वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 294
From जैनकोष
जीवो बंधों य तहा छिज्जंति सलक्खणेहिं णियमेहिं ।
पण्णाछेदणयेण उ छिण्णाणाणत्तमावण्णा ।।294।।
सोदाहरण विविक्तीकरण―जीव और बंध अपने-अपने नियत लक्षणों से जुदे-जुदे कर दिये जाते हैं । जैसे पानी गर्म हो गया, अब वहाँ पानी का स्वभाव और पानी में हुए विकार ये दो बातें अलग-अलग हैं । ऐसा ज्ञान करा देने वाले उनके अपने लक्षण हैं । गर्म पानी होने पर भी जब यह पूछा जाता है कि पानी का स्वभाव कैसा है तो शीतल बतायेंगे । किंतु गर्मी क्या है नहीं इस जल में? है । यदि नहीं है तो यह जल गरम कैसे होता ? पर जल का स्वभाव गरम हो तो जल ठंडा न होगा । तो गरम होने पर भी पानी का स्वभाव जैसे ठंडा है इसी प्रकार रागादिक विकार होने पर भी आत्मा का स्वभाव निर्विकार ज्ञानस्वरूप है, ऐसे अविकारी ज्ञानस्वरूप निज आत्मतत्त्व का ज्ञान हो, इस ओर ही उन्मुखता हो तो बंध दूर हो जाता है ।
दृष्टि द्वारा शक्ति परिचय का एक उदाहरण―इस प्रज्ञा को छेनी कहते हैं जो छेद दे उसका नाम छेनी है । यह स्वलक्षण पहचानने वाली बुद्धि स्वभाव और विभाव को जुदा कर देती है । और इस तरह से वे दोनों के दोनों नानापन को प्राप्त हो जाते हैं, दूध को देखकर लोग बता देते हैं कि इसमें प्रति सेर आधापाव घी निकलेगा, इसमें प्रति सेर 1।। छटांक घी निकलेगा । घी नहीं दिखता, दूध ही केवल सामने है, घी वहाँ नहीं है फिर भी बुद्धि ज्ञान प्रतिभा प्रज्ञा ऐसी एक विलक्षण दृष्टि है कि उस ज्ञान के द्वारा वहाँ यह बता दिया जाता कि इस दूध में 1।। छटांक घी फैला हुआ है । घी नहीं वहाँ दिखता है, न वहाँं मौजूद है, फिर भी दूध के स्वभाव को, दूध की सामर्थ को देखकर यह कह दिया जाता कि इसमें घी अधिक है, इसमें घी कम है । तो जो पर्यायरूप में प्रकट नहीं है उस घी को भी जो दृष्टि बता सकती है उस दृष्टि में ही वह सामर्थ्य है ।
व्यर्थ का मोह―हमारा आत्मा यद्यपि आज बहुत बंधनों से बंधा है, आशा आदिक नाना परिणमनों में यह चल रहा है इतने पर भी आत्मा का स्वभाव हैं ज्ञान और आनंद । जो अपने ज्ञानानंद स्वभाव को पहिचानता है उसका मोह दूर होता है न इस लोक में दुःख केवल मोह का है । अनंत जीवों में से दो चार जीवों को आपने मान लिया कि मेरे हैं―बताओ क्या संबंध है ? कुछ समय से आपके घर में आए हैं कुछ समय बाद वे बिछुड़ जायेंगे । रंच भी तो संबंध नहीं है । फिर भी दिल में ऐसा घर बना हुआ है उनके लिए कि वे ही आपके सब कुछ हैं ।
अयथार्थ ज्ञान में मोह―भैया ! जो बात जैसी नहीं है वैसी मानना यही मोह है इससे ही क्लेश है । जगत का वैभव अनित्य है, विनाशी है, पर जिसे जो वैभव मिला है अपने पाये हुए वैभव में कुछ ऐसा नहीं सोचते हैं कि ये नष्ट हो जायेंगे, दूसरे के वैभव को सोच लेंगे कि यह कितने दिन का है यह तो नष्ट होगा ही, पर खुद के निकट जो वैभव आया है उसमें बुद्धि नहीं जगती कि इसमें क्या हर्ष करना, यह तो नष्ट हो जायेगा । जो चीज नष्ट हो जाने वाली है उसको अविनाशी समझना यही दुःख का कारण है । शरीर मैं नहीं हूँ, शरीर जड़ है, मैं एक ज्ञान ज्योति प्रकाश हूँ, फिर भी शरीर को हो मानना कि यह मैं हूँ, यह मिथ्या धारणा ही क्लेश का कारण है ।
वस्तु स्वातंत्र्य―वस्तु का स्वरूप देखने पर प्रत्येक वस्तु न्यारी है, निराली है। एक परमाणु के साथ दूसरे परमाणु का संबंध नहीं है। प्रत्येक जीव न्यारा है। कितना ही घनिष्ट प्रेम हो फिर भी ये परेशान है। हम दोनों जीव एक क्यों नहीं हो पाते हैं? इनका आत्मा एक क्यों नहीं बन जाता, यों मोहीजन अपने में परेशानी महसूस करते हैं। किंतु, सत्य ज्ञान का प्रकाश पायें तो अभी सुखी हो जायें। दु:खी तो जीव कल्पना से है। कुछ कल्पना कर डालें तो दु:खी हो गये।
परिग्रह परिमाण की आवश्यकता―भैया ! जिसके पास जितना धन है उससे अधिक पर यह जीव दृष्टि डाल रहा है, सो जो मिला है उसका भी आनंद नहीं मिल पाता है । परिग्रह परिमाण हो जाये कि जो हमारी वर्तमान स्थिति है, गुजारा हो ही रहा है, मुझे इससे अधिक न चाहिए, और कदाचित् उदयवश आ जाये तो उसे मैं न रखूंगा, लोगों के उपकार में लगाऊंगा, ऐसी धारणा करके कोई परिग्रह का परिमाण कर ले और पाये हुए परिग्रह को ही अपनी आवश्यकता से अधिक जान ले तो उसको संतोष हो सकता है, नहीं तो मान लो जायदाद 50 हजार की है और दृष्टि यह लग रही है कि कैसे मैं लखपति होऊँ तो उस पाये हुये धन से भी आनंद नहीं मिल पाता है, क्योंकि तृष्णा हो गयी है । इस तृष्णा के विनाश के लिये परिग्रह परिमाण अत्यावश्यक है ।
धर्म दृष्टि के लिए जीवन―जैन सिद्धांत में श्रावकों के लिए पहिली बात यह बतायी है कि जो तुम्हारी स्थिति हो, जो आय हो उसके ही भीतर गुजारा करके दाम देकर संतुष्ट रहो । गुजारे का कोई हिसाब तो है नहीं, मापदंड तो है नहीं कि 500 में गुजारा होता है या 200 में गुजारा होता है या 100 में गुजारा होता है कोई मापदंड तो है नहीं चाहे 500 खर्च करो । और, कितने ही लोग 50 में ही गुजारा करते हैं ऐसी भयंकर स्थिति में भी । तो यह तो अपनी-अपनी कल्पना की बात है । दुःखी यह जीव केवल कल्पना से होता है नहीं तो यह जानना चाहिए कि हम मनुष्य हुए हैं तो एक धर्म पालने के लिए मनुष्य हुए हैं । हमें यहाँ अपनी इज्जत नहीं गाड़ जाना है, हमें यहां अपना कोई ठाठ नहीं बनाये जाना है । कौन किसे जानता है । किसकी किससे पहिचान है । सब अपने आपके कषाय परिणाम के अनुसार अपनी प्रवृत्ति करते हैं । ऐसा वस्तुस्वरूप जानकर सबसे उपेक्षा हो और अपने आपमें ही अपने आपको संतुष्ट करे तो इससे शांति मिल सकती है ।
