वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 166
From जैनकोष
णत्थि दु आसवबंधो सम्मादिट्ठिस्स आसवणिरोहो ।
संते पुव्वणिबद्धे जाणदि सो ते अबंधंतो ।।166।।
सम्यग्दृष्टि जीव के आस्रव बंध का अभाव―सम्यग्दृष्टि जीव के आस्रव बंध नहीं है, उसके आस्रव का निरोध रहता है । वह तौ पूर्वबद्ध कर्मों को जानता है और नवीन कर्मों को नहीं बांधता है । सिद्धांत यह स्थापित किया जा रहा है कि ज्ञानी जीव के कर्म नहीं आते हैं इस कारण थोड़ीसी यह शंका हो सकती है कि ज्ञानी जीव तो सम्यक्त्व होने के बाद ही कहलाने लगता है लेकिन चतुर्थ यमादिक दशम गुण पर्यंत कर्मों का आस्रव भी है और बंध भीहै, फिर यह क्यों मना किया जा रहा है कि ज्ञानियों के आस्रव और बंध नहीं होता है । इसका उत्तर है प्रथम तो यह बात समझना है कि जो कर्म बंध संसार की परंपरा बढ़ायेंउनको बंध कहा और जो संसार परंपरा न बढ़ायें किंतु संसार से छूटते हुए प्राणियों के पूर्व प्रयोग वश बँधते रहते हैं उन्हें बंध न कहिये । यह एक दृष्टांत की बात है । करणानुयोग तो क्षमा न करेगा । उसको दृष्टि से दसवें गुणस्थान पर्यंत बंध चलता रहता है, पर जो संसार को बढ़ाये उसे बंध समझो और जो संसार को न बढ़ाये उसे बंध न समझो । इस दृष्टि से सम्यग्दर्शन होने के पश्चात् उसे ज्ञानी कहते हैं । उसके जन्ममरण की परंपरा नहीं बढ़ती है, सो आस्रव और बंध नहीं माने गये हैं ।
ज्ञानी जीव के बंध के अभाव का सहज कारण―दूसरी बात यह समझो कि जिस आत्मासे ज्ञान प्रकट हुआ है और चरित्र मोह भी शेष है तो उसका जो बंध होता है, विकार आताहै वह ज्ञान के कारण नहीं आता है, किंतु चारित्र मोह के कारण आता है अर्थात् अपने विकार की योग्यता केकारण आता है । ज्ञान के कारण बंध होता होतब तो इन शब्दों में कहना चाहिए कि ज्ञानी के भी आस्रव और बंध होता है । पर जो आस्रव बंध होता है वहचारित्र गुण के विकार से होता है । इस कारण विकारी के बंधहै, ज्ञानी के बंध नहीं है। चतुर्थ गुणस्थान से लेकर दशम गुणस्थान पर्यंत यह जीव ज्ञानी भी है और विकारी भी है ।
कार्य के योग्य दृष्टि रखे जाने का एक दृष्टांत―जैसे कोई पुरुष पंडित भी है, मुनीमभी है, पर किसी धार्मिक प्रश्न का उत्तर लेते समय उसे यों नहीं कहना चाहिए कि मुनीमजी साहब! इस शंका का समाधान करिये । उसे वहाँ कहना चाहिए कि पंडित जी साहब!