, जिसके होने पर फिर ये सब पर्यायकृत भेद समझ में नहीं आते । इसके प्रताप से पहिले बंधे हुए कर्म भी नष्ट होते हैं, आगे के लिए कर्म बंधते ही नहीं हैं, वर्तमान में भी कर्म उसके निष्फल होते हैं । जो पुरुष अपने आपके आत्मा की ऐसी तैयारी में है कि बाह्य में कुछ भी हो उससे मेरा क्या संपर्क। किसी प्रकार की आशा न रखता हो, उसका उपयोग सहज ही शीघ्र सीधा अपने अंतस्तत्त्व पर चले तो इसमें क्या आश्चर्य? इससे हे कल्याणार्थी पुरुष ! इस ही निज आत्मतत्त्व का अनुभव करो । मैं ज्ञानमात्र हूँ ज्ञानमात्र हूँ ऐसी नखार भावना करके अपने को निर्विकल्प बनावे । जिसको बाहर में, पैसा में, किसी बात में खानपान में किसी जगह भी चित्त जुड़ा है, लोभ बसा है उस उपयोग में यह अंतस्तत्त्व की बात नहीं समा सकती । कितनी बड़ी तैयारी करनी होगी इस निर्मोहभाव के बसाने के लिए सो जिसे कल्याण की वांछा है वह उसको झट ही समझ लेता है । यह शुद्ध दृष्टि शुद्धनय हमारा बहुत उपकारी तत्त्व है, इसका हम उपयोग करें और अपने को सबसे निराला ज्ञानमात्र अनुभव किया करें। 626-ज्ञान का ध्यान करने से ज्ञान ही ज्ञेय और ज्ञाता—ज्ञान वह है ही वही स्वरूपाचरण हो गया । ज्ञान से ज्ञान की चीजें जानी जा सकती हैं । आत्मा को आत्मा में ही निवेश करके, ज्ञान के द्वारा ही आत्मा में रखना । निश्चल रूप से रखकर आत्मा को ज्ञान का धन बनाओ । यदि शुद्ध स्वभाव देखना है तो दो पदार्थों का संयोग मत देखो । शंका:—ज्ञान तो आत्मा का गुण है, तो उस ज्ञान से आत्मा का ज्ञान कैसे हो जाता है । समा0:—एक पर्याय के द्वारा पूरे पदार्थ का अनुभव हुआ करता है । द्रव्य को गुण से जाना जाता है । अखंड पर पहुंचने के लिये यदि गुण का भी अनुभव करते हैं, तो हम सही रास्ते पर हैं । ज्ञान के द्वारा पूरे आत्मा को समझा जाये तो ज्ञान भी सही रहेगा और आत्मा भी । यदि तुम ज्ञान गुण का अनुभव करते हो तो स्वानुभव हो जायेगा । समस्त जैन शासन का प्रयोजन यह ही है कि ‘‘आत्मा का परम स्वभावरूप से अनुभव कर लेना।’’ जो महाभाग उक्त रूप से आत्मतत्त्व को देखता है—वह सर्व जिन शासन को अर्थात् जिनेंद्र देव के हुकुम को मान लेता है यही भाव इस पंद्रवीं गाथा में कहते हैं:—