वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 203
From जैनकोष
आदम्हि दव्वभावे अपदे मोत्तूण गिण्ह तह णियदं ।
थिरमेगमिमं भावं उवलब्भंतं सहावेण ।।204।।
अध्रुव को छोड़कर ध्रुव के आश्रय का उपदेश―इस आत्मा में पर उपाधि का निमित्त पाकर उत्पन्न हुए द्रव्यभावरूप सभी भावों को छोड़कर अर्थात् व्यंजन पर्याय और गुणपर्याय की दृष्टि तजकर एक नियत स्थिर और स्वभाव से ही उपलभ्यमान स्वानुभव प्रत्यक्षगोचर चैतन्य स्वभाव को हे मुमुक्षु तुम ग्रहण करो । इस भगवान आत्मा में द्रव्यभाव रूप बहुत भाव दिखते हैं । कुछ ऐसे हैं जो इस आत्मभगवान के स्वभावरूप से नहीं पाये जाते हैं, वे अनित्य हैं । कभी कुछ, कभी कुछ, कितने ही प्रकार से होते रहते हैं, अनेक हैं, क्षणिक हैं और व्यभिचारी भाव है । कभी कुछ होता है कभी कुछ होता है, कभी किसी भी प्रकार से यह चलता रहता है । वे सब अस्थायी भाव हैं । हे मुमुक्षु आत्मन् ! तू उनकी प्रीति में शांति नहीं पा सकता । उनको तू छोड़ और अपने आपमें जो स्वभावरूप से पाया जाता है, नियत है, एक है, नित्य है, अव्यभिचारी है शाश्वत रहने वाला है, सो चूँकि वही स्थायी भाव है, सो स्थायी सत् सामर्थ्य का आश्रय ही लेने योग्य है । अत: तू इस निज पद को ग्रहण कर ।
शरणयोग्य आत्मभाव की गवेषणा―इस गाथा में यह बतला रहे हैं कि इस आत्मा में कौन-सा भाव ऐसा है जिसका हम शरण गहें? यह जीव पर का शरण नहीं गहता । जो भी शरण गहता है वह अपना ही गहता है । कल्पना में यह अज्ञानी मानता है कि मेरा पिता शरण है, भाई शरण है । ये सब ज्ञान में कल्पनाएं होती हैं पर शरण बनाता है अपने ही परिणाम को । कोई ज्ञानी आत्मा को शरण बनाता है तो कोई ज्ञानी परिणामों को शरण बनाता है । तो इस आत्मा में ऐसा कौन-सा भाव है जिसकी हमें शरण लेना चाहिए, आत्मा में अनेक प्रकार के भाव उत्पन्न होते हैं, पर्यायें उत्पन्न होती हैं । कुछ तो पर्यायें द्रव्यपर्यायें कहलाती हैं और कुछ गुणपर्यायें कहलाती हैं । आत्मा की वृत्ति का संबंध पाकर तो पर्यायें होती हैं वे तो हैं द्रव्यपर्यायें और आत्मा के गुणों की जो दशा है वह है गुणपर्याय । जैसे मनुष्य, पशु, पक्षी ― ये सब द्रव्यपर्यायें कहलाती हैं क्योंकि ये आत्मा के प्रदेशों का संबंध पाकर हुए हैं । क्रोध, मान, माया, लोभ, शांति, संतोष, ज्ञान ये सब गुणपर्यायें कहलाती हैं, इनका प्रदेशों से संबंध नहीं है । हम किसी को मनुष्य रूप में देखते हैं तो लंबाई चौड़ाई इन्हीं शक्लों में देखते हैं, ये सब द्रव्यपर्यायें हैं । जीव में जितनी द्रव्यपर्यायें हैं वे सब क्षणिक हैं । कोई मनुष्य सदा न रहेगा । कोई पशु सदा न रहेगा और जितनी गुणपर्यायें हैं वे भी क्षणिक हैं । न विषय, न कषाय, न मौज, न अशांति, न अज्ञान कुछ भी सदा नहीं रहता ।