इसका उत्तर दीजिए और जब लेनदेन की बात चल रही हो, दुकान की गद्दी पर बैठा होतब यों न कहना चाहिए कि पंडित जी हमारा खाता देख लीजिए । तब कहना चाहिए किमुनीम साहब हमारा खाता देख लो । खाता देखते समय उस मुनीम के पंडिताई नहीं रहतीहै, ऐसे ही पंडिताई के समय मुनीमी का संबंध नहीं रहता है । धार्मिक उपदेश देना यहमुनीमी के संबंध से नहीं हो रहा है, वह पंडिताई के संबंध से हो रहा है । यों ही समझो किचतुर्थ गुणस्थान से लेकर दशम गुणस्थान पर्यंत तक ज्ञानी भी है और विकारी भी है । जितना मोक्षमार्ग चल रहा है वह ज्ञान के कारण चल रहा है और जितना आस्रवबंध हो रहाहै वह विकार के कारण हो रहा है । ज्ञान के कारण ज्ञान ही देखा जाये, विकार के कारणविकृत निरखा जाये तो यह उतर स्पष्ट हो जाता है कि ज्ञानी जीव के आस्रव और बंध नहींहोता है ।
सम्यग्दृष्टि के बंध का अभाव कहने का मूल अर्थ―यहाँ ‘‘सम्यग्दृष्टि’’शब्द कहकरकह रहे हैं कि आस्रव और बंध सम्यग्दृष्टि के नहीं होता, निर्विकल्प समाधि में रत पुरुष के नहीं होता । अर्थात् सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र के परिणमन के कारण कर्मबंध नहीं हुआ करता है । यद्यपि इस जीव के द्रव्यकर्म का उदय चल रहा है, पर द्रव्यकर्मका उदय होनेपर भी यह शुद्ध आत्मा के स्वरूप की भावना में लगा हुआ है । यदि अपनीश्रद्धा में रागादि रूप से परिणम जाये तो वहाँ मिथ्यात्व के कारण बंध है और राग रूपजितना भी परिणमन चल रहा है वहाँ राग के कारण बंध है । सम्यग्दर्शन के कारण बंधनहीं होता और सम्यग्दर्शन के नाते से सम्यग्दृष्टि का नाम लिया जा रहा है । क्योंकि ज्ञानीजीव के ज्ञानमय ही भाव होता है । जहाँ ज्ञानमय भाव है वहाँ परस्पर में विरोध है।
ज्ञानी द्वारा परका अनिष्ट होने के संदेह का अभाव―ज्ञानी पुरुष कभी क्रोध भी करजाये तो क्रोध के समय में भी उसका ज्ञानमय भाव रहता है । कभी क्रोध में आकर दूसरों का अनिष्ट नहीं करता । देखा होगा कोई ऐसा रिसाने वाला बच्चा होता है कि उसे क्रोधआये तो खुद को ही कष्ट दे ले, पर दूसरों को कष्ट नहीं देता । भूखा रह जाये या अपने आपको ही पत्थर से मारने लगे, सिर धुनने लगे, पर दूसरों को कष्ट नहीं देता । कितने ही लोग ऐसे होते हैं कि उन्हें गुस्सा आये तो वे ज्यादा काम करते हैं । उनका ज्यादा काम करना गुस्से के कारणबन रहा है पर काम नहीं बिगाड़ता । यह तो लौकिक बात है । ज्ञानी जीव को दूसरों के प्रति क्रोध भी आए तो दूसरों का अनिष्ट नहीं करता, वे क्रोध में भी ऐसी प्रवृत्ति करेंगे कि जिससे दूसरों का भला ही हो । यह ज्ञानी का एक विरद है, दयालुता का स्वभावहै, आचार्य को शिष्यपर क्रोध भी आए तो उसका परिणाम शिष्यपर भला निकलता है ।
ज्ञानी के क्रोध में भी विवेक―एक सच्ची घटना का दृष्टांत है कि सागर में चिरोंजाबाई जी थी जिन्होंने गुरु जी को पढ़ाया है । सब लोग जानते हैं । उनकी ननद ललिताबाई बिल्कुल पढ़ी लिखी न थी । तो बाई जी ने कई बार कहा कि तुम कोई लिखा कागजमिले तो कूड़े में न डाला करो, उसे कहीं रख दिया करो । एक दिन ललिताबाई को ख्याल न रहा । कुछ असावधानी हो गई । एक बार एक कागज कूड़े में गिर गया । मंदिर से आई बाईजी । देखा कि दरवाजे पर कूड़ा पड़ा है और उस पर कागज पड़ा है । उठा कर देखातो उसमें भक्तामर का एक काव्य लिखा था । अब तो उनके क्रोध चढ़ गया । सो ऊपर आकर ललिता बाई का चोटा पकड़ कर गुस्से में आकर कहा―यह कागज कूड़े में क्यों डाला? और पकड़कर एक हाथ भींतमें लगाकर एक हाथ से सीधा दे मारा । अब बतलाओ बाई जी के चोट आ गई कि नहीं? चाहे आ गई, फिर भी उनका ज्ञान बिदा नहीं हुआ । ज्ञानफिर भी बना रहा कि कहीं इसके सिर में पीड़ा न हो जाये तो ज्ञानी पुरुष के अंतरंग में ज्ञान का परिणाम बना रहता है । उस समय जो क्रोध भाव है वह तो विकार है, वह तोस्वयं का अज्ञान है पर भीतर में जो विवेक बुद्धि है उसका कारण ज्ञान है ।
स्वरूपाचरण का प्रताप―ज्ञानी जीव के अंतरंग में ज्ञानमय भाव रहता है । गृहस्थज्ञानी घर में रहता हुआ भी रोजिगार व्यापार सभी में यत्नशील रहता हुआ भी ज्ञानमयभाव को नहींछोड़ता । उसे अपने स्वरूप का स्पर्श और स्मरण सदा काल बना रहता है । स्वरूपाचरण चारित्र श्रावक के बताया गया है । चौथे गुणस्थान में भी चाहे वह गृहस्थकिसी कार्य में लगा हो चूंकि वह सम्यग्दृष्टि है, सो स्वरूपाचरण चारित्र उसके निरंतररहता है । उस स्वरूपाचरण चारित्र के प्रताप से इसके ज्ञानमय भाव बराबर बना रहता है । इस ज्ञानी जीव के ज्ञानमय भाव के द्वारा अज्ञानभाव रोक दिया जाता है क्योंकि ये परस्परविरोधी है । जहाँ ज्ञानभाव है वहाँ अज्ञानभाव नहीं ठहर सकता । अज्ञानभाव है रागद्वेषमोह । इन अज्ञानमय भावों का अभाव हो जाने के कारण ज्ञानी जीव के आस्रव का निरोध होजाता है । इस कारण पुद्गल कर्म का बंध भी नहीं होता क्योंकि जब आस्रव का ही निरोधहुआ तो बंध कहां से हो? इस कारण ज्ञानी जीव के आस्रव न होने के कारण, नित्य अकर्ताहोने के कारण वह नये कर्मों को नहीं बांधता और पूर्वबद्ध कर्म जो सत्ता में अवस्थित हैं, अथवा उदयागत भी हो रहे हैं उनको केवल ज्ञानस्वभावी होने के कारण जानता ही है ।
कर्मऔर कर्म में अनात्मीयता―यहाँ कुछ यह प्रश्न हो सकता है कि क्या ऐसा भीहोता है कि कार्य करता जाये और कार्य से दिल हटा हुआ हो । इस बात की पुष्टि के लिएआपको अनेक दृष्टांत मिलेंगे कि कार्य भी करते जा रहे हैं और कर्म से हटे हुए रहते हैं । उस संबंध में कर्ता और स्वामीपने का आशय नहीं रहता है । मुनीम अथवा किसी प्रकारकी सर्विस करने वाला पुरुष मालिक के काम को बड़ी योग्यतासे, सावधानी से चिंता सहितकिया करता है, फिर भी स्वप्न में भी उसके स्वामित्वकी बुद्धि नहीं जगती । कभी किसीमुनीम के चित्त में यह आता है क्या कि मैं इस दुकान का मालिक हूं? काम सब कर रहा हैबल्कि मालिक कुछ नहीं कर रहा है, वह तो अपने घर में बैठा है या गद्दीपर ही लेट रहाहै । किसी-किसी मालिक को तो यह भी पता नहीं रहता कि किस समय क्या काम करनाहै और कैसे करना है, लेकिन मालिक के स्वामित्व बुद्धि पड़ी हुई है । और इस मुनीम के इतना काम करते हुए भी मन में स्वामित्व का अहंकार नहीं है ।
