वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 292
From जैनकोष
जह बंधे छित्तू ण य बंधणबद्धो उ पावइ विमोक्खं ।
तह बंधे छित्तू ण य जीवों संपावइ विमोक्खं ।।292।।
बंधच्छेद के मोक्ष हेतुत्व का अनुमान―जैसे बंधन में बंधा हुआ पुरुष बंधन को छेद करके ही मोक्ष को प्राप्त करता है इसी प्रकार कर्मबंधन के बद्ध से बद्ध यह जीव उन बंधों को छेद करके ही मोक्ष को प्राप्त कर सकता है । अब उसे दार्शनिक भाषा में अनुमान का रूप देकर सिद्ध करते हैं । कर्मबद्ध जीव के बंधन का विनाश मोक्ष का कारण है क्योंकि हेतु होने से । जैसे साँकल आदि से बंधे हुए पुरुष को बंध का छेद छुटकारा का हेतु है अर्थात् जैसे सांकल से बंधे हुए पुरुष का बंधन उस बंधन के छेद से ही मिटता है इसी प्रकार कर्मबंधन से बद्ध इस जीव का बंधन बंधन के छेद से ही मिट सकेगा । ऐसा कहने पर भी आशय में यह बात आती है कि मोक्ष हेतु है अपने कर्मों का छेदन, याने आत्मा के कर्मों का भेदन ।
कर्मशब्द का अर्थ―आत्मा का कर्म है विकार परिणाम जो आत्मा के द्वारा किया जाये उसे आत्मा का कर्म कहते हैं । तो कर्म नाम सीधा विकार भाव का है, और पौद्गलिक द्रव्यकर्म का कर्म नाम उपचार से है । जबकि प्रसिद्धि लोक में पौद्गलिक कर्मों के कर्म नाम को खूब है और आत्मा के रागादिक विकारों को कर्म कहने की पद्धति नहीं है । कर्म का अर्थ कर्म, तकदीर, भाग्य, द्रव्यकर्म । तो प्रसिद्धि तो कर्म शब्द की पौद्गलिक द्रव्यकर्म की है और आत्मा के भावों में जो कर्म शब्द लगाया जाता उसको यों समझते हैं कि लगा दिया है । जबकि वास्तव में शब्द शास्त्र की दृष्टि से कर्म नाम है विकार का, रागादिक भावों का, और जगत के रागादिक विकारों का निमित्त पाकर वे पौद्गलिक वर्गणाएं इस अवस्था रूप बन जाती हैं कि जीव के साथ बँध गयी और समय पाकर वे बंध गयी, और निकलते समय जीव के विकार का निमित्त बन गयीं । इस कारण उन पौद्गलिक वर्गणाओं का कर्म नाम उपचार से है । सीधा नाम तो आत्मा के विकारों का है ।
भेदन, छेदन, स्वतंत्रता व निमित्तनैमित्तिक भाव―आत्मा के विकारों का भेदन होने पर द्रव्यकर्म का भी छेदन होता है । द्रव्यकर्म पृथक द्रव्य है, जिनका नाम द्रव्यकर्म उपचार से दिया है उनका निमित्त आने पर जो आत्मा में रागादिक विकार हुए हैं वे रागादिक विकार निमित्त भूत द्रव्यकर्म की किसी भी परिणति से नहीं होते । उस समय भी द्रव्यकर्म का जीव विकार में अत्यंताभाव है । निमित्तनैमित्तिक भाव हो रहे की घटना में भी द्रव्यकर्म का आत्मा में अत्यंताभाव है । हां, इस योग्य यह आत्मा है कि ऐसे कर्मोदय रूप निमित्त का सन्निधान होने पर यह जीव अपनी परिणति से कर्मरूप परिणम लेता है । इतनी स्वतंत्रता है इसकी ।
परतंत्रता में भी स्वतंत्रता―परतंत्रता नाम उसका है कि कोई पर द्रव्य ही मेरा कुछ कर दे, मेरा परिणमन बना दे, सो पर पदार्थ निमित्त होकर भी यह जीव अपनी ही परिणति से विकाररूप बनता है । इसलिए वह अपने कर्म करने के स्वरूप ही है जीव । साथ ही यह भी देखना है कि क्रोध प्रकृति का उदय आने पर इस जीव के क्रोध भाव ही हुआ है मानभाव नहीं हुआ है । ऐसी परतंत्रता नजर आती है तिस पर भी निमित्तभूत पर अपने में अपनी परिस्थिति बनाकर अपना काम समाप्त करते हैं, इसके आगे निमित्तभूत द्रव्य का कुछ काम करने को नहीं है । पर यह आत्मा ऐसी ही योग्यता वाला है कि ऐसी घटना और निमित्त की परिस्थिति में यह अपनी परिणति को विकाररूप बना लेता है ।
