वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 23-24
From जैनकोष
अण्णाणमोहिदमदि मज्झमिणं भणदि पुग्गलं दव्वं ।
बद्धमबद्धं च तहा जीवो बहुभावसंजुत्ते ।। 23 ।। सव्वण्हुणाणदिट्टो जीवो उवओगलक्खणोणिच्चं । किह सो पुग्गलदव्वीभूदो ज भणसि मज्झमिणं ।। 24 ।। जदि सो पुग्गलदव्वीभूदो जीवत्तमागदं इदरं । तो सत्तो वत्तुं जे मज्झमिणं पुग्गलं दव्वं ।। 25 ।।
762-अज्ञानमोहितभाव—जिसकी अज्ञान से बुद्धि मोहित हो गई है, ऐसा प्राणी अर्थात् बहिरात्मा अनेक विकल्पों से संयुक्त होता हुआ बद्ध और अबद्ध यह पुद्गल द्रव्य मेरा है ऐसा कहता है । किंतु, सर्वज्ञ भगवान के ज्ञान में देखा गया है कि जीव नित्य उपयोग लक्षण वाला है वह पुद्गल द्रव्य कैसे हो जावेंगे, जिससे फिर हे बहिरात्मावों ! यह पुद्गल मेरा है, ऐसा कैसे कहते हो । यदि जीव पुद्गल द्रव्यरूप हो जाय और पुद्गल जीवपने को प्राप्त हो जाय तो ऐसा कहा जा सकता है कि यह पुद्गल द्रव्य मेरा है । जो जीव अज्ञानी है अज्ञान से जिसकी बुद्धि मोहित हो गई है, बद्धाबद्ध पुद्गलों को इष्ट मानता है कि ये मेरे है वह अज्ञानी है । आत्मा के चलने पर जो साथ-साथ चले वे बद्ध पुद्गल हैं जैसे शरीर । जो आत्मा के चलने पर साथ न चले वे अबद्ध पुद्गल है, जैसे स्त्री-पुत्र-धन मित्रादि सभी अबद्ध पुद्गल हैं । शरीर और कर्म जो कि बद्ध पुद्गल हैं वे भी मेरे नहीं हैं; क्योंकि उनकी सत्ता मेरे से न्यारी है । अबद्ध पुद्गल तो मेरे हो नहीं सकते । 763-सब अन्य द्रव्यों का मुझ में अत्यंताभाव—अभाव चार प्रकार का है—प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, अन्योन्याभाव और अत्यंताभाव । कोई अभाव नाम का स्वतंत्र प्रमाण नहीं है । वस्तु की कोई सत्ता ‘अभाव’ नहीं है । जैसे हमने कहा कि कमरे में चौकी पर समयसार रक्खा है । वहाँ देखा तो समयसार नहीं है । हमने खूब देख लिया कि वहाँ समयसार नहीं है । लेकिन समयसार का ‘‘अभाव’’ कैसे देख लिया? यदि अभाव देख लिया जा करके, अभाव को उठा तो लाओ । तुम वहाँ जा करके देखो, वहाँ भी समयसार का अभाव नहीं दिखेगा । समयसार के अभावरूप चौकी मात्र दिखाई देगी ‘अभाव’ नहीं दिखाई देगा । प्रत्येकपदार्थ का अभाव किसी के सद्भाव रूप पड़ता है । यह बात चारों अभावों में घटती है । किसी चीज का पहले न होना प्रागभाव है । जैसे मिट्टी से घड़ा बना तो घड़े का कुछ समय पूर्व प्रागभाव था । घड़े की खपरियां बन गई तो घड़े की खपरिया प्रध्वंसाभाव कहलाया । घड़े का फूट जाना घड़े का प्रध्वंसाभाव हैं । हम यदि घड़े का फूट जाना मांगे तो घड़े की खपरिया तो उठाकर लाओगे । खपरियां ही घड़े का अभाव है । खपरियों को दिखाकर ही बताओगे कि देखो, घड़ा फूट गया । घड़े का अभाव खपरियों के सद्भावरूप पड़ा । खपरियों का प्रागभाव घड़ा है । और घड़े का प्रध्वंसाभाव खपरिया है । जैसे मनुष्य है, वह मरकर देव बनेगा । मनुष्य का प्रध्वंसाभाव देव हुआ । देव का प्रागभाव मनुष्य है । अभाव किसी चीज की सत्तारूप नहीं है । किसी अन्य की सत्ता रूप ही अभाव है । अन्योन्याभाव माने एक पदार्थ का दूसरे पदार्थ में न होना । जैसे घड़ा और कपड़ा । घडा कपड़ा नहीं हो सकता, कपड़ा घड़ा नहीं हो सकता । अन्योन्याभाव में यह संभव है कि जिसका अभाव कह रहे हैं, वह दूसरी चीज कालांतर में बन सकती है । लेकिन वर्तमान में उसका बिल्कुल अभाव है । सुवर्ण ऐसी धातु है कि वह बहुत देर तक ठहरता है, लेकिन अरबों वर्षों बाद तो वह भी मिट्टी बन जाता है । अपनी थोड़ीसी जिंदगी है, अत: कहते हैं कि सुवर्ण नष्ट नहीं होता । एक चीज का दूसरे में अभाव अन्योन्याभाव कहलाता है । चौकी पर जैसे पुस्तक रक्खी थी, पुस्तक उठा ली तो चौकी ही पुस्तक के अभावरूप है । पुद्गल की पर्यायें दूसरे पुद्गल में नहीं हैं । जैसे दूध दही नहीं है, दही दूध नहीं है, दोनों अलग-अलग हैं । लेकिन दूध का दही बन जाता है तो यहाँ पर अन्योन्याभाव हुआ । जो कालांतर में भी एक न हो सके उसे अत्यंताभाव कहते हैं जैसे जीव द्रव्य व अन्य द्रव्य । एकद्रव्य दूसरे द्रव्य में एक नहीं हो सकता । यदि ये सामने दिखाई देने वाले परमाणु मिलकर एक बन जाए तो इनका हिस्सा नहीं होना चाहिये । परमाणु-परमाणु सब जुदे हैं, इनमें अत्यंताभाव है । किसी भी द्रव्य में कोई दूसरा द्रव्य नहीं है । बद्धाबद्ध दोनों प्रकार के पुद्गलों का जीव में अत्यंताभाव हैं । जिसे सम्यक्ज्ञान नहीं है और गृहस्थी में है या कहीं है वह पागल है । बहुत भाव करके यह जीव बद्ध अबद्ध पुद्गलों को अपना मानता है । किसी-किसी को यह प्रतीति होती है कि ये पुद्गल मेरे हैं । सकट आने पर या लड़ाई झगड़ा होने पर उसी को कह देते हैं कि यह मेरा नहीं है । सब स्वार्थ के साथी हैं, कोई मेरा नहीं यह रोना भी पाप है । यह मेरा है यह मेरा मित्र है—यह कहना भी पापकर्म का हेतु है । घातिया कर्म सब पाप है । अघातिया कर्म पुण्य और पाप दो प्रकार के हैं । सम्यक्त्वप्रकृति सम्यक्त्व का घात नहीं करती है, लेकिन वह भी पाप-प्रकृति है । दर्शनमोहनीय तो चारित्रमोहनीय से भी बुरा है । सम्यक्त्वप्रकृति ही सबसे अच्छी जंचती है, लेकिन वह भी पापरूप ही है । हंसना भी पाप का कारण है । साता और हंसना ये दोनों मिले हैं । साताभाव पुण्य का काम है और हंसना पाप का कारण है। 764-अन्य पदार्थों में मोह बुद्धि की प्रतिषेधता—यह जीव पापप्रकृति के कारण बद्ध-अबद्ध पुद्गलों को अपना मानता है, समझाने पर भी यह जीव ज्ञान मार्ग पर नहीं आता है । समझने पर भी यह ज्यों का त्यों रहता है । राग-द्वेष के दोस्त कर्म हैं । राग-द्वेष अलग जाति के हैं और कर्म अलग जाति के । अस्वभाव भाव आत्मा को भटकाता है । जैसे स्फटिक पत्थर में उपाधि लगने से स्वच्छता बिगड़ जाती है । इसी प्रकार इस जीव के कर्मों की उपाधि लगने से स्वच्छता नष्ट हो जाती है । शरीर से भिन्न आत्मा की अनुभूति रहे तो अत्यंत आनंद प्राप्त होता है । वास्तविक आनंद में कभी रोंगटे खड़े हो जाते हैं । झूठे आनंद में रोम नहीं खड़े होते हैं । आत्मानंद में रोम खड़े हो जाते हैं, अतएव वह वास्तविक आनंद है । बढ़िया से बढ़िया भोजन करो तब भी रोम नहीं खड़े होते हैं । अच्छी बात पर धर्म की बातपर, आत्मानुभाव होने पर, आनंद के होने पर रोंगटे खड़े हो जाते हैं । भगवान की निष्कपट भक्ति में भी रोम खड़े हो जाते हैं । किसी के गुण पर रोम खड़े हो जाते हैं, लेकिन किसी भी विषयानंद में कभी रोम खड़े नहीं होते हैं । किसी के गुणों को देखकर भी आनंद होता है । अज्ञान ने जीव के हृदय को मोहित कर रक्खा है, तभी तो यह इन पुद्गलों को अपना मानता है । यह मेरा है, ऐसी कल्पना को मानता है कि यह मैं हूँ, तभी जान पाया कि यह मेरा है । दुकान मेरी है—इस कल्पना रूप ही मैं हूँ— यह जीव अपने को किसी का पिता, किसी का पुत्र मानता है । इस पिंडोले (शरीर को) भी अपना मानता है । जो विचार यह कर रहा है, उनको भी यह मेरा है, ऐसा मानता है । कल्पना आत्मा की पर्याय है । कल्पना को मान ले कि यही मैं हूँ, तभी दुकान को मान पायेगा कि यह मेरी है । पहले अपने विचारों को मानेगा कि यह मैं हूँ, बाद में दुकान को मान पायेगा कि यह मेरी है । जैसे यह धन मेरा है । हृदय में जब ऐसा विचार आया कि यह विचार मेरा है तभी जानोगे कि यह धन मेरा है । धन मेरा है, यह मिटाने के लिये, धन मेरा है इस विचार बुद्धि से ममत्व मिटाओ तभी धन से ममत्वबुद्धि छूटेगी । मुझ चैतन्य स्वरूप आत्मा का यह धन है, ऐसा तो कोई कहता नहीं है। पहले शरीर को जानता है कि यह मैं आत्मा हूँ, तभी दूसरे से ममत्व होता है । पहले पर्यायबुद्धि को मिटाओ, तब ममत्व मिटेगा । पर्यायबुद्धि, आत्मा में विभाव शक्ति का निमित्त पाकर विभाव उत्पन्न होने से उत्पन्न हुई है । 