वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 224-227
From जैनकोष
पुरिसो जह को वि इहं वित्तिणिमित्तं तु सेवदे रायं ।
तो सो वि देदि राया विविहे भोगे सुहुप्पाए ।।224।।
एमेव जीवपुरिसो कम्मरयं सेवदे सुहणिमित्तं ।
तो सो वि देदि कम्मो विविहे भोगे सुहुप्पाए ।।225।।
जह पुण सो च्चिय पुरिसो वित्तिणिमित्तं ण सेवदे रायं ।
तो सो ण देदि राया विविहे भोगे सुहुप्पाए ।।226।।
एमेव सम्मदिट्ठी विसयत्थं सेवदे ण कम्मरयं ।
तो सो ण देदि कम्मो विविहे भोगे सुहुप्पाए ।।227।।
कामना फल की ग्राहिका―जैसे कोई पुरुष अपनी आजीविका के लिए राजा की सेवा करता है तो राजा भी सुख के उत्पादक नाना प्रकार के भोगों को देता है । इसी प्रकार यह जीव पुरुष आत्मसुख के निमित्त यदि कर्मरज की सेवा करता है अर्थात् सुख की आशा रखकर कर्म करता है तो वह कर्म भी इस जीव को सुख के उत्पादक नाना प्रकार के भोगों को देता है । और जैसे वही पुरुष राजा की सेवा कर रहा है पर कुछ चाह नहीं रहा तो वह राजा भी इसकी नाना प्रकार के भोगों को नहीं देता । वह जानता है कि यह लगा ही नहीं । लेता ही नहीं तो उसका परिणाम देने का नहीं होता है । अथवा आजीविका के लिए राजा की सेवा न करे तो राजा क्या जबरदस्ती उसे कुछ दे देगा? नहीं । इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि पुरुष विषयों के अर्थ कर्मरज की सेवा नहीं करते तो वे कर्म भी नाना प्रकार के सुखोत्पादक भोगों को नहीं देते हैं । इस प्रकरण में यह दिखाया गया है कि कर्मफल की चाह रखकर कर्मों को सेवे तो कर्म फल देते हैं और कर्मफल की चाह न रखकर कर्म भोगें तो वे कर्मफल नहीं देते ।
निष्काम कर्मयोग―भैया ! निष्काम कर्मयोग जैसा कि अन्यत्र कहा गया है वह यहाँं बताया जा रहा है कि निष्काम कर्मयोग में और जैनसिद्धांत के इस निष्काम कर्मयोग में अंतर इतना है कि निष्काम कर्म करते हुए भी मुक्ति ज्ञान से ही मानी गई है । जब कि कोई लोग निष्काम कर्म से ही मुक्ति मान लेते हैं । निष्काम कर्म की स्थिति ज्ञानी जीव के बीच में आती है ऐसा दिखाने के लिए इस निष्काम कर्मयोग का यहाँ वर्णन है । पर कोई जैसे ज्ञान से मुक्ति होती है ऐसे ही प्रभुभक्ति से भी हो जाती है, निष्काम कर्मयोग से भी हो जाती है । ऐसा माने तो मोक्षमार्ग अब सुनिश्चित एक नहीं रहा । मुक्ति ज्ञानभाव से ही होती है । निष्काम कर्म और प्रभुभक्ति मोक्षमार्गी पुरुष के मार्ग के बीच में आता रहता है । इसी प्रकार हे ज्ञानी जीव ! तू अपने को एक ज्ञानस्वरूप ही निरख ।
सकामकर्म से कर्मफल का दृष्टांत―इसमें यह कहा जा रहा है कि सराग परिणाम से ही बंध होता है और वीतराग परिणाम से मोक्ष होता है । जैसे कोई किसी आजीविका आदि के राग से, लोभ से राजा की सेवा करता है तो राजा भी उस सेवक के लिए आजीविका का ढंग देता है । इसी प्रकार अज्ञानी जीव-पुरुष शुद्ध आत्मा के अनुभव से उत्पन्न हुए भाव से च्युत होकर उदयागत कर्मभूमि की सेवा करता है विषय सुख के लिए तो पूर्व में उपार्जित पुण्यकर्मरूपी राजा इस जीव को नाना सुख देता है । अथवा विषयसुख के उत्पादक भोगों की इच्छारूप रागादिक परिणामों को देता है । राजा की सेवा कोई करे धन के लोभ से तो राजा धन दे देगा या धन का कोई ढंग दे देगा । जैसे आजकल लाइसेन्स दे दिया । कोई ऐसा उपाय दे दिया ।
सकामकर्म से कर्मफल―इसी प्रकार यहाँ कोई सुख के वास्ते विषय सुख के लिए कर्मों की सेवा करता है, कोई कार्य करता है तो पूर्व में बँधा हुआ जो पुण्यकर्मरूपी राजा है वह इसे क्या दे देगा? रागादिक पुण्यकर्म का फल । पुण्यकर्मफल मुख्यतया राग है, सुख नहीं है । पुण्यकर्म के उदय में राग का सुख से मेल है, पर उदय पुण्य का हुआ और संक्लेश बन रहे हैं ऐसी भी तो स्थिति आती है । जैसे लाखों करोड़ों का धन है जिसके पास तो उदय तो उसके पुण्य का चल रहा है पर उनकी अंतरंग स्थिति देख लो, बेचैन हैं, चिंतातुर हैं, रात्रि को नींद नहीं आती है, घबड़ाए हुए फिरते हैं, हवाई जहाज से कहीं इधर भगे, कहीं उधर भगे, ऐसी स्थिति है आज के करोड़पतियों की । तो पुण्य से सुख मिल जाये यह तो जरूरी नहीं है पर पुण्यकर्म के संबंध से राग बढ़ जाये यह प्राय: संभव है । तो पुण्यकर्म से राग परिणाम है जो शुद्ध आत्मा का विनाश कर देता है ।
फल की समीक्षा―जैसे राजा ने दिया क्या, उसने तो उसके तृष्णा बना दी । यदि वह गरीब ही रहता तो फंद में न पड़ता, पर राजा ने कुछ साम्राज्य दे दिया तो अब उसके तृष्णा हो गई, उसे दुःखी कर दिया । दूसरों को धनी देखकर लोग ईर्ष्या करते हैं । अथवा किसी पुरुष को किसी से बदला चुकाना हो तो वह उसे कुछ धनी बना देवे । इससे बढ़कर दुश्मनी का बदला और दूसरा नहीं हो सकता है । क्या बदला चुकाया उसने कि उसकी जिंदगी दुःखमय कर दिया । चैन से नहीं रहता । गरीब रहता तो सुख से साधारण कमाता और सुखी रहता ।
वैभव शांति का अकारण एवं अनर्थकारी―भैया ! क्या होगा बड़े-बड़े वैभव से? आखिर मरना ही तो पड़ेगा, अन्य जन्म लेना ही तो पड़ेगा और वह जो झूठा वैभव है धन आदिक इसके पीछे पड़कर व्यर्थ में संक्लेश किया जा रहा है । शांति से नहीं बैठ पाते हैं । इसका फल मिलेगा बुरा । वर्तमान में भी शांति से नहीं रह सकते । यदि धन हो व साथ ही धर्मबुद्धि हो तब तो गनीमत है और धन हो, धर्म बुद्धि न हो तो वह धन क्लेश ही बढ़ाता है । नीतिकारों का वचन है कि ये चार चीजें हैं, इनमें से एक भी हो तो जीव को बरबाद करता है । कौन-सी चार चीजें हैं? जवानी, धनसंपदा, प्रभुत्व और अज्ञान । खाली जवानी ही मनुष्य को बरबाद कर देती है । धन संपदा भी मनुष्य की बुद्धि हर लेती है । लोगों में अपना प्रभुत्व चले ऐसा प्रभुत्व भी बरबादी की ओर ले जाता है और अज्ञान तो इस बरबादी का कारण ही है । ये एक-एक भी अनर्थ करने वाले हैं, किंतु किसी पुरुष में चारों बातें ही इकट्ठी हो जायें, जवानी भी हो, संपदा भी मिले, प्रभुत्व भी मिले और अज्ञान भी हो, चारों बातें यदि हों तो उसका तो फिर बेड़ा ही गर्क हो गया । और ये चारों चीजें पुण्य से मिलती हैं । जवानी, संपदा, प्रभुत्व और अज्ञान―ये पुण्योदय से ही मिले है । अज्ञान पुण्य के उदय से भी मिलता हैं और पाप के उदय से भी मिलता है ।