प्रकरण में लगकर भी प्राकरणिकता का अभाव―शादियों में पड़ोस की स्त्रियों को घर के लोग गाने के लिए बुलाते हैं और वे पड़ोस की स्त्रियां आकर बड़े तेज स्वर से खूब गाना गाती हैं । मेरा दूल्हा, मेरा बन्ना, मेरा सरदार, पर क्या उनके मन में ऐसा विश्वास है कि यह मेरा ही दूल्हा है, यह मेरा सरदार है? नहीं । खूब तेजी से वे स्त्रियां गाती हैं पर भीतर से औरही किस्म का विश्वास है । हम तो केवल गाने के लिए आए हैं, हम तो केवल बुलावा लेने के लिए आए हैं मेरा यहाँ कुछ नहीं है । चाहे दूल्हा घोड़ा से गिर जाये तो उनकी बला से । उनके स्वामित्व बुद्धि नहीं है । यों अनेक दृष्टांत है, जिससे यह प्रसिद्ध है कि कार्य करतेहुए भी कार्य का कर्ता नहीं कहलाया, ऐसा हटा हुआ भाव रह भी सकता है ।
ज्ञानकला का प्रताप―ज्ञानी जीव में ज्ञान के सिवाय और कौनसी मौलिक कला आईजिसके कारण घर गृहस्थी में भी रहकर वह मोक्षमार्गी है ओर कर्मों का उसके आस्रव नहींहोता? चौथे गुणस्थान में 41 प्रकृतियों का संवर है, पांचवे गुणस्थान में 51प्रकृतियों का संवरहै। इसी प्रकार अगले गुणस्थानों में कितनी ही प्रकृतियों का आस्रवबंध नहीं होता । इसका कारण यह है कि ज्ञानी के वह कला आ गई है जिसके प्रताप से वह सर्वस्थितियों में अलिप्तरहता है और अपने काम को सम्हाले हुए रहता है ।
ज्ञान के सदुपयोग के लिये प्रेरणा―भैया! ज्ञानशक्ति पाकर इसका सदुपयोग करो । मनुष्य पर्याय पाई तो कितनी ज्ञानशक्ति मिली ? ज्ञानशक्ति बिना क्या इतना बड़ाव्यापार भी सम्हाला जा सकता है? क्या इतनी बड़ी सर्विस के कामको, सेवा भाव को, इतनी बड़ी उल्झनों को सम्हाला जा सकता है? नहीं । इतना बड़ा हिसाब करना,बहुत बड़े समूह की व्यवस्था बनाना, क्या इस ज्ञानशक्ति के बिना हो जाता है ? नहीं । ज्ञानशक्ति तो पाई, अब उस ज्ञानशक्ति का हम कुछ आत्मतत्त्व के सहज निरपेक्ष स्वत:सिद्ध स्वरूप की जानकारी में भी सदुपयोग करें। यह हमारा प्रधान कर्तव्य है।
तन मन का सदुपयोग करने का संकेत―भैया ! यह तन साथ देगा नहीं, यह मन साथ देगा नहीं, यह मान साथ देगा नहीं, वचन साथ देगा नहीं, यह धान साथ देगा नहीं। ये चार ही चीजें विनाशीक हैं। जितना बन सके इस शरीर से पर की सेवा कर लो। अपना काम स्वयं अपने तन से किया जाये। इस मन का सदुपयोग यह है कि सब जीवों का भला विचारो। बुरा विचारने पर भी दूसरे का बुरा नहीं हो जाता, किंतु बुरा विचार करने से स्वयं का ही परिणाम खोटा होता है और उन परिणामों का फल स्वयं पाता है। सबका भला विचारो कि सबका ज्ञान निर्मल बने, दृष्टि शुद्ध बने, सब सुखी हों, यह है मन का सदुपयोग।