विभावपरिणमनों की नियतता के व समानता के साथ अध्रुवता―प्रश्न―शांति तो सदा रह सकती है? उतर―उनसे भी सूक्ष्मता से देखें तो प्रत्येक समय में शांति जुदा-जुदा है । प्रत्येक समय में जो अनुभव होता है वह जुदा-जुदा है । चाहे एक समान हों, पर हैं भिन्न-भिन्न परिणमन । उन सब पर्यायों में से कुछ तो हैं स्वभावपर्यायें और कुछ हैं विभावपर्यायें । जैसे शुद्ध ज्ञान होना स्वभावपर्याय है और क्रोध मान आदिक भाव होना यह विभावपर्याय है । तो जो आत्मा का स्वभाव नहीं है ऐसे जो क्रोध मान आदिक कषाय हैं ये सब अनियत हैं, नियत नहीं हैं । अभी क्रोध हो, मान हो, फिर माया हो, कभी क्रोध बड़ी तेजी में हो तो इसमें नियतपना नहीं हैं । और जो स्वभावपर्याय हैं उनमें नियतपना तो है । जैसे केवलज्ञानी के जो ज्ञान चलता रहता है वह एक-सा चलता रहता है । आनंद जो चलता है वह एक-सा चलता है और संसारी जीव के न तो ज्ञान एक-सा है और न सुख-दुःख एक-सा है । तो जाननस्वभाव से जो विरुद्ध परिणमन है वह सब अनियत है और अनेक है । केवलज्ञानी का तो एक शुद्ध परिणमन है स्वच्छ ज्ञान है । तीन लोक और तीन काल को जान गया तो ऐसा ही जानता रहेगा हमेशा । सो उसे निराकुलता का अनुभव होता है तो वैसी ही निराकुलता का अनुभव चलेगा ।
अस्थिरता का मूल अज्ञानभाव―संसार अवस्था में, मलिन हालत में जीव के अनेक प्रकार के भाव चलते हैं, एक भाव प्राय: ठहर ही नहीं सकता । उसका कारण यह है कि रागद्वेष अंतर में चलते रहते हैं और फिर पर्याय बुद्धि साथ में हो तब तो गजब ही हो जाता है । कहते हैं हमारा मन स्थिर नहीं है । थोड़ी देर में कुछ विचार हुए, थोड़ी देर में कहीं जाना । तो कैसे अस्थिरता हुई, क्योंकि मूल में रागद्वेष बसा है । और जिसके पर्याय बुद्धि बसी है अर्थात् मैं सबमें अच्छा कहलाऊं, सब लोग मुझे बड़ा मानें, उनमें मैं एक चतुर पुरुष हूँ, श्रेष्ठ हूँ, इस प्रकार की पर्याय बुद्धि करे तो उसका चित्त तो किसी भी जगह स्थिर नहीं रह पाता । तो अस्थिरता के मूल कारण है अज्ञानभाव ।
परभाव को छोड़कर परमभाव को ग्रहण करने का उपदेश―अज्ञानभाव में अनेक दशायें होती हैं वे सब क्षणिक है, कभी हुईं कभी न हुईं, ऐसा यह व्यभिचारी भाव है । कभी कार्य हुआ तो कभी न हुआ । क्रोध भी सदा नहीं रहता है, मिटेगा, मान आयेगा, मिटेगा और कषाय आयेगा तो ये बदल बदलकर नाना कषाय चलती रहती हैं । ये सबके सब अस्थायी भाव हैं । ये आत्मा में स्थिर नहीं रह सकते हैं । ये आत्मा को भी अस्थिर करते हैं और स्वयं भी अस्थिर हैं । इसलिए इन भावों पर विश्वास न करो । ये ऐसे असद्भूत हैं और जो आत्मा स्वभावरूप से उपलभ्यमान है, नियत अवस्था वाला है, एक है, नित्य है, सदा रहता है, ऐसा जो कुछ एक भाव हो वह ही स्थायी भाव है । उसे कहते हैं चैतन्यस्वभाव । सब कुछ बदलता रहता है पर चैतन्यस्वभाव अपरिणामी है । हे हितार्थियों, इस परमभाव को ग्रहण करो ।