पुण्य और पाप में अज्ञान की स्थिति व ज्ञानी की पुण्यपापरहित निज स्वरूप में आस्था―पुण्य होना भी अज्ञान कहलाता है और पाप होना भी अज्ञान कहलाता है । कहो पाप का उदय आने पर ज्ञान सही सलामत बना रहे, लेकिन पुण्योदय होने पर ज्ञान अज्ञानरूप में परिणत हो जाये । प्राय: ऐसा होता भी है । तो मिला क्या पुण्य के उदय में ? अनर्थ । और पाप के उदय में क्या मिला? अनर्थ । और शांति मिलती है तो धर्मदृष्टि से मिलती है । अपने आपमें ऐसा विश्वास बना रहे अनवरत कि मैं तो ज्ञानप्रकाशमात्र हूँ । भैया ! अपने नाम का विश्वास कैसा दृढ़ रहता है? कोई कहीं से भी नाम ले तो दे, कान खड़े हो जाते हैं । हमें कोई बुलाता है । अधनींद सो रहा है और कोई नाम लेकर बुलाए तो नींद खुल जाती है । अगर दूसरे का नाम लेकर चाहे जोर से पुकारे तो नींद नहीं खुलती, पर खुद का नाम चाहे कोई धीमे स्वर से पुकारे तो शीघ्र नींद खुल जाती है । ऐसा नाम में विश्वास है । किसी पाटिया पर 40-50 नाम लिखे हों और उस पर एक आपका भी नाम हो तो आप सरसरी निगाह से देखने पर भी अपना नाम बहुत जल्दी देख लेंगे; औरों के नाम देर से देखेंगे । तो जैसे अपने आपके बारे में नाम में संस्कार घुसा हुआ है कि मैं यह हूँ इसी प्रकार उस ज्ञानस्वरूप का ऐसा संस्कार कर लीजिए―सोते, चलते, उठते, बैठते सर्वस्थिति में, मैं ज्ञानमात्र हूँ, चैतन्यस्वरूप हूँ । जो अंतर में सन्नाटा अनुभव किया कि यह मैं ज्ञानमात्र हूँ―ऐसा अनुभव यदि किया तो इसी से पूरा पड़ेगा । न पुण्य के उदय से पूरा पड़ेगा, न पाप के उदय से पूरा पड़ेगा ।
अज्ञानी के शुभभावों द्वारा पापबद्ध पापानुबंधी पुण्य―अथवा कोई जीव नये पुण्यकर्म बांधने के लिए भोगों की इच्छा और निदान रूप से शुभ कर्मों का अनुष्ठान करता है, जैसे सुख मिले, विपत्तियां दूर हों, घर सुख चैन से रहे इसलिए कोई पुण्यकर्म करे, एक विधान कर लें, एक जल बिहार कर लें, कोई एक यज्ञ रचा लें, सो पुण्य बांधने के लिए शुभ क्रियाओं का कार्य करता है । उद्देश्य उसका है कि सुख चैन हो, खूब भोग संपदा मिले तो उसे क्या मिलेगा? पापानुबंधी पुण्य मिलेगा । पहिले तो यही कठिन है कि पुण्य उसका बंध जाये । क्योंकि जिसकी नींव ही खराब है, आशय ही उल्टा है, संसार के भोगों की चाह लेकर किया जाने वाला धर्म कार्य है तो उस कार्य के करते हुए पुण्य बंध हो जाये तो पहिले तो यही कठिन है कि पुण्य बंध जाये ।
धोखा कहाँ?―भैया ! कर्म पौद्गलिक हैं । उन कर्मों के चेतना नहीं है जो वह धोखे में आ जाये । धोखा देता है जीव और धोखा खाता है जीव । पुद्गल न धोखा खाते हैं, न धोखा देते हैं । पुद्गल में जीव नहीं है, चेतन नहीं है जो वह पुद्गलकर्म धोखा खा जाये कि यह बेचारा देखो भगवान के आगे खूब नाच रहा है, खूब गान तान कर रहा है तो इसके हम न बँधे या पापकर्म न बँधे । ऐसा धोखा पुद्गल नहीं खाते हैं । पुद्गल का तो जीव परिणाम के साथ निमित्तनैमित्तिक संबंध है । अंतर में जैसा आश्रय है उसके अनुरूप विस्रसोपचय कार्माणवर्गणा कर्मरूप बन जाती है । कोई भोग की इच्छा की लिहाज से, आशय से पुण्यकर्म बाँधने के लिए शुभ कार्य को करता है तो पापानुबंधी कर्म का बंध होता है और पापानुबंधी कर्मरूपी राजा कालांतर में भविष्यकाल में भोगों को देता तो है, मिलते तो हैं इंद्रियविषयों के साधन, पर निदान बंध से प्राप्त जो बंध हैं वे नरकादिक दुःख परंपरा को बढ़ाते हैं । खोटे आशय से कोई शुभ काम किया जाये तो उस प्रसंग में थोड़ा मंदकषाय कभी आता है तो पुण्यबंध होता तो है किंतु निदान बंध से वे कर्म बँधे थे, निदान बंध से ही वे भोग मिले हैं सो वे भोग दुःख परंपरा को बढ़ाते हैं ।
निष्कामकर्मयोगी के संसारफल की आपत्ति का अभाव―जैसे वही पूर्वोक्त पुरुष आजीविका के निमित्त राजा की सेवा नहीं करता है तो वह राजा भी उसे कुछ भोगने को नहीं देता है, इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव पूर्व में उपार्जन किए गए उदयागत पुण्यकर्म के उदय से कभी आत्मीय आनंद से च्युत होकर विषय सुख के लिए उस कर्म को उपादेय बुद्धि से नहीं सेवता तो कर्म भी रागादिक परिणामों को नहीं देते ।
आशा के अभाव से कर्मफल की अगति―एक जगह आत्मानुशासन में लिखा है कि संसारी जीव के 2 इच्छाएँ होती हैं―एक तो धन वैभव मिले और एक मेरी जिंदगी बनी रहे । दो ही तो मुख्य इच्छाएँ हैं । बच्चे, बूढ़े और जवान सभी को ये ही दो इच्छाएँ सताती हैं । बच्चे भी जानते हैं कि यह दुवन्नी है, यह चवन्नी है, यह अठन्नी है । उन्हें अगर छोटा दाम दे दो तो वे फेंक देते हैं । तो धन वैभव की इच्छा ये दो ही संसारी जीव के लगी हैं । सो जिनके ये दोनों इच्छाएँ लगी हैं उनको कर्म दुःख देते हैं । और इन दो इच्छाओं को छोड़ दें तो कर्म उनका अब क्या कर लेंगे बतलाओ? कर्म का यह तो विपाक था कि दरिद्र कर दें । निमित्तदृष्टि से कहा जा रहा है अथवा मरण कर दें । जो अकिंचन्य का ही स्वागत करता हो और मरण का स्वागत करता हो तो कर्म उसका क्या कर लेंगे? कर्म उसके लिए सब व्यर्थ हैं ।
निर्वांछक के कर्म की व्यर्थता―इसी प्रकार जो विषयसुख की चाह ही नहीं रखता है उसके लिए कर्म व्यर्थ हैं । जो विषयसुख की चाह करेगा उसके लिए कर्मों का उदय रागपरिणाम को देगा । सुख को देते फिरें, यह उनके बस का नहीं है । पुण्योदय से वैभव मिल गया तो रागपरिणाम वह कर देगा । अब सुखी होना दुःखी होना यह ज्ञान पर निर्भर है, हम आपदाओं से बच सकते हैं या नहीं, यह उस पुरुष के ज्ञान और अज्ञान पर निर्भर है । पुण्य कर्म जिन रागादिक परिणामों को देता है वह शुद्ध आत्मा की भावना का नाश करने वाला है । जीव का जो अलौकिक वैभव है उस शुद्ध की भावना करो । शुद्ध आत्मा की भावना का विनाश होता है तो तीन लोक की संपदा भी व्यर्थ है । और शुद्ध आत्मा की भावना रहती है, शुद्ध आत्मस्वरूप की दृष्टि रहती है, अपने आपको ज्ञानमय मान लेने का पुरुषार्थ जगता है तो यही सर्वोत्कृष्ट वैभव है दुनिया में ।
भाव से भवितव्य―कोई मुझे जानो या न जानो, इससे विभाव और अभाव का हिसाब नहीं बैठता है । परमार्थ उपयोग में है, शुद्ध आनंद मिलता है तो समझो कि वैभव हमारे पास है और शुद्ध आनंद का विनाश होता है, याने सुख या दुःख होता है तो समझो कि मेरे पास वैभव नहीं है । कोई सम्यग्दृष्टि जीव जब कि उसके संकल्प-विकल्प परिणाम नहीं है तो उस समय उसके निर्विकल्प समता परिणाम का अनुभवन करने का भाव रहता है । और जब समता परिणाम नहीं हैं तब सम्यग्दृष्टि कहीं न कहीं गिरेगा अपने गृह से उठकर । किसी राग में गिरेगा । सम्यग्दृष्टि है तो क्या? उदय तो चारित्रमोहनीय का है । यदि गिर रहा हो वह सम्यग्दृष्टि तो वह अपने को ऐसा सावधान बनाता है कि मैं अधिक बुरा न गिरूँ । विषयकषाय में प्रवृत्त न होऊं ।