निमित्तनैमित्तिक भाव होने पर भी स्वतंत्रता―जैसे यहाँ प्रकाश आ रहा है, ये पदार्थ प्रकाशित हैं । बादल आड़े आ जाये तो यहाँ का प्रकाश बंद हो गया, और बादल हट गए तो यहाँ का प्रकाश फिर आने लगा । तो यह प्रकाश सूर्य से आया हुआ सूर्य का प्रकाश नहीं है । यह सूर्य स्वयं प्रकाशमय चीज है, और जगत के इन पदार्थों के प्रकाशमय बनने में वह निमित्तभूत है । सो उसके होने पर प्रकाश हुआ, न होने पर प्रकाश न हुआ ऐसा अन्वय व्यतिरेक संबंध देखा जाता है फिर भी सूर्य ने इन पदार्थों को परतंत्र नहीं बनाया । सूर्य अपना काम करता हुआ अपने में स्वतंत्र है, और यह भी देखिये कि विचित्र सान्निध्य में अपने को नाना पिंडरूप बनाता हुआ चला जाता है यह समस्त पदार्थ, सो ये अपनी ही परिणति से नानादशारूप बनते हैं, इतनी स्वतंत्रता है ।
स्वतंत्रता का विवरण―स्वतंत्रता का अर्थ है―अपने ही परिणमन से परिणम सकना, दूसरे के परिणमन से न परिणमना, इसका ही अर्थ स्वतंत्रता है । जैसे कर्मों का उदय होने पर आत्मा अपनी परिणति से विकाररूप हो जाता है तो यहाँ निमित्त हुआ द्रव्यकर्म का उदय और नैमित्तिक हुए आत्मा में विकार । इन संपूर्ण आत्मा के विकारों का निमित्त पाकर नवीन द्रव्यकर्म में कर्मरूप परिणमन हुआ, तब आत्मा का विकार हुआ निमित्त और कर्मरूप परिणमन हुआ नैमित्तिक भाव । और, यह निमित्तनैमित्तिकपना जीव का और कर्म का परस्पर में अनादि परस्परा से चला आ रहा है । तो निमित्तनैमित्तिक दृष्टि से इन दोनो में परतंत्रता है तिस पर भी अपना विवेक करके ऐसी परतंत्र परिस्थिति में भी स्वतंत्रता के देखने के प्रेमी बनें और संकटों से मुक्त हों ।
पारतंत्र्य दर्शन में अलाभ―भैया ! परतंत्रता जैसी स्थिति का कार्य हो रहा है वहाँ हम यदि अपनी इस वस्तुगत दृष्टि को ढीला कर दें तो हमारे उपयोग में परतंत्रता का ही नर्तन होगा और इस वस्तुगत दृष्टि को मजबूत पकड़ लें तो निमित्तनैमित्तिक भाव की घटना में भी हमें स्वतंत्रता नजर आयेगी । और, पूर्ण स्वतंत्रता में स्वभाव परिणमन है ही । दोनों बातें दिखेंगी । जहाँ विकार परिणमन की स्वतंत्रता की बात कही जा रही है वहाँं निमित्त आवश्यक है, और जहाँ स्वभाव परिणमन की स्वतंत्रता की बात कही जाये वहाँ निमित्त का अभाव रूप निमित्त आवश्यक है । तो बनना चाहिए अपने को स्वतंत्रता का प्रेमी । सिद्धांत का अपघात न हो, वे पदार्थ अपनी धारणा में रहें, कहीं इस स्वतंत्रता का इतना अनुचित उपयोग नहीं बनाना है कि जीव के रागादिक जिस समय होने को होते हैं उस समय होते ही हैं और बाहरी पदार्थों को निमित्त वालों के संतोष के लिये कह देते हैं । जगत के समस्त पदार्थ अपने-अपने स्वरूपास्तित्व रूप ही हैं इस कारण ऐसे निमित्तनैमित्तिक भावों की घटना में भी कर्म अपने में अपना परिणमन कर रहे हैं और उसका निमित पाकर जीव अपने में अपना परिणमन कर रहा है । जीव अपने में अपना विकार परिणमन कर रहा है, और उसका निमित्त पाकर कर्म अपने में अपने विकार का परिणमन कर रहा है । यह तो निमित और उपादान की साधारण बात है ।