संकट का मूल तृष्णा―भैया ! जहाँ इन मायामय जीवों में अपनी कुछ इज्जत चाहने की बात उत्पन्न हुई कि समझ लो कि संकट लग गये । एक देहाती जो देहात में बहुत मामूली सात्त्विक वृत्ति से जीवन व्यतीत करता रहा हो, भाजी रोटी खाता रहा हो, साधारण मोटे कपड़ों से अपने आपको संतुष्ट मानता रहा हो और दुर्दैव से उसे किसी शहर में रह जाना पड़े तो शहर का रहन सहन देखकर उनका खानपान देखकर या कुछ वैसा ही खानपान थोड़ा मिल गया, रहन सहन का ढंग आने लगा पैंट कमीज का बर्तावा होने लगा, अब जो देहात के सुख थे वे सब दूर हो गये, भोगों की इच्छा बढ़ने लगी, कामनाएं बढ़ने लगी, अब उसका जीवन दुःखमय हो गया, दुःखमय जीवन बनता है तृष्णा से । तृष्णा होती है जगत के मायामय जीवों में अपने को कुछ दिखा जाऊं ऐसी कामना होने से ।
द्वैतदृष्टि में मोह का ऊधम―भैया ! किसी से लड़ाई हो और वह अकेले में ही हो, उसे गाली सुना दे तो बुरा नहीं लगता और कोई तीसरा देख रहा हो, सुन रहा हो तो उसे बहुत बुरा लगता है मेरा अपमान कर दिया । जगत के मायामय जीवों कैसा आकर्षण है मोही जीव का कि बिना ही जड़ मूल के कल्पनाएं बनाकर अपने आपको परतंत्र बना रहे हैं । भैया ! जब तक आत्मदर्शन न हो, सब पर वस्तुओं का ख्याल छोड़कर मन को विश्राम न दें और केवल ज्ञान ज्योति का अनुभवन न कर पायें तब तक यह मायाजाल उसे सत्य प्रतीत होता है । यह बात कही जा रही है मोक्ष के मार्ग की । यद्यपि गृहस्थावस्था में इतनी उदासीनता नहीं आ सकती पर किसी-किसी क्षण गृहस्थ को भी अपने शुद्ध स्वरूप की झलक होती है । और, उस झलक के प्रसाद से बाकी समय में भी वह निराकुल रहता है, यह आत्मा की झलक, आत्मा का यह अनुभव कैसे प्रकट हो उसकी चर्चा यहाँ की जा रही है ।
स्वभाव और विभाव के विवेक का अभिन्न साधन―आत्मा और रागादिक बंधन इनको दो जगह करनेरूप कार्य में यह सोचा जा रहा है कि इस आत्मा को साधन क्या मिले, जिससे यह आत्मस्वभाव और ये रागादिक विकार दूर हो जाएं । इस पर विचार करने से यह निश्चय हुआ कि वह उपाय मेरे से भिन्न नहीं है । मेरे से भिन्न साधन में यह ताकत नहीं हैं कि मुझे छुड़ा दें । वह उपाय मेरे में ही है, वह है चैतन्यात्मक साधन । प्रज्ञा, विवेक, बुद्धि से इन दोनों के स्वरूप को पृथक् समझ लिया आत्मा और बंधन इन रागादिक विकारों से जब अपने ज्ञान को जुदा मान लिया जायेगा तो कभी रागादिक दूर हो जायेंगे ।
प्रभु की आदर्शता―जिनकी हम उपासना करते हैं―अरहंत देव, सिद्धभगवान इन्होंने यह काम किया था पहिले, अपने स्वभाव को पहिचाना और रागादिक से उपेक्षा की थी जिसके परिणाम से उन्हें उत्कृष्ट पद मिला, आकुलतारहित परिणमन हुआ जो आज भव्य जीवो के लिए आदर्शरूप हैं, जिनकी आज पूजा करते हैं, जिनके चरणों में हम मस्तक झुकाते हैं, जिनकी उपासना की जाती है वे प्रभु इन सब झंझटों से मुक्त हुए हैं ।
शांति के संप्रदान की दृष्टि की आवश्यकता―भैया ! देना है सुख और दूर करना है दुःख । तो जिसको हमें शांति देना है वही हमारी नजर में न रहे तो शांति किसे दें? भगवान यह ज्ञायक स्वरूप प्रभु सबके स्वरूप में मौजूद है, प्रभु बिना कोई नहीं है, सबके घट में भगवान है । सबकी आत्मा में प्रभु बसा है किंतु अपने प्रभुस्वरूप का स्मरण नहीं है सो दीन होता हुआ आशा करके भिखारी बन रहा है । जब अपने आपके प्रभुता की स्मृति होगी तो ये सब संकट दूर हो जायेंगे । हमारे इस परमात्मतत्त्व के दर्शन में बाधा डालने वाला अहंकार है । पर पदार्थों में अहंकार करना, गर्व करना, अपने आपके परिणमन में अहंबुद्धि रखना, इस अभिमान ने हमारे प्रभुदर्शन को रोक दिया है । अहंकार न हो तो प्रभु का दर्शन शीघ्र होगा । एक अहंकार ही बीच का ऐसा पर्दा पड़ा है कि इसके कारण यह मैं अपने प्रभु के दर्शन नहीं कर पाता ।
अहंकार में प्रभुमिलन की बाधकता―अंहकार को लोग लौकिक भाषा में मान रखना कहते हैं―भैया ! देखो विचित्र बात कि मनुष्य के सब शरीर में बेकार चीज नाक है, आंखों से तो कुछ काम निकलता है―देखते हैं, कानों से राग रागिनी की बातें सुनते हैं कुछ आनंद लेते हैं, मुख से सुंदर रचनायें कवितायें बोलते हैं, और सारा जगत व्यवहार इस सुख से चलता है । हाथ भी काम के हैं, पैर भी काम के हैं, सब अंग काम के हैं पर नाक एक बेकार सी लगी हुई है । इस नाक से कोई चीज भोगने में नहीं आती । यह नाक इस शरीर में घृणा का साधन है इसलिए यह बेकार सा अंग है, पर यह सबका सिरताज बन रहा है । कहते हैं कि हमारी नाक रख लिया । अरे इस घिनावनी नाक की बात कर रहे हैं अपना पोजीशन, अहंकार इस नाक पर रखा है? सो जब हम नाक में अटक जाते हैं तो प्रभु के दर्शन खत्म हो जाते हैं । जब हम नाक में नहीं अटकते हैं तो प्रभु के दर्शन मिल जाते हैं । ठीक है जब तक नाक की ममता रहती है तब तक भगवान के दर्शन नहीं होते हैं । पर नाक के मायने यह शरीर वाली नाक नहीं, किंतु उस नाक के मायने है अहंकार । जब तक शरीरादिक पर द्रव्यों में और अपनी करतूत में अपने विचारों में अहंकार का भाव रहता है तब तक इस जीव को क्षमता का कुंज ज्ञानानंद निधान प्रभु स्वरूप का दर्शन नहीं होता क्योंकि उसकी तो पर्याय में बुद्धि अटक गयी । अब भगवान कहां से मिलें ।
दुर्लभ समागम का सदुपयोग―भैया ! जैनधर्म जैसा सुलभ वैभव पाकर अपना यदि इस समागम से कुछ लाभ न उठा सके तो यह तो संसार है, जीव जन्मते हैं, मरते हैं, इसी तरह एक यह भी जन्म मिला और मर गए । लाभ कुछ न लूट सके । मरकर यदि पेड़ हो गए, पक्षी हो गए तो अब क्या करोगे वहाँं? क्या लाभ लूटा इस भव के पाने का और ऐसा उत्कृष्ट श्रावक-कुल पाने का? जैन धर्म जैसे वस्तुस्वरूप को सही बताने वाले दर्शन को पाने का लाभ लूटो, जितना बन सके उतना लाभ लूट लो । वह लाभ क्या है? खूब ज्ञान बढ़ाओ द्रव्यानुयोग, करणानुयोग सभी खूब स्वाध्याय करो और जैसे व्यापार में आप 8 घंटे का समय व्यतीत करते हो वैसे ही, और नहीं तो 2 घंटे तो स्वाध्याय में समय व्यतीत करो ।