पुण्यानुबंधी पुण्य―सो भैया ! विषयकषाय से बचने के लिए वह व्रत, शील, दान, पूजा आदि शुभ कर्मों को करता है तो भी भोगों की आकांक्षा से याने निदान बंध से पुण्यकर्म को नहीं करता । तब उस स्थिति में जो पुण्यकर्म बनता है वह पुण्यानुबंधी पुण्यकर्म है । अज्ञानी जीव के पुण्यकर्म बनता है तो पापानुबंधी पुण्यकर्म बनता है और ज्ञानी जीव के पुण्यकर्म बनता है तो पुण्यानुबंधी पुण्य कर्म बनता है । यह पुण्यानुबंधी का बंध करने वाला अगले भव में तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलदेव आदि बनेगा । सो वहाँ भी संप्रदायरूप से आया हुआ जो पुण्यकर्म है ना, सो भेदविज्ञान की वासना से वासित अब भी है, इस कारण और भोगों की चाह करने जैसे रागादिकरूप परिणामों की नहीं देता है ।
ज्ञानी की दृष्टि में भोगसुख एक विपत्ति―सम्यग्दृष्टि जीव के पुण्यानुबंधी पुण्य का उदय होता है और उस उदय में नाना भोग साधन प्राप्त होते हैं और उन भोगसाधनों में कदाचित् लगता भी है, रागपरिणाम भी करता है, मगर भोगों की आकांक्षारूप रागपरिणाम नहीं करता है । उस समय में उसके ऐसा भाव नहीं होता कि ऐसा सुख मुझे बहुत काल तक मिले । ऐसा रागपरिणाम सम्यग्दृष्टि के नहीं होता है, किंतु अज्ञानी जीव के होता है । अज्ञानी जीव के सुख भोगते समय ऐसा आशय रहता है कि ऐसा ही खूब सुख मिले । किंतु ज्ञानी जीव सुख के प्रसंग में वियोग बुद्धि की भावना करता है । शुद्ध आत्मा की भावना से च्युत होकर यह सुख भोगा जा रहा है, यह तो एक विपदा है । इससे अपना पूरा न पड़ेगा । वह ज्ञानी जीव ऐसे सुख को नहीं चाहता है ।
ज्ञानी के भोगसुख में अनासक्ति―जैसे जिसे फाँसी का हुक्म दिया गया है उसे खूब बढ़िया भोजन भी दिया जाता है, बढ़िया मिठाई दी जाती है कि खाओ खूब मनचाहा । परंतु जिसे विदित है कि यह फांसी दिलाने से पहिले मन खुश किया जाता है, ऐसा कायदा है । खूब खा पी लो खाने की तरस न रहे । तो उसे क्या खाने में मन लगता है? क्या वह आनंद से खाता है? शायद ही कोई ऐसा विरला होगा जो फाँसी का हुक्म दिया जाने पर भी थाली में परोसी गई बढ़िया मिठाई खुश होकर खाले, हंस खेलकर वह मिठाई खा ले ऐसा कोई न होगा । उसके तो अभी प्राण संकट में हैं । उसे खाना पीना कहाँ सुहायेगा? इसी तरह, जो जानता है कि ये सुख दिए जा रहे हैं, मिल रहे हैं बढ़िया पदार्थ । इन बाह्यपदार्थों की ओर हम खिंच रहे हैं तो ये हमारे विनाश के लिए हैं । ऐसा जिसे ज्ञान है और मन में यह बात लग गई है ऐसा पुरुष उन भोगों के भोगते समय भोगों की आकांक्षारूप विपाक नहीं बंधता है । जो निदान बंध कर दे ऐसा रागपरिणाम सम्यग्दृष्टि के कभी न होगा ।
भरतजी घर में भी वैरागी―ज्ञानी का उदयागत पुण्यकर्म रागादिक परिणामों को नहीं देता है । जैसे भरतेश्वर हुए । भरत चक्रवर्ती के निष्काम भोग था । उस संबंध में एक पुरुष को शंका हुई कि भरत इतने ठाठ-बाट भोग रहे है, हजारों राजा जिनकी सेवा कर रहे हैं फिर भी बड़े-बड़े विद्वान पंडित इनको वैरागी कह रहे हैं । भरत राजा घर में भी वैरागी कैसे हैं? ऐसी शंका हुई तो मंत्री से प्रश्न किया कि महाराज यह कैसे हो सकता है कि आप कहा करते हो कि भरतेश्वर घर में भी वैरागी हैं । उन्होंने कहा बतलायेंगे । यदि तुम एक काम कर लो और जिंदा रह सके तो हम तुम्हें बतलायेंगे ।
भरतजी के वैराग्य के समझने की एक युक्ति―हाथ में यह तेल का कटोरा लो, हथेली पर रख लो, चार पहरेदार तुम्हारे संग में जाते हैं । ये तुम्हें सब कुछ दिखायेंगे, भरत का वैभव घुड़साल, रानियों के महल, और-और भी आराम की चीजें, शृंगार की चीजें, सब कुछ तुम देख आना और देखो यह जो तेल से भरा कटोरा है इसका एक बूंद भी बाहर न गिरने पाये । यदि एक बूंद भी बाहर गिर गया तो पहरेदारों को यह हुक्म है कि तुम्हें मार डालेंगे । अगर तुम जिंदा बचकर आ गए तो हम तुम्हें जवाब देंगे । हम तुम्हें बहुत बड़ी बात बतायेंगे । यों ही मुफ्त में न बता देंगे ।
जिज्ञासु का देखा भी अनदेखा―वह जिज्ञासु तेल का कटोरा लेकर सब कुछ देखकर वापिस आया तो मंत्री ने पूछा कि तुम सब चीजें देख आये? हाँं देख आए । अच्छा बतलाओ घुड़साल में कितने घोड़े थे अथवा किस-किस रंग वाले थे? बोला कि हमें यह पता नहीं है । हम तो सरसरी निगाह से देखते गए । अच्छा अमुक रानी के महल में क्या-क्या था? वह बोला कि हम तो रानियों के महल से निकल गए, सरसरी निगाह से देख लिया, पर ध्यान तो हमारा इस तेल के कटोरे में था । और भी शृंगार की वस्तुओं के संबंध में पूछा । सबका उत्तर वही रहा । फिर पूछा कि तुम सब जगह हो भी आए और कहते हो कि महाराज मेरा ध्यान कटोरे पर था कि कहीं एक बूँद भी तेल न गिर जाये । इसी कारण मैं कुछ ज्यादा न समझ सका, सामान्यतया ही देखा ।
भरतजी का वैराग्य―मंत्री बोला कि इसी तरह का ध्यान भरतेश्वर के रहता है, वे शुद्ध आत्मा की दृष्टि नहीं भूलते । यह शुद्ध आत्मा मेरे ध्यान से बाहर न हो जाये ऐसा निरंतर उनके ध्यान रहता है क्योंकि उन्हें मालूम है कि यदि यह शुद्ध आत्म-प्रभु मेरी भाव भासना से जुदा हुआ जाता है तो नरक निगोद जन्ममरण संसार के संकट ये महान क्लेश भोगने पड़ेंगे । सो भरतेश्वर की दृष्टि शुद्ध आत्मतत्त्व पर रहती है, इस कारण वे भोग विषय, लोगों के मिलन जुलन, ठाट-बाट इनके बीच रहते हुए भी वे सबसे विरक्त रहते हैं । ‘परद्रव्यनतैं भिन्न आप तें रुचि सम्यक्त्व भला है ।’ सर्व परद्रव्यों से भिन्न एक शुद्ध ज्ञानमात्र भाव, जाननमात्र भाव में ही रुचि किए हुए है इस कारण यह ऐसे रागपरिणाम को नहीं करता कि निदान बंध कर दे, भोगों की आकांक्षा बना दे ।
पुण्यानुबंधी पुण्य की तत्त्वभावना पर अनाक्रामकता―पुण्यानुबंधी कर्म के उदय से भवांतर में तीर्थंकर चक्रवर्ती, बलदेव आदि बड़े अभ्युदय प्राप्त होते हैं । पूर्वभव में भाये गए भेदविज्ञान की वासना कुछ भी रहती है तो उसके कारण वह रागपरिणाम को नहीं करता, जो रागपरिणाम भोगों की इच्छारूप हैं, विषय सुख को उत्पन्न करता है, शुद्ध आत्मा की भावना का विनाश करता है ऐसे रागादिक परिणाम को यह ज्ञानी जीव नहीं करता, किंतु समस्त ज्ञान की व्यक्तियों में अभेदरूप से अवस्थित परमार्थ साक्षात् मोक्ष का कारणभूत शुद्ध आत्मा का सम्वेदन अथवा शुद्ध आत्मसम्वेदन का संस्कार उनके बसा रहता है । इस प्रकार ज्ञानी जीव अपने शुद्ध जाननस्वरूप की दृष्टि के बल से सदा संकटों से मुक्त रहता है ।