पारिणामिक चैतन्यस्वभाव―इस न बदलने वाले स्वभाव को पारिणामिक कहते हैं । अर्थात् परिणाम जिसका प्रयोजन है, परिणाम तो होते रहते हैं और जिसके परिणाम हुए उसे कहते हैं पारिणामिक । सो पारिणामिक स्थायी भाव है । तो भैया ! परमार्थ रसतया स्वादने योग्य यह ज्ञान ही एक पद है । अर्थात् हे भव्य जीवों, न तो अपने को गाँववाला समझो, न परिवार वाला समझो, न मनुष्य, न स्त्री और न किसी पोजीशनरूप, किंतु अनादि अनंत अहेतुक स्वतःसिद्ध एक चैतन्यस्वभावमात्र अपना अनुभव करो । ऐसा अनुभव करो कि जिस अनुभव में जीव-जीव में परस्पर भेद न रहे । जैसे बहुत से लोग बैठे हैं यहाँ अग्रवाल, परवार, जायसवाल उनमें अपने प्रयोजन से अपनी-अपनी बिरादरी से जुदा भी अनुभव कर सकते हैं । ये और हैं, हमारे तो ये हैं । संबंध व्यवहार इन्हीं में होना है । इस तरह से देखा और जब कोई धर्म के नाम से देखो तो सब एक समान हैं । धर्म के नाते से फिर फर्क नहीं आता है । जैसे विवाह शादी सामाजिक व्यवहार में कुछ फर्क आता है कि हमारी भांजी इनके यहाँ जायेगी, इनके यहाँ न जायेगी, फर्क रहता है और जब दशलक्षणी आयी, उत्सव हुआ, धर्म का काम हुआ कि यह ध्यान नहीं रहता कि यह हमारी जाति के हैं, यह दूसरी जाति के हैं । यहाँ तो एक जैनत्व ही दृष्टि में आता है । इसी प्रकार तब तक रागद्वेष की बात चलती है, जब तक अपने स्वार्थ और कषाय की बात चलती है तब तक तो जीव में छटनी रहती है कि यह मेरा है और यह पराया है । जब यह धर्म के अनुभव में उतरता है तब इसे यह मेरा है, यह पराया है, यह छटनी नहीं रहती है । वहाँ तो सब जीव और स्वयं मात्र ज्ञानस्वरूप अनुभव में रहता है ।
कल्याणमय स्वाद ज्ञानपद―भैया ! सर्व जीवों में एक चैतन्यस्वभाव की दृष्टि जाती है कि सब जीव एक रस हैं तो इस दृष्टि का ही नाम कल्याण का उपाय है । यह सारा जगत ब्रह्मस्वरूप है ऐसा मानकर उस स्वभावदृष्टि को ग्रहण करना चाहिए, सो भी मार्ग ठीक है किंतु ब्रह्म एक अलग चीज है और वह एकस्वरूप है, सर्वव्यापक है और उस एक ने ही नाना जीव बनाये हैं, ऐसी दृष्टि जाने से भेद हो गया और यों देखा जाये कि सर्व जीव हैं और सभी जीवों की उन सब जीवों में अलग-अलग माया चल रही है । उनकी अपनी-अपनी परिणति चल रही है । सर्व वस्तुओं के स्वरूप को देखो तो सर्व जीव अमूर्त ज्ञानानंद नजर आये । इस स्वरूपदृष्टि से किसी भी जीव में और मुझ में अंतर नहीं है । ऐसे केवल चैतन्यस्वरूप को निरखो तो वहाँ सब जीव एकस्वरूप हो जाते हैं और जहाँ एक स्वरूप सब जीव हुए वहाँ इसके निराकुलता उत्पन्न होती है और जहाँ छटनी है वहाँ आकुलता होती है । इस कारण जहाँ विपत्तियों का नाम नहीं है ऐसा जो एक ज्ञानानुभव है उस ज्ञानानुभव का ही स्वाद लेना चाहिए ।
सहजस्वरूपदर्शन में प्रभुदर्शन―भैया ! स्वकीय सामान्य ज्ञानज्योति के अनुभव में आने पर सर्वभाव, क्षणिक, क्रोधादिक, मनुष्यादिक ये सब परिणमन अपद हो जाते हैं, इसके उपयोग में स्थान नहीं पाते हैं । सब कहते हैं कि यह जीव प्रभु में मग्न हो जाये, ब्रह्म में मग्न हो जाये, पर ब्रह्म में मग्न होने का तरीका क्या है? ब्रह्म है ज्ञानानंदस्वरूप और अपने उस स्वरूप को देखो और ज्ञानानंद