वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 303
From जैनकोष
एवं हि सावरा हो बज्झामि अह तु संकिदो चेया।
जइ पुण णिरवराहो णिस्संकोहं ण बज्झामि।।303।।
अपराध में बंधन―जो पुरुष चोरी आदिक अपराधों को करता है वह पुरुष शंकित होता हुआ यत्र तत्र भ्रमण करता है । मैं किसी के द्वारा गिरफ्तार न हो जाऊँ, ऐसा वह चोरी करने वाला पुरुष शंकित होकर वन-वन में भटकता है । देखो आज तक कोई डाकू या चोर कोई श्रीमंत बन सका क्या ? डाकुवों ने लाखों रुपये हाथ में लिए होंगे, पर उनके पास ज्यों की त्यों, बात है, कोई वृद्धि नहीं है और शंकित होकर जंगल में, गुफावों में यत्र तत्र भ्रमण करते हैं । क्या हो गया है पर द्रव्यों का ग्रहण किया । इसी प्रकार यह जीव अपने आत्मतत्त्व के सिवाय अन्य परमाणु मात्र जो पर में उपयोग फंसाता है, दृष्टि लगाता है, समय व्यर्थ खोता है, अपने आपका ज्ञानबल घटाता है, कर्मों से बंध को प्राप्त होता है वह बंध जाता है ।
पर का अंगीकरणरूप मूल अपराध―भैया ! प्रभु है साह, और जब तक वह प्रभुता नहीं मिली, सम्यक्त्व नहीं जगा तब तक है जीव परमार्थ से चोर । आत्मा के हाथ नहीं; हाथों से कोई चीज उठाये । उसके पास तो ज्ञान है । ज्ञान से दूसरे की चीज को अपना मान ले यह उठाना हुआ पर का, इस वृत्ति में जो रहता है वह कर्मों से बँधता है ओर जन्म मरण की परंपरा बढ़ाता है । आज का समय माना जाये कि गृहस्थजनों के लिए संकट का समय है, कितना बड़ा संकट का आज समय है कि रुपये के सेर भर के गेहूं मिलें, कमाई की कोई ठीक व्यवस्था नहीं, सरकार के कानून बदलते रहते हैं । ऐसे जमाने में भी, स्थिति में उदय के अनुसार तो हो ही रहा है किंतु इस परिषह का विजय करते हुए किसी क्षण यदि अपने आत्मा के सहजस्वरूप की दृष्टि होती है तो उससे कुछ शांति अवश्य प्राप्त होती ही है ।
विपदा में धर्मप्रसेवा के कर्तव्य का एक उदाहरण―एक धर्मात्मा पुरुष था सो रोज पूजा करे, और बड़ी भक्ति से अपना धर्म पालन करे । अब बहुत वर्षों के बाद आफतों पर आफतें आ रही है । धन घट गया, परिवार घट गया, अनेक आपत्तियां छायी है, ऐसी स्थिति में उस धर्मात्मा पुरुष को क्या करना चाहिए? धर्म में तो असफल हो गया ना, तो उसे छोड़ देना चाहिए और क्या करना चाहिए? धर्म को छोड़कर चोरी, छल, दगाबाजी इन ही बातों में लग जाना चाहिए । यहाँ होगा शायद सुख पर ऐसा ठीक नहीं है । जैसे कोई राजा करोड़ों रुपये महीने का खर्च करता है । इसलिए कि मुझ पर आक्रमण कोई न कर सके, मेरा राज्य न कोई लूट सके । वर्षों तक खर्चा उठा लेता है, पर कदाचित् मान लो उस राजा पर कोई आक्रमण कर दे तो उस राजा को क्या करना चाहिए? क्या युद्ध करना चाहिए कि सेनापति को बुलाए और कहे कि ऐ सेनापति ! आज से हमारा सेना से संबंध टूटा, हम कुछ नहीं जानते ? क्या ऐसा कह देना चाहिए यदि यह ऐसा कह देता है कि अब यह सब व्यर्थ है, सब झगड़े हटावो तो उसे कौन बुद्धिमान् कहेगा? कुछ भी बुद्धिमानी नहीं है । जहाँ अरबों रुपया खर्च कर दिया वहां लाख रुपये खर्च करके सेना में वह उत्साह बढ़ाये और सेना को लड़ने के लिए भेज दे तो विजय हो जायेगी और विजय हो जायेगी तो वर्षों का व्यय सब सफल हो जायेगा ।
विपदा में धर्मप्रसेवा का कर्तव्य―इसी तरह धर्म करते हुए यदि दुःख आता है, आपत्ति आती है तो उस काल जरा और दृढ़ हो जाइए । जरासी हिम्मत करने की बात है, फिर सब योग्य वातावरण ओर शांति का साधन मिलेगा । दुःख कैसे आते हैं उन्हें, जो धर्म पर चलते हैं ? जो पहिले से ही विषय कषायों में आसक्त बने हुए हैं, उन्हें दिखने में तो कोई कष्ट नहीं है । क्या कष्ट है ? जो नियम संयम से चलते हैं उसे आते हैं कष्ट और जो नियम से नहीं चलते उन्हें क्या कष्ट आयेंगे ? सो भैया ! एक तो मोह में कष्ट पहिले ही लगे हुए है । उनकी जानकारी ही नही है।