निष्काम कर्मयोग―तन, मन, वचन से चेष्टा करते हुए यदि कोई उसके एवज में सांसारिक सुख चाहे तो इस प्रकार के कर्म बनते हैं कि अगले समय में भी उनके उदय में राग उत्पन्न होता है । और राग संसार का बंधक है, इस कारण प्रमत्त अवस्था में निष्काम कर्मयोग बहुत आवश्यक चीज होती है । अन्य सिद्धांतों के निष्काम कर्मयोग में और जैनसिद्धांत के निष्काम कर्मयोग में मात्र इतना ही अंतर है कि जैनसिद्धांत में निष्काम कर्मयोग शांति के उपाय का अंतिम उपाय नहीं है जबकि अन्यत्र निष्काम कर्मयोग को शांति का अंतिम उपाय कहा जाता है । जैनसिद्धांत में शांति का अंतिम उपाय ज्ञान है और प्रारंभिक उपाय भी ज्ञान है । निष्काम कर्मयोग के अवसर की भी जो ज्ञानानुभूति है वह तो शांति का उपाय है और जो वेदना का प्रतिकार है वह कर्मों का भोग है । कर्म करने पड़ते हैं पर कामना मत करो यह जैनसिद्धांत के निष्काम कर्मयोग की व्याख्या है । तथा कामनारहित होकर कर्म करना चाहिये, यह निष्काम कर्मयोग की लोक साधारण व्याख्या है ।
फलार्थ चेष्टा का फल विषाद―सम्यग्दृष्टि जीव फल के लिए कर्म की सेवा नहीं करता अर्थात् चेष्टाएं नहीं करता, इसलिए कर्म भी उसको फल नहीं देते याने आगामी काल में राग को उत्पन्न नहीं करते । जैसे अपने घर के पुत्रों का पोषण फल लेकर किया जाता है । सो आगामी काल में कुछ गुजरने पर पुत्र का वियोग होने पर या पुत्र के प्रति कल्पना होने पर रंज होता है, राग होता है और गरीबों का पोषण फल की इच्छा न रखकर किया जाता है तो उनमें कोई गुजर भी जाये, कोई बात हो जाये तो मन में खेद नहीं होता याने उनके प्रति राग नहीं बढ़ता । इसी प्रकार सर्व कार्यों के समझना चाहिए । फल चाहकर अपनी चेष्टाएं की जायें तो उनका फल भविष्य में राग है और आकुलता है, और फल की चाह रहित चेष्टाएं की जाती हैं, करनी पड़ती हैं तो उनमें यह बंधन नहीं होता कि आगामी काल में राग हो । जैसे पुत्र का पोषण बंध के लिए है पर गरीब जनता का पोषण बंधन के लिए नहीं है ।
निष्काम कर्मयोग व समागतविरक्ति विलक्षण तप―अब भैया ! परमार्थ से घटाओ कि कुछ भी चेष्टा करके मेरे को पुण्य बंध हो, मेरे को सुख उत्पन्न हो, ऐसा भाव किया जाये तो वह आगामी काल में राग को ही पैदा करता है । वह दृष्टांत था, अब दार्ष्टांत में लीजिए तो उसमें सब आ गया । चाहे पुत्र हो, चाहे अन्य जनता हो, फल की चाह करके कर्म किया जायेगा तो आगे राग होगा, आकुलता होगी । सम्यग्दृष्टि जीव का उदार ज्ञान देखिए कि वह कितना अपने ज्ञानस्वरूप की ओर झुका है कि उसके लिए सारे जीव, सारा वैभव बंधन के लिए नहीं है । कर्मविपाक से करना पड़ता है पर उसमें रंच आसक्ति नहीं । यह बात विरले ज्ञानी संत पुरुष के होती है, असंभव नहीं है । ऐसा ज्ञानी पुरुष बंधता नहीं है । और जिसने फल का त्याग कर दिया वह चेष्टा करता है । हम तो इसका भी विश्वास नहीं करते, ऐसा आचार्यदेव कह रहे हैं ।
अकृतवत् अकामकृत कर्म―जिसने फल की चाह छोड़ दिया उसे जो करना पड़ता है उसको किया गया नहीं कहा जा सकता । वह अकृत की तरह है । जैसे किसी नौकर को आपका काम करने का भाव नहीं है । आप सामने होते हैं तो थोड़ा-थोड़ा करता है, आप मुख मोड़ लेते हैं तो वह काम बंद कर देता है । आपके खड़े होने पर उसे विवश होकर करना पड़ रहा है । जब इच्छा ही नहीं है करने की तो आप यह कह बैठते हैं कि यह तो काम ही नहीं कर रहा है । अरे कुछ तो कर रहा है पर कुछ किया गया काम न किए गए में शामिल है क्योंकि उसकी भावना आप पर असर डालती है । जब उसकी भावना काम करने की ही नहीं है तो यह न करना कहलाता है । सम्यग्दृष्टि जीव के जब भोग अथवा अन्य कोई चेष्टाएं भोगने का भाव ही नहीं है और भोगने में आ रहा है, करना पड़ रहा है तो मैं तो उसके अस्निग्ध भावों की ओर से कह रहा हूँ कि वह करता ही नहीं है।
फलपरिहारी के कर्तृत्व की असंभावना―जिसने फल का त्याग किया वह कर्म करता है हम इसका विश्वास नहीं करते किंतु किसी भी कारण से अवश होकर कुछ कर्म करने में आ पड़ते हैं तो आ पड़ें, उस कार्य के आ पड़ने पर भी उत्कृष्ट ज्ञानस्वभाव में ठहरा हुआ ज्ञानीपुरुष कुछ किया करता है । वह क्या करता है, क्या नहीं करता है? इसको अन्य लोग क्या जानें । ज्ञानी पुरुष ही ज्ञानी की महिमा को समझ सकता है । जिसका लक्ष्य निष्काम स्वत:सिद्ध अहेतुक सनातन ज्ञानस्वभाव में ही लगा हुआ है, एतावन्मात्र मैं हूँ, और इस मुझ का वास्तविक कार्य केवल निरंतर अर्थपर्यायरूप परिणमते रहना है, सूक्ष्मपरिणमन होता है ।
विशिष्ट और अविशिष्ट परिणमन का दृष्टांतपूर्वक प्रकाशन―जैसे जब हवा बिल्कुल न चल रही हो और आपके सरसों के तेल का दीया जल रहा हो तो आपको वह लौ बिल्कुल ही चलायमान नहीं मालूम पड़ती । बिल्कुल निश्चल जैसी उठी हुई लौ जल रही है वैसी स्थिर मालूम पड़ती है, मगर कितनी ही हवा बंद हो, अग्नि की लौ का स्वभाव है कि अपने में कुछ न कुछ चलती रहे, वह आपको विदित नहीं है । हवा बिल्कुल न होने पर अग्नि की लौ अपने आपमें जो कुछ चल रही है वह अग्नि के ही कारण उसका चलना है और हवा के चलने पर जो वह हिलती है, चलती है वह हवा के कारण चलती है । हमारे गुणों में जो विकारपरिणमनरूप चलना हो रहा है वह तो कर्म की उपाधि का निमित्त पाकर हो रहा है । कर्म उपाधि बिल्कुल नहीं रहा, सिद्ध अवस्था हो रही है, फिर भी कोई गुण ऐसा वहाँ नहीं है कि वहाँ अपने गुणों में अगुरुलघुत्वकृत अर्थपरिणमन न हो रहा हो । जो वहाँ अगुरुलघु गुण में अर्थपरिणमन हो रहा है बस उसका काम इतना ही है, बाकी सब उपाधि का विकार है । मैं ज्ञानस्वरूप हूँ । इस ज्ञानस्वरूप का परिचय पा लिया है ज्ञानी ने, और किन्हीं परिस्थितियों वश ज्ञानी को प्रमत्त अवस्था में रहना पड़ रहा है, गृहस्थावस्था में रहना पड़ रहा है, उसी नाते से अनेक काम करने पड़ रहे हैं, फिर भी वह ज्ञानी क्या करता है अंतर में, इसे ज्ञानी के घर के कूड़ा ढोने वाले नौकर आकर क्या जानें? सम्यग्दृष्टि पुरुष क्या करता है अंतर में, इसको मिथ्यादृष्टि अज्ञानी क्या जानें?