765-परिणमन की विशेषता बताने के लिये भावशक्ति का ही नाम विभावशक्ति—वह शक्ति एक है—भाववती । जिस शक्ति के कारण गुणपरिणमें उसे भाववतीशक्ति कहते हैं । अब यह शंका हो कि भाववतीशक्ति विभावरूप कैसे परिणम गई? तब हमें इस विषय का मौलिक समाधान करना होगा वह (समाधान) यही है कि हमें ऐसी शक्ति माननी ही पड़ेगी, जिसका नाम लेकर अंत तक काम चल सके । विभावशक्ति के ही दो परिणमन हैं—(1) विभावरूप और (2) स्वभावरूप । निश्चयनय का विषय चिदात्मक आत्मा है । और व्यवहारनय का विषय, धर्म, अधर्म आकाश, काल जीव अजीवादि सातों तत्त्व और पुण्य-पाप आदि सर्व द्वैत है । जीव में राग-द्वेष हैं, असंख्यात प्रदेश हैं जीव में चैतन्य स्वभाव है यह सब व्यवहारनय का विषय है । निश्चयनय नेति-नेति से जाना जाता है । जीव अखंड सत् है—उसके टुकड़े करने से स्वानुभव नहीं होता है । जिससे स्वानुभव हो वह निश्चयनय का विषय है । निश्चयनय का विषय ही न समझे और नेति-नेति कहता रहे, वह सत्यता नहीं । सत्त्वहितकर सम्यक्त्व का विषय निश्चयनय का विषयभूत तत्त्व हैं, व्यवहारनय सम्यक्त्व की तैयारी करा देने वाला है । शंका—सम्यक्त्व का प्रयोजक शुद्धनय है तो व्यवहारनय से क्या प्रयोजन है? समाधान—तुम ठीक कह रहे हो । सम्यक्त्व का विषय शुद्धनय है तो भी व्यवहारनय युक्ति युक्त है । यदि सबको शुद्ध चैतन्य मान ले तो काम कैसे चलेगा? कोई आदमी यदि उपदेश दे रहा हो कि यज्ञ करने से स्वर्ग मिलता है, वह गलत बात है, लेकिन मिथ्यात्व की अपेक्षा से ठीक हैं । मोह के उदय में पाप की बात ही ठीक है । मिथ्यात्वी तो पुण्य की बात को पाप मानता है । मिथ्यात्व के उदय में पाप निरंतर चलता है । साधु की पर्याय को यदि आत्मा मान लिया तो यह बात भी गलत है । मिथ्यात्व अवस्था में उल्टी बात ही सूझती है । यदि मिथ्यात्व के उदय में सीधी बात सूझ जाये तो मिथ्यादृष्टि भी मोक्ष चले जायें अथवा वह मिथ्यात्व ही कैसा व्यवहारनय युक्ति युक्त होने से व्यवहार करे बिना काम ही नहीं चलेगा । केवल निश्चय कहने से काम कैसे चलेगा? अब युक्ति देते हैं कि व्यवहारनय क्यों कहना चाहिये? 766-जीव के अंत:स्वरूप की दृष्टि—जीव एक है । उसी को नौ रूप कह दिया गया है । मनुष्य अजीव है अर्थात् जीव नहीं है, केवल उसमें रहने वाला चैतन्य ही जीव है । मनुष्य जीव की पर्याय है शुद्ध जीव नहीं अत: अजीव कहा । रागादिक ये सब जीव की पर्यायों के नाम हैं—इनमें से कोई भी जीव नहीं है । शुद्धनय की दृष्टि से कोई भी तत्त्व जीव नहीं है । इन नौ में ही जीव है—जीव-अजीवादी सातों तत्त्वों तथा पुण्य और पाप में । इन सात तत्त्वों में जो जीव तत्त्व है, वह शुद्ध जीव नहीं है । वह पर्याय-जीव का नाम है । ऐसे ये नौ के नौ पदार्थ सम्यक्त्व का विषय नहीं है । इन नौ में जो देखा गया एक जीव, वही शुद्ध जीव है । इस शुद्ध जीव के स्वरूप का प्रतिपादन कैसे हो यदि गुण पर्यायों के वर्णन का कोई सहारा नहीं लिया जावे । हाँ यह बात सत्य है कि व्यवहारनय जिसको विषय करता है । वही परमार्थ नहीं है परंतु परमार्थ के समझाने का व्यवहार निरपेक्ष स्वतंत्र कोई उपाय नहीं है । यहाँ एक साथ ही अनेक बंधन उपाधियों का सन्निधान है जिसके निमित्त से अनेक अस्वभाव अर्थात् दौड़े चले आ रहे हैं ।इस कारण इस आत्मा की विवेक ज्योति अस्त हो गई है, अज्ञान में ही यह मुग्ध है । अत: विभावों को ही आत्मसर्वस्व समझकर स्वीकार कर रहा है यह और विभावों के आश्रयभूत पुद्गल द्रव्यों को यह मैं हूँ ये मेरे है ऐसा अनुभव कर रहा है । हे आत्मघाती दुरात्मन् ! इस भयावह, विपदास्पद, संसार मूल अविवेक को छोड़ । तू स्वयं परख ले—जीव तो उपयोगस्वरूप हैं, तू जीव है, उपयोगस्वरूप है । तू पुद्गल द्रव्यरूप कैसे हो सकता है । पुद्गल तो अचेतन है, अनुपयोगरूप है कहीं प्रकाश और अंधकार एक ही अधिकरण में देखा है क्या? नहीं, तो जैसे प्रकाश और अंधकार का सहवृत्ति विरोध है इसी तरह उपयोग और अनुपयोग का सहवृत्ति विरोध है । इस लिये अब ज्ञाननेत्र खोलो, मोहनिद्रा तोड़ो, मिथ्यात्वतंद्रा मिटावो, अपने आपको निर्मल बनाओ, अपने आपको अपने पर प्रसन्न करो अपने प्रभु का प्रसाद पावो-स्व द्रव्य ही मेरा है ऐसा अनुभव करो । हे प्रिय आत्मन् ! तूने अब तक अनंतों बार यत्न किये शांति पाने के लिये, किंतु शांति प्राप्त न कर सका । सो विपरीत प्रयत्न से कार्य बनता है क्या? पहले शांति चाहने वाले को समझ, शांति को समझ, शांति के सदुपाय को समझ । सही उपाय से चले और साध्यसिद्धि न हो यह हो नहीं सकता । 767-पर्यायों का आधार देखने पर निज ज्योति के दर्शन—जीव-अजीव-आस्रव-बंध-संवर-निर्जरा-मोक्ष-पुण्य और पाप में 9 पदार्थ पर्याय धर्म हैं । इनमें जीव भी शामिल है । इतना ही नहीं ये 9 केवल पर्याय धर्म हों, सापेक्ष भी हैं । इन नौ पदार्थों को भूतार्थ की पद्धति में स्वतंत्रता की दृष्टि से देखो तो सम्यक्त्व का कारण है । आस्रव, बंध, संवरनिर्जरा, मोक्ष ये सभी सापेक्ष पर्याय धर्म हैं । इन्हीं 5 पर्याय धर्मों का आघार जीव अजीव है । ये 5 पर्याय जिसमें होती हैं ऐसा सापेक्ष जीव अजीव निश्चयनय का विषय नहीं । अखंड, एक निश्चयनय का विषय है । इन सात तत्त्वों वाले जीव अजीव सम्यक्त्व का कारण कैसे बन सकते है? पर्याय धर्म दो प्रकार के होते है—उपरक्ति सहित (सापेक्ष) और उपरक्ति रहित (निरपेक्ष) जीवादि नौ पदार्थ केवल पर्याय-धर्म ही नहीं, उपरक्ति सहित भी हैं । मोक्ष भी उपरक्ति सहित याने सापेक्ष हैं, क्योंकि वह एक समय की चीज है, सिद्ध अवस्था अनंत काल की चीज है । सिद्ध अवस्था उपरक्ति रहित (निरपेक्ष) है । वस्तुत: देखा जाये, क्षायिक अवस्था भी एक समय की चीज है । क्षायिक होने के बाद स्वत: परिणमन होता रहता है । उन्हीं नौ को क्षायिक दृष्टि से देखा तो क्षायिक जान पड़े, पर्यायदृष्टि से देखा तो सापेक्ष जान पड़े । ये सातों तत्त्व उपरक्ति सहित याने सापेक्ष हैं उपरक्ति माने परायत्त चिंतन । निरपेक्ष पर्याय धर्म और उपरक्ति सहित पर्याय धर्म—इन दो प्रकार का वर्णन कर रहे हैं । मोक्ष के बाद सिद्ध अवस्था में जो वर्तन हो रहा, वह उपरक्ति रहित है । 768-निरपेक्ष पद्धति से भी ज्ञान का उपयोग—ज्ञान दो प्रकार से होता है—सापेक्ष और निरपेक्ष ।जीव-अजीवादि जो नौ पदार्थ हैं, वे सब सापेक्ष ज्ञान से बनते हैं, निरपेक्ष ज्ञान से नहीं । जैसे मोक्ष होने में कर्मों के क्षय की अपेक्षा रहती है, अत: मोक्ष भी सापेक्ष ही समझना । ये सभी तत्त्व सापेक्ष हैं । शुद्धनिश्चयनय के सापेक्ष तत्त्व नहीं हैं, किंतु उन तत्त्वों में निरपेक्ष जीव को देखना निश्चयनय का विषय है ।ये नौ तत्त्व पर्याय धर्म हैं याने ये सापेक्ष हैं, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य ये भी पर्याय धर्म ही हैं । पर्याय भी पर्याय धर्म है । जहाँ सापेक्ष पाया जाये, वे सब पर्याय धर्म समझना । पर्याय सामान्य का नाम ध्रौव्य है ।