स्वरूप अपने को अनुभव करो तो उस ज्ञानानंदस्वरूप के अनुभवन की परिणति में यह देह, धन, परिवार सबको भूल जायेगा और ये सब विशेष चीजें विस्मृत हो जाती हैं, केवल ज्ञानानंदस्वरूप ब्रह्म ही अपनी दृष्टि में रहता है वहाँ इसे प्रभु मिलता है और प्रभु में मग्न होता है । हम अपने से बाहर कहीं प्रभु को समझकर दृष्टि गढ़ाएँ तो प्रभु नहीं मिलता है । जैसे प्रभु की मूर्ति ही, जिनेंद्रदेव का बिंब ही सामने है और हम ऐसा ज्ञान करें कि इस प्रतिमा में भगवान हैं और आखें फाड़कर प्रतिमा में भगवान को देखें तो कभी न मिलेगा । प्रतिमा में भगवान अथवा समवशरण में विराजमान परम औदारिक शरीर से भगवान को देखें तो भगवान नहीं मिलता है, किंतु अपने आपके ज्ञानानंदस्वरूप को देखने में बल लगायें तो भगवान देखने में आ जाता है ।
ज्ञानज्योतिर्मय भगवान―भगवान जड़ पदार्थों में नहीं है । जड़ पदार्थों का स्वरूप ज्ञानानंद नहीं है । तो जड़ में भगवान कहाँ दिखेगा? मंदिर में, मूर्ति में, पाषाण में अथवा समवशरण में भी बैठा हुआ जो उनका शरीर है उस शरीर में भी भगवान नहीं है । भगवान तो भगवान में है । ज्ञानानंदस्वरूप जो निर्मल आत्मा है उसमें भगवान है । सो जड़ पदार्थों में तो भगवान मिलता नहीं है, और जो निर्मल आत्मा है साक्षात् वह उन जड़ पदार्थों के प्रदेश से अत्यंत दूर है । उसका परिणमन उसके प्रदेशों से अत्यंत दूर है । तो उस दूर रहने वाले निर्दोष आत्मा को कैसे देख सकोगे? मैं जो कुछ कर पाता हूं सो अपने आपके जीव में ही कर पाता हूँ । कुछ जानूँ तो अपने आपके स्वरूप को जानता हूँ, कुछ अनुभव करूँ तो अपने आपका ही अनुभव करता हूँ । मेरा काम मेरे प्रदेशों से बाहर नहीं होता । तो मैं अपने प्रदेशों से बाहर अन्यत्र कहीं भी अपना प्रयोग नहीं कर सकता हूँ । मैं न जान सकूँ, न अनुभव कर सकूँ, न देख सकूँ । जो कुछ करता हूँ सो अपने आपमें ही करता हूँ । तो जब हम उस निर्मल निर्दोष परमात्मा को ज्ञेयमात्र बनाकर अपने आपके ज्ञानानंदस्वरूप में बल देंगे तो उस परमात्मा के दर्शन हम कर सकते हैं ।
निरापद स्वरूप―परमात्मा है ज्ञानानंदस्वरूप और आत्मा भी है ज्ञानानंदस्वरूप । परमात्मा का ज्ञान और आनंद अनंत हो सकता है । हमारा ज्ञान और आनंद सीमित है, लेकिन अपने इस ज्ञानानंद का विषय ज्ञानानंद को बनाएँ तो इस ज्ञान के द्वारा ही उस परमानंद ज्ञानमय प्रभु को तक सकता हूँ । एक ही उपाय है और सभी संतों ने आत्मसिद्धि के लिए इस एक ही उपाय को किया है । इसी को कहते हैं ज्ञान का स्वाद लेना । इतना ज्ञान तो हो रहा है, उस ही ज्ञान का ज्ञान करने लगें तो हम सहजसिद्ध भगवान में स्थित होकर ज्ञान का स्वाद लेने लगेंगे । यह ज्ञान का स्वाद इतना निर्मल पवित्र आनंदमय है कि इसके आगे और सब बातें अपद मालूम होती हैं ।