ज्ञानी की बाह्य में अरुचि―ज्ञानी की महिमा को ज्ञानी ही जान सकते हैं । उसे यह जंच गया कि कुछ रखा नहीं है वैभव में, कुछ नहीं रखा लोक सम्मान में, यह सब मोहियों का झमेला है । कितने ही अधिकांश लोग तो हम से भी बुरे हैं, अर्थात् मोही हैं, अज्ञानी है, धर्म का उन्हें परिचय भी नहीं है । ज्ञानी पुरुष की भावना पर पहुंचने के लिए यह कहा जा रहा है । तो मलिन मोही पुरुषों से यदि हमने प्रतिष्ठा लूटी, सन्मान लूटा तो उस प्रतिष्ठा सन्मान से कुछ भला भी है क्या? वे मेरे कुछ हितरूप भी हैं क्या? उनमें कुछ दम भी है क्या? कुछ न चाहिए इस लोक में किसी अन्य पदार्थ से । चाह करने से मिलता भी तो कुछ नहीं है ।
अचलित स्वरूपसीमादर्शी―यह जीव अपने शुद्ध आत्मतत्त्व की भावना से चिगकर किसी भी बाह्यपदार्थ में उपयोगी होता है तो यह रीता का रीता रहता है । उसमें कुछ भरकमपना नहीं रहता है । जैसे किसी पुरुष में कोई गुण हो और अपने मुख से गुण प्रकट कर दे तो गुणों में हीनता हो जाती है । फिर अपने आपमें उन गुणों का भी प्रभाव नहीं रहता है । इस प्रकार यह उपयोग उसके स्वरूप से बाह्य पदार्थों में ले जाया जाये तो उसका फिर महत्त्व नहीं रहता है, वह रिक्त हो जाता है । मानों वहाँ कुछ भी नहीं है । वह गरीब, दीन, हीन, पर से अपने जीवन की आशा चाहने वाला हो जाता है, सो अत्यंत पराधीन हो जाता है, किंतु यह ज्ञानी सर्वत्र सर्वदा अपने में भरपूर रहता है । सर्व वैभव को निहार चुका और समझ चुका, किसी भी परवस्तु से मेरे में कुछ आता जाता नहीं है । यह अपने आपका वृत्ति में रहकर अपने आपको सृजन करता है और समस्त परपदार्थ अपने आपके प्रदेश में रहकर अपनी रचना किया करते हैं । ऐसे वस्तु के स्वरूप की सीमाओं को अचलित देखने वाला ज्ञानी पुरुष पदार्थों में क्या रमेगा?
यथार्थ ज्ञान बिना अकुलाहट―जैसे रस्सी को रस्सी जानने वाला घबड़ायेगा नहीं, किंतु रस्सी को सांप का भ्रम करने वाला घबड़ायेगा । इसी प्रकार पर को पर निज को निज जानने वाला घबड़ायेगा नहीं । दुनिया में कोई संकट ही नहीं है । जैसे ये अजीव पदार्थ पत्थर, लोहा, पीतल, तांबा, सोना पड़े हुए हैं, ये घबड़ाते नहीं है, इसी प्रकार कोई संकट ही नहीं है । लोहा को गला दिया, सोने को गला दिया तब भी कोई उसे संकट नहीं है । अभी ऐसा था और अब ऐसा पानी-पानी बन गया । लोहा, चाँदी, सोना ये घबड़ाते नहीं हैं । कुछ बन जाये बन रहा है क्योंकि उनके उपयोग नहीं है । एक अपने में उपयोग हो फिर तो बुरी बात नही है । उपयोग होकर फिर यह उपयोग अपने में न रहे और बाहर में अपनी वृत्ति करे बस घबड़ाने की बात वहाँ होती है । यह बात चेतनद्रव्य में है । नहीं तो क्या नुकसान?
उपयोग की अंतर्वृत्ति से आनंदलाभ―भैया ! सोने चांदी की जैसी परिस्थिति तो हम आपमें नहीं है । वे तो गलाए जाते हैं, उनकी जैसी बुरी हालत तो हमारी आपकी नहीं है । उस द्रव्य में और मुझ द्रव्य में इतना ही तो अंतर है कि वे उपयोगरहित हैं, मैं उपयोग वाला हूँ, तिस पर भी परिणमन का तो कुछ अंतर नहीं है । वे अपने में परिणमते हैं मैं अपने में परिणमता हूँ । सिर्फ इतना ही तो मैं कर बैठा कि अपने उपयोग की वृत्ति को बाहर लगाता हूँ । यदि अपनी उपयोगवृत्ति को मैं बाहर न लगाता तो मैं उपयोगी होकर भी उपयोगरहित जड़ पदार्थों की तरह आकुलताओं से दूर रहता और इतनी विशेषता में रहता जो कि पर में, जड़ में नहीं है । मैं आकुलताओं से परे भी रहता और अनंत आनंद से, आह्लाद से भरपूर भी होता । इतनी विशेषता हममें है । गलाने वाले लोहा, सोना से मैं और विशेष होता क्योंकि मैं चेतन हूँ ।
इंद्रियों से बाहर झांकना ही संकट―भैया ! संकट क्या है मुझ पर? संकट केवल इतना है कि मैंने इन खिड़कियों से झांकना शुरू कर दिया इंद्रिय और मन से । अपने घर में और अपने घर के भीतरी हिस्से की ओर ही मुँह किए बैठा रहता तो घबड़ाहट न थी, पर इसके कुछ पीड़ा उत्पन्न हुई और उस वेदना को न सह सकने के कारण खिड़कियों से यह झांकने लगा तो इसके विपत्तियां आ गईं ।
बाहर झांकने में संकट का एक उदाहरणपूर्वक प्रकाशन―भैया ! जब मार्सल्ला का कानून लग जाता है कि कोई दिखे तो गोली मार दो । यहाँ घर में बैठे हुए अपने घर में रोटी बनाओ, खाओ, पियो, कुछ करो, मौज से रहो, अगर खिड़की से बाहर झांका तो गोली लग जायेगी क्योंकि मार्सल्ला चल रहा है । आपके घर में ही 6 महीने खाने को गेहूं, घी, दाल सब कुछ रखे है, बनाओ और खाओ आनंद से भीतर ही, बाहर को मत झांकों । बाहर न झांकों तो तुम्हारा कुछ नुक्सान है क्या? पर इतना आराम में रहकर भी एक ऐसी इच्छा पैदा हो जाना कि देखूँ तो सड़क पर क्या हो रहा है? बिना काम की इच्छा पैदा कर लिया । इच्छा पैदा करते ही खिड़की से झांकने लगे, गोली आकर लगी, सारा काम खत्म हो गया । तुम्हारे घर में सारा मौज तो है, आनंद भरा है, ज्ञान भरा है, शांति भरपूर है, कुछ कमी नहीं है, अनंतकाल तक आनंद भोग लो, सब कुछ साम्राज्य है, मगर ओछा दिल है, हीन योग्यता है ना इसके, सो इस मौज में रहा नहीं जाता, अपने घर में आनंद नहीं किया जा रहा है, इच्छा पैदा हो जाती है । देखें तो क्या है, कैसे हैं लड़के, कैसा है धन, कैसी है मेरी इज्जत लोगों में, कैसी है पूछताछ । सो इस खिड़की से झाँकने लगा । तो भाई संसार में तो मार्सल्ला चल रहा है, कोई म्याद नहीं है । तुम्हारे शहर में तो तीन दिन तक मार्सल्ला कानून है । यदि कहीं दिखे तो गोली से मार दिए जाओगे । पर इस संसार में तो अनंतकाल से मार्सल्ला चल रहा है । खिड़की से यदि बाहर झांका तो प्राण खो बैठोगे । यदि इष्टबुद्धि की जा रही है तो अपने इस चैतन्यप्राण का घात किया जा रहा है, उसे शुद्ध ज्ञान और शुद्ध आनंद से वंचित किया जा रहा है ।
इच्छा का दुष्परिणाम―यह सब एक चाह करने भर का ही सारा परिणाम है । उसने चाह की कि देखें तो सड़क पर क्या हो रहा है? इतनी चाह ही ऐसी गुनाह हो गई कि प्राण खो बैठना पड़ा । इसी प्रकार इंद्रियों के विषय की, मन के विषय की एक चाह पैदा हुई, जिस चाह के कर लेने पर तन, मन, वचन की चेष्टाएँ हुई । चाह हुई कि बस यह मारा गया । अनंतानुबंधी कषाय में हिंसा हो रही है । इसी कारण यह ज्ञानी जीव कुछ नहीं चाहता, अपने घर में बैठा रहता है । वैरागी पुरुष उस मार्सल्ला में बाहर झांकना नहीं चाहता । यह ज्ञानी पुरुष इस परिवर्तनशील असार संसार में इच्छा नहीं करना चाहता ।