प्रयोग विशेष का नाम उत्पादव्यय है । पर्यायों के निरंतर बनते रहने का नाम ही पर्याय की ध्रुवता है । कूटस्थ अपरिणामी ध्रौव्य कहीं नहीं । जीव और तत्त्व को निरखकर श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है । नौ पदार्थों में शुद्ध जीव को देखना सम्यग्दर्शन है सम्यग्दृष्टि तत्त्वों में जीव को इस प्रकार देखता है जैसे सुनार भस्म में सोना । सोना यद्यपि वहाँ राख से अलग नहीं है; सुनार उसमें सोना देखता है । द्रव्य माने आत्मा । गुण माने द्रव्य में रहने वाली शक्ति । पर्याय माने शक्तियों के परिणमन । इन आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष को तो अच्छी तरह समझलो । आस्रव दो प्रकार का है—(1) भावास्रव और (2) द्रव्यास्रव । आत्मा में राग, द्वेष, मोह, कषाय आदि का आना भावास्रव है । कर्म वर्गणा में कर्मत्व पैदाहोना द्रव्यास्रव हैं । द्रव्यास्रव पुद्गल द्रव्य की पर्याय है । भावास्रव जीव द्रव्य की पर्याय है । पर्याय द्रव्य से, गुण से उठती है । भावास्रव जीव से उठता है, द्रव्यास्रव कर्म से उठता है । कर्म को निमित्त पाकर जीव से जीव का आस्रव उठा । जीव को निमित्त पाकर कर्म से कर्म का आस्रव उठा । यद्यपि है ऐसा ही, परंतु अभी हमें ऐसा नहीं देखना है, क्योंकि यहाँ एक की चर्चा करना है । जैसे दर्पण में किसी पदार्थ का प्रतिबिंब पडा । उस प्रतिबिंब को हम दो प्रकार से देख सकते है—(1) प्रतिबिंबित दर्पण को और (2) अमुक पदार्थ के निमित्त से दर्पण मलिन हो गया इस तरह भी यहाँ पर हम दर्पण को देख रहे कि दर्पण इस प्रकार से मलिन हो गया इसी प्रकार, यद्यपि द्रव्य कर्म को निमित्त पाकर आत्मा में भावास्रव हुआ तथापि एक वस्तु पर दृष्टि डालो । एकत्व पर दृष्टि डालना निश्चयनय का विषय है, अत: एक को देखो । यह भावास्रव आत्मा के गुणों की पर्याय है । भावास्रव में राग-द्वेष, मोह-अज्ञान आता है । कौनसी चीज आत्मा के किस गुण की पर्याय है—यह देखना है—मोह ( मिथ्यात्व)आत्मा के श्रद्धा गुण की पर्याय है, मिथ्यात्व में और मोह में कोई अंतर नहीं है, एक ही वस्तु के दो नाम हैं । यहाँ उस भावास्रव का कथन है, जिसको निमित्त पाकर कर्मवर्गणायें भी कर्म बन जाते हैं । श्रुतज्ञान, मतिज्ञान, कुमति कुश्रुत यद्यपि ये आत्मा की गलती है, परंतु इनसे कर्मबंध नहीं होता है । नींद भी आत्मा की गलती है, केवल नींद से कर्मबंध नहीं होता, परंतु नींद में आत्मा के अप्रतिबोध राग-द्वेष मोहादि प्रबलता से उठते हैं उनके कारण कर्मबंध होता है । मति-श्रुतज्ञान; कुमति, कुश्रुत आदि में भी राग-द्वेषमोह में ही कर्म बंधते हैं । मोह और कषाय के सिवाय कर्मबंध के अन्य कारण नहीं हैं । दूसरे के ज्ञान में बाधा डालना यह द्वेष हैं । बंध के कारण राग द्वेष मोह; कषायादिक हैं । आठों कर्मों में से किसी भी कर्म के बंध में राग द्वेष अवश्य कारण होते हैं । कम या अधिक जानने से कर्मबंध नहीं होता, परंतु यथार्थ न जानने से जो अप्रतिबुद्धता रहती हैं उससे कर्मबंध होता है । कम जानना लेकिन यथार्थ जानना अच्छा है । अधिक जानना, लेकिन विपरीत जाना अच्छा नहीं है । विपरीत जानना कर्मबंध का कारण भी है ।अत: थोड़े जानने का तो अफसोस करो ही मत; लेकिन प्रयोजनभूत को अवश्य जान लो । 769-भूतार्थपद्धति में अंतरंग: तत्त्व की मुख्यता—भावाश्रव जीव के श्रद्धा और चारित्र गुण की पर्याय है । ऐसा कहने से श्रद्धा और चारित्र गुण मुख्य हो जाते हैं, भावास्रव व उसके कारण-गौण रह जाते हैं । जैसे व्यवहार में पूछते हैं, यह लड़का किसका है? हमारी इच्छा वहाँ लड़के के बाप की ओर विशेष जानने की रहती है । राग-द्वेष चारित्रगुण की व मोह श्रद्धागुण की पर्याय हैं । ऐसा जानने में गुण पर अधिक दृष्टि जाती है । जिस पर अधिक दृष्टि जाती है, वह मुख्य, अन्य गौण हो जाता है । पर्याय के आधारभूत गुण पर दृष्टि दो; फिर गुण के आधारभूत द्रव्य, आत्मा पर दृष्टिपात करो । इस तरह विश्वास करो कि श्रद्धा, ज्ञान चारित्र आत्मा के गुण हैं । अत: यहाँ गुणों का आधारभूत आत्मा मुख्य रहा, गुण गौण रह गये । आत्मा पर दृष्टि जावे इसका उपाय जिस प्रकार बने, करना चाहिए । इस तरह इन नौ पदार्थों में जीव इस तरह छिपा है कि करो जीव-अजीव-वध-संवर-निर्जरा-मोक्ष-पुण्य और पाप की बात, लेकिन ध्यान आत्मा पर जाता है जीव को भाव के ढंग से देखा उसका नाम जीव (तत्त्व) पड़ा, उसी जीव को द्रव्यदृष्टि से देखो तो उसका नाम आत्मा पड़ा। मन दो प्रकार का है:— एक भावमन, दूसरा द्रव्यमन । भावमन आत्मा से अलग नहीं है, उसकी एक समय की परिणति है । लेकिन इससे आत्मा को और भावमन को एक नहीं समझ लेना चाहिए, आत्मा जुदा है और भावमन जुदा । द्रव्यमन आत्मा से बिल्कुल जुदा है । भावमन जीव की पर्याय है ।इन सात तत्त्वों में कहा गया जीव तत्त्व स्वयं पर्यायरूप धर्म है । जीव में जो आत्मा है, वह द्रव्य है । नौ तत्त्वों में मोक्ष भी सोपरक्ति में (सापेक्ष) बताया गया है । सभी तत्त्व उपरक्ति सहित है । नौ के नौ पदार्थ पर्याय धर्म हैं । उपरक्ति माने जो एक दूसरे की अपेक्षा से बने । मोक्ष केवल एक समय का होता है, बाद में सिद्धों के शुद्ध परिणमन होता रहता है । मोक्ष कर्मों के क्षय के समय होता है । आगे उसकी संज्ञा मोक्ष नहीं है । सिद्धों में भी पहले ही समय में मोक्ष है इस के बाद पर्यायधर्म है । मोक्ष होने तक सापेक्ष पर्याय था अब निरपेक्ष पर्यायधर्म है । मोक्ष से पहिले सभी पर्यायधर्म निरपेक्ष भी हैं । सापेक्ष दृष्टि में सापेक्ष हैं, निरपेक्ष दृष्टि में निरपेक्ष हैं । विज्ञान पद्धति से देखो तो निमित्तनैमित्तिकभाव है वहाँ पर्यायधर्म सापेक्ष हुआ । द्रव्यार्थिकनय से देखो तो जीव ही तो परिणमा परिणमता रहता है, अपने में अपने से ही तो परिणमा । कैसा परिणमा? कैसा परिणमा! अपनी जाति की सीमा तोड़कर नहीं परिणमा । विज्ञान पद्धति से देखो तो सिद्धावस्था से पहिले जीव की सभी पर्यायों में उपाधि है । मोक्ष होने तक उपाधि है, बाद में सिद्धावस्था निरुपाधि है मोक्ष समस्त कर्मों के क्षय के समय होता है, वह सापेक्ष पर्याय धर्म है । सापेक्ष पर्याय धर्म का विषय व्यवहार है । निरपेक्ष पर्याय धर्म का विषय भी व्यवहार ही है । शुद्धनय की बात तो आस्रव के विचार में मिल जाये, मोक्ष के विचार में न मिले मोक्ष के विचार में मिल जाये; आस्रव के विचार में न मिले । मोक्ष या आस्रव को शुद्धनय की शैली से विचारो तो शुद्धनय है । जैसे राग-द्वेष मोह आत्मा के श्रद्धाचारित्र गुण की पर्याय है । यहाँ राग-द्वेष ध्याता की दृष्टि में विलीन हो गये और श्रद्धा-चारित्रगुण प्रधान हो गया । श्रद्धा चारित्र ये गुण आत्मा के हैं । यहाँ पर आत्मा प्रधान हो गया और गुण गौण हो गये । इसी प्रकार से किसी भी तत्त्व को भूतार्थनय से विचारोगे तो शुद्धनय पर आ जाओगे । इस शैली से केवल ज्ञान को भी न विचारों, शुद्धनय पर नहीं आ सकते । यदि विचार करो कि केवलज्ञान तीनों लोकों और कालों के पदार्थों को एक साथ जान रहा है, यह आत्मा के ज्ञान गुण की पर्याय है, ऐसी प्रतीति में केवलज्ञान मुख्य हो जायेगा । यह ज्ञान सामान्य आत्मा की पर्याय है, इस प्रतीति में आत्मा प्रधान हो गया । इस शैली से जिस चीज को भी विचारो, आत्मा पर आपका ध्यान चला जायेगा । इस प्रकार जीव की सारी पर्याय सोपरक्त हैं—सिद्ध भगवान की पर्याय सोपरक्त नहीं है । जैसे जो सहित होता है, वह रहित अवश्य होता है । जैसे धन सहित कहा जाये तो आपको यह भी प्रतीति हो जायेगी कि कोई धन रहित भी अवश्य होगा । तभी तो धन के साथ सहित शब्द लगा है । ये संपूर्ण पर्याय सोपरक्ति हैं । इससे सिद्ध होता है कि कुछ पर्याय उपरक्ति रहित भी अवश्य हैं । सिद्धों की पर्याय उपरक्ति रहित है । सब पर्यायों में भूतार्थ की शैली से विचारकर शुद्धनय तक आ जाओ तो सम्यक्त्व का कारण होता है । 