वचनों का सदुपयोग करने का संकेत―वचनों का सदुपयोग है सबसे हित मित प्रिय वचन बोलना। झगड़े की जड़ भी वचनों का बुरा उपयोग है। और संगठन, प्रेम, शांति आनंद का वातावरण बने तो इसकी जड़ है वचनों का सदुपयोग होगा। वचनों का इस मनुष्यभव में बड़ा महत्त्व है। गधा, भैंसा, कुत्ता आदि भोंकते हैं, चिल्लाते हैं पर उनके बोलने से कुछ प्रयोजन नहीं निकलता, कुछ कल्याण की बात नहीं मिलती। आज मनुष्य हुए हैं तो वचन बोलने की सामर्थ्य मिली है। वचन ऐसे बोले जायें कि जिससे दूसरों को कष्ट न पहुंचे। वचन ऐसे बोले जायें जो अपने और दूसरों के हित के साधक हों। दूसरों के हित के साधक न हों तो कम से कम अहित के साधक न हों। और फिर परिमित बोलो। वचन अधिक बोलने की आदत भली नहीं होती है। कहां तो जैनशासन में यह बताया कि शक्ति न छिपाकर वचनगुप्ति का अभ्यास करो, वचन बोलो ही मत। और कदाचित हम वचन स्वच्छंद होकर बोलने लग जायें तो हम प्रभु की आज्ञा से कितनी दूर जा रहे है? हमारा कर्तव्य है कि हम वचन परिमित बोलें। जितने वचनों का प्रयोजन है, हित के साधक हैं, शांति के स्थापक है उतने ही हम वचन बोलें। यों हित, मित, प्रिय वचन बोलना यही वचन का सदुपयोग है।
धन का सदुपयोग―भैया ! पहले तो ऐसी दृष्टि बनाओ कि हमारा जगत के जीवों से परमार्थत: कुछ भी संबंध नहीं, चाहे वे घर में उत्पन्न हुए दो चार सदस्य हों, चाहे बाहर के गैर अनगिनते जीव हों। सब जीव मेरे लिये एक समान हैं, क्योंकि किसी भी परजीव से मेरे में कुछ परिणमन नहीं हो जाता। किसी भी परजीव के परिणमन से मेरे में कुछ सुधार बिगाड़ नहीं होता। यदि इस गृहस्थावस्था में धनका कुछ प्रसंग हुआ है तो उस धन को आधे-आधे रूप में व्यय करें। आधा व्यय घर के कुटुंब के लिये करें तो इतना ही व्यय इन जगत के अन्य जीवों के उद्धार के लिए करें। क्या जगत के अनगिनते जीव आपके घर के 4 आदमियों के बराबर की भी जान नहीं रखते? जब शुद्ध दृष्टि जगे और अपना कर्तव्य समझमें आए कि तुम कम से कम कुटुंब बराबर भी दृष्टि सब जीवों पर रख सको और इस प्रवृत्ति से धन का व्यय करो तो यह धन का सदुपयोग है।
माया से निर्मोहता―इस लोक में इन मायामय वस्तुओं के प्रति मोह करने सेआत्मा का कुछ लाभ नहीं है । निर्मलता कैसे जगे, इस ओर अपने को यत्न करना चाहिए । जितनी भीशांति प्राप्त होगी वह निर्मलता के आधारपर होगी । यह ज्ञानसाध्य चीज है । कोई शरीरके कष्ट की बात नहीं कही जा रही है कि तुम 2-4अनशन करो तो तुम्हें सन्मार्ग मालूमपड़ेगा । घर में हो तो रहो, सब कुटुंब के बीच में रहना हो रहो, किंतु अपने ज्ञान को अपनेभीतर में झुकाकरकेवल ज्ञानमात्र अपने स्वरूप का अनुभव