जिसने फल की चाह छोड़ दिया वह कर्म करता है हम इसका विश्वास नहीं करते हैं । किंतु फिर भी इस पुरुष के किसी भी कारण से विवश होकर कोई कर्म करने को आ पड़ते हैं तो आ पड़ें । वह तो निष्काम परम ज्ञानस्वभाव में स्थित है । अपने ज्ञानस्वरूप का अनुभव किया करता है । ऐसा ज्ञानी पुरुष क्या करता है? जहाँ मन है, जहाँ उपयोग है उसे करता है और जो क्रिया हो रही है, चेष्टा हो रही है वह कुछ भी नहीं करता है । जहाँ चाह है वहाँ कर्तृत्व माना जाता है और जहाँ चाह नहीं है वहाँ कर्तृत्व नहीं माना जाता है ।
करने और होने का परिणाम―चाह करने का नाम ही कर्तृत्व है । और बिना चाहे परिणम जाने का नाम होना कहलाता है । हो गया ऐसा, पर हमने किया नहीं । कभी बिना चाहे आपकी गलती हम से बन जाये तो हम यही कहा करते हैं कि उस समय ऐसा हो गया, हमने किया नहीं क्योंकि करना ही न चाहता था । कुछ साधन ही ऐसे होते हैं कि हो जाते हैं बडे गड़बड़ काम । पर किए नहीं जाते रंच भी अपराध के काम । यह सब सम्यग्ज्ञान की ही महिमा है । मोक्ष का उपाय, आनंद का उपाय ये सब दृष्टि में भरे हुए हैं ।
दृष्टि की निर्मलता का उद्यम―भैया ! दृष्टि निर्मल हो तो आनंद कहीं नहीं गया, दृष्टि मलिन हो तो वहाँ आनंद ढूंढ़ने से भी नहीं मिलता । इस कारण हमारी दृष्टि उदार हो । लोगों के बीच रहकर भी उनमें ऐसा द्वैत न आए कि मेरे सर्वस्व ये ही हैं, गैर जीव मेरे से अत्यंत गैर हैं, ऐसे श्रद्धान में अद्वैत भाव नहीं आ सकता । करना पड़ रहा है, किया जा रहा है और गृहस्थधर्म में ऐसा करना चाहिए । पर गृहस्थधर्म ही तो मेरे लिए धर्म नहीं है, परमार्थ धर्म तो आत्मपदार्थ है । गृहस्थ धर्म के निए 23 घंटा समय लगा दीजिए पर एक घंटा तो आत्मधर्म के लिए समय लगाइए । मैं आत्मा हूँ, गृहस्थ नहीं हूँ, गृहस्थ एक दशा है, अवस्था है, परिणति है, मैं गृहस्थ नहीं हूँ, मैं तो आत्मा हूँ । मैं जो हूँ उसका धर्म मेरे लिए किया जाना चाहिए ।
धर्म और धर्मपालन―मैं आत्मा हूँ, ज्ञानमय हूँ । हमारा ज्ञान धर्म है और जितनी ज्ञान की वृत्ति है, उतना धर्म का पालन है । मेरा धर्म है ज्ञान और सही-सही जानना यह है धर्म का पालन । ऐसी ज्ञाता दृष्टा की वृत्ति से रहना मेरा कर्तव्य है । अन्य कुछ जो करने में आता है यह सब कर्मों का खेल है, मेरा कार्य नहीं है । ऐसा निर्णय रखने वाले ज्ञानी पुरुष के किन्हीं भी बाह्य चेष्टाओं की रुचि नहीं रहती है और न उन चेष्टाओं के एवज में कुछ फल चाहता है । उसकी दृष्टि केवल ज्ञानस्वभाव के मर्म के अनुभवन की रहती है ।
सम्यग्दृष्टि के भय का अनंगीकार―अंतरात्मा अपने अमर ज्ञानस्वरूप की दृष्टि को बड़ा संकट आने पर भी नहीं छोड़ता है । ऐसा साहस सम्यग्दृष्टि पुरुष ही कर सकता है । जिसको निज सहज ज्ञानस्वरूप का अनुभवात्मक परिचय नहीं होता है वह छोटे-छोटे रागद्वेष के प्रसंग में भी अपनी आत्मदृष्टि को छोड़ देता है और क्षोभ में आता रहता है । सम्यग्दृष्टि में ही ऐसा साहस हो सकता है कि जिसके भय से तीन लोक के प्राणी अपने चलते रास्ते को छोड़कर अगल-बगल मुरक जायें तो भी सम्यग्दृष्टि पुरुष स्वभाव से निर्भय है । अत: सर्वप्रकार के संशयों के अंतर से दूर रहता है । भय दो प्रकार से होते हैं ― एक तो मूल में भय, विपरीत श्रद्धा होने के कारण एक बिगड़ी श्रद्धा का भय और एक ऊपरी भय । ज्ञानी पुरुष के कदाचित् ऊपरी भय हो जाने पर वह अंतर में भय को अंगीकार नहीं करता है । अंतर में तो अपने निष्कंप ज्ञानस्वभाव को ही अंगीकार करता है ।
ज्ञानी के अशन का अनंगीकार―जैसे सम्यग्दृष्टि ज्ञानी पुरुष भी कदाचित् आहार लेता है पर आहार करते हुए आहार को अंतर से अंगीकार नहीं करता । प्रतीति उसकी यही रहती है कि मैं अनशन स्वभावी हूँ । आत्मा अमूर्त है, इसका अशन करने का स्वभाव नहीं है । श्रद्धा में अनशन स्वभाव की प्रतीति है और आहार करता रहता है । तो उसका वह भोजन करना ऊपरी ढंग से कहा जायेगा । यदि उस भोजन को अपनाए, जैसे कि अज्ञानीजन अपने अनशन स्वभाव को नहीं पहिचानते और भोजन से ही जीवन का बड़प्पन, हित, सुख मानते हैं, भोजन करने में ही अपनी कला समझते हैं । बड़े शौक से खाते हैं, खिचड़ी खाया तो चम्मच से, खीर खाई तो चम्मच से, कुछ चीजें कांटे से चुभोकर खाईं, और ऐसी कला को करते हुए वे अपने को कलावान अनुभव करते हैं । और मैं बहुत विवेक से अपने पुण्य का काम कर रहा हूँ भोग रहा हूँ इसी से ही महान् हूँ, और लोगों से मुझ में विशेषता ही क्या है? अच्छा खाता हूँ, अच्छा पहिनता हूँ, और लोगों से लाख दर्जे अच्छा हूँ । बढ़िया-बढ़िया सारे साधन जुटे हैं । ऐसी अंतर में इन बाह्य प्रसंगों के स्वभाव रूप प्रतीति है अज्ञानी जीव के ।
ज्ञानी और अज्ञानी की वृत्ति में अंतर―ज्ञानी जीव के कदाचित् भोजन करते हुए में कोई विशेष अंतर का अनुभव यदि आ जाये कि स्वभाव तो मेरा अनशन का और अनंत आनंद भोगने का है और यहाँ कैसे विकार में पड़ गया, जिसे ऐसा अंतर में बोध हो, कहो खाते हुए में भी उसके खेद के एक दो बूँद झलक जायें । जबकि अज्ञानी जीव खाकर मौज मानकर हंसता है, खुश होता है और इससे ही मेरा बड़प्पन है ऐसी प्रतीति करता है । खाते हुए में बोलता भी जाता है । पान चबाते हुए में एक ओर पान रखे हैं और एक ओर से बातें करता जाता है और उसमें ही बड़प्पन मानता है । कितनी ही प्रवृत्तियों को अज्ञानी अंगीकार करता रहता है ।
ज्ञानी के अंतर्निर्भयता का परिणाम―तो जैसे प्रवृत्ति में तो आहार हो रहा है और प्रतीति में अनाहार संस्कार है, इस प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव के कदाचित् भय भी हो जाये भयानक आवाज होने से दहल भी जाये तो भी वह भय ऊपर का है, अंतर में निर्भयता का स्वभाव है । जैसे कोई पुरुष एकाएक यह मानने को तैयार न होगा कि अमुक भोजन भी कर रहा है और उस भोजन से अलग हो रहा है । इन दोनों बातों को कोई पुरुष एकाएक नहीं मान सकता है । इसी प्रकार ज्ञानी पुरुष ऊपरी भय भी करता है और भीतर में निर्भय भी रहता है तो दोनों बातों को कोई एकाएक नहीं मान सकता है । किंतु विचार करने पर अपने किसी-किसी प्रसंग का उदाहरण रखने पर यह बात जंच जायेगी कि ऊपरी भय होता हुआ अंतर में निर्भय रहे और ज्ञानस्वभाव को न छोड़ सके, ऐसा उसके साहस रहता है ।