770-मोह के कारण कषाय में प्रवृत्ति—धन संतान, स्त्री-पुत्रादि के मोह की जड़ मोह है । यह मोही प्राप्त पर्याय को ही अपना सर्वस्व मान बैठता है । वर्तमान पर्याय का मोह सब प्रकार के मोहो का कारण है । पर्याय के मोह की जड़ कटी तो सब प्रकार के मोह अपने आप छूट जायेंगे । वर्तमान पर्याय में संतोष न करो । इससे स्थिर संतोष नहीं होता है-ऐसा विचारो । अनादि से लेकर अब तक हमारे अनंत भव भाव गुजर गये, लेकिन इस समय उनमें से कोई भी भव या भाव नहीं हैं । वे विचार भी नहीं रह सके । इसी प्रकार वर्तमान भाव में भी इन समागमों से क्या लाभ है । खूब सोचो, संतोष नहीं होना है । यह जीव नवीन पर्याय में संतोष की बुद्धि करता जायेगा, लेकिन संतोष पर्यायों में होना ही नहीं है । बाह्य संतोष यदि हो भी गया, उससे कल्याण संभव नहीं है । कल्याण करन के लिये अपने अंत: करण को शुद्ध करके भीतरी संतोष करो । भीतरी संतोष सम्यग्ज्ञान की उपलब्धि से होता है । जब तक जीव आस्रव और आत्मा में भेद नहीं समझता, तब तक जीव के पर्यायबुद्धि रहती है । जब तक क्लेश नहीं मिटता, क्लेश का कुहराम मचा रहता है । मनुष्य की पर पदार्थ पर ऐसी दृष्टि है कि वह अपने आपको भूल जाता है । पर दृष्टि सब जीव दुखी रहते हैं । सम्यग्ज्ञान की भी गृहस्थी में यही हालत है किंतु अज्ञान है नहीं सो भीतर से अनुकूल है । पहले जो कर्म बाँधे थे, उनके जो संकट थे उनके कारण संसार में रहना पड़ा । अज्ञान के मिटने पर विषय-कषाय के परिणमन कुछ ही समय तक रह सकते हैं । जीव पर्यायबुद्धि के कारण ही संसार में रुलता रहता है । पुद्गल द्रव्यों के विषय में अज्ञानी सोचता कि ये मेरे हें । किंतु किसी का कुछ होता नहीं । एक पदार्थ परिणम रहा, दूसरा पदार्थ परिणम रहा, लेकिन वे जुदे-जुदे परिणमते रहते हैं । मैं अपने प्रदेशों में, ये अन्य पदार्थ अपने-अपने प्रदेशों में स्थित हें । मैं अपने भावों से परिणमता रहता हूँ, ये बाह्य द्रव्य अपने प्रदेशों से परिणम रहें हैं । ये पहले हमारे साथ नहीं थे न आगे रह सकेंगे । हे मूर्ख आत्मन् ! फिर तू इन बाह्य पदार्थों में क्यों मोह करता, क्यों अपने मानता? यह ठीक है कि तेरा बाह्य पदार्थों से धर्मसाधन के लिये गुजारा चलता, लेकिन ये मेरे हैं, यह मैं हूँ,—ऐसा क्यों कहता विश्वास करता? तेरा जीवन इन बाह्य पदार्थों से चल रहा है, ठीक है, लेकिन ये मेरे हैं, मैं उनका हूँ, यह मैं हूँ—आदि बात गलत है; मेरा कुछ नहीं है । यहाँ तक कि दुःख सुख में कारण बनने वाला व साथ देने वाला यह नश्वर शरीर भी मेरा नहीं है । हे मोही आत्मन् ! हे स्व को हत्या करने वाले आत्मन् ! अपने आपकी हत्या से मतलब स्वभावपर दृष्टि न होना—इस हाथी जैसे अविवेक पूर्ण भोजन को छोड़ो । हाथी को भोजन के विषय में जैसा अविवेक है, वैसाही इस मोही प्राणी को पर पदार्थों में आसक्ति है । प्रत्येक पदार्थ को अपना समझ लिया । इनको अपने मानने के परिणाम ही तो परम अविवेक के कारण हैं । 771-विलक्षणों को विलक्षण द्वारा दर्शनीयता—जीवद्रव्य का लक्षण ‘उपयोग’ है ऐसा सर्वज्ञ भगवान् ने कहा है । चैतन्य का अनुविधान करनेवाले परिणाम का नाम ‘उपयोग’ है । वास्तविक दृष्टि से जीव का लक्षण उपयोग नहीं, जीव का लक्षण चेतनता है । जीव को उपयोग से ही पहिचाना जाता है । जीव का लक्षण नित्योपयोग है, चैतन्यमात्र जीव का लक्षण कहने से लोगों के जल्दी समझ में नहीं आवेगा—अत: ‘नित्योपयोग’ जीव का लक्षण जानना । उपयोग तो पर्याय है समस्त पर्यायों को नित्योपयोग में ग्रहण कर लिया । ‘‘चैतन्य पुरुषस्य स्वरूपमय’’ तो सर्व सम्मत है । जीव पुद्गल नहीं बन सकता, पुदगल जीव नहीं बन सकता । फिर क्यों अनुभव करते कि ये पुद्गल मेरे हैं । एक पदार्थ अपने से भिन्न दूसरे का कुछ बन ही नहीं सकता । फिर क्यों ऐसा अनुभव करते हो कि अमुक वस्तु यह पुस्तक-बड़ी आदि मेरे हैं । भैया ! बात यह है कि ये बाह्य पदार्थ अचेतन है, तुम्हें कुछ जवाब तो दे नहीं सकते, तुम चेतन हो सो कुछ ऊधम मचा लेते हो यदि इन पदार्थों में चेतने की हलचल होती तो ये फिर तुम्हारी हमारी अक्ल खुद ठिकाने लगा देती । अभी तो अपन बक रहे हैं घड़ी मेरी मकान मेरा आदि । सारे विश्व को एक ज्योति से समझने वाला ज्ञान सर्वज्ञ भगवान का ज्ञान है । उसमें संशय-विपर्यय-अनध्यवसाय नहीं हैं । अखिल विश्व के ज्ञातादृष्टा सर्वज्ञ देव ने बतला दिया है कि पुद्गल जीव से भिन्न है जीव पुद्गल से भिन्न है यदि अकस्मात् जीव पुद्गल बन जाये या पुद्गल जीव रूप परिणम जाये—तो इन बाह्य पदार्थों में यह मेरा है या मैं यह हूँ—ऐसी प्रतीति करलो । लेकिन कभी जीव-पुद्गल में एकत्व हो ही नहीं सकता । 772-पुद्गल से आत्मा की अत्यंत विलक्षणता—सचित्त-अचित्त-सचित्ताचित्त इन तीन प्रकार के पुद्गल द्रव्यों में कोई भी त्रिकाल में भी जीव का नहीं हो सकता । दृष्टांत: इस अंगुली के पास के परमाणु व दूसरे उसके पास के परमाणु में कोई संबंध नहीं-दोनों भिन्न हैं । जब पुद्गल का एक परमाणु दूसरे पुद्गल परमाणु का कुछ नहीं लगता तो यह पुद्गल शरीर इस चैतन्य जीव का लगेगा ही क्या? फिर यह मेरा है, शरीर मेरा है यह विचार कहां से ले आये? ज्ञान से यह निर्णय करो कि मेरा कुछ है ही नहीं, मैं मैं हूँ यह यह है, इनका मेरा कोई संबंध नहीं है । लेकिन मोही प्राणी मोह के कारण मोह के आश्रयभूत इन पदार्थों को अपना मान बैठा । कोई भी द्रव्य दूसरे द्रव्य का कभी कुछ हो ही नहीं सकता । अज्ञानी शरीर में ऐसी बुद्धि करता है कि यह आत्मा है । उसे यह मालूम नहीं कि ये दो सत् हें शरीर और आत्मा-वह यह नहीं कहना कि शरीर ही आत्मा है, उसने तो शरीर को ही आत्मा समझा है । जैसे यह (पुस्तक) है सो पुस्तक है । ऐसे ही मोही प्राणी शरीर को ही आत्मा मान बैठा है । यह शरीर में हूँ ऐसा नहीं सोचता वह । शरीर में यह मैं हूँ ऐसा मानता है वह । जब तक पर्यायबुद्धि रहती है, तब तक जीव अज्ञानी है मोही है । कम से कम इतना तो मानो कि मेरा कुछ नहीं है, यह मेरा है—इस बुद्धि को त्याग दो । मेरा कभी कुछ हो नहीं सकता । मेरा है यह बुद्धि लगी है इसीलिए आत्मा का सर्व से बैर है । यह मोही जीव यद्यपि कुछ करता नहीं, केवल भावमात्र बना लेता है, लेकिन बुद्धि में करे बिना रहता भी नहीं है । परमार्थ से मेरा कोई कैसे हो सकता है? इसका परिणमन इसका है, मेरा परिणमन मेरा है, दोनों के परिणमन जुदा-जुदा हैं । मैं अपने परिणमन से परिणमता, यह अपने परिणमन से परिणमता । दुनियाभर के संकट मदीय भाव से तो हो रहे हैं, तनिक सी ममता ही संकट का कारण है । बाह्य पदार्थों में यह मेरा है—जो यह कल्पना हो रही है, उसे भूल जाओ । क्योंकि कोई भी चीज मेरी हो ही नहीं सकती । इस प्रकार निर्मल अभिप्राय में वहिरी दशों विपत्ति होने पर भी आराम ही आराम रहेगा । यह विवेक ही सुखकारी है । सर्वज्ञ देव ने जीव का लक्षण उपयोग ही बतलाया है । उपयोग रहित पुद्गल द्रव्य है-फिर यह पुद्गल मेरा कैसे हो सकता है? नमक का लक्षण क्षारत्व है । जैसे नमक पानीरूप हो जाता है । जल का लक्षण द्रवत्व है । वह द्रवत्व लक्षण वाला पानी नमक रूप बन सकता है ।खारा और पानी एक साथ हो सकते हैं । परंतु उपयोग कभी भी अनुपयोग, अनुपयोग कभी भी उपयोग नहीं हो सकता । जैसे अंधकार और प्रकाश में सहवृत्ति विरोध है अर्थात् दोनों एकसाथ नहीं रह सकते हैं, उसी प्रकार उपयोग और अनुपयोग में भी सहवृत्ति विरोध है । अत: स्वद्रव्य को ही मेरा है—ऐसा अनुभव करो । 773-भवमूर्ति के प्रति तत्त्वकौतूहली का विवेक—संसार की मूर्ति यह शरीर को देखकर ही भव की पहिचान होती है । इस शरीर को मात्र पड़ौसी जानो । जैसे—किसी घर में आग लगने पर पड़ौसी उस आग को यथाशक्ति बुझाने का प्रयत्न करता है । वह, यह पड़ौसी का घर है, अत: मैं आग बुझाऊं,—यह सोचकर आग नहीं बुझाता, बल्कि कदाचित् यह आग मेरे घर तक पहुंच जाये और मेरे घर को भस्म कर दे—इस दृष्टि से बुझाता है । उसी प्रकार आत्मा का पड़ौसी यह शरीर है । जब इस शरीर में रोगादिरूप वह्नि लगती है, उसको ज्ञानी जीव यह सोचकर उनको दूर करता है ये रोग शरीर के पड़ौसी मुझमें (आत्मा में) न लग जाय; मेरे में कहीं राग-द्वेष-काम-क्रोध-कषायादि रूप वह्नि न लग जाये कहीं मेरी ज्ञान निधि न जल जाये । तत्त्व का कुतूहल की प्रत्येक पदार्थ में से तत्त्व निकाल लेता है । जिन्हें संसार से छूटना है, वे जिन मूर्ति से तत्त्व निकाल लेते कि इसी प्रकार दिगंबर होकर ध्यान करते रहो और कर्मों को क्षय करो तो मोक्ष मिले । तत्त्व कुतूहली को दृश्यमान सभी वस्तुओं में अपनी इष्ट तत्त्व दिखाई देता है । जो हमें आँखों से दिखाई दे रहा है, वह एक नहीं है, वह नश्वर पदार्थ हैं । यह सब दिखने वाली चीजें पर्याय होती हैं ऐसा विचार तत्त्वज्ञ प्रत्येक पदार्थ में कर लेता है । अत: हे भोले प्राणियों ! पुद्गल का और आत्मा का विवेक समझो । 