आत्मविकाररूप कार्य का उपादान―अब आत्मा के विकार का उपादान क्या है इस संबंध में यदि विचार करते हैं तो दो तरह से समझना चाहिए । एक ओधरूप और एक विशेषरूप । ओध कहो या सामान्य कहो । सामान्यरूप उपादान को तो जीव पदार्थ बताया है । यह सामान्यरूप उपादान अपनी जाति के परिणमन का नियामक है, पर किसी विशिष्ट परिणमन का नियामक नहीं है । अर्थात् इस चेतन सामान्य उपादान में चेतनत्व जाति का उल्लंघन न करके परिणमन होगा मात्र इतना ही नियामक है यह सामान्य उपादान और पूर्व पर्याय परिणत चेतनपदार्थ उत्तर पर्याय का विशेषरूप से नियामक है । ऐसा ही परिणमन होना चाहिए । तो विशेष उपादान हुआ पूर्व पर्याय परिणत चेतन पदार्थ ।
विकारपरिणति का स्रोत―अब इस चेतन पदार्थ में जो विकार हुआ है सो निमित्तदृष्टि से तो उस द्रव्यकर्म का निमित्त पाकर हुआ है । उपादान की दृष्टि से पूर्व पर्याय के व्यय रूप से परिणत चेतन से उठकर होता है । निमित्तभूत कर्मों से उठकर नहीं हुआ । तो इस तरह इन दोनो में परस्पर निमित्तनैमित्तिक भाव हैं, पर यह निमित्तनैमित्तिक भाव कैसे मिट जाये, बस यही करना मोक्ष का उपाय है । इसके मेटने का उपाय विभावों का भेदना है । और, अपन क्या कर सकते हैं । द्रव्यकर्म पर पदार्थ है और शरीर भी परपदार्थ है, फिर उसमें यह आत्मा क्या करेगा । आत्मा का वश अपने आपके घर में होगा स्वभाव भी घर का और विभाव भी घर का । इन दोनों के भेदने से स्वभाव के विकास की जागृति होती है विभावों का भेदन होगा, वहाँ द्रव्यकर्म का छेदन अपने आप होगा ।
परबंधन के निरख की सुगमता―इस जगत के साथ बंधन तो लगा ही है, क्योंकि सभी जीव अपने को दुःखी अनुभव करते हैं । और, देखो सबके दिल हैं, सबकी अलग-अलग स्थिति है, मगर सबके न्यारे-न्यारे दुःख हैं । आप और तरह का दु:ख करते हैं हम और तरह का दुःख करते हैं, पर जब तक बंधन है तब तक दुःख ही है । दूसरों को ऐसा लगता है कि यह व्यर्थ ही दु:ख कर रहा है, न करे दुःख तो क्या हर्ज है, दूसरे दूसरों को इस तरह देख सकते हैं कि व्यर्थ ही यह क्लेश कर कहा है, न ऐसा करे तो क्या हर्ज है । न करे इसका ख्याल तो क्या बिगड़ता है । यह तो सर्वत्र अकेला ही है । इससे कोई दिल मिला तो नहीं है । सो दूसरे के प्रति तो ख्याल आ जाता है कि व्यर्थ ही यह दुःख कर रहा है किंतु अपने आप पर जो बात गुजरती है उसका ख्याल नहीं होता है कि मैं व्यर्थ दुःख कर रहा हूँ । अपने आत्मा के संबंध में यह ध्यान नहीं आ पाता कि मैं तो प्रभु की तरह आनंदमय हूँ, कहां क्लेश है । मेरे स्वरूप में रंच भी क्लेश नहीं है । यह क्लेश बनाया गया है । उदय का निमित्त पाया और अपने परिणामों को स्वच्छंद बनाया, विषयों के पाप में अपने आपको व्यर्थ ही जुटाया । अटक कुछ न थी, पर दुःखी हो रहा है । ऐसा ख्याल अपने आपके बारे में अपने आपको नहीं होता ।
परतंत्र के स्वातंत्र्य के उपाय की चिंतना―सो भैया ! परतंत्र तो यह है ही पर परतंत्र की हालत में भी परतंत्रता से हम छूट सकें इसका कोई उपाय भी है कि नहीं? अगर नहीं है तो धर्म पोथी सब बंद करके आले में रख दो, क्योंकि कर्मबंध है और परतंत्रता की हालत में भी छूटने का कोई उपाय है नहीं, तो धर्म पोथी एक तरफ धरो । धर्म तो फिर उनके लिए हुआ जो स्वतंत्र हों । ऐसे जो स्वतंत्र हैं उनके धर्म करने की जरूरत ही नहीं है । तो धर्म बेकार प्रसक्त होता है, क्योंकि परतंत्र को फायदा नहीं, स्वतंत्र को जरूरत नहीं ।