ज्ञानी का अद्भुत साहस―जैसे कोई पुरुष चार भाषाओं को जानता है―हिंदी, अंग्रेजी, संस्कृत, प्राकृत तथा और-और भाषाओं को जानता है । उसके सामने अंग्रेजी का लिखा हुआ पत्र आए और उसे वह बांचने लगे तो उसके उपयोग में केवल अंग्रेजी-अंग्रेजी भरी है पर अंतर में उन तीन भाषाओं का ज्ञान और संस्कार भी बदस्तूर है पर प्रवृत्ति में केवल एक भाषा है, संस्कार में वही सारी प्रतिभा है । इस प्रकार प्रवृत्ति में कोई एक ऐब भी आ जाये, दोष भी हो जाये तो वह दोष केवल वृत्ति में है, ऊपरी है । अंतर में तो वह सहजज्ञानमय स्वरूप की श्रद्धा ही बसी हुई है । ऐसे ही अंतरंग अनुभव के कारण ज्ञानी पुरुष में ऐसा अलौकिक साहस होता है कि वज्र भी ऐसा गिर जाये कि जिसके भय से तीनों लोक के प्राणी कंपायमान होकर अपना-अपना मार्ग छोड़ दें तो भी वह स्वभावत: निर्भय होने के कारण सर्व प्रकार भी शंकाओं को छोड़कर अपने आपको अवध्य ज्ञान वाला जानकर ज्ञानस्वरूप की दृष्टि से च्युत नहीं होता ।
ज्ञानी का व्यवहारप्रसंग में ज्ञान―भैया ! क्या हो गया? अमुक गुजर गया । जान लिया कि गुजर गया । उसके गुजरने से यह विश्वास नहीं करता कि लो मैं अशरण हो गया या बिगड़ गया, या मर गया, या बेकार हो गया । वह गुजर गया, उसकी इतनी ही आयु थी, चला गया । वह तो अमर है । पर्याय बदलकर चली गई, आते जाते हुए लोग किसी जगह एकत्रित हो गए हैं, अपने समय तक एकत्रित हैं, पश्चात् अपनी-अपनी करतूत के अनुसार चले जायेंगे । न उनका कुछ बिगड़ा, न मेरा कुछ बिगड़ा । जब कि अज्ञानी जीव के ऐसी वासना रहती है कि उसका इष्ट गुजरने पर उसे जगत में अंधेरा ही अंधेरा दिखता है । उसके लिए इस जगत में अँधेरा-सा छा जाता है, वह कर्तव्यविमूढ़ हो जाता है । अब क्या करता है, अब तो सब बरबाद हो गया है, अपने को दीन हीन अनुभव करता है ।
अज्ञानी के क्षोभपरक अनुभव―देखो भैया ! यहाँ आत्मप्रभु के हित नहीं है । यह प्रभुस्वरूप है लेकिन अपनी प्रभुता को छोड़ दिया है और बाह्य में अहंकारी हो गया है । अभी रास्ते में एक युवक जा रहा था, खूब बढ़िया जाड़े के कपड़े पहिने और ऊपर मुंह किए हुए एक अभिमान की मुद्रा से जा रहा था । जाने वाले लोगों को तुच्छ गिने, ऐसी दृष्टि करता हुआ जा रहा था तो मेरे मन में दो शब्द उठे कि देखो यह भगवान अपना स्वरूप नहीं जानता है, पर्याय में कैसा अहंकार करके दुःखी होता जा रहा है? लोग मानते हैं कि ठाठ का सुख है पर क्षोभ किए बिना यह जीव ठाठ भी नहीं कर पाता । कौन मनुष्य शांति से वैभव को भोगता है? उथल-पुथल मचाकर भोगता है । जो शांति का परिणाम पूजा में अथवा ध्यान में या चर्चा में रखा जा सकता है, क्या भोजन करते हुए में आप किसी के शांति का परिणाम होता है? नहीं । सुख तो मानते हैं पर शांति नहीं मिलती ।
ज्ञानी के अंतर में निश्क्षुब्धता―यहाँ आत्मदृष्टि में शांति भी है, सुख भी है। खाते हुए में कुछ भी कल्पना न करे, निर्विकल्प होता रहे और कौर दमादम मुंह में आते जाये, पेट में घुसते जायें ऐसा किसी के होता है क्या? नहीं । कल्पना उठती है, चाह बनती है, मौज मानता है और अगले ग्रास की कल्पना करता है । अब क्या खाना चाहिए? कितनी जल्दी ये कल्पनाएं हो जाती है कि एक सेकेंड में बीसों कल्पनाएं हो जाती हैं । कैसा है यह मन और कैसा है यह विकार? शांति परिणाम को रखकर कोई भोग भोगा जाता है क्या? खेद, अशांति, संक्लेश, क्षोभ के साथ ही भोग भोगे जाते हैं । पर सम्यग्दृष्टि के यह क्षोभ भी मच रहा है भोग भोग जाने को, फिर भी अंतर में वह निश्क्षुब्ध है ।
अंत से अविदित पुरुष का क्षोभ―जैसे कोई नाटक देखा जा रहा हो और जिसे उस नाटक का परिणाम न मालूम हो, जैसे कोई ऐसा नाटक निरपराध, सुशील, मनोज्ञ कोई पुरुष या स्त्री जो कि बीच में बड़े संकट में आया हो और बाद में बड़ा साम्राज्य और प्रतिष्ठा पाई हो ऐसा कोई नाटक देखा जाये, जिसके बारे में कथा न मालूम हो ऐसा नया आदमी उस नाटक को देखे तो जब उस पुरुष पर संकट आ रहें, उपद्रव आ रहें तो वह रोने लगेगा । और कोई ऐसा हो कि जिसे सब मालूम हो कि अंत में बड़ा सम्मान होगा, प्रतिष्ठा होगी, जय-जयकार होगी ऐसा पुरुष भी उस उपद्रव की घटना को देख रहा है, पर उसके दु:ख का रंग नहीं व्याप रहा है, क्योंकि उसे पता है कि इसके बाद तो यह बड़ा आनंद पायेगा, बड़ा सम्मान पायेगा । तो उपद्रव वाली घटना देखे जाने पर उसे विह्वलता नहीं होती है ।
अंत से परिचित ज्ञानी का धैर्य―यह सम्यग्दृष्टि इस नाटक का ऐसा ही दर्शक है जिसे आगे पीछे का सब हाल मालूम है । उसे विदित है कि यह मैं न कभी बिगड़ा, न बिगडूंगा । यह मैं पहिले भी उत्तम था, अब भी उत्तम हूँ, आगे भी उत्तम ही रहूंगा । वह अपरिणामी स्वभावी है । मेरी ही सत्ता के कारण मेरा ही अपने आपमें जो कुछ भाव रहता है वह भाव ध्रुव है, निर्मल है, विविक्त है, एक स्वरूप है । ऐसा उसे पूर्ण मालूम है सो कदाचित् विकार की, विपत्ति की, संकट की कोई घटना आ जाये तो इसे चूंकि अपने आगे-पीछे का सारा हाल मालूम है, इस कारण सम्यग्दृष्टि जीव अंतर में क्षोभ नहीं मचाता है । दुनिया इस शरीर को जानती है । मैं जो एक ध्रुव ज्ञानस्वरूप सर्व जीवों के समान प्रभुवत् जो आत्मतत्त्व हूँ उसे दूसरा जीव नहीं जानता । और जो जानते हैं वे स्वयं अपने आपमें घुल-मिल जाते हैं । उनकी ओर से तो मुझ पर कोई संकट ही नहीं आ सकते । जिनकी ओर से मुझ पर संकट आ रहे हों, जिनकी वजह से मुझे आपत्तियाँ भोगनी पड़ रही हों वे सब व्यवहार जीव हैं, मूढ़ बनकर उन चीजों को अंगीकार करता हूँ और दु:खी होता हूँ ।