स्वाध्याय पद्धति―स्वाध्याय करो सरल पुस्तकों का, जिस पुस्तक का स्वाध्याय शुरू करो उसको ही रोज-रोज पढ़ो जब तक समाप्त न कर लो । दो कापी साथ में रखो । स्वाध्याय में जो बात उत्तम लगे उसको एक कापी में नोट कर लो ताकि जब आप चाहें तभी उस सारभूत तत्त्व से लाभ ले सकें । दूसरी कापी में जो आपको शंकायें हों उन शंकाओं को लिखते जाओ । जब कोई योग्य विद्वानों का समागम हो तो उन शंकाओं को उनसे पूछकर दूर करो जैसे धन वैभव अथव परिवार के प्रेम की तृष्णा होती है ऐसी ही तृष्णा लगानी चाहिए ज्ञान के बढ़ाने की, तो यह मनुष्य जीवन सार्थक समझिये । उसी ज्ञान का यहाँ वर्णन चल रहा है कि कैसा ज्ञान करें कि रागादिक भाव मेरे आत्मा से दूर हों ।
प्रतिपदवी बंधच्छेद की परिस्थिति―आत्मा और बंध इन दो को अलग कर देने से मोक्ष होता है, तो उनका अलग होना भिन्न-भिन्न पदवियों में भिन्न रूप से कहा गया है । जैसे सर्व प्रथम आत्मा और विभाव इनका अलग होना ज्ञान दृष्टि से है । ज्ञान से जान लिया कि विभाव औपाधिक तत्त्व है और यह मैं चैतन्यमात्र हूं, ऐसा ज्ञान से भिन्न-भिन्न पहिचान लिया इसको भी अलग करना कहते हैं पर अभी परिणमन में अलग नहीं हुआ है परिणमन विभाव रूप से चल रहा है । फिर जैसे-जैसे आत्मसंयम बढ़ता जाता है यह बंध भी वैसे-वैसे अलग होता जाता है, और अंत में ये विभाव स्वभाव से बिल्कुल जुदे हो जाते हैं । उस समय इन्हें जीवन्मुक्त कहते हैं । और जब शरीर भी नहीं रहता है तो इन्हें सर्वथा मुक्त कहते हैं तो उस आत्मा और बंध को जुदा कर देने वाला साधन है प्रज्ञा । प्रज्ञा के द्वारा आत्मा और बंध इन दोनों को छेद दिया जाये तो नियम से वह अलग-अलग हो जाता है । इस प्रज्ञा को ही भगवती कहते हैं ।
भगवती प्रज्ञा―जैसे लोग कहा करते हैं मांगने वाले की भगवती तुम्हारी फतेह करे । तो वह भगवती कौनसी है अलग से जो हमारी और आपकी रक्षा कर सकती है? लोगों की दृष्टि में तो कोई भगवान की स्त्री है, पर भगवती शब्द में भगवान शब्द में स्त्रीलिंग का प्रत्यय जरूर जुड़ा है किंतु भगवान के साथ कोई स्त्री है यह अर्थ नहीं है । भगवत: हयं इति भगवती । भगवान को जो परिणति है उसे भगवती कहते हैं । भगवान की जो स्वरसत: परिणति है उसका नाम भगवती है । जो परिणति भगवान को स्वतंत्र संकट बनाए उस परिणति का नाम भगवती है । वह परिणति है प्रज्ञा, भेद बुद्धि । भेद बुद्धि से ही जीव को विजय प्राप्त होती है ।
अत्यंत प्रत्यासन्न का भेदन कैसे?―अब यह शंका होती है कि आत्मा और बंध ये तो बहुत निकट के तत्त्व हैं क्योंकि आत्मा तो चेतक है और बंध चेत्य है । ये रागादिक विकार भोगने में आते हैं और भोगने वाला आत्मा है । ये रागादिक विकार अनुभवन में आते हैं और अनुभवने वाला आत्मा है । तो इस नाते से आत्मा में और बंध में चेत्य चेतक भाव बना हुआ है । इन्हें न्यारा कैसे किया जा सकता है जब कि ये एकमेक मिल रहे हैं । ये कुछ दो द्रव्यों की चीज नहीं है । स्वभाव के तिरोभूत होने से विभावरूप बन गये हैं फिर इन्हें कैसे छेदा जा सकता है । जैसे पानी जब गरम होता है तो पानी रच भी ठंडा नहीं है, पूरा गरम है, कहते अवश्य हैं कि पानी का स्वभाव डंडा है, पर जिस काल में वह गरम बन गया है तो ठंडा स्वभाव पूर्ण तिरोहित हो गया है । तो चेत्य चेतक भाव होने से अत्यंत वे निकट हैं, एक परिणति में हो रहे हैं फिर उनको कैसे भेदा जा सकता है भेदविज्ञान का अभाव होने से एक चेतक की तरह ही उनका व्यवहार हो गया है । शंका में दूसरी बात यह कही है कि जिस काल में यह जीव अपनी परिणति में अपने को अभेदरूप अनुभव कर रहा है तो उसमें यह शक्ति ही नहीं है कि परिणति को और स्वभाव को जुदा समझे फिर आत्मा और बंध को कैसे छेदा जा सकता है ।
अत्यंत प्रत्यासन्नों का भी स्वस्वलक्षण दृष्टि द्वारा भेदन―अब उक्त शंका का उत्तर देते हैं कि इन दोनों का जो नियत अपना-अपना लक्षण है उस लक्षण से इन दोनों में जो सूक्ष्म भीतरी संधि है उस संधि पर लक्षण भेद दृष्टिरूप करौंत को यदि पटका जाये तो उससे ये दोनों भिन्न-भिन्न व्यक्ति होते हैं । जैसे पानी जब गरम हो गया है तो वह समस्त पानी केवल गरमी का अनुभवन कर रहा है । गरम रूप परिणम रहा है फिर ऐसा स्थिति में हम यह कैसे जान सकें कि गरमी अलग है और पानी अलग है । इसके जानने का तो कोई उपाय हो ही नहीं सकता, क्योंकि सारा का सारा पानी गरमरूप बन रहा है । तो जैसे वहाँ यह उत्तर दिया जा रहा है कि गरमी का जो लक्षण है और पानी का जो लक्षण है उस लक्षण भेददृष्टि को उस संधि में डालो, पट को जहाँ गरमी और पानी का मेल हुआ है, अर्थात् पानी का लक्षण है, स्वभाव है ठंडा होना और गरमी का स्वभाव है गरम रहना, इस लक्षण विवेक से उपयोग में वे भिन्न हो जाते हैं ।
भैया ! वस्तुत: पानी का न ढंडा स्वभाव है न गरम स्वभाव है । ठंडा भी औपाधिक है और गरम भी औपाधिक है । जैसे किसी ढंडी मशीन में बिजली घर में पानी को रख दिया जाये तो वह पानी बरफ हो जायेगा । तो बरफ हो जाना और इतना अधिक ठंडा हो जाना यह तो पानी का स्वभाव नहीं है । तब पानी का स्वभाव है बहना । लेकिन लोकव्यवहार के माफिक चूंकि जब गरम पदार्थों का संबंध नहीं रहता है तो पानी स्वयमेव ठंडा हो जाता है । इस कारण पानी के स्वभाव को ठंडा बताया है । गरम हुये पानी के संबंध में जब लक्षण पर, गुण पर दृष्टि डालते हैं तो ज्ञान में वह भिन्न-भिन्न हो ही जाता है ।
स्वलक्षणदृष्टि द्वारा भेदन का अन्य उदाहरण―जैसे 5 सेर दूध में 5 सेर पानी मिलाकर एक मेल कर दिया तो उसमें यह भेद नही किया जा सकता कि इतने हिस्से में तो पानी भरा है और इतने हिस्से में दूध भरा है । दूध और पानी एकमेक हो गये हैं और उस समय दूध हो पियेंगे तो न दूध का शुद्ध स्वाद आयेगा और न पानी का शुद्ध स्वाद आयेगा । दिल ऐसा करेगा कि इस दूध से तो पानी पीना अच्छा है । न उसका स्वाद आता है न उसको क्षेत्र में जुदा-जुदा कर सकते हैं फिर भी ज्ञान द्वारा या यंत्र के उपाय द्वारा ज्ञान करके वहाँ यह समझते हैं कि इसमें आधा पानी है और आधा दूध है । तो यह ज्ञान द्वारा ही समझा । इसी तरह आत्मा में रागद्वेष विकार होते हैं फिर भी इस भेदविज्ञान द्वारा आत्मा को और विकारों को भिन्न-भिन्न समझ सकते हैं ।