संतोष का उपाय इच्छानिरोध―जो रात्रि को पानी नहीं पीते, जो 24 घंटे में एक बार ही पीते । अब गर्मी के दिनों में लोगों को यह दिखेगा कि कष्ट इसको है, संयमी को । अरे ऐसे लोगों को क्या कष्ट कम है कि सोते हुए भी चारपाई के सिरहाने पर सर के ऊपर पानी से भरी हुई सुराही भरी हुई है । सो आंखें मिची है, झट सुराही का गला पकड़ा और अपने गिलास में भरा और पी गये । उनको क्या कष्ट नहीं है ? है कुछ कष्ट । दिन रात में पचासों बार पानी पीने वालों को इतनी गुस्सा आती है गर्मी के दिन में कि पेट में पानी तो भरा है लबालब, एक घूँट आ जाने की गुन्जाइश नहीं है फिर भी चाहते हैं कि खाना पानी और भी पेट में भर लें । और जो यह जान कर कि हमें पानी नहीं पीना है, सो खायेगा संभलकर जितने में प्यास न लगे और संतुष्टरूप से अपनी इच्छावों को शांत कर वह तृप्त रहता है ।
पुरुषार्थी के परीषहों का सामना―एक शायर ने कहा है कि―‘गिरते हैं सहसवार ही मैदाने जंग में, वह तिक्ल क्या करेगा जो घुटनों के बल चले ।’ गिरते वे है जो ऊंचे घोड़े पर बैठकर चलते हैं, वे क्या गिरेंगे जो घुटनों के बल पर चल रहे हैं लुढ़क रहे हैं, उनको क्या लगेगा ? कितना कठिन देह का बंधन लगा है और कर्मों का बंधन लगा है । इस बंधन से मुक्त होने का उपाय क्या असंयम से हो सकेगा ? मान लो इस मनुष्यभव का सुख लूट लिया, स्वच्छंद मन बनाकर, अब मरने के बाद पेड़ पौधे हो गए, कीड़ा मकौड़ा हो गया, निगोद हो गया । अब क्या करेगा यह जीव ? तो यह आत्मा अपने ही आत्मद्रव्य में सम्वृत रहे, संयत रहे और अपने में अपने को अकेला समझे, अकिंचन जाने, अपने ज्ञानस्वरूप को ज्ञान में ग्रहण करे तो इसे संकटों से छूटने का मार्ग मिलेगा । ऐसी भावना भावो कि हे नाथ मुझमें वह बल आए कि मैं सिवाय निज चैतन्यस्वरूप के अन्य किसी भी पर में दृष्टि न लगाऊं, ऐसी भावना अपने आपमें कीजिए ।
अवसर न खोवो―भैया ! सफलता कब होगी ? देखा जायेगा जब होगी तब होगी, किंतु कितनी ही उम्र गुजर गई हो, कितने ही अशुद्ध भावों में पग गये हों, फिर भी सुधरने का उपाय है तो यह प्रभु भक्ति और ज्ञानमार्ग । जब चेतो, जब करो तभी भला है । सो जैसे गरीब को कोई निधि मिल जाये तो खूब लूटने की कोशिश करता है । इसी तरह इस संसार के इस गरीब को यदि आज जैन सिद्धांत के किरणों की निधि मिल रही है तो उसे खूब लूटो । अपने हृदय में खूब बसावो । विषयों की भावना न बसाकर वस्तु की स्वतंत्रता का स्वरूप बसावो । सब अपनी-अपनी चेष्टा करते हैं, कोई किसी पर न दया करता है, न राग करता है, न अहसान करता है, सब अपने-अपने कषाय की चेष्टा करते हैं, इसलिए पर की ओर अंतर से आकर्षित मन होवो ।
मात्र दृष्टि पर सार व असार के लाभ की निर्भरता―जो पर की ओर मन झुकाता है वह ही तो राग से बँधता है और अव्यक्तरूप में कर्मों से बँधता है । जो परद्रव्य के ग्रहण का अपराध नहीं करता वह निःशंक होता हुआ अपने आत्मा की निधियों का संचय कर रहा है । छोटी चीज छोड़ोगे तो बड़ी चीज मिलेगी और छोटी चीज से ही स्नेह लगावेंगे तो बड़ी चीज से हाथ धोवेंगे । तुच्छ विषयों में रमेंगे तो शांति की साधिका भगवती प्रज्ञा के प्रसाद से वंचित रहेंगे और उस तुच्छ से हटेंगे सो इस भगवती प्रज्ञा का प्रसाद पा लेंगे । तुच्छ और महान्―ये दोनों बातें पाना आपकी दृष्टिरूपी हाथ की बात है ।
सार की दृष्टि में ही बुद्धिमानी―भैया ! दृष्टि करने भर से रत्न मिलता है और विष मिलता है । अब जो मर्जी हो उसे ग्रहण कर लो । आपके आगे खली का टुकड़ा और रत्न का टुकड़ा दोनों ही रख दें और कहे कि जो मांगोगे सो मिलेगा । अगर आप खली का टुकड़ा मांग बैठते हैं तो तीसरा देखने वाला कोई आपको बुद्धिमान न कहेगा । केवल दृष्टि देने के आधार में शांति भी मिल सकती है और अशांति भी मिल सकती है । अब तुम जो चाहो, जैसी दृष्टि करो वही चीज मिल जायेगी । तो बुद्धिमानी यह है कि ज्ञानियों से नेह जोड़े, सज्जनों को मित्र मानें, उनमें पैठ बनाएँ । इस जगत की तुच्छ वस्तुवों से उपेक्षा करें, यह वृत्ति होगी तो शांति का मार्ग मिलेगा ।
अपराधी व निरपराधी की सशंकता व नि:शंकता―यदि कोई किसी प्रकार अपराध नहीं करता तो वह निःशंक होकर अपने नगर में भ्रमण करता है । मैं बँध जाऊँगा, गिरफ्तार हो जाऊँगा, किसी प्रकार की कोई चिंता नहीं उत्पन्न होती । इसी तरह जो अपराधसहित पुरुष है उसको तो ‘मैं बँध जाऊँगा’ इस प्रकार की शंका