774-संकट से बचने वाला परम शरण तत्त्वज्ञान—आत्मा का विभाव ज्ञान है । आत्मा की जो महिमा है, वह सब ज्ञान की महिमा है । ज्ञान से इस लोक में सुख मिलता, परलोक में भी सुख मिलता है । एक ब्राह्मण वृद्ध-वृद्धा उनका लड़का और लड़के बहू यात्रा के लिये जा रहे थे । उन्हें रास्ते में हो गई रात । वहाँ पर प्रतिदिन एक दैत्य आया करता और प्रश्न पूछता, जो उत्तर दे न पाता उसे खा जाता । वे चारों उस जंगल में ठहर गये उन्होंने एक की ड्यूटी लगाई । पहले बूढ़े का नंबर आया, अन्य सब साथी सो गये । नियमानुसार वही दैत्य आया और प्रश्न पूछा—एको गोत्रे । बूढ़ा शिक्षित तो था ही, उसने उत्तर दिया:—एको गोत्रे भवति स पुमान् यः कुटुंबं विभर्ति अर्थात् गोत्र में वही पुरुष होता है जो समस्त कुटुंब का पालन करे । उत्तर उचित सुनकर दैत्य एक सुवर्ण का आभूषण उपहार में दे गया । दूसरे पहर में पुन: राक्षस आया और कर्तव्य परायणा वृद्धा से प्रश्न किया सर्वस्य द्वे । बुढ़िया ने उत्तर दिया सर्वस्य द्वे सुमति कुमति संपदापत्तिहेतू । कि सब जीवों को सुमति और कुमति संपत्ति और विपत्ति का कारण है उचित उत्तर सुनकर इसे भी आभूषण भेंट किया । तीसरे पहर में लड़का जागा, उससे भी दैत्य ने प्रश्न किया वृद्धो यूना । लड़के ने उत्तर दिया वृद्धो यूना सह परिचयात्त्यज्यते कामिनीभि: । अर्थात् स्त्री का पति वृद्ध हो और स्त्री का परिचय किसी युवक से हो जाय तो स्त्रियों के द्वारा वह वृद्ध छोड़ दिया जाता है । इस उत्तर को सुनकर दैत्य इसे भी इनाम दे गया । अंतिम पहर में बहू से राक्षस ने प्रश्न किया स्त्री पुंवत् । बहू ने जवाब दिया:—स्त्री पुंवत् प्रभवति यदातदि्बृ गेहम् विनष्टम् । अर्थात् जिस घर में स्त्री पुरुष की तरह हो जाती है याने स्वच्छंद प्रभु बन जाती है वह घर नष्ट हो जाता है । इसे भी सोने का आभूषण इनाम दिया । इस प्रकार दैत्य उन चारों के उत्तर पाकर बड़ा प्रसन्न हुआ और उन्हें बहुतसा इनाम दिया । प्रात: होते ही वे चारों सकुशल अपने घर आ गये । दुःख मन की कल्पना है । ज्ञान से कोई दुःख नहीं पा सकता । जिन्होंने अभी तक गरिष्ठ पदार्थ खाये हैं, यदि उन्हें साधारण भोजन दे दिया जाये तो वह अपने मन में दु:ख मानता है । दु:ख ज्ञान से नष्ट हो जाता है । ज्ञान से विवेक की वृद्धि होती है । शरीर मैं नहीं हूँ, और, कोई संबंधी भी मेरा नहीं है । इस जगत् में कोई भी चीज मेरी नहीं है-यह बात हर समय ध्यान रखना चाहिये । मनुष्य जितना जीवन भर में कमा सकता है, उससे भी अधिक खर्च करके उसे पढ़ाया जाता है । ज्ञान की तुलना धन से कभी नहीं की जा सकती । ज्ञान के विकास के लिये तन-मन-धन भी लग जाये तब भी कोई बात नहीं । सब प्रकार के कष्ट सहकर भी ज्ञानसाधन करो । 775-दुर्लभ अवसर को व्यर्थ न गवाने का अनुरोध—राजा भोज के समय में जरासी भी कविता सुनाने पर एक लाख, 50 हजार, 25 हजार रुपया इनाम मिल जाता था । चार देहाती थे । उन्होंने सोचा चलो हम भी कविता बनावें हमें भी इनाम मिलेगा । वे चारों चले । रास्ते में एक बुढ़िया रांटा कातती हुई मिली । उनमें से एक बोला कि लो हमारी कविता बन गई । तीनों ने पूछा सुनाओ । तब यह बोला-चनर मनर राँटा मन्नाय । आगे बढ़े वे चारों । आगे एक कोल्हू का बैल भुस खा रहा था । दूसरा बोला—हमारी कविता बन गई । क्या? कोल्हू का बैल खरी भुस खाय । आगे बड़े । सामने से धुनिया पीजना लादे चला आ रहा था । तीसरा बोला—हमारी भी कविता बन गई । क्या? वहाँ से आ गये तरकस बंद । अब तीनों ने चौथे से कहा कि तुम भी बनाओ । चौथा बोला-मैं आशुकवि हूँ सो तुरंत बनाऊंगा । चले चारों दरबार को पहरेदार से चारों बोले—महाराज को खबर दो कि चार महाकवीश्वर आना चाहते हैं । राजा ने बुला लिया । अब कविता कहने को चारों लेन से खड़े हो गये । अब आप देखना चौथा अपनी क्या कविता सुनायगा । चारों ने क्रम से सुनाया—चनर मनर राँटा मन्नाय, कोल्हू का बैल खली भुस खाय वहाँ से आ गये तरकसबंद, राजा भोज हैं भूसरचंद । राजा ने वहाँ बैठे हुए विद्वानों से कहा अच्छा इस दोहे का कौन अर्थ बतायेगा । पहले तो सब चुप रहे, क्योंकि इस दोहे में कोई तत्त्व तो है ही नहीं । फिर भी एक विद्वान साहस करके उसका अर्थ करने लगा । (1) यह शरीर राँटा की तरह, इधर से उधर घूमता रहता है । (2) आदमी प्रतिसमय कोल्हू का बैल बना रहता है, दूसरों के लिए कमाता है, स्वयं रूखा-सूखा खाकर रह जाता है । (3) ईश्वर के पास से आयु समाप्त करने के लिये यमराज आ धमका है । (4) संसार की ऐसी दशा है, फिर भी राजा भोज नहीं चेतते । उन्हें बिल्कुल भी विवेक नहीं है सो राजा भोज भूसरचंद हें । राजा यह अर्थ सुनकर बहुत प्रसन्न हुआ और पांचों को खूब इनाम दिया । ऐसी दशा सारी दुनिया की है । परंतु उन्हें यह खबर नहीं कि कुछ समय ज्ञानोपयोग में लगावें । यह मनुष्य जड़ पदार्थों के लिए कमाता है । जब तक हमारे पुण्य का उदय है तभी तक ये स्वार्थी प्राणी साथ देते हैं फिर कोई सबर भी नहीं लेता । विवेक पूर्वक कुछ अपने आत्मा के बारे में सोचो । वह पर्याय जो हम पर गुजर रही है, इसी को अपना सर्वस्व मान अपनी आत्मा को अधिक से अधिक कर्मों से बांध लें, यह तो बुद्धिमानी नहीं है । अभ्यास करो तो सब विकल्प दूर हो जायें । ध्यान से जो निराकुलता मिलती है, उसी से समझो सन्मार्ग मिल गया । सुख-शांति अपने ही विचारों से मिलेगी, दूसरों के विचारों से शांति नहीं मिल सकती । जितना मिला है, उसी में संतोष करो? जिसे वर्तमान परिस्थिति में संतोष करने की आदत नहीं है, वह संतुष्ट नहीं रह सकता । बाह्य पदार्थों में बुद्धि रखना अनर्थ के कारण है । यह जीव अज्ञानी है, ऐसा कैसे जाना जाता है? जो परिग्रह में लीन है और उनमें यह मैं हूँ, यह मेरे हैं इस प्रकार से पर्यायबुद्धि रखता है, वह अज्ञानी है । इस जीव के साथ कर्मों के बंधन की उपाधि लगी है । यह जीव शरीर को ही आत्मा मानता है । उसके दिमाग में दो चीजें है:—शरीर और मैं । अपने को शरीराकार रूप ही मानता ऐसी मोही की मान्यता है । वह इन शब्दों में नहीं जानता कि शरीर ही मैं हूँ । वह तो जो दो चीजें उसके साथ हैं वह मैं हूँ । ऐसा मानता है । 