प्रज्ञा से बंधच्छेद―जो विकार है वह आत्मा नहीं है, यह पर उपाधि के निमित्त से होने वाला परिणमन है । इस रूप मैं नहीं हूँ । मैं तो उस रूप हूँ जो अपने ही सत्य के कारण जैसा वर्त सकता हूं, मैं अपने सत्य के कारण केवल ज्ञानप्रकाश हो सकता हूँ इसलिए ऐसी ज्ञान वृत्ति से बने रहना सो तो मैं आत्मा हूं, और बाकी विकार मैं आत्मा नही हूँ, ऐसी प्रज्ञा के द्वारा ज्ञानी भव्य आत्मा और बंध दोनों का भेदन कर देते हैं ।
प्रज्ञा द्वारा द्वैधीकरण का अन्य उदाहरण―अथवा एक दृष्टांत और लो, बरसात के दिनों में रास्ते में छोटे-बड़े गड्ढे होते हैं उनमें पानी भरा भर है जिन्हें पुखरियां बोलते हैं, उनमें पानी गंदा रहता है, मटमैलासा । उस पानी में यह तो विचार करो कि जैसा वह मटमैला है, जिस रंग का है क्या वैसा मटमैला होना पानी का स्वभाव है? नहीं है । ज्ञानी जानते हैं कि मटमैलापन मिट्टी आदि के संबंध से हो गया है, पानी का स्वभाव तो स्वच्छ है जैसा कि कहीं स्वच्छ तालाब में निर्मल जल भरा हो, वैसा ही उस पानी का भी स्वभाव है, पड़ा तो है वह गंदा जल, किंतु ज्ञान द्वारा उस गंदे जल में भी पानी को स्वच्छता नजर आ रही है । इसी प्रकार वर्तमान परिणमन में यह संसारी जीव रागादिक रूप परिणम रहा है, गंदा है मलिन है फिर भी ज्ञान द्वारा इस मलिन आत्मा में भी स्वरूप स्वभाव को परख सकते हैं और वह स्वभाव एक ज्ञायक स्वरूप मात्र है । तब ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व का ग्रहण करना प्रज्ञा द्वारा संभव हो गया ।
प्रज्ञा द्वारा भेदन और उपादेय का उपादान―प्रज्ञा के दोनों काम हैं जुदा-जुदा कर देना और उनमें से जो अपना उपादेय तत्त्व है उसको ग्रहण कर लेना । जैसे चावल सोधते हैं तो सोधने वाले की यह ज्ञान रहता है कि यह तो चावल है और इसके अलावा जो कुछ भी है वह सब गैर चावल है । कीड़ा हो, धान का छिलका हो या और भी अनाज हो, घास का दाना हो वह सब गैर चावल है । तो उसे यह ज्ञात है कि यह चावल है और ये सब गैर चावल हैं तब वह गैर चावलों को अलग करता है और चावल को ग्रहण करता है । इसी तरह अपने आपके आत्मा में जैसा यह ज्ञात है कि यह चैतन्य चमत्कारमात्र तो मैं आत्मा हूँ और बाकी रागादिक विकार अनात्मा है, पर चीज है तब उन पर तत्त्वों को छोड़कर अपने चैतन्य स्वभाव मात्र आत्मा को ग्रहण करता है ।
पर की आत्मा से सर्वथा विभिन्नता―यहां वह विचारने की बात है कि मेरे में उत्पन्न हुए रागद्वेष भावों को जब पर बताया गया, छोड़ने योग्य बताया गया, यह मैं नहीं हूँ, यह मेरा नहीं है, ऐसा उनमें ज्ञान कराया गया तो शरीर तो उससे भी बहुत मोटी चीज है, राग तो आत्मा का परिणमन है, उसे भी जब आत्मा से जुदा कहा गया तो शरीर तो आत्मा का परिणमन भी नहीं है । आत्मा के संबंध के निमित्त से शरीरवर्गणावों का यह पिंड बन गया पर है यह कोरा जड़, आत्मा का परिणमन नहीं है । तो जब आत्मा के परिणमन होने पर भी रागादिकों को आत्मा से जुदा बताया गया है । तो शरीर तो जुदा है ही, और जब शरीर भी जुदा समझ में आ गया जो कि आत्मा के एक क्षेत्रावगाह में है जिसके बंधन में अभी आत्मा पड़ा है, शरीर जाये तो आत्मा जाये, शरीर पड़ा रहे तो आत्मा पड़ा रहे, कोई अभी ऐसा नहीं कर सकते कि शरीर जुदा है, आत्मा जुदा है सो शरीर तो वहीं पड़ा रहने दे और आत्मा कहीं दूसरी जगह घूम आये और फिर घूम फिर कर शरीर में आ जाये कोई ऐसा तो नहीं कर सकता ना । इतना घनिष्ठ संबंध होने पर भी शरीर को जुदा बताया गया है तो परिवार और धन मकान इनकी तो कहानी ही क्या है । शरीर और धन मकान तो आत्मा से प्रकट जुदे हैं । परिवारजन अन्यत्र रहते हैं हम कहीं अन्यत्र रहते हैं धन वैभव मकान अन्यत्र खड़े है, हम कहीं अन्यत्र पड़े हैं ।
धन वैभव का प्रकट पार्थक्य―भैया ! जब अपने इस शरीर तक से आत्मा का संबंध नहीं है, तो धन वैभव से कोई संबंध का शब्द ही कहना व्यर्थ है किंतु ऐसा संसारी जीवों में तीव्र मोह पड़ा है कि धन उनका ग्यारहवां प्राण बन रहा है । किसी को वश करना हो तो उसका पैसा दवा लो या जैसे बड़ी जिम्मेदारी की सर्विस खजांची वगैरह पद पर जब नियुक्ति होती है तो 10-20 हजार की जमानत कर ली जाती है जिससे सरकार को यह विश्वास रहता है कि यह अब गड़बड़ी नहीं कर सकता । तो धन ऐसा ग्यारहवां प्राण बताया गया है । कितनी तीव्र ममता है, स्वयं का जुदा स्वरूप है, न्यारा है, ज्ञानमात्र आत्मा है केवल आत्मा में प्रकाश ही प्रकाश तो है, आनंद ही आनंद तो है । अन्य कुछ विकार नही है । फिर भी यह मोही जीव बाह्य पदार्थों पर एक छत्र राज्य करना चाहता है । एक तृष्णा के मारे इस सारे संसार को हड़पना चाहता है, किंतु किसी भी जीव के द्वारा एक परमाणु भी नही हड़पा जा सकता है ।
भिन्न-भिन्न स्वस्वलक्षण―यह मैं आत्मा सबसे निराला केवल ज्ञानानंद प्रकाश मात्र हूँ और धन वैभव तो प्रकट जुदे हैं । यह शरीर भी जुदा है ये रागादिक विकार भी जुदे हैं । नियत-नियत जो अपना-अपना लक्षण है उस लक्षण की पैनी परख को संधि पर पटक दें । अर्थात् जिस जगह यह मालूम हो रहा है कि आत्मा और राग एकमेक हो रहे हैं, उस एकमेक के बोध पर जुदा-जुदा लक्षण की दृष्टि कर लें तो वे जुदा हो जायेंगे । देखो आत्मा का तो लक्षण है चेतन, जो आत्मा को छोड़कर बाकी किन्हीं भी द्रव्यों में नहीं रहता है, द्रव्य की जातियां छ: हैं, जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल । चैतन्यस्वरूप जीव में ही रहता है, पुद्गल में नहीं और अन्य द्रव्यों में नहीं ।