परतंत्र के स्वातंत्र्य का उपाय―सो भैया । कहीं ऐसा धर्म बेकार नहीं है । जो अत्यंत ही स्वतंत्र हो गया है, सर्वथा ऐसे प्रभु को धर्म पालन की जरूरत नहीं है वह खुद धर्म है, वह धर्ममय है, धर्ममूर्ति है । धर्म पालन की जरूरत तो यहाँ है परतंत्र को परतंत्र अवस्था में भी परतंत्रता से छूने का उपाय किया जा रहा है । वह उपाय क्या है कि स्वतंत्र निश्चल, निष्काम, अनादि अनंत ध्रुव जो अपना चैतन्य स्वभाव है उसकी जानकारी, उसकी श्रद्धा और उसमें स्थिरता का यत्न करने लगो । क्या ऐसा नहीं हो सकता है कि हम पड़े तो हों खोटी जगह और स्वाद ले रहे हों अच्छा । ऐसा हो सकता है या नहीं? हो सकता है गृहस्थावस्था में पड़े तो हैं खोटी जगह ममता के साधने में, घर के बीच, पड़ोसियों की कलह में? यहाँ वहाँ के नटखट में, पर कोई गृहस्थ यदि विरक्त है, ज्ञानी है और उसे बाहर में कुछ नहीं सुहाता तो उसे ज्ञान का स्वाद आ रहा है कि नहीं? आ रहा है ।
पारतंत्र्य स्थिति में स्वातंत्र्य दृष्टि के स्वाद की शक्यता―होली के दिनों में आदमियों को विचित्र रंगों से रंग देते हैं आधा मुंह काला कर दिया, आधा नीला कर दिया, ऊपर से लाल कर दिया, पहिचान में नहीं आता, ऐसी सूरत बना देते हैं पर यदि मिठाई खावे तो उसे स्वाद आयेगा कि नहीं आयेगा? मिठाई का स्वाद उसे आयेगा । उसका लोग भयानक चेहरा बना देते हैं पर मिठाई का स्वाद तो उसे आयेगा ही । बाहर से देखने में तो यह जीव गंदे वातावरण में है पर भीतर से यह अपने लक्ष्य को अपने स्वरूप में ले जायें तो उसे ज्ञान का स्वाद मिल सकता है कि नहीं? मिल सकता है । तो ज्ञानमात्र आत्मतत्व को लक्ष्य में लेने से परतंत्र अवस्था दूर होती है । संसार से छुटकारा पाने का यही उपाय है ।
निज सहज स्वरूप का निज के लक्ष्य में ग्रहण―भैया ! ज्ञान कर लेना तो आसान है पर अपने लक्ष्य में उस ज्ञान को लेना, अपने ध्यान में उतारना यह उससे कठिन है । जैसे रोटी की बात कह लेना आसान है पर रोटी बनाना और खाना यह बात उससे कुछ कठिन है । रोटी की बातें करने से पेट नहीं भरता पेट तो रोटी खाने से ही भरता है । उसी तरह वस्तु स्वरूप के ज्ञान की बातें करने से मोक्ष मार्ग न मिलेगा किंतु जैसा स्वतंत्र पदार्थ जाना है उस प्रकार उसको लक्ष्य में लेने से मोक्ष का मार्ग बनेगा । उद्देश्य जिसका कुछ नहीं है वह बाह्य क्रियाएं करता जाये पर उद्देश्य में सफल नहीं हो सकता । जैसे नाव चलाने वाले का उद्देश्य कुछ नहीं है कि हमें किस पार जाना है, किस ठिकाने पहुंचना है तो नाव खेता जाये, कभी इस ओर खेता तो कभी दूसरी ओर खेता फिर कभी लौटा दिया, वह नाव को किसी ठिकाने नहीं लगा सकता, तो उद्देश्य बन जाना और भावों को लक्ष्य में लेना ये बातें बहुत कठिन हैं ।
स्वयं का कर्तव्य पुरुषार्थ―सो भैया ! इस परतंत्र अवस्था में भी अपने सत्त्व के कारण वैसा अपना स्वरूप है उस स्वरूप का ज्ञान करना, भली प्रकार श्रद्धान करना और उसही स्वरूप में लीन होना यही है रत्नत्रय सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और यही है मोक्ष का मार्ग, सो यह स्वातंत्र्य विषयी उपयोग द्वारा प्राप्त किया जा सकता है । मोह राग द्वेष परिणाम से अपना अहित है ऐसा जिसने न जाना और एक निर्णय होकर मोह रागद्वेष के परिणाम में ही जुटा रहा तो उसका हित नहीं है । इस मोह रागद्वेष में से सबसे पहिले मिटता है मोह, उसके बाद मिटता है द्वेष और सबसे अंत में मिटता है राग । यह सब इस ही जीव को तो करना है ।
