वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 212
From जैनकोष
अपरिग्गहो अणिच्छो भणिदो णाणी य णेच्छदे असणं ।
अपरिग्गहो दु असणस्स जाणगो तेण सो होदि ।।212।।
ज्ञानी की अपरिग्रहता―इच्छारहित पुरुष अपरिग्रही कहा गया है । ज्ञानी पुरुष भोजन को नहीं चाहता । अत: वह भोजन का अपरिग्रही है । वह तो भोजन का ज्ञायक होता है । यह बात बड़ी कठिन कही जा रही है । भोजन करते हुए भी भोजन से वियोगबुद्धि रखे, इसके लिए कितना ज्ञानबल चाहिए? खाते समय क्या किसी को यह ख्याल रहता है कि भोजन करना मेरा स्वरूप नहीं है, यह विपत्ति है, इससे मैं कब दूर होऊँ? क्या ऐसा कोई ख्याल करता है? क्यों बाबाजी? एक भाई ब्रह्मचारीजी का कहना है कि पेट भर जायेगा फिर स्वयं ख्याल आ जायेगा कि यह दाल चावल खाना मेरा स्वरूप नहीं है । अरे पेट भर जाने पर तो खाया ही नहीं जा सकता । ज्ञानी के तो खाते हुए में भी ज्ञान की जागृति रहती है । अज्ञानी तो यों सोचेगा कि यह पेट भर क्यों अभी गया जो यह छोड़ना पड़ा ।
भोजन में भी स्वरूपस्मरण―खाते हुए में और बहुत-सी बातों का सदा ध्यान रहे । आहार करना मेरा स्वभाव नहीं है । अच्छा यह दृष्टि होना भूखे में कठिन लगे, न हो पाये, पर पेट भरने पर तो ऐसी चर्चा आप कर सकते हैं कि नहीं कि आत्मा का आहार करना स्वभाव नहीं है । कोई अधपेट में ही कह सकता है, कोई बिल्कुल भूखे में ही कह सकता है, जिसके जैसा ज्ञानबल होता है वैसा ही उसको याद रह सकता है ।
बंधन के स्वरूप का दिग्दर्शन―अब स्वरूप की दृष्टि कीजिए । आत्मा अमूर्तिक है । इससे तो शरीर का भी संबंध नहीं है । यह शरीर तो आत्मा को छू भी नहीं सकता । यों ही कर्म का भी स्पर्श नहीं है । फिर भी है बंधन अभी, हाँ, वह संबंधकृत बंधन नहीं है किंतु निमित्तनैमित्तिककृत बंधन है । जैसे एक रस्सी और दूसरी रस्सी में गाँठ लगा दी जाये तो उन दो रस्सियों का जो परस्पर में संबंध है वह संपर्ककृत है और निमित्तनैमित्तिककृत है किंतु यह शरीर और आत्मा का संबंध संपर्ककृत नहीं है, निमित्तनैमित्तिककृत है । जैसे गाय के गले की रस्सी । गले का और रस्सी का बंधन संपर्ककृत नहीं है कि एक हाथ में गला पकड़ा और एक हाथ में रस्सी पकड़ा और दोनों में गांठ लगा दिया, ऐसा संपर्ककृत नहीं है । वहाँ तो रस्सी का रस्सी से संपर्ककृत बंधन है और वहाँ गाय बंधन में आ गई, विवश हो गई, कहीं जा नहीं सकती । ऐसा जो बंधन गाय का हुआ है वह निमित्तनैमित्तिक बंधन है । रस्सी से फंसी रस्सी के मध्य में गाय का गला है, इस निमित्त से वह कहीं जा नहीं सकती ।
निमित्तनैमित्तिकीय बंधन―एक और जरा सा मोटा दृष्टांत देखो । कभी बगीचे में जंगल में अपन निकलते हैं तो कोई प्रदेश ऐसा होता है कि वहाँ से मक्खियां अपने सिर पर मंडराने लगती हैं और जैसे-जैसे अपन चलते हैं वे भिन-भिन करती हुई छोटी-छोटी मक्खियां आपके सिर के ऊपर वैसी ही चलती जाती हैं । देखा है कभी ऐसा? तो उन मक्खियों का हम आपके साथ-साथ चलते जाना ऐसा जो उनका बंधन लगा है वह संपर्ककृत नहीं है । हमारे सिर से वे मक्खियां बहुत ऊँचे हैं मंडरा रही हैं, वह निमित्तनैमित्तिक संबंधकृत बंधन है । यों ही शरीर का और आत्मा का निमित्तनैमित्तिक बंधन है ।
भोजन की अपरिग्रहता―तो जब आत्मा का शरीर से भी संपर्क नहीं है तो भोजन का संपर्क क्या हो सकता है ? फिर भोजन का यह परिग्रही कैसे कहा जाये? भोजन का संबंध नहीं है यहाँ । यह आत्मा ज्ञानस्वरूप है । ज्ञान के द्वारा ज्ञानमय निज को जानता है । ज्ञान करता है इतना ही आत्मा का कर्तृत्व है और इतना ही भोक्तृत्व है । भोजन करने के काल में भी भोजन को विषय मात्र करके जो रसादिक का ज्ञान किया गया है उस ज्ञान का यह कर्ता है, पर भोजन का यह कर्ता नहीं है । यह तो भोजन का ज्ञायक है ।
ज्ञानी का ज्ञानमय भाव―इच्छा का नाम परिग्रह है । जिसके इच्छा नहीं है उसके परिग्रह नहीं है । इच्छा अज्ञानमय भाव है । अज्ञानमय भाव ज्ञानी जीव के नहीं होता है । ज्ञानी के ज्ञानमय ही भाव होता है । सो ज्ञानी चूँकि अज्ञानमय भाव से रहित है, इच्छा से रहित है इसलिए वह आहार को नहीं चाहता । तब ज्ञानी के आहार का परिग्रह नहीं है । ज्ञानमय एक ज्ञायकभाव ही होने से ज्ञानी आहार का सिर्फ ज्ञाता ही रहता है ।