ज्ञानरस के स्वादी को अन्य रस की असह्ययता―भैया ! जिसको इस ज्ञान के स्वरूप का किसी भी क्षण अनुभव होता है वह इस ज्ञानभाव के रस से भरा हुआ महान स्वाद लेता हुआ ऐसा अपने लक्ष्य में दृढ़ हो जाता है कि वह द्वंद्वमय स्वाद लेने के लिए असह्य है । अर्थात् अब दूसरी चीज का स्वाद लेना उन्हें सह्य नहीं है । सब ज्ञेयतत्त्वों को एक ज्ञान के स्वाद में उतारते हैं । वह द्वंद्वता को लेने के लिए असह्य होता हुआ निज वस्तु वृत्ति का अनुभव करते हैं । उन्हें अपने आप मिल गया है । और अपने आपके मिल जाने से उनकी सर्व आकुलता समाप्त हो गई है । निर्मोही जीव बाहर में अपने ज्ञान और आनंद को ही ढूंढ़ा करते हैं अर्थात् अपने आपको ढूँढ़ा करते हैं । और उसे ज्ञान और आनंद खुद में मिल जाये तो इसी के मायने हैं कि अपने आपको पा लिया । इस अपने आपको पा लेने से जो एक समरस ज्ञान का स्वाद आता है तब वह जीव अन्य स्वाद लेना चाहता नहीं है, क्योंकि वह आत्मा के स्वाद के प्रभाव से युक्त है । अर्थात् आत्मीय ज्ञान होने पर ज्ञानानुभूति से चिगता नहीं है ।
निर्बाधपद से सबाधपद में विवेकियों के गमन का अभाव―ऐसे अपूर्व आनंद का स्वाद पाने पर अब ज्ञानी संत बाहर कहां आयेंगे? जैसे सावन की तेज बरसात में अच्छी कोठरी में पहुंच जानें पर जहाँ कि पानी चूता नहीं है, न आंधी पानी आती है उस समय बिजली कड़क रही है, तेज बरसात हो रही है ऐसी आफत में कौन घर से बाहर जायेगा, अपने आनंद से घर में बैठे हैं । इसी प्रकार अपने आत्मा के अंदर जहाँ कोई विपत्ति नहीं है, ऐसे आराम की स्थिति में ज्ञानी स्थित होगा । बाहर में बड़े संकट मच रहे हैं, तो अपनी ज्ञान कोठरी से बाहर होने पर, बाहर दृष्टि बनने पर सैकड़ों कल्पनाओं के संकट अनुभव किए जाते हैं । और कुछ औपाधिक द्वंद्व भी बाहर में मच रहे हैं । सो ऐसे संकट की बरसात के समय कोई ज्ञानी संत अपने दृढ़ घर में आ गया, जहाँ न विकल्प है, न संतोष है, एक परम आह्लाद का ही अनुभव है, ऐसी निर्बाध स्थिति में रहकर फिर कुछ अंतरंग में अपने से चिगकर कहां बाहर जाये? फिर यह ज्ञानी जीव बाहर नहीं जाता ।
निर्विशेष उपयोग में आत्मा का निरर्गल विकास―यह ज्ञानी संत विशेष का उदय नष्ट करता है, अपने को किसी विशेषरूप नहीं मानता । और सामान्य का ही कलन करके, सामान्य का ही अनुभव करके यह समग्र ज्ञानी एकता को प्राप्त करता है अर्थात् स्वयं को यह एक ज्ञानरूप अनुभव करता है । यही आत्मा का निज पद है और इस ही निज पद में कल्याण है । इसी से ही मोक्षमार्ग मिलता है । यही अरहंत भगवंतों ने किया था जो आज उत्कृष्ट पद में अवस्थित हैं जिनकी बड़ी भक्ति से हम उनकी पूजा करते हैं । उन्होंने इस ही एक ब्रह्मस्वरूप के अनुभव का मार्ग अपनाया था । इस ही आत्मस्वभाव की उपासना की परिस्थिति से ये कर्म ध्वस्त होते हैं, संसार मिटता है और शिवपद की प्राप्ति होती है । इसलिए सर्व प्रयत्न करके इस क्षणिक भाव को छोड़कर ध्रुव जो आत्मीय चैतन्यस्वभाव है, ध्रुव स्वभाव का हमें अनुभव करना चाहिए और हम उस अनुभव के पात्र रह सकें, इसके लिए न्यायरूप अपनी प्रवृत्ति करना चाहिए ।