करो । इसके लिए कोई रोकता है क्या? जितनी सामर्थ्य हो जितना आपका बल चले उतना अपने आपके अंदर अपने शुद्ध स्वरूप के निरखो । अपने इस ज्ञानानंद घन सहजस्वरूप के जानने से ये नवीन कर्म रुकजाते हैं, प्राचीन कर्म उदयमें आकर खिर जाते हैं और इसके आगे का मार्ग स्पष्ट हो जाताहै । इस कारण भरसक कोशिश इस बात की करिये कि श्रद्धा और चारित्र ये दो गुणनिर्मल रहें ।
श्रद्धा व चारित्र गुण की निर्मलता से हित―आत्मा में अनंत गुण हैं । उन अनंतगुणों में श्रद्धा और चारित्रगुण के विकार से ही विपत्तियाँ आती है । और जो गुणस्थान बनेहैं 14, वे श्रद्धा और चारित्र के विकार और अविकार की डिग्रियों पर बने हैं । श्रद्धा मेरेसही हो, चरित्र मेरा निर्मल हो ऐसी स्थिति में फिर जो कुछ होता हो, हो । यह संसार है । यहाँ बड़े-बड़े चक्रवर्ती अर्द्धचक्री महाराजा राजा अनेक हुएहैं, उनमें कुछ बुरी वृत्ति वालेहुए हैं पर प्राय: अधिक उत्तम वृत्ति वाले हुए हैं । वे प्राप्त समागम के ज्ञाता दृष्टा थे । उदयहै सो संपदा आती है, उसके भी ज्ञाता द्रष्टा रहते थे और जो अपने जीवन में पाई हुईसंपदा में हर्ष में मग्न नहीं होते हैं वे वियोग के समय दु:खी भी नहीं हुआ करते हैं ।
विवेक―जिनके जितनी अधिक आसक्ति है उनको उतना ही अधिक दुःख होता है। जिनके परवस्तु की आसक्ति नहीं है उन्हें कोई दु:ख नहीं है । जिसे आसक्ति सताती हो वह बड़ा दु:खी है। जैसे भोजन के संबंध में आपको किसी चीज की आसक्ति है तो उसके न मिलने पर आपको अधिक क्लेश होगा । और, किसी चीज की आसक्ति न हो, पर उस समय कुछ आवश्यक होने से बड़ी जरूरत महसूस करते हैं तो ख्याल तो थोड़ा आता है पर उसके न मिलने से दु:ख नहीं हो सकता है । क्योंकि उस पदार्थ में आपकी आसक्ति नहीं है? । जितनी अधिक आसक्ति होगी उतनी ही अधिक भोगों के न मिलने से क्लेश होगा और बिछुड़ने में क्लेश होगा । विवेक यह कहता है कि वस्तु के स्वरूप को यथार्थ जानो । सर्वपदार्थ भिन्न है । किसी पदार्थ से कोई बात मुझमें नहीं उत्पन्न होती है । उनके ज्ञाता दृष्टारहो । सीधा अर्थ देखो । प्रयोजन सोचो ! आत्महित कीबात निरखो । जो बात का प्रयोजन नहीं समझ सकता है वह बाहरी रूढ़ि को कैसा हो उपयोग करके अनर्थ में ले जा सकता है ।
बाह्य क्रियाओं का प्रयोजन स्वरूप दर्शन का यत्न―तुम देवपूजा करो तो देवों की तरह अपना स्वरूप निरखने का यत्न करो । गुरुओं की उपासना करो तो गुरुओं की तरह ज्ञान और चारित्र की प्रगति में बढ़ने की भावना बनाओ, स्वाध्याय करो तो स्वाध्याय में जो तत्त्व आता है अर्थ आता है उस तत्त्व और अर्थ को अपने आप में घटाएं । वर्णन आता है कि 1000योजन तक की अवगाहना वाले जीव होते हैं । तो उससे यह अर्थ लगा लो कि ज्ञान की उपासना बिना ऐसी अवगाहना