चेतन में चैतन्य का तादात्म्य―चैतन्य जीव के सिवाय अन्य किसी द्रव्य में नहीं पाया जाता है । वह चैतन्य स्वलक्षण प्रवर्तमान होता हुआ जिस-जिसको व्याप करके रहता हो और निवर्तमान होता हुआ जिस-जिसको ग्रहण करके हटकर रहता हो वह सब गुण और पर्यायों का पुंज आत्मा कहलाता है । अर्थात् जिस-जिस आत्मा में चैतन्यस्वरूप पाया जाये वह सब आत्मा है । तो चैतन्यभाव अलग हो जाये तो जीव फिर रहा क्या? जैसे पुद्गल में भी अस्तित्त्व गुण है और जीव में भी अस्तित्त्व गुण है सो यह सर्वसाधारण भावरूप अस्तित्त्व गुण जीव में और पुद्गल में समान हैं और कुछ ऐसे भी गुण हैं जो जीव में ही मिलेंगे, पुद्गल में न मिलेंगे । जैसे ज्ञान, चेतना यह जीव में ही मिलेगी, पुद्गल में न मिलेगी । तो जो चैतन्य चमत्कार स्वरूप हो वह तो मैं आत्मा हूँ और जहाँ चेतने का काम नहीं है वे सब अनात्मा हैं ।
बंधनों की दुःखरूपता―ये रागादिक बंधन मेरे स्वरूप नहीं हैं, मैं दु:खी हूँ तो रागादिक भावों को अपनाने से दुःखी हूँ । नहीं तो आनंदमय होना स्वभाव ही मेरा है । अपने आपके घर से निकलकर बाहरी पदार्थों में जो ख्याल बनाए, संबंध बनाए, उन बाहरी पदार्थों के समागम से अपना बड़प्पन माने तो इस भूल के कारण हमें दुःख होता है, अन्यथा दुःखी होने का कोई काम ही नहीं है इस समय यह जीव बहुत बड़े संकट में पड़ा है पुण्य के उदय से थोड़ा कुछ लाभ हो गया हो कुछ सुख सुविधा मिल गयी हो तो इतने मात्र से संतुष्ट मत होओ । इस जीव पर घोर संकट है, शरीर से बंधा है, कर्मों से घिरा है, रागादिक भाव सदा बेचैनी पैदा किया करते हैं । इसको बहुत संकट पड़े हुए हैं । अभी जन्में है अब मरना पड़ेगा, नया-नया जन्म लेना होगा । नया-नया शरीर मिलेगा । तो जगत के जीवों को देख लो―कितनी विचित्र परिस्थितियां हैं । कौनसा इसने आज वैभव पाया कि जिससे हम बड़े संतुष्ट रहें कि पाने योग्य हमने सब कुछ पा लिया ।
कर्त्तव्य कृत्य―भैया ! बहुत काम पड़ा है अभी अपने को अंतरंग में करने को । वे काम हैं मोह दूर करना, रागद्वेष दूर करना । सो ये काम तो करना दूर रहो, किंतु उल्टा काम करने लगा । उन वस्तुवों में यह राग करता है, मोह बनाता है और उस मोह से यह अपने को बड़ा मानता है यह बहुत बड़ी भूल है ।
बीच में से कुछ हस्तलिपि गुम हो गई है ।
अपनी संभाल अत्यावश्यक―भैया ! अपने को संभालें तो सब संभलेगा और अपने को न संभाला तो सब बिगड़ गया । घर में कोई विपत्ति आ जाये, इष्ट वियोग हो जाये और घर में जो बड़ा है, समझदार है वही दु:खों के मारे बेकाबू हो जाये तो घर वालों को फिर ठिकाना नहीं है । घर का प्रमुख यदि विपत्ति में संभला रहेगा तो घर वाले भी संभल सकेंगे, उनका भी ठिकाना रहेगा । सो हमारे घर का प्रमुख जो उपयोग है वह संभला हुआ रहेगा तो सब काम ठीक से होंगे । हमारा एक मात्र प्रमुख है उपयोग । और सब तो ज्ञानस्वभाव की रक्षा के लिए और सत्त्व बनाए रखने के लिए सेवकरूप गुण है । अच्छा, बताओ―आत्मा को सूक्ष्म गुण की क्या जरूरत थी ? सूक्ष्मत्व न होता तो ज्ञान का रूप क्या बनता ? पुद्गल जैसी स्थूल होने से कोई ज्ञान की सकल क्या बन पाती ? सूक्ष्मत्वगुण ने ज्ञान की सेवा की । इसकी सत्ता बनी रहने दी । इसी तरह सूक्ष्मत्व ही नहीं, सारे गुण इस ज्ञानस्वभाव की रक्षा के लिए है ।
भावबंधच्छेद होने से द्रव्यबंधच्छेद और फिर देहबंधच्छेद की अवश्यंभाविता―यों समझिये । जब यह योगी रागद्वेष रहित निर्विकल्प स्वसम्वेदन ज्ञान में रत होता है उस समय द्रव्य कर्म का छिदना होता है और छिद-छिदकर जब द्रव्य कर्म का सहारा नष्ट हो गया तो यह शरीर अपने आप अपनी ही वर्गणावों में शुद्ध होकर विघट जाता है । कठिन चर्चा है यह, किंतु ध्यान वृत्ति से सुनने और समझने वाले श्रोतावों की मुद्रा देखने से अथवा कदाचित वक्ता के संकेत देखने से कुछ अनुमान होता है, चीज कहां की, किस प्रकार की कही जा रही है ।
निर्विकल्प ज्ञान के संबंध में एक प्रश्नोतर―यहाँ शिष्य प्रश्न करता है कि जो तुमने बनाया निर्विकल्प स्वसम्वेदन ज्ञान, यह तो हमारे घट में नहीं उतरा । निर्विकल्प ज्ञान तो बौद्ध लोग भी बतलाते हैं और बौद्धों के निर्विकल्प ज्ञान में तुम यह दोष देते हो कि बौद्धों का ज्ञान है तो निर्विकल्प अगर विकल्प को उत्पन्न करने वाला होता है । मगर तुम जैन सो उनसे भी बढ़कर अनिष्ट में पहुंच गये कि तुम्हारा निर्विकल्प ज्ञान तो स्वरूप से ही सविकल्प है, उनका निर्विकल्प ज्ञान स्वरूप से तो निर्विकल्प है । विकल्प तो पैदा करता है । किंतु हे जैनाचार्य तुम्हारा निर्विकल्प तो स्वरूप से ही सविकल्प है । फिर उस ज्ञान पर इतना नखरा क्यों किया जाता है? तो इस प्रश्न का उत्तर यह है कि यह निर्विकल्प स्वसम्वेदन ज्ञान जिसको हम निर्विकल्प स्वरूप का गौरव दे रहे हैं वह कथंचित् सविकल्प तो है, फिर भी कथंचित् निर्विकल्प है ।
एक ही बोध में निर्विकल्पता व सविकल्पता की सिद्धि में एक लौकिक उदाहरण―जैसे किसी विषय का आनंद भोग रहे हो―मान लो बहुत बढ़िया रसगुल्ला आपने बनवाया या खुद बनाया, अच्छा सेका, घी भी खूब डाला, बूरा भी आटे से ज्यादा नहीं डाला और जब खाने बैठे उसका पूरा आनंद लूटना चाहते हो तो हाथ पैर टन्नाकर केवल एक धुन में ही उनको खा लेते हो । उस स्वाद का एक रस लेते समय वह ज्ञान निर्विकल्प हुआ या सविकल्प? एक दृष्टि से तो निर्विकल्प हुआ कि सिवाय भोजन का आनंद लूटने के और कोई चीज का ख्याल नहीं कर रहे । मगर भोजन के आनंद के लूटने में जो क्षोभ है अंतर में वह तो विकल्प है ही ।
उदाहरणपूर्वक प्रकृत ज्ञान में निर्विकल्पता व सविकल्पता की सिद्धि―तो जैसे वह विषय का आनंद कथंचित् सविकल्प है और कथंचित निर्विकल्प है । स्वसम्वेदन ज्ञान की अपेक्षा से सरागस्वसम्वेदन होने से सरागसंवेदन के विकल्परूप से विकल्प तो बड़ा मचा हुआ है फिर भी उस आनंद के क्षोभ के विकल्प को छोड़कर अन्य कोई विकल्प की चाह नहीं है । कोई सूक्ष्म विकल्प हैं उन पर दृष्टि ही नहीं है । तो सूक्ष्म विकल्प पहिले से अंतर में मौजूद है, संस्कार भरे है । कही योगी नहीं हो गए हलुवा या रसगुल्ला खाने से उसके भीतर तो हजारों विकल्प पड़े है मगर वह भक्ष्य बन गया, दब गया, उपशांत है । भाव में छिपी हुई आग की तरह भीतर ही भीतर सुलग रही है, किंतु मोटे रूप में अनुभवन के रूप में वह निर्विकल्प है और वस्तुतः सविकल्प है । उन विकल्पों की वहाँ मुख्यता नहीं ली जा रही है, इसलिए निर्विकल्प कहा जाता है ।