उपासनीय परमार्थ एवं अचूक औषधि―परमार्थत: जो मैं हूँ उसको कोई दु:खी कर सकने वाला नहीं है । मैं अमर हूँ । वस्तु का स्वभाव कभी मिटता नहीं है । वस्तु का स्वभाव मिट जाये तो वस्तुस्वरूप मिट जाये । ऐसा अमर अमिट ज्ञानस्वभावमात्र मैं हूँ । ऐसा संस्कार इस सम्यग्दृष्टि जीव के अति दृढ़ रहता है । यह बात यदि हो सके तो करने योग्य मात्र एक यही काम है । यदि यह कर लिया तो समझो सब कर लिया । और यदि यह बात न हो सकी तो यही हाल है कि हम भोगों को नहीं भोगा करते हैं, भोग हमें भोग डालते हैं । मकान वही रहता है, लोक परंपरा वही रहती है । कोई चीज हम भोग नहीं पाते हैं । सर्व पदार्थ अपने आपके स्वरूप में अपना परिणमन करते रहते हैं । उनको मैं क्या भोगता हूँ? उन भोगों का निमित्त पाकर उनका आश्रय बनाकर मैं भुग जाया करता हूँ, बरबाद हो जाया करता हूँ । यदि ज्ञानदृष्टि और आत्मा के सहजस्वरूप का परिचय न कर पाया तो यही हाल रहेगा । कुछ भी घटना ज्ञानी के सामने आये, उसे वहाँ भी अपने अपरिणामी ज्ञानस्वभाव की स्मृति बनी रहती है, उसके संस्कार रहता है । जिसके पास अचूक औषधि हो वह ऊपर रोग की अधिक परवाह नहीं करता । अगर बाहरी रोग हो गया तो झट औषधि निकाली और रोग समाप्त किया । इस सम्यग्दृष्टि के पास एक अचूक औषधि है वह है सुरक्षित अमर निज स्वभाव की दृष्टि ।
जीव की बरबादी के प्रकार―विनाश दो तीन प्रकार के होते हैं । एक तो यह विनाश कि कुछ अटक तो है नहीं, कुछ आत्मा में संकट तो गुजर नहीं रहा, या आवश्यकता तो है नहीं और कल्पना में मान, अपमान, प्रशंसा, निंदा, यश अपयश का विकल्प करते हैं और अपने चैतन्यस्वभाव का घात कर रहे हैं । एक तो इस तरह से जगत के जीवों का विनाश हो रहा है, दूसरे कोई संकट विपत्ति आ जाये, गुजर बसर कम हो जाये, घर के लोग लड़ने-झगड़ने अधिक लगें, उस समय में जो अपने स्वरूप का विस्मरण होता है यह है दूसरे प्रकार का विनाश । पहिले प्रकार का जो विनाश है वह तो अत्यंत मूर्खतापूर्ण है । यह दूसरे प्रकार का जो विनाश है मूर्खता तो यहाँ भी है मगर यह मौज में मूर्खता नहीं हो रही है । पहिला विनाश तो मौज से, शौक से अपना विनाश कर रहा है । दूसरे विनाश में कुछ संकट आ पड़ रहे हैं, लाचारी-सी हो रही है । और यश फैलने का जो विनाश है वह स्वच्छंद होकर, उद्यमी होकर कर रहा है । तीसरा विनाश यह है कि क्षुधा, प्यास, ठंड गर्मी की वेदना, शरीर में रोग हो गया है उसकी वेदना का है । इन वेदनाओं से अपने स्वरूप को भूलकर और इन पीड़ाओं से अपना अहित मानकर इस चित्स्वभावी प्रभु का घात कर रहे हैं । इस तीसरे विनाश से यह अधिक लाचारी में पड़ गया । पर विनाश यहाँ भी हो रहा है । शौक से अपना घात करें, लाचारी से अपना घात करे और अधिक लाचारी से अपना घात करे, इन तीन प्रकार के विनाशों में ये जगत के जीव पड़े रहते हैं ।
संसारी जीवों की बरबादी के प्रकार―एकेंद्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेंद्रिय तक के जीव एक प्रकार से विनाश कर रहे हैं, अधिक लाचारी से, शरीर की लाचारी से । शौक से बरबादी का उनके प्रसंग नहीं है । कीड़े मकोड़े, पेड़ पौधे ये दु:खी होते हैं, अपने स्वरूप का घात कर रहे हैं । इन्हें पानी न मिले, खाना न मिले और कोई जूतों से दबोच दे, कुल्हाड़ी से काट दे, दुःखी हो गए । संज्ञी पंचेंद्रिय जीव आपसी विवाद से गाली गुप्तार से इन प्रसंगों से भी अपना विनाश कर लेते हैं । और समझदार संज्ञी पंचेंद्रिय अधिक चतुर पुरुष शौक से बरबादी भी अपनी कर डालते हैं । जो लोक में अधिक चतुर समझे जाते हैं वे प्राय: तीनों पद्धतियों से अपना नाश करते हैं । पर यह घात ऐसी बेहोशी की घात है कि अपने में अनुभव नहीं कर पाता कि मैं अपना कितना विनाश किए जा रहा हूं?
कष्टहरण कुंजी―जैसे सवाल हल करने की कुंजी याद हो तो कितने ही सवाल बोलते जाओ झट वह हल करता जाता है, अट्टसट्ट कुर्याई लेखे से कठिन प्रश्न भी आ जायेगा तो भी बना लेंगे, जोड़ लेंगे―हो जायेगा जवाब और जिसे कुंजी याद न हो वह, तो वह इस चिंता में पड़ा रहता है कि जवाब हल हो सके या न हो सके । सम्यग्दृष्टि जीव को सर्व समस्याओं के हल करने की कुंजी हस्तगत होती है तो कोई भी समस्या आ जाये, कोई भी संकट आ जाये वह अपने स्वरूप को सम्हालता है । वे संकट चाहे कितने ही प्रकार के हों, पर कुंजी एक हैं उसे ही वह सम्हालता है और विविध संकट समाप्त हो जाते हैं ।
अपने को क्या करना योग्य―एक राज्य में राजा गुजर गया तो मंत्रियों ने सलाह की कि अब किसे राजा बनाया जाये? तो यह निर्णय हुआ कि सुबह 5 बजे जब यह फाटक खोला जायेगा और जो फाटक पर बैठा हुआ मिलेगा वह राजा बनाया जायेगा । ठीक है तय हो गया । जब सबेरा हुआ और फाटक खोला गया तो एक फकीर भिखारी जो कि रातभर फाटक के किनारे सोया था, सो मिला । सब मंत्री पकड़कर उसे ले गए । बोला हम सबमें तय हो गया है तुम्हें राजा बनना पड़ेगा । साधु ने कहा भैया हम राजा नहीं बनेंगे । कहा कि नहीं, तुम्हें राजा बनना ही पड़ेगा । लो ये कपड़े उतारो और पायजामा, कोट पहनो, पगड़ी बाँधो और मुकुट बाँधो । साधु ने कहा कि अच्छा सुनो भाई हम राजा तो बन जायेंगे पर एक शर्त पर बनेंगे । क्या कि हम से कभी कोई राजकाज की बात नहीं करना है । तुम सब मंत्री मिलकर सलाह कर लेना । कहा मंजूर है । तो एक पेटी में अपनी लंगोट और झोली रख दो और राजसी वस्त्र पहिन लिए । 2 साल तो अच्छी तरह बीत गए, तीसरे वर्ष एक दुश्मन ने उस पर चढ़ाई कर दी । मंत्री सब घबड़ा गए । सब मंत्री राजा से सलाह लेने आए कि राजन् ! क्या करें? तो राजा ने कहा कि अच्छा पेटी उठाओ । पेटी आ गई । पेटी से लंगोट निकाल, सब कपड़े उतार दिए । लंगोट पहिन लिया और हाथ में झोली लिया और कहा कि अपने राम को तो यह करना चाहिए और मंत्रियों को क्या करना चाहिए सो तुम जानो ।
स्वरूप में अचलित रहने का अपूर्व साहस―तो कैसा ही संकट आ जाये, ज्ञानी पुरुष अपने अंतर में जानता है कि अपने को तो यह कर लेना चाहिए, सबसे न्यारा, चैतन्यमात्र अपने आपका अनुभव कर लेना चाहिए और उन पदार्थों को वे जानें । वे पदार्थ तो अविनाशी हैं, केवल पर्यायोंरूप से परिणमते हैं । इस कारण मैं कोई निर्दयता की बात नहीं सोच रहा हूँ । वे भी मेरी तरह ही सुरक्षित हैं । केवल भ्रम से ही हम दु:खी हैं और भ्रम से ही दूसरे जीव दुःखी हैं । बिगाड़ किसी का नहीं होता । सब अपनी-अपनी पर्याय से परिणमते हैं । सो अपने राम को तो स्वभावाश्रय करना चाहिए और बाकी सब रामों का जो होना होगा सो उनका होगा, पर वे भी अमर हैं । ऐसा वस्तुस्वरूप का निर्णय होने से सम्यग्दृष्टि पुरुष निरंतर साहसी रहा करता है ।
।। इति समयसार प्रवचन अष्टम भाग समाप्त ।।