776-एक द्रव्य के स्वरूप में दूसरे द्रव्य के प्रवेश का अभाव—हे प्राणियों ! यह तो पुद्गल द्रव्य है तुम जीव द्रव्य हो । पुद्गल जीव नहीं हो सकता, जीव पुद्गल नहीं हो सकता में चैतन्य सहित एक पदार्थ हूँ; पुद्गल चेतनता रहित है । त्रिकाल में भी पुद्गल जीव नहीं हो सकता और जीव पुद्गल नहीं हो सकता । एक परमाणु दूसरे परमाणु से मिलकर कभी एक नहीं हो सकता । पूज्य आचार्यों ने समझाया कि जीव पुद्गल नहीं है, पुद्गल जीव नहीं है । त्रिकाल में भी ये एक दूसरे नहीं हो सकते । पुद्गल अचेतन पदार्थ है, जीव सचेतन पदार्थ है । प्रत्येक परमाणु का द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव भिन्न है जीव अखंड सत् है । जीव अनादि से है, उसका कभी अंत भी नहीं हो सकता । मैं अपने द्रव्य-क्षेत्र-काल भाव में रहता हूँ । ये पुद्गल द्रव्य मेरे कैसे हो सकते हैं । कभी सत् दो मिलकर एक नहीं बन सकता । राग न छूटे, न छूटे परंतु यह प्रतीति होना चाहिए कि ये पदार्थ मेरे नहीं है; और न कभी हो सकते । उनका द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव उनमें है मेरा द्रव्य क्षेत्र काल भाव मुझमें है । परमार्थ से कोई चीज मेरी नहीं हो सकती । शरीर और कर्म भी मेरे कैसे हो सकते है? कोई पदार्थ मेरा नहीं है, मेरा मैं स्वयं हूँ । मैं मैं हूँ अन्य नहीं हो सकता फिर राग कब तक नहीं रह सकेगा । मैं मैं स्वयं ही हूँ—यह इसलिये कहना पड़ा कि अज्ञानी इसके विपरीत कल्पना कर रहा था । अन्य में मैं हूँ ऐसा मान रहा था अन्य-अन्य पदार्थों में अज्ञानी की बुद्धि न चल पाये अत: उसका खंडन करने के लिये ऐसा वाक्य कहा है । दूसरे पदार्थ का अन्य पदार्थ से निमित्त नैमित्तिक संबंध हो सकता है । एक सिद्ध के स्वरूप में दूसरे सिद्ध का स्वरूप नहीं जा सकता । मोक्ष जाने का स्थान जाने का स्थान 45 लाख योजन अढ़ाई द्वीप है । एक जगह में अनेक सिद्ध रहते हैं लेकिन एक सिद्ध में उन्हीं का परिणमन जाता है । सबका अलग-अलग परिणमन होता है । एक सिद्ध ने सबको जान लिया सब सिद्धों को भी जान लिया । ऐसे सभी सिद्ध हैं, जो सब सिद्धों को जानते हैं । उपयोग में और क्षेत्र में अनेक सिद्ध विराजमान हैं, फिर भी उनका परिणमन उनके अपने में ही होता है । दूसरे का परिणमन उनमें या उनका परिणमन दूसरे में नहीं होता है । सबका परिणमन न्यारा-न्यारा है । 777-अज्ञान में मोह के स्वाद की धुन—जिसकी अज्ञान से बुद्धि मोहित हो गयी है वह ही पुरुष में पुद्गल द्रव्य मेरे हैं, यों कहता है । बात एकदम स्पष्ट है लेकिन अज्ञान में अज्ञान के स्वरूप की भी सुध नहीं रहती । कोई यदि कभी अज्ञान के स्वरूप को समझ जाय तो फिर उसके अज्ञान कहाँ रहा? जिसकी बुद्धि इन मिथ्या भावों से मोहित हो गई है अर्थात् बेहोश हो गया है । जिन पर पदार्थों से त्रिकाल भी कुछ संबंध नहीं है तिस पर भी रागवश उन्हें अपना मानता है उनमें आपाबुद्धि करता है । यह जो स्थिति है यह बेहोशी की स्थिति है । सही ज्ञान नहीं है वास्तविक होश नहीं है । पदार्थ जैसा है वैसा समझने की अब इसमें सुध नहीं है और एक मात्र इस मूल अज्ञान के कारण नाना भाव नाना विकल्प बनाता है और जिससे कुछ निमित्त नैमित्तिक भाव है या जो बद्ध है उसे भी अपना मानता है और जो अबद्ध हैं, एकदम पर क्षेत्र में हैं उसे भी अपना समझता है । लेकिन हे संसार के प्राणियों ! आचार्य संत परम करूणा करके उपदेश कर रहे हैं समयसार ग्रंथ में कि अनादि काल से अब तक तो तुमने मोह का स्वाद लिया, प्रत्येक भव में जहाँ गये वहाँ जो मिला वहीं मोह का स्वाद लिया । अब जरा इस ज्ञान का भी स्वाद लो जो अध्यात्मदसिकों को बड़ा रूचिकर होता है । स्वाद लेना क्या? ज्ञान में आना इस ही का नाम स्वाद लेना हैं । अब तक उपयोग में मोह ही मोह बसाया, यह मेरा है जहाँ गए वहीं माना । सूकर गधा आदि हुये तो उन सूकरी गधियों के बच्चों से स्नेह रखा जैसे कि यहाँ पुरुष स्त्री अपने बच्चों से मोह रखते हैं । यहाँ के मोह का तो सभी को पता है ना । असंज्ञी भव पाया, कीड़ा मकोड़ा आदि हो गए तो वहाँ पर भी देह का मोह रखा । यों मोह का स्वाद ही इस जीव ने अब तक लिया । 778-ज्ञान का स्वाद लेने का अनुरोध—प्रियतम आत्मन्! अब कुछ अपने आप पर करूणा करके ज्ञान का भी स्वाद लो । जो ज्ञान में बसा हो उस ही को स्वाद कहा जाता है । आत्मा स्वाद और किस ढंग से ले? जो तत्त्वज्ञान में आया उसका ही स्वाद । और ज्ञान में आने के कारण जब जो प्रभाव अपना अपने पर पड़ता है उस का अनुभवन किया । मोह का स्वाद अब तक लिया है सो विदित ही है । अज्ञान भाव में एकदम पर की ओर का आकर्षण पर की ओर की दृष्टि, पर से संबंध मानना, पर से बड़प्पन समझना और पर के ही संबंध में अपनी पोजीशन मानना, जितने भी अवगुण हो सकते हैं लोकेषणा कंचन कामिनी कीर्ति की आकांक्षा आदिक, उन सबका मुक्त यह अज्ञान है । अपने स्वरूप को समझने का यह परिणाम है सो खेद के लायक बात है कि आना जाना तो कुछ होता नही, किसी भी पर से आत्मा को कोई लाभ मिलता नहीं, न कुछ पास रहता है लेकिन कल्पनायें करके ऐसा अच्छा जीवन भी व्यतीत कर देते हैं । अपने को अकिंचन, ज्ञानमात्र अनुभव करने का यह मौका ही नहीं देता । अपने को सकिंचन मानता रहता है । मेरे तो सब कुछ है, मेरा घर है, मेरा परिवार है मेरे मित्र हैं, मेरी शान है, मेरा नेतृत्व है, अनेक प्रकार से इस जीव ने अपना महत्व समझा । स्वयं में स्वयं के कारण सहज की जो महिमा है उस महिमा पर दृष्टि नहीं की । स्वाद लिया अब तक मोह का किंतु अब ज्ञान का भी स्वाद लो । करना पड़ेगा यही । संसार संकटों से यदि छुटकारा होना है, शांति चाहना है तो करना पड़ेगा यही । 779-जीवन के आखिरी परिणाम का अध्ययन—व्यवहार में भी देख लो, करना पड़ता है यही-छोड्कर जाना, अकिन्चन होकर जाना । चाहे वह मरने वाला अपने भाव में यह नहीं समझ रहा पर बड़े-बड़े पुरुषों की भी बात देखो-क्या हुआ अंत में? श्री रामचंद्र जी हुये उनके साथी भाई रहे शादी हुई, घर रहे, बीच में अनेक परेशानियाँ हुई, वनवास हुआ फिर घर आये, फिर राज्य के काम सम्हाले, फिर बड़े-बड़े राजाओं का ऐसा ही मिलन सब कुछ हुआ, आखिर हुआ क्या? लक्ष्मण यों गये, राम यों गए, सीता यों गई सबके बिछुड़े तो क्या हाथ लगा उस झमेले में? महाभारत में कौरव पांडव हुए, युद्ध में मारे गये जो बचे सो विरक्त हुए, निर्ग्रंथ हुये, कोई किसी तरह बिछुड़ा कोई किसी तरह । जीवनभर झमेला बनाया, विकल्प मचायें, श्रम किया बुद्धि जहाँ चाहे लगाया, पर जीवन का आखिरी परिणाम क्या निकला और क्या निकलता है? सबको छोड़कर जाना पड़ता है । यह तो एक व्यवहार की और विवशता की बात कही जाती है । लेकिन अध्यात्म में निरखो तो यह सदा अकेला है जब यह मान रहे कि मैं इतने परिजनों के बीच हूँ तब भी यह अकेला है । जब पापोदयवश कोई साथी न रहेगा, कोई न मिलेगा तो वहाँ भी अकेला, जब कर्म बंधन में है तब भी अकेला, जब मुक्त होगा तब भी अकेला । तो अपने आप में निज से अपनी सीमा में अपने ही सत्व से अपने में जो बात पायी जाती है उसकी निगाह रखे बिना तो कल्याण न होगा । बड़े-बड़े पुरुषों ने भी बड़े-बड़े वैभव का परित्याग किया । यहाँ तो वैभव ही क्या मिला है? यदि कुछ सुख होता, कुछ भली बात होती तो संसार में रहते, सांसारिक व्यवस्था बनाते तो ऐसे बड़े-बड़े वैभव पाने वाले जिनकी हजारों देव सेवा करें, इंद्र तक जिनके दरबान रहें वे भी सर्व कुछ समृद्धि को छोड़कर गए वन में और अपने एकत्व का अनुभव किया । तो शांति का मार्ग यही है और करना पड़ेगा, यदि सदा के लिए संकटों से छूटने की बात है तो । 780-आत्महित में विलंब न करने का मौका—आत्महित में विलंब करना यों ठीक नहीं कि एक तो विलंब करने के बाद यह कोई निश्चित नहीं है कि मैं किसी दिन से अपने स्वरूप को सम्हाल लूंगा । दूसरी बात यह है कि ऐसा ही दीर्घ सूत्र बनने में जीवन गया मरण हुआ असंज्ञी पर्याय मिली तो फिर क्या वश किया जायेगा? यह एक मौका मिला है । तत्त्व समझकर मोह हटा लें और अपने सहज आनंद धाम ज्ञानमात्र अंतस्तत्त्व के निकट बसा करे इसका एक मौका मिला है यह नरभव, बा की तो जो कुछ और काम है ये तो अनेक भावों में मिले हैं, इससे बढ़कर मिले हैं । आज जो गरीब हैं वे अनेक भवों में सेठ अथवा राजा महाराजा हो चुके हैं, आज जो धनिक हैं वे इससे भी अधिक धनिक अथवा गरीब अनेक भावों में हो चुके हैं । यहाँ तो पाया ही क्या? और उससे क्या आत्मा की सिद्धि? आनंद तो केवल ज्ञानमात्र निज के उपयोग में है, अन्य जगह तो आनंद का नाम नहीं क्योंकि जिसे हम सुख कहते हैं उस सुख का अर्थ यह है कि कुछ क्षोभ रहा करे । जो इंद्रियों को सुहाये उस ही का नाम तो सुख है । तो स्थिति में क्षोभ रहता कि नहीं? आप संसार के सब सुखों के स्वरूप को निरख लें कि उन सब सुखों में क्षोभ रहता है । खाने का क्षोभ, तेज प्यास लगी है, ठंढा पानी मिल गया तो पीते हुये में उसकी मानसिक स्थिति देख लो । कैसा जल्दी पीना चाहता, कुछ मौज सा मान रहा, उसमें कुछ क्षोभ भी होता है जो कि साक्षात् दुखदायी मालूम होता है । भले ही किसी क्षोभ में वह दुःख नहीं महसूस करता, किंतु सुख में भी वह क्लेश पा रहा, दुःख में भी क्लेश पा रहा, हाँ मानने की बात अलग है । तो सारे स्वाद लिये अब तक, पर अब ज्ञानमात्र का स्वाद लो जिससे ये संसार के संकट सदा के लिये टल जायें । 781-भिन्न और विपरीतस्वरूप पदार्थ पर मोह करने का अज्ञान—देखो जिन में मोह किया जा रहा है, राग किया जा रहा है जिनको अपना समझा जा रहा है उनके साथ अपना रंच भी संबंध नहीं है । बस मानने का संबंध है वह तो स्वप्न में भी होता है । वह तो शेखचिल्लीपन में भी होता है ।जैसे शेखचिल्लीपन का संबंध केवल एक अपनी कल्पना और आशा का परिणाम है । जैसे स्वप्न का संबंध एक बेहोशी की अवस्था में भीतर ही भीतर एक मन की कल्पना का परिणाम है इसी प्रकार 50-60-70-80 वर्ष के भव के स्वप्ने इनका भी केवल कल्पना में संबंध है । यहाँ भी वास्तविक चीज कुछ नहीं है और फिर जो कुछ दिखाई देता है वह सब पौद्गलिक ठाठ हैं । जिन जीवों से हम प्रीति करते हैं तो प्रीति करने के समय जो कुछ लक्ष्य में रहता है वह जीव रहता है या पौद्गलिक देह? जीव नहीं रहता । जब किसी का आकर्षण किसी से संपर्क बनाये स्नेह कर रहे हैं उस समय की स्थिति को निरखिये । क्या यह चैतन्य स्वरूप जीव मात्र को जान जानकर स्नेह कर रहा है? वह तो भवमूर्ति है ।यह देह, इस देह को लक्ष्य में लेकर यह स्नेह कर रहा है । आकार प्रकार, नाक, आंख, कान पेट ये सब लक्ष्य में रहते हैं तो स्नेह किया जा रहा है । कौन करता है चेतन से स्नेह? कहा जाता है ऐसा कि यह जीव चेतन से भी मोह कर रहा और अचेतन से भी मोह कर रहा । मोह तो किसी से नहीं कर रहा । मोह तो एक विकार परिणाम है सो जीव अपने में उस विकार परिणाम को कर रहा है । उसका जो विषय बन रहा उस समय जो लक्ष्य में हो रहा उस पर उपचार करके कहते हैं कि हमने अमुक से मोह किया, अमुक से राग किया, लेकिन उस आश्रय की भी बात निरखे तो मोह के परिणाम में आश्रय जीव नहीं होता किंतु पुद्गल होता । राग परिणाम का आश्रय जीव नहीं होता, पुद्गल होता । जीव को समझकर, जीवत्व को निरखकर कोई भी पुरुष राग नहीं करता । तो देख लो कि जिसको आश्रय करके राग किया जा रहा है वह तो उपयोग से रहित, चैतन्य रहित है और हम तुम जिनको समझाया जा रहा है उपयोग स्वरूप है । यह बात वीतराग सर्वज्ञ भगवान ने बताया, ऋषि सतों ने बताया और अपनी युक्ति से तर्क से भी समझ लीजिये । 782-मेरा मेरे से बाहर क्या ?—हे आत्मन् ! तुम तो उपयोगस्वरूप हो । तुम कभी अन्य रूप बन नहीं सकते उपयोग कभी अनुपयोग नहीं बन सकता, त्रिकाल में भी न बन सकेगा । तो इसका अर्थ यह है कि तुम पुद्गल रूप नहीं बन सकते । फिर यह क्यों कहते हो कि यह पुदगल द्रव्य मेरा है । जो जिसका होता है वह उससे अभिन्न होता है निश्चय से । मेरा कौन? मैं कभी-कभी छोटे बच्चे भी यथार्थ बात कह लेते हैं मगर वे उसे मजाक में कहते हैं और अयथार्थ बात अपने विवेक की शान में कहा करते हैं । किसी बच्चे की किताब गुम गयी, किसी लड़के को मिली । और वह बच्चा खड़ा होकर कहता है कि यह किताब किसकी है, इसे ले लो, तो कोई मजाकिया बच्चा बोलता है कि यह किताब कागज की है बात तो कुछ-कुछ ठीक कह रहा है मगर उसका मूढ मजाक में है । तो यथार्थ बात कुछ-कुछ कह लेवे वह तो हो रही मजाक, और अयथार्थ बात खूब कहता फिरे विवेक की शान की समझ के साथ ।कभी भी हे आत्मन्! तुम अनुपयोग नहीं बन सकते । जड़ नहीं बन सकते, पुदगल नहीं बन सकते, फिर क्यों कहते हो कि यह पुद्गल द्रव्य मेरा है । यह चौकी किसकी है? चौकी की, क्योंकि चौकी से चौकी गुम नहीं सकती । चोर उड़ा ले जाये पर चौकी में चौकी है ही चौकी में चौकी वहाँ भी है? गुमी नहीं । जो जिसका स्वामी है वह उससे अभिन्न है । तो मेरा कौन? मैं ! अब पुद्गलों को मैं न कहो, मेरा न कहो, क्योंकि पुद्गल में और स्वयं में एकदम अंतर है । मैं हूँ ज्ञान स्वरूप, पुद्गल है ज्ञान रहित । क्या कभी ऐसा हो सकेगा कि पुद्गल में जीवत्व आ जाय और जीव में पुद्गलत्व आ जाय । यह कभी नहीं हो सकता । यदि ऐसा हो जाया करता होता तो यह कहा जा सकता था कि पुद्गल द्रव्य मेरा है । यह बात कहीं किसी दूसरे से नहीं कही जा रही, यह सबकी अपनी खुद की बात है । अपने आप में निहारो तो खुद का बाहर में क्या है कौन है? अपने ही सत्त्व को लिए हुये जीव जब जायेगा, अपने सत्व को लिए हुए जायेगा । जो इसमें न था उसको यहीं छोड़कर चला जायेगा । ओर, जो इसमें बस है इसका तत्त्व है उसे उस समग्र को लेकर जायगा । 783-मोह दूर होने की कुंजी—सभी लोग कहने हैं मोह हटावो, मोह दु:खदायी है, और उस मोह से हटने के लिये कुछ-कुछ बाहरी बातों का उपदेश भी है । किसका घर रहा, किसके परिजन रहे, किसका वैभव रहा, किसका नाम रहा, देह तक को भी छोडकर चले जाते हैं, मोह हटाओ । किंतु इतनी ऊपरी बातें सुन सुनकर मोह हट नहीं पा रहा । और कदाचित इतनी ही ऊपरी बातें सुनकर जिन्होंने मोह हटा भी लिया, जंगल में पहुँच गये सन्यास धारण किया किसी की परवाह भी नहीं कर रहे, लेकिन क्या पता अंतरंग में किस विकारभाव से मोह लगा हो । किस विकल्प में बुद्धि अटकी हो । प्रत्येक वस्तु अपने स्वरूप से सत् है, अन्य सब पररूप से असत् हैं इसी कारण मेरा वही है, मेरा मैं ही हूँ इस ही कारण मेरे में मेरा काम है । पर में पर का काम है । मेरी परिणति से मेरे में प्रभाव है, पर की परिणति से पर में प्रभाव है । यह बात स्पष्ट मान में आये बिना मोह मूल से नष्ट नहीं हो पा रहा सबसे बड़ा दान क्या? जिससे और उत्कृष्ट दान न हो? इन आचार्य संतो का यह उपदेश जिसके प्रसाद से भीतर में हमारी दृष्टि एकदम स्पष्ट हो जाय मैं ज्ञानमात्र हूँ अन्य कुछ नहीं हूँ, ऐसा ज्ञान प्राप्त हो, ऐसा ज्ञान जो देना हो निमित्त दृष्टि से कहा जा रहा, जिन आचार्य संतों ने ऐसी ज्ञान की बात कही है, इतना भर नहीं किंतु लिख दी है जिससे आगे के भी मनुष्य लोग इससे लाभ ले सकें । आचार्य संतों के इस दान से बढ़कर हम और क्या दान समझें? सदा के लिए संकट छूट जायें ऐसी तत्त्व की बात प्राप्त हो उससे बढ़कर भी कुछ लाभ कहला सकता है क्या? सांसारिक लाभ किसी ने दे दिया तो हो सकता हैकि उस से और अलाभ में पड़ जाये । क्षोभ में पड जाये, आकुलता में पड़ जाये, पर ज्ञान की बात या यह आत्मदृष्टि की बात अपने उपयोग में समा जाय तो उसका फल है अनाकुलता । 784-ज्ञान का तत्त्वकौतूहल—हे आत्मन् ! देख किसी भी प्रकार है यहाँ तक भी बतलाते हैं आचार्यजन कि किसी भी प्रकार मरकर भी तत्त्वकौतूहली बनकर भी एक अपने ज्ञानमात्र का अनुभव कर ले तो तूने सब कुछ कर लिया । मर कर का अर्थ सीधा मर कर न लेना अथवा ऐसा भी ले लो तो कुछ हर्ज नहीं इस तरह भी यदि ज्ञान तत्त्व मिलता है तो भी लाभ की बात है और जैसे व्यवहार में लोग कहते हैं कि यह काम तो किसी तरह मर पचकर करना ही है । उसका अर्थ है कि तन, मन, धन, वचन सब कुछ न्योछावर करके परित्याग करके भी यदि यह एक ज्ञानतत्त्व की बात प्राप्त होतीं है तो इसे प्राप्त कर लो, यह साथ देगा, यह शांति प्राप्त करायेगा जिसके प्रसाद से अपने को अकिन्चन अनुभव किया जा सके ज्ञानमात्र निरखा जा सके, वह तत्त्वज्ञान कितना उपकारी तत्त्व है, उसका बदला कुछ है ही नहीं लोक में । अपने जीवन को तत्त्वकौतूहली बनाइये । जिसे देखे झट भूतार्थ पद्धति से देखने की दृष्टि बनने लगे । जिससे संपर्क हो व्यवहार काम करके भी या करते समय भी तत्त्वकौतूहली बनकर वहाँ सत्यार्थ परमार्थ दृष्टि से उस अमर तत्त्व पर दृष्टि करने लगिये । यह कहलाता है तत्त्व का कौतूहली बनना । सो जरा इस देह के पड़ौसी बनकर थोड़े समय अपना अनुभव तो कर लो । पड़ोसी दूसरे पड़ोसी का ख्याल तो रखता है पर आप सबको विदित ही है कि वह उस पड़ोसी से ममता नहीं रखता । पड़ोसी के घर में आग लग जाय तो पूरा प्रयत्न करके दूसरा पुरुष उसे बुझायेगा, कसर न रखेगा, इतने पर भी ममता नहीं है । प्रयोजन यह हो सकता कि कहीं यह आग बढ़ कर मेरे घर में न लग जाय, इससे इसे बुझावो । तो ऐसे ही यदि शरीर के पड़ोसी बन गये हम तो शरीर में आग लगे, भूख लगे तो उस आग को बुझायेगे पर ममता से नहीं कि यह मेरे में लगी आग । थोड़ा प्रयोजन तो यह रहेगा कि यह आग बढ़कर कही मुझ में क्षोभ की असंयम की आग ने लगा दे, इससे बुझाने लगता है, पर ममत्व नहीं है । तो यों शरीर के विरोधी बनकर अपने उस ज्ञानमात्र तत्त्व का कुछ अनुभव करले, ऐसा दुर्लभ मौका बार-बार नहीं मिला करता । यह विवेक, यह मन, यह बुद्धि, यह सत्कुल आदिक का प्रसंग, ये बार-बार नहीं मिला करते । इनका उपयोग पर दृष्टि में न करके एक अंतर्दृष्टि सुदृढ़ बनाने के लिए है । 785-प्रत्येक पदार्थ का स्वयं स्वयं से स्वयं में स्वयं के लिये परिणमन—कोई भी बाह्य पदार्थ अपना कुछ नहीं हो सकता । लेकिन मोही जीव बाह्य पदार्थों को अपना मानकर दुर्गतियों में भटकता फिरता है । अपने स्वभावपर तनिक भी दृष्टि नहीं देता । अरे प्राणियों! अपने स्वभावपर किंचित् दृष्टिपात तो करो । अपने स्वभाव पर अधिक से अधिक समय दृष्टि बनी रहनी चाहिये । जीव में प्रतिसमय परिणमन होता रहता है । जिस समय वस्तु में परिणमन होना बंद हो जायेगा, वह वस्तु भी उसी समय नष्ट हो जायेगी, बिना परिणमे वस्तु रह ही नहीं सकती । मैं यदि साधु हूँ, यह तो कुछ समय के लिये हालत है । मैं एक चैतन्य स्वरूप आत्मा हूँ । वह ज्ञानी भी शुद्ध आत्मा से व्यवहार नहीं कर सकता । द्रव्य शुद्ध निश्चयनय से अपने में रहता है, अन्य पदार्थों से न्यारा है । स्वभाव की दृष्टि से जो सम्यग्ज्ञानात्मक आत्मा है, उसको देखना चाहिए, नहीं तो मोक्ष मार्ग नहीं चल सकता है अशुद्ध का आश्रय करने से मोक्ष मार्ग चलेगा ही नहीं । मोक्ष मार्ग शुद्ध पर दृष्टि देने से चलता है । इस अशुद्ध में भी यदि शुद्ध द्रव्य देखा जाये तब मोक्षमार्ग चलता है । सिद्धों का आश्रय (ध्यान) करने से मोक्षमार्ग का उपाय मिलता है ।वास्तव में सिद्धों का आश्रय कोई कर ही नहीं सकता । पर पदार्थ का आश्रय न तो किसी ने किया है और न कोई कर ही सकता है । प्रत्येक आत्मा अपना काम अपने द्वारा अपने में अपने लिये करता है । यदि कोई एक दूसरे रूप हो जाता तो यह संसार और संसार में रहनेवाले प्राणी ही न रहते । अत: एक पदार्थ दूसरे पदार्थ रूप हो ही नहीं सकता है । गुस्सा करने वाले ने अपना बिगाड़ किया, दूसरे का कोई बिगाड़कर ही नहीं सकता । यदि गुस्से की बात देख कर दूसरा भी गुस्से में आ गया तो वह (दूसरा) अपना बिगाड़ स्वयं करेगा पहला उसका बिगाड़ नहीं कर सकता । आपस में वे अपने परिणामों से स्वयं अपना बिगाड़ कर लेंगे, लेकिन उनमें से कोई किसी का तनिक भी बिगाड़ नहीं कर सकता । हां, अपने परिणाम दोनों मलिन कर लेंगे । हम निरंतर इस ध्यान में नहीं रह पाते कि मैं तो अमूर्त चैतन्य हूँ । इस अचेतन अमूर्त आत्मा को कोई नहीं जानता है । मैं अपरिमित पदार्थ हूँ । जब मेरा लोगों ने परिचय ही नहीं किया अर्थात् मुझे कोई नहीं जानता चाहे मेरी कैसी भी हालत होती रहे मेरा कुछ नहीं बिगड़ता तब मेरा कोई कैसे होगा । जैसे दो आदमियों में लड़ाई हो जाती है, उन्हें यदि कोई परिचित व्यक्ति देखे तो लड़ने वालों को और भी अधिक गुस्सा आता है, क्योंकि वे अपने मन में यह सोचते हैं कि ये देखने वाले मुझे कायर समझेंगे । अत: उन्हें अपनी इज्जत की फिक्र पड़ती है । लेकिन जब मुझ चैतन्य आत्मा को कोई जानता ही नहीं, फिर इस मेरे का कुछ भी होता रहे, मुझे किसी की फिक्र नहीं । 786--अमूर्त चैतन्य आत्मा के अपमान का अभाव—जो कोई किसी की निंदा करता है समझो, वह अपनी ही निंदा कर रहा है, पर की निंदा वह कर ही नहीं सकता । निंदा करने से उसकी आत्मा कलुषित होगी, अन्य की नहीं । जब निंदक की दोष पर दृष्टि आई तो निंदक ने अपना ही अपमान किया । दूसरे की निंदा से दूसरे का अपमान नहीं होता है । यदि दूसरे का अपमान होगा तो दोष पर दृष्टि जाने से होगा ।यदि इस प्रकार की दृढ़ प्रतीति करे तो कभी आकुलता न हो । सुख शांति निश्चयनय के आश्रय से मिलेगी व्यवहार के आश्रय से सुख नहीं मिल सकता । दुनिया को अपने से भिन्न समझो तो सुख-शांति मिलेगी । व्यापार करते हुए भी पद-पद पर आने वाली विपत्तियों से दुकानदार विवेक रक्षा करता है । श्रद्धा के बल पर ही शांति की प्राप्ति होती है । एक बार श्रद्धा होनी चाहिये कि मैं समस्त पदार्थों से न्यारा शुद्ध चैतन्य अमूर्त पदार्थ (आत्मा द्रव्य) हूँ । ऐसे शुद्ध चैतन्यात्मा के आश्रय से, जो कि समस्त पदार्थों से न्यारा है, सुख शांति प्राप्त हो जाती है, समस्त आकुलताएँ प्रकाश में अंधकार के समान दूर चली जाती है । वह ध्येय प्रभु स्वयं में विराजता है । उसका यद्यपि अशुद्ध परिणमन है फिर भी हम उस अशुद्ध परिणमन में शुद्ध द्रव्य को देखते हैं । मोह श्रदा-गुण का परिणमन है—ऐसा सोचने पर श्रद्धाशक्ति का स्वरूप उसके समझ में आया । इस अशुद्ध पर्याय में भी सामान्य तत्त्व पर आता है । सामान्य की महिमा बहुत बड़ी है, जबकि दुनिया में विशेष की महिमा गाई जाती है दुनिया में विशेष को आदर दिया जाता है, इसी कारण से अभी तक रूले । सामान्य पर द्दष्टि में ही कल्याण होगा, विशेष में नहीं—यह निश्चित हैं । अखंड तत्त्व की दृष्टि का प्रभाव—अखंड द्रव्य की ओर दृष्टि दौड़ाए, और पर पदार्थों को गौण समझ करके यह जीव सामान्य स्वरूप की दृष्टि से मोक्ष मार्ग में प्रवृत्ति करे तो उसका कल्याण हो जाये । सामान्यस्वरूप की दृष्टि से धर्म प्रकट होता है । वह ध्येय प्रभु सबके हृदय मंदिर में है । हमें सिद्ध बनना है अत: सिद्ध प्रभु के स्वरूप का ध्यान करना चाहिये । वास्तव में कोई सिद्ध प्रभु का अथवा किस अन्य का ध्यान कर ही नहीं सकता । बड़े से बड़ा मोही भी किसी से मोह कर ही नहीं सकता । पुत्र पर मोह पिता कर ही नहीं सकता । जो करता है, वह खूद में ही मोह करता है । यह प्रेम पर्याय स्वयं की आत्मा में हुई, प्रेम अपनी आत्मा से ही किया, हमारी प्रेम-पर्याय दूसरे में जा ही नहीं सकती । जो करता है, वह अपने लिये करता है, दूसरे के लिये नहीं कर सकता । ऐसी ही वस्तु है । प्रत्येक पदार्थ अपने आप में स्वतंत्र-परिपूर्ण है । अन्य पदार्थ में अपनी आत्मा जा ही नहीं सकता । अत: है आत्मन् इस अविवेक को छोड । शरीर मेरा है ही नहीं, कितना भी कहते रहो कि मेरा है, लेकिन समयानुसार एक दिन नष्ट हो ही जाना है । सचित्त, अचित्त व मिश्र—ये पुद्गल मेरे नही—ऐसा विचारकर बाह्यपदार्थों से दृष्टि हटा लो । हमें उस स्थिति का अनुभव करना है, स्वाद लेना है, जो निर्विकल्प हो । एक समय की निर्विकल्प स्थिति के स्वाद में कितनी पाप वर्गणाएं क्षय को प्राप्त होती है । जिस निर्विकल्प स्थिति से इतना लाभ है, उसी का आदर करो, वही सर्वोच्च चीज है । कभी जीव पुद्गल नहीं हो सकता, पुद्गल जीव नहीं हो सकता । शरीर की सेवा रुचि करना आत्मा की हत्या करना है । शरीर का पोषण तभी तक करो, जब तक वह धर्मध्यान में सहायक होता है । शरीर को अपना नौकर समझो, उल्टे शरीर के नौकर मत बनो । जीव पुद्गल नहीं हो सकता, पुद्गल जीव नहीं हो सकता ।शंका: अब अज्ञानी शिष्य समयसार की 26 वीं गाथा में प्रश्न करता है कि जो शरीर है वही आत्मा न हो और पुद्गल ही जीव न हो तो यह स्तुति योग्य नहीं बैठती:—