निर्विकल्पता व सविकल्पता का विवरण―अब यह विषय दो मिनट बाद दो चार मिनट को सरल आया जाता है, फिर समाप्त होने वाला है । तो जिस ही कारण हमें अपने स्वसम्वेदन के आकार का मुख्य प्रतिभास है, उस निर्विकल्प स्वसम्वेदन ज्ञान को ज्ञान के स्वरूप का ज्ञान है; सो ज्ञान के स्वरूप का आकार वह ज्ञान परिणम गया । अब हम आपसे कि उसमें क्या आकार बन गया तो बता नहीं सकते और आकार बना है । बना है ज्ञान के स्वरूप का आकार । सो ज्ञान के आकार का मुख्यतया प्रतिभास होने पर भी अर्थात् इस दृष्टि से स्वसम्वेदन ज्ञान सविकल्प होने पर भी बाह्य विषय संबंधी अनिहित सूक्ष्म विकल्प है तो भी उसकी मुख्यता नहीं है । यहाँ मुख्यता है आत्मस्वसम्वेदन की और उस आत्मस्वसम्वेदन के समय भी अनेक योग्यतायें है । सो अनेक विकल्प पड़े रहने पर भी मात्र ग्रहण संबंधी, रागद्वेष संबंधी नहीं, फिर भी उसे निर्विकल्प कहते हैं और कथंचित् सविकल्प कहते हैं ।
त्रिविधबंधच्छेद का एक उपाय होने का समर्थन―प्रयोजन यह है कि हमारा ज्ञान-ज्ञान के स्वरूप को जानता हुआ जब स्थिर होता है तो उस स्वसम्वेदन ज्ञान में यह सामर्थ्य है कि द्रव्यकर्म का छेदन स्वयं हो जाता है । तो तीनों बंधनों के छेदने का उपाय केवल एक है―भावकर्म रूपी बंधन का विदारण करना । सो इस विषयक ज्ञान हो जाने पर भी यदि ऐसे ज्ञान की स्थिरता रूप चारित्र नहीं बनता है तो मोक्ष नहीं होता है । इसी को कहते हैं बंध का छेदना । बंधछेद से मुक्ति है, न बंध के स्वरूप के ज्ञान से मुक्ति है और न बंध कैसे मिटे, ऐसी चिंता करने से मुक्ति है । अत: कल्याणार्थी जनों को इन बाह्य समागमों को असार जानकर वैभव, धन, परिवार, इज्जत इनको अपना दिल न बेच देना चाहिए ।
समर्पण―भैया ! अपना दिल समर्पण करो तो केवल एक निजज्ञायकस्वरूप को समर्पण करो और इसके ही समर्पण के हेतु पंचपरमेष्ठी भगवान को अपना मन समर्पण करो । अपना मन बेच दो, लगावो, सौंधो तो केवल दो ही स्थानों को पंचपरमेष्ठी को या आत्मस्वरूप को । तीसरी कौनसी चीज है जिसको अपना दिल दिया जाये, अपना उपयोग सौंपा जाये ? और जिन जगत के जीवों को दिल दिया जा रहा है तो समझो कि यह मेरे करने का काम नहीं है । यह तो कर्मों के उदय के डंडे लग रहे हैं । सो सर्व यत्न पूर्वक अपने आपके आत्मज्ञान की ओर आएँ और इस ही विधि से बढ़ने का यत्न करें, ये सारी चीजें तो अपने आप छूटेंगी ।
प्रज्ञा का कार्य―ज्ञानी जीव बंधों के स्वभाव को और आत्मा के स्वभाव को यथार्थ जानकर बंधों में अनुरागी नहीं होता, रागादिक विभावों में रुचि नहीं करता । यही पुरुष निर्विकल्प समाधि के बल से राग न करने के कारण कर्मों से छूटता है । बंधों को और आत्मा को भिन्न पहिचानने का साधन प्रज्ञा है, और बंध को हेय करके आत्मस्वभाव को उपादेय करना यह भी प्रज्ञा का काम है और विभावों मे राग न करना, स्वभाव के उन्मुख होना यह भी प्रज्ञा का कार्य है, इस तरह प्रज्ञारूपी छेनी से ये कर्म और आत्मा भिन्न-भिन्न हो जाते हैं । जीव का लक्षण तो केवल चैतन्य है, शुद्ध चैतन्य ।
शुद्धपना―अध्यात्मशास्त्र में तथा अध्यात्मयोग के वर्णन करने वाले प्रकरण में जहां-जहां शुद्ध शब्द आवे, वहाँ रागद्वेष रहित ग्रहण न करना किंतु केवल अपने स्वरूपमात्र इतना ग्रहण करना । यह जीव वर्तमान में अशुद्ध है, रागादिक कर सहित है । तथा कोई भी जीव किसी परद्रव्य का आश्रय नहीं कर सकता । द्रव्य का स्वभाव ही ऐसा है कि अपना ही आश्रय अपना ही आलंबन, अपना ही परिणमन करता है ऐसी वस्तुस्थिति के ज्ञात होने पर जिज्ञासा यह होगी कि यह वर्तमान में तो अशुद्ध है सो अशुद्ध के आलंबन से सिद्धि क्या और पर का आश्रय कर ही नहीं सकता फिर सिद्धि का उपाय क्या होगा ? यह जिज्ञासा और स्पष्ट रूप से बताई जायेगी ।
पर के द्वारा पर का राग असंभव―यहां लौकिक व्यवहार की बात में वास्तविकता भी जरा निर्णय कर लें जैसे कि यह कथन उपचार से है कि अमुक मनुष्य ने अमुक मनुष्य से राग किया । कोई मनुष्य किसी दूसरे पर कुछ राग कर ही नहीं सकता किंतु उसने उस दूसरे मनुष्य के बारे में रागपरिणाम का विकल्प किया, इस कारण कहा जाता है कि इस मनुष्य ने अमुक से राग किया । वस्तुत: उसने अपने से राग किया, अपना परिणमन किया । कोई जीव किसी दूसरे जीव का आश्रय नहीं कर सकता ।
पर की भक्ति कैसे―हम लोग जो कहते हैं कि हम भगवान की भक्ति करते हैं तो हम लोग भगवान की भक्ति कर ही नहीं सकते । करते क्या हैं कि भगवान को अपने उपयोग में विषय बनाकर अपने आपके गुणों का परिणमन किया करते हैं । और उस अपने गुणों के परिणमन को चूँकि उस परिणमन का विषय भगवान बनाते हैं इसलिए कहते हैं कि हम भगवान की भक्ति करते हैं । तो हम पर का तो आश्रय कर नहीं सकते और वर्तमान में है अशुद्ध, आश्रय हम अपना ही कर सकते हैं । अब यह बतावो कि जैसे हम वर्तमान में अशुद्ध है ऐसी स्थिति का आश्रय करके मोक्ष मार्ग मिल सकता है क्या ? कभी नहीं मिल सकता है । जो सिद्ध हो चुके हैं ऐसे भगवान का हम आश्रय कर नहीं सकते और हम हैं अशुद्ध, सो अशुद्ध का आश्रय करके कल्याण पा नहीं सकते।
निज सहज शुद्ध स्वरूप के अवलंबन के मोक्षमार्गपना―भैया ! अब क्या उपाय रहा कि हम संसार से तिर सकें और मोक्ष मार्ग में लग सकें ? यहां उपाय यह है कि हम परिणमन से तो शुद्ध नहीं है किंतु अपने स्वरूप को तो लिए हुए हैं । तो जो केवल मेरा सहज स्वरूप है उसका आश्रय करें । सहज स्वरूप का नाम है शुद्ध स्वरूप । शुद्ध स्वरूप का अर्थ है केवल, प्यौर, एलोन, एकाकी । परपदार्थ जितने हैं वे भी अपने आपकी ओर से शुद्ध हैं और हम सब भी जितने हैं अपने आपकी ओर से शुद्ध है । शुद्ध का अर्थ केवल अपने स्वरूप को लिए हुए है । उस स्वसम्वेदित अपने आपके सत्त्व के कारण जैसा सहजस्वरूप वाला हूँ उस पर दृष्टि देने से मोक्षमार्ग मिलता है । तो अपने ही अंतर में बसे हुए शुद्ध आत्मतत्त्व के आलंबन से मोक्षमार्ग मिलता है ।