में भी उत्पन्न होना पड़ता है । स्वाध्याय में आए हुए प्रकरण से तुम्हें क्या शिक्षा लेनी है यह बात समझते रहिए । संयम करो तो संयम से प्रयोजन यह मानो कि इस संयम के प्रताप से चंचल मन स्थिर होगा और अपने प्रभुस्वरूप की ओर यहलगेगा । यह संयम का प्रयोजन है । तपस्या का भी वही प्रयोजन है । और छठा कर्तव्य है दान करना । दान करनेका प्रयोजन यह है कि इस परिग्रह में मेरे आसक्ति संस्कार न रहे । समय-समय पर इसका त्याग किया जाये, परोपकार में लगाया जाये तो ऐसी वासना संस्कार के कारण परिग्रह में ममता तो नहीं रह सकती है । यों सभी क्रियाकांडों का अर्थ अपने आपमें अपने आपको खोजने में लगाना चाहिए, इससे कर्मबंध नहीं होता ।
कर्मास्रवण का निमित्त―आस्रव क्या है? इसका यह प्रकरण चल रहा है । नवीनकर्म आते हैं अर्थात् आत्मा में एकक्षेत्रावगाह रूप से अवस्थित विस्रसोपचय की कार्माणवर्गणायें अपने कर्मत्वरूप बनती हैं तो इसका कारण क्या है? नवीन कर्मों में कर्मत्व आनेका साक्षात् कारण उदय में आने वाले पुद्गल कर्म है । जैसे कि यह बात प्रसिद्ध है कि द्रव्यकर्म का निमित्त कारण भावकर्म हैं। यह किस ढंग से सिद्ध किया है? वस्तुत: साक्षात् ऐसा नहीं है । नवीन कर्मों के आस्रव का कारण उदयागत कर्म है । और उदयागत कर्मों में नवीन कर्मों का आस्रवण करने का निमित्तपना बन जाये इसमें निमित्त है राग-द्वेष आदि भाव कर्म । यह आस्रव की कथा है । चूँकि नवीन कर्मों के निमित्तपना होने का निमित है रागद्वेषभाव, इसलिए सिद्धांत में सीधा यह कह दिया है कि कर्मों के आस्रव का निमित्त है राग-द्वेष भाव ।
कर्मास्रवण के निमित्तत्व के परिज्ञान में एक दृष्टांत―एक दृष्टांत देखिये, जैसे मालिक के साथ कुत्ता जा रहा है । मालिक ने सैन दी किसी दुष्ट पर कुत्ते के लिए छू छू । तो कुत्ता उस दुष्ट पर आक्रमण करता है । उस दुष्ट पर जो आक्रमण हुआ है उसका करने वाला साक्षात् तो कुत्ता है, पर कुत्ते में आक्रमण करने की हिम्मत आ जाये इस हिम्मत के लाने का निमित्तभूत है मालिक की सैन । ठीक ऐसी ही बात कर्मों के आस्रव के संबंध में है । नवीन कर्मों का उस भावकर्म के साथ कुछ साक्षात् संबंध नहीं हैं―किंतु उदय में होने वाले कर्मों के साथ इस आत्मा का कुछ संबंध है, पूर्वबद्ध है, किंतु बिरादरी के कारण नवीन द्रव्यकर्मों के साथ उदयागत कर्मों का कुछ संबंध है, इस कारण नवीन कर्मों के आस्रव में निमित्त बनते हैं उदय में आये हुए पुद्गल कर्म और पुद्गल कर्मों में नवीन कर्मों का, आस्रव करने का निमित्तपना आ जाये उसका निमित्त होता है राग-द्वेष-मोह भाव । तो कर्मों के आस्रव का मूल निमित्त हुआ रागद्वेषमोह । अत: राग-द्वेष-मोह से ही आस्रवपना है, इस प्रकार का नियम किया जा रहा है ।