मोह, राग और द्वेष का विवरण―मोह कहते हैं मिथ्यात्व को, भिन्न-भिन्न, स्वतंत्र-स्वतंत्र, अनेक वस्तुओं का संबंध मानना, कर्तृत्व भोक्तृत्व मानना, सो तो है मोह और परवस्तुविषयक राग करना, पर वस्तु सुहा जाना उसको कहते हैं राग । एक उदाहरण लो―आपका तीन-चार वर्ष का एक पुत्र है मान लो । वह कुछ कलावान भी ज्यादा नहीं है, रूपवान भी नहीं है,, घिनावना सा बना रहता है, उस पुत्र से आपको मोह है और राग भी है और दूसरा पड़ोस का या परदेश का पुत्र जो चार वर्ष का है, बड़ा सुहावना है अच्छी पोशाक पहिने है, कलापूर्ण बातें करता है बड़े आदमियों जैसी―तो आपको वह बालक सुहायेगा कि नहीं? सुहायेगा, किंतु मोह हुआ कि नहीं हुआ? नहीं हुआ । दूसरे का सु-रूपवान, कलावान बालक सुहा तो जायेगा, परंतु मोह न होगा । ऐसा ही मोह और राग में अंतर है ।
मोह राग और द्वेष के नाश होने का क्रम―सबसे पहिले छूटता है जीव का मोह, मोह मिटा कि सम्यक्त्व जगा । मोह मिट जाने पर भी अभी राग और द्वेष सतायेंगे, सो जब उत्कृष्ट ऊंचे परिणाम होंगे, अपने को एकाकी और अकिंचन मानने के परिणाम बनेंगे और ऊंची निर्मलता बढ़ेगी तब जाकर मिटेगा द्वेष । राग भी मिट रहा है पर समूल नष्ट होगा पहिले द्वेष । फिर रह गया केवल राग । सो जब मोह और द्वेष ने संग छोड़ दिया तो राग कब तक रहेगा । वह राग भी दूर हो जायेगा । यों जब मोह राग द्वेष दूर हो जाते हैं तब इस जीव को केवलज्ञान उत्पन्न होता है । अभी अरहंत भी हैं और हैं इस संसार में शरीरसहित, पर वे भी मुक्त हैं, चार कर्मों से तो मुक्त हुए ही हैं, अब केवल अघातिया कर्म रह गए । सो अघातिया का प्रभाव कम है । अरहंत भगवान को न मुक्त बोलते हैं न संसारी बोलते हैं किंतु जीवन्मुक्त बोलते हैं । प्राणों से जिंदा होकर भी मुक्त हैं । सो यों जानना कि अपने परिणामों की निर्मलता से बंध कटते हैं इसलिए ज्ञान के साथ-साथ अंतरंग का संयम भी चाहिए ।
दो जिज्ञासुवों का प्रतिबोधन―यहां मोक्ष की बात चल रही है कि मोक्ष का हेतु क्या है । अब तक दो तरह के जिज्ञासु सामने आए, एक तो यह करते हैं कि बंध के स्वरूप का ज्ञान हो जाये उससे मोक्ष होता है, और एक जिज्ञासु ने यह बताया है कि बंध मिटे ऐसे चिंतन से मोक्ष होता है । आचार्य देव कहते हैं कि ये दोनों ही बातें मोक्ष की साधकतम नहीं हैं, किंतु जिन उपायों से बंध होता है उनसे उल्टा चलना सो मोक्ष का कारण है । बंध होता है रागद्वेष मोह के करने से तो रागद्वेष मोह न किए जायें सो मोक्ष का कारण है । यही कहलाता है आत्मा और बंध के दो टुकड़े करना । सो इन दोनों जिज्ञासुवों को भली भांति समझाकर उन्हें इस बात में लगाया गया है कि तुम आत्मा को और विभावों को भिन्न-भिन्न करो, जानो और इस ही रूप ज्ञान का परिणमन स्थिरता बनावो यही मोक्ष का हेतु है । अब प्रश्न किया जा रहा है क्या बंध को करना ही मोक्ष का कारण है? इसके उत्तर में कहते हैं