किसी भी परिणमन के वस्तुस्वरूपत्व का अभाव―जीव का लक्षण है शुद्ध चैतन्य । और बंध का लक्षण है मिथ्यात्व रागादिक । जब लक्षणों की बात चलती है तब आत्मा का लक्षण सर्वज्ञपना भी नहीं है । सर्वज्ञता जीव का लक्षण होता तो अनादि से जीव के साथ होता । सर्वज्ञता तो प्रतिक्षण नव्य-नव्य परिणमन कर रही है । यद्यपि सर्वज्ञता के बाद सर्वज्ञता ही आती है और इस ही शुद्ध परिणमन की परंपरा अनंत काल तक रहेगी । फिर भी जो एक समय का सर्वज्ञता रूप परिणमन है वह सर्वज्ञत्व परिणमन दूसरे समय में नहीं होता ।
सदृश परिणमन में प्रतिक्षण कार्यशीलता का एक दृष्टांत―जैसे कोई पुरुष 10 सेर वजन को हाथ के ऊपर एक घंटे तक लादे हुए है, देखने में ऐसा लगता है कि एक मुद्रा से स्थिर होकर उस 10 सेर वजन को घंटे भर से लादे हुए वह खड़ा है, देखने वालों को यों दिखता है कि बेकार खड़ा है, यह कुछ भी काम नहीं कर रहा है । जो एक घंटे पहिले किया वैसा ही बना हुआ है, कुछ काम नहीं कर रहा है, किंतु बात ऐसी नहीं है । वह प्रतिक्षण काम कर रहा है । जो 8 बजे वजन लादे हुए में अपनी शक्ति लगा रहा है ऐसी शक्ति लगाने का परिणमन उस 8 बजे के समय हो गया, अब 8 बजकर पहिले समय में दूसरी शक्ति लग रही है । यों प्रत्येक सेकेंड वह नवीन-नवीन शक्ति के उद्योग से दिखने में आने वाला वही सदृश कार्य कर रहा है ।
प्रभु की निरंतर शुद्धपरिणमनशीलता―इसी प्रकार सर्वज्ञदेव ने जो पहले समय में जाना वह पहिले समय की शक्ति लगाकर जाना । दूसरे समय में जो जाना वह दूसरे समय में नवीन शक्ति लगाकर जाना । प्रति समय नवीन-नवीन शक्ति का उपयोग चल रहा है और दिखने में यों आता कि प्रभु क्या नया काम कर रहे हैं ? कुछ भी तो नहीं करते । जो पहिले समय में जाना वही इस दूसरे समय में जान रहे हैं । प्रत्येक पदार्थ की सीमा अनुल्लंघ्य होती है । पदार्थ का जो स्वरूप है वह स्वरूप कभी भी किसी के द्वारा मिटाया नहीं जा सकता ।
निज सहजस्वरूप का आलंबन―इस अध्यात्मयोग के प्रकरण में यह बात चल रही है कि हम कैसे शुद्ध स्वरूप का आलंबन करें कि हमें मुक्ति का मार्ग मिले । जो अत्यंत शुद्ध है ऐसा प्रभु, उनका हम आश्रय कभी कर ही नहीं सकते । हमारे आश्रय किए जाने वाले गुण परिणमन का विषय तो प्रभु बन गया है पर आश्रय नहीं किया जा सकता क्योंकि प्रत्येक वस्तु का सत्त्व जुदा है । एक पदार्थ किसी दूसरे पदार्थ का आलंबन नहीं कर सकता, स्वरूप ग्रहण नहीं कर सकता, तब निज सहजस्वरूप आलंबन ही हित है ।
अन्य पर रागपरिणमन का अभाव―लोकव्यवहार मे कहा करते हैं कि हमारा तुम पर बड़ा अनुराग है, यह बात सोलह आने झूठ है । प्रथम तो लोकव्यवहार के नाते से भी निश्चल अनुराग नहीं है, सब अपने स्वार्थ के कारण अनुराग दिखाते हैं और अंतर में वस्तुस्वरूप की दृष्टि से देखो तो कोई धर्मात्मा पुरुष भी किसी दूसरे धर्मात्मा पुरुष पर निश्छल अनुराग कर रहा है तो यह सब भी उपचार कथन है । वह धर्मात्मा तो अपने गुणों की सेवा कर रहा है । अपने ही गुणों की उपासना दूसरे धर्मों को विषय बनाकर प्रकट हो रही है ।
मुझमें शुद्ध तत्त्व―तब मुझमें यह शुद्ध तत्त्व क्या है? जिसका आलंबन करके मैं अब भव सागर से तिर सकूँगा । वह शुद्ध तत्त्व वह है कि यदि शुद्ध तत्त्व की ही खबर रहे, उसकी ही उपासना हो तो जगत् में फिर द्वैत नहीं दिख सकता । कोई दूसरा भी है, कोई व्यक्ति भी है यह उस स्वरूप में नजर नहीं आता । और ऐसे उस अद्वैत चैतन्यस्वरूप की शुद्ध उपासना बंध को छेदने वाली होती है, किंतु इस अद्वैत चैतन्यरूवरूप का वर्णन करते और सुनते हुए भी यह न भूल जाना कि यह अद्वैत चैतन्य-स्वरूप अर्थ क्रियाकारी नहीं है, अर्थ क्रियाकारी तो स्वरूपास्तित्त्व संपन्न द्रव्य होता है ।
अर्थक्रियाकारिता पर एक दृष्टांत―जैसे आपको दूध चाहिए तो गऊ जाति में दूध न मिलेगा । दूध तो किसी गऊ से मिलेगा । जाति समस्त गऊवों के स्वरूप साम्य का नाम है । उस स्वरूप साम्य रूप ज्ञानगत गऊ सामान्य से दूध न मिलेगा । दूध मिलेगा व्यक्तिगत गऊ से । इसी प्रकार अर्थक्रिया परिणमन होता है । वह प्रत्येक आत्मा में होता है, प्रत्येक आत्मावों का जो स्वरूप साम्य है वह है अद्वैत । एक सामान्यस्वरूप भेद न किया जा सकने वाला, ऐसी है वह अद्वैत चेतना । वह जीव का शुद्ध लक्षण है और मिथ्यात्व रागादिक विभाव बंध के लक्षण है । सो प्रज्ञारूपी छेनी के द्वारा उन दोनों को पृथक् कर देते हैं ।
निर्लेपता का धन्यवाद―उस आत्मा का सुभवितव्य है जो आत्मा धन या वैभव मकान आदि के कपड़े में उपयोग न फंसाकर गृहस्थ हो तो क्या उन सबके बीच रहने पर भी उनमें उपयोग न फँसाकर जल में कमल की भांति जल से दूर अलिप्त रहकर जो अपना अतःस्वरूप है ऐसे शुद्ध चैतन्य की किसी क्षण उपासना करे तो वही पुरुष धन्य है, पूज्य है, वंदनीय है । ऐसे शुद्ध आत्मा के अनुभवरूप भेद विज्ञान से प्रज्ञारूपी छेनी से, आत्मस्वभाव और बंध स्वभाव इनको भिन्न कर दिया जाता है । इस तरह जो सावधान पुरुष है उनके द्वारा किसी प्रकार यह प्रज्ञा छेनी इसके स्वभाव और विभाव में डाल दी जाती है ।
सावधानता―सावधान किसे कहते है? स+अवधान । जो अवधान सहित है उसे सावधान कहते हैं । अवधान का अर्थ है अपने आपमें समस्त रूपों से अपने आपको धारण करना । ऐसे अवधान सहित जो पुरुष हैं ऐसे लोग ही निपुण ज्ञानी संत प्रज्ञा-छेनी से जो कि अत्यंत तीक्ष्ण है, किसी प्रकार इस स्वभाव और विभाव का जो सूक्ष्म संधिबंध है उस पर डालते हैं और शीघ्र ही आत्मा और कर्म इन दोनों को भिन्न कर देते हैं ।
कर्म की सार्थकता―कर्म नाम है आत्मा के रागद्वेष आदि का। आत्मा में रागद्वेषादिक का निमित्त पाकर कोई पुद्गल कर्म, पुदगल वर्गणाएँ इसके साथ बँध गयी और उसके निकलने का निमित्त पाकर जीव फिर रागादिक विभाव कर बैठता है । इस कारण उन पौद्गलिक वर्गणावों का नाम कर्म उपचार से रखा है । कर्म नाम वास्तव में आत्मा के विभाव का है । आत्मना क्रियते यत्तत् कर्म, जो आत्मा के द्वारा किया जाये उसका नाम कर्म है । आत्मा के द्वारा पौद्गलिक वर्गणाएँ नहीं की जाती है इसलिए उनका नाम कर्म नहीं है । कर्म नाम है आत्मा के रागादिक विभावों का । सो इस तीक्ष्ण प्रज्ञा-छेनी के द्वारा आत्मा में और कर्म में भेद कर दिया, तब यह आत्मा को अंतरंग में स्थिर और चैतन्य प्रकाश में मग्न कर देती है ।
प्रज्ञा का प्रभाव―यही प्रज्ञा पहिचान कराती है, यही भेद कराती है और वही अपने स्वरूप में स्थिर कराती है । देखो तो इस भेदविज्ञान की उपयोगशीलता कि यह भेदविज्ञान इस आत्मा को उत्कृष्ट अवस्था में पहुंचाकर खुद मर मिटता है । भेदविज्ञान सदा बना रहे तो आत्मा का कल्याण नहीं है, भेदविज्ञान पहिले हैं और पीछे निज की अभेद उपासना चाहिए । ऐसा यह भेदविज्ञान इस आत्मा को उत्कृष्ट पद में धारण कर खुद मर मिटता है । ऐसा परोपकारी है भेदविज्ञान । जैसे कोई परोपकारी पुरुष अपनी जान देकर दूसरे को बचा दे तो उसे बड़ा परोपकारी माना है । इसी प्रकार यह भेदविज्ञान इस आत्मा का यथार्थ परिचय कराकर हेय से हटाकर अभेद में लगाकर खुद मर मिटता है और इसी कारण आचार्यदेव ने भेदविज्ञान शब्द न देकर और उत्कृष्टता बताने के लिए प्रज्ञा शब्द दिया है जो हमारे साथ शुरू से अंत तक रह सकता है ।
प्रज्ञा का प्रसाद―इस प्रज्ञा का नाम भगवती प्रज्ञा है । भगवती प्रज्ञा फतह करे मायने विजय करे । इस भगवती प्रज्ञा का पूर्वरूप तो भेदविज्ञान का होता है, फिर इस भगवती प्रज्ञा का और तेजस्वीरूप बढ़ाते हैं तब इसका ऐसा प्रचंड तेज रूप बनता है कि रागादिक को भक्षण करके निज देव को उपास्य बनाती है । फिर और उसका प्रचंड तेज बढ़ता है । भगवती प्रज्ञा तब उस तेज में अपने आपको समस्त विकल्पों से हटाकर निर्विकल्प वीतराग स्वसम्वेदन ज्ञान परिणत बना देती है । इस भगवती प्रज्ञा का प्रारंभ से लेकर अंत समय तक उसका असीम उपकार है । वह प्रज्ञा स्पष्ट प्रकाशमान तेज वाले चैतन्य के प्रवाह में प्रज्ञ को मग्न करती है ।
प्रज्ञा का प्रचंड निर्णय―भैया ! यह है अपने कल्याण की बात । यहाँ धर्म जाति कुल आदि सारे नटखट है और किसी बात की धुन न होना चाहिये अन्यथा ये सब अटक बन जायेंगे । इस समय समस्त आवरणों को फाड़कर अपने आपके स्वरूप में मग्न करने का वर्णन है । तब यह प्रज्ञा अपने इस आत्मदेव को तो चैतन्य महातेज में मग्न कर देती है और रागादिक भावों को अज्ञान भाव में निश्चल कर देती है। अर्थात् पहिले तो ये रागादिक चिदाभास दिखते थे । न हो चैतन्य किंतु चित् का आभास तो हैं रागादिक क्योंकि रागादिक अचेतन में नहीं होते, चेतन में होते हैं, और चेतन के स्वभाव से नहीं होते, इस कारण उन्हें चिदाभास कहा जाता था किंतु अब इस प्रज्ञा ने अपने आपको अपने तेज में डुबाकर उन रागादिक भावों को अज्ञान भाव में ही निश्चल कर दिया है । अब वहाँ चिदाभास जैसी दृष्टि नहीं रहती है ।
प्रज्ञा का प्रचंड रूप―भैया ! बंधन टूटता है तब संबंध की लगार नहीं रहना चाहिए । अगर लगा रहे तो दो टूक बात कहां हुई ? आत्मा के चैतन्यस्वरूप में और रागादिक विभावों में जब भिन्नता की जा रही है, अत्यंत पृथक् किया जा रहा है और निर्भयता के साथ रागादिक से मुख मोड़कर केवल चैतन्य तेज में प्रवेश किया जा रहा है उस समय यह ध्यान बाधक है कि रागादिक चिदाभास है, चैतन्य में ही तो होता है, अरे इतने ख्याल को भी यहाँ त्यागना पड़ता है ।
प्रज्ञा के साम्राज्य का शासन―यहां प्रज्ञा भगवती के राज्य में अपने-अपने समय के अनुसार शासन चल रहा है । या चिदाभास, किंतु उस समय जब कि इस भगवती प्रज्ञा का प्रचंड तेज सीमाति अंत था सीमा के अंत में नहीं पहुंच रहा था तब की बात थी यह कि रागादिक चिदाभास है । जब यह भगवती प्रज्ञा अपने प्रचंड तेज के कारण अपने आपके आधार को, प्रियतम को जब चैतन्य महा तेज में मग्न कर रही है उस समय रागादिक भावों के किसी भी सहूलियत सुविधा या पुरानी दोस्ती के कारण किसी भी प्रकार उन्हें चैतन्य की वृत्तियों में शामिल नहीं किया जा सकता ।
आत्मकार्य का अभिन्न साधन―इस तरह आत्मा और बंध का भिन्न-भिन्न करने रूप जो कार्य है, उसका करने वाला आत्मा है । अपने कार्य को करने का साधन अपने ही स्वयं हो सकते हैं । तब किसके द्वारा यह भिन्नता रूप कार्य किया गया ? वह है आत्मा का ही विज्ञान साधन । ज्ञान का ज्ञान के द्वारा ज्ञान और अज्ञान में भेद कराकर अज्ञान को छोड़कर ज्ञान को अपनाकर ज्ञान में ही मग्न हो गया, ऐसे इस अभिन्न ज्ञान साधन के द्वारा परिचय से लेकर मग्न करने तक समस्त कार्यों को इस ही प्रज्ञा ने अथवा ज्ञान ने किया । तब कर तो रहे योगी अपने में अपना काम और यहां अगल बगल में देखा तो कर्मों का छिदना, नि:सार, अशरण बन जाना, ये सब काम हो रहे हैं पर उसकी योगी को खबर नहीं है ।
मोक्षमार्ग में साधक की आत्मवृत्ति―इस अध्यात्मयोगी के ज्ञानयोग के बल से वहाँ प्रकृतियों का छेद-छेद हो रहा है, और हो चुकने के बाद यह शरीर भी अंत में कपूर की तरह बिखर जाता है, किंतु यह प्रभु अपने आपके ज्ञान साधन में और आनंद के अनुभव में ही तन्मयता से परिणत है । यों यह योगी पुरुषार्थ के बल से आत्मा और बंध को भिन्न कर देता, विदारण कर देता और फिर यह अपने आपको मोक्ष स्वरूप में ले जाता । ये सब बातें सबकी है । हम आप सब कर सकते हैं और उसको करने के लिए इन सब समागमों को तुच्छ मानें और मोह में न अटके, इन समागमों से विपत्ति माने तो इस पुरुषार्थ में हम सफल हो सकते हैं ।
चैतन्यात्मक आत्मा को और अज्ञानमय रागादिक को दो भागों में करके अब क्या करना चाहिए, ऐसी जिज्ञासा होने पर उत्तर दिया जा रहा है ।