वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 162
From जैनकोष
णाणस्स पडिणिबद्धं अण्णाणं जिणवरेहि परिकहियं ।
तस्सोदयेण जीवो अण्णाणी होदि णादव्वो ।।162।।
ज्ञान का प्रतिबंधक अथवा प्रतिकूल भाव अज्ञानभाव है ऐसा जिनेंद्रदेव के द्वाराप्रणीत हुआ है । जहाँ अज्ञान है वहाँ ज्ञान नहीं रह सकता है और जहाँ ज्ञान है वहाँ अज्ञान नहीं रह सकता है । तो ज्ञान का प्रतिकूल विरोधी अथवा प्रतिबंधक अज्ञान भाव है । उसअज्ञान के उदय से जीव अज्ञानी होता है । ऐसा जानना चाहिए ।
ज्ञान का साक्षात् आवरण―भैया ! देखिए यह बात साक्षात् आवरण की कही जा रही है कि जीव के ज्ञान को रोकने वाला कौन है? जीव के ज्ञान को रोकने वाला अज्ञान है । ज्ञान न होना ऐसी वृत्ति जीव के ज्ञान को रोकती है । ऐसा सुनकर मन में यह लगता होगा कि इसमें दूसरी बात क्या कही गई है? ज्ञान न होना सो ज्ञान को रोकता है । बात तोएक ही हुई किंतु यहाँ परिणतियाँ दो हैं―ज्ञानपरिणति और अज्ञानपरिणति । तब यह बात बिल्कुल ठीक है कि अज्ञान का परिणमन होगा तो ज्ञान को रोक देगा, किंतु यह अज्ञान होता क्यों है? यदि आत्मा के स्वभाव से ही अज्ञान होता है तब वह भी स्वभाव हो गया, फिर हानि कुछ नहीं । सो ऐसा तो है नहीं ।
ज्ञान का प्रतिबंधक निमित्त ज्ञानावरणकर्म―अज्ञान को उत्पन्न करने वाला निमित्तज्ञानावरणादिक कर्मों का उदय है । यह ज्ञानावरणादिक कर्मों का उदय उपादान रूप से अज्ञान को उत्पन्न नहीं करता, किंतु वह निमित्त मात्र है । सो जीव के ज्ञान को रोका अज्ञान ने और अज्ञान की उत्पत्ति हुई कर्मों के उदय के निमित्त से । यह प्रकरण मोक्षमार्ग का चल रहा है । मोक्ष तो सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र रूप है। यह रत्नत्रय जीव में क्यों प्रकट नहींहो पाता? इसको तीन गाथाओं में बताया जा रहा है । उन तीनों गाथाओं में से यह दूसरे नंबर की गाथा है ।
व्यवहार संसार―यह समस्त संसार असार है । किसी ओर दृष्टि डालो । संसार कहते किसे हैं? नाना प्रकार के परिवर्तन और परिभ्रमण करने वाले जीव के समूह का नामसंसार है । कुत्ता, बिल्ली, गधा, सुवा, कीड़ा मकोड़ा, पशु, पक्षी, मनुष्य अच्छे बुरे, यह सबजीवों का जो समूह है इसका ही नाम संसार है कि जगह का नाम संसार है । स्थान का नाम संसार नहीं है ।
स्थानविभाग से संसार मोक्ष के विभाग का अभाव―यदि स्थान का नाम संसार कहें तो विभाग करके बतलावो कि कितनी जगह का नाम संसार है और कौनसी जगह छूटी, जिसका नाम मोक्ष है । तो यह कहा कि जहाँ सिद्ध भगवान बसते हैं उस जगह का नाम तो मोक्ष है और ये असंख्यात द्वीप समुद्र जहाँ भरे पड़े हुए हैं, जहाँ स्वर्ग और नर्क की रचना है या सर्वार्थसिद्धि तक है वह सब संसार है । तो ऐसा कहना तो ठीक नहीं बैठ सकता । इसका कारण यह है कि जितने को तुमने संसार माना उस संसार में भी रहने वाले जो अरहंत भगवान हैं, वीतराग सर्वज्ञ देव हैं वहाँ पर अरहंत भगवान तो बड़े सुखी हैं, परमात्मा हैं, तीन लोक के अधिपति हैं, समस्त जीवों के द्वारा आराध्य हैं । और जिसको मोक्ष माना हैउस सिद्ध लोक में भी अनंत निगोदिया जीव भरे हैं, जो एक स्वास में 18 बार जन्म मरण करते हैं तो वहाँ रहकर भी ये निगोदिया जीव दुःखी हैं । सुखी तो नहीं हैं? नहीं । तब जगह के विभाग से संसार और मोक्ष का विभाग नहीं हो सकता ।
परिणामों के विभाग से संसार मोक्ष का विभाग―परिणामों के विभाग से संसार और मोक्ष का लक्षण बनता है । जो राग-द्वेष परिणाम हैं, जो नानारूप का पर्याय में परिणमन है वह सब संसार है । जहाँ राग-द्वेष मोह नहीं है केवल शुद्ध ज्ञान का परिणमन है, जहाँ ज्ञान के द्वारा तीन लोक और अलोक साक्षात् स्पष्ट जान लिए जाते हैं, केवल जहाँ ज्ञान का वर्तना रहता है ऐसे निर्दोष परिणाम का नाम मोक्ष है । परिणामों से ही संसार है और परिणामों से ही मोक्ष है ।
जीव में संसारभाव आने से बिगाड़―जैसे पानी में नाव पड़ी रहे तो नाव का बिगाड़ नहीं होता, पर नाव में पानी आ जाये तो नाव डूब जाती है । इसी प्रकार इस संसार में हम आप बस रहे हैं, इससे हमारा कुछ भी बिगाड़ नहीं है, पर हम आप अपने चित्त में संसार को बसा लें, मोह राग-द्वेष बसा लें, इन पदार्थों को अपने में ही स्थान दें तो इससे हमारा आपका बिगाड़ है ।
संसार की अज्ञानरूपता―यह सब संसार अज्ञानरूप है । जहाँ तक अज्ञान माना है, परमार्थ संसार वहीं तक है । और मनुष्य को तो 12 गुणस्थान तक माना है । एक दृष्टि से 12वें में नहीं और क्योंकि वहाँ से लौटने की बात नहीं है । इसलिए 11वें तक संसार है । औरएक दृष्टि से 11 वें गुणस्थान में संसारभाव नहीं । वस्तुत: जिस जीव को राग-द्वेष भावों से विरक्त केवल ज्ञानज्योतिर्मय आत्मतत्त्व का परिचय हो गया उसका संसार छूट गया । उसके अनंतानुबंधी कषाय नहीं है । अनंतानुबंधी कषाय से अज्ञान है । इस ज्ञानभाव का प्रतिबंधक कौनहै? अज्ञान भाव । यह अज्ञान मुझे मोक्षमार्ग से रोकता है । सीधे शब्दों में यों कह लिया जाये कि यह मोह ही मोक्ष से मुझे रोकता है ।
प्रभु की प्रभुता के रूप―मोह और मोक्ष, ये दोनों बराबर के बल वाले परिणमन हैं । मोक्ष के परिणमन में यदि अनंत सुख भरा है तो मोह के परिणमन में अनंत दुःख भरा है । मोह का परिणमन करने वाला जीव मोक्ष को नहीं प्राप्त कर सकता है और मोक्ष का परिणमन करने वाला जीव मोह नहीं प्राप्त कर सकता है । मोक्ष के परिणमन में यह सारा विश्व आकाश में एक नक्षत्र की तरह ज्ञात हो रहा है । इतना विराट रूप है केवल ज्ञानी भगवान का कि विराट रूप में यह सारे विराट ज्ञेय पदार्थ, विराट विश्व उनके ज्ञान के एक कोने में समाया रहता है । तो यदि प्रभु भगवानका, मुक्त जीव का इतना विराट रूप है तो इस संसारीजीव का भी विराट रूप देखिए । निगोद से लेकर स्वयंभूरमण समुद्र में रहने वाले मच्छ तक इतने प्रकार के देह के अवगाहना के काय हैं, ऐसा विचित्र देहरूप परिणमन कर लेना यह क्या इस आत्मप्रभु का विराट रूप नहीं है? मुक्त जीव और मोही जीव, इन दोनों का अद्भुत पराक्रम आप देखते चले जा रहे हैं,पर मोही जीव के पराक्रम में केवल आकुलताएँ हैं और मोक्षार्थी जीव के पराक्रम में अनंत आनंद है ।
आत्मप्रभु की अनात्मपदार्थों से विविक्तता―हम आप सब, समस्त पदार्थों से जुदा हैं । जितने भी चेतन अचेतन भौतिक पदार्थ इस जगत में हैं उन सबसे मैं न्यारा हूँ और घर में उत्पन्न होने वाले जो 5-7 जीव हैं उनसे भी मैं न्यारा हूँ । मैं इस शरीर से भी न्यारा हूँ । मैं जो जान रहा हूँ उस जाननहार को तो तकिये । यह सबसे न्यारा केवल ज्ञानस्वरूप है । इस ज्ञानघन आत्मप्रभु के अंतरंग में किसी भी प्रकार का राग-द्वेष नहीं है । ऐसे इस आत्मप्रभु पर हम आप कितना अन्याय करते चले जा रहे है? कितने राग-द्वेष-मोह बनाते चले जा रहे हैं जिनके कारण इस जीव को चारों गतियों में भटकना पड़ रहा है । किसी से भी विश्वास न करो कि इन पदार्थों के कारण मेरा हित हो जायेगा । पुत्र मेरा हित न करेगा, कोई मित्र ऐसा नहीं है जगत में जो स्वार्थ के बिना मेरी खबर रखने वाला हो । कोई बंधु नहीं है ऐसा लोक में, कोई परिवार का सदस्य नहीं है ऐसा लोक में कि खुद के स्वार्थ की पूर्ति हुए बिना आपसे प्रेम जताया करे । सब जीव हैं, सब पदार्थ हैं, सब अपने-अपने में परिणमते हैं । तो फिर किसमें हित मानें और किसमें सुख मानें?
अज्ञान के परिहार की प्रेरणा―अब एकदम मोह के पथ को छोडिये, तोड़िए, मुड़िये, पीछे देखिए, अपने आपको देखिए, यह ज्ञान आ जाये तो यह अद्भुत आनंदनिधान ज्ञानमात्र आत्मप्रभु तो यहीं विराजमान है । उस प्रभु का ज्ञान आ जाये तो जगत के तीन लोकतीन काल के सब पदार्थ आपको स्पष्ट प्रतिभास हो जायेंगे । क्या चाहिए आपको? आनंद । तो उस आनंद के ही उपाय में लगिये, शुद्ध आनंद का स्वरूप समझिए । यह भगवान जिनेंद्रदेव की वाणी है । किसी के बहकावे में न आइए, यह जिनेंद्रदेव की वाणी ही सत्पथ में लगानेके लिए है । बहका हुआ प्राणी यह मानता है कि मुझे लोग बहका रहे हैं । तो जब तक वहम नहीं मिट जाता तब तक यथार्थ बुद्धि नहीं आती । इस ज्ञान का साक्षात् प्रतिबंधक मात्र अज्ञान परिणाम है ।
सम्यक्चारित्र के प्रतिबंधक का परिज्ञान―इस अज्ञान परिणाम की प्रेरणा से यह जीव क्रोध, मान, माया, लोभ, मोह में लगता है । सो अंदाज कर लो कि इस कषाय के फल में मिलता क्या है? यह ही मिथ्याचारित्र है । ये विषयकषाय के भाव आत्मशांति को मिटा देते हैं । आत्मशांति कहो, आत्मविश्राम कहो अथवा सम्यक्चारित्र कहो एक ही बात है । मोक्षमार्ग का उपाय अंतिम सम्यक्चारित्र है । यह सम्यक्चारित्र भी हम आप आत्मा का स्वभाव है । यह क्यों नहीं प्रकट हो पाता है? इस संबंध में अब इस प्रकरण की तीसरी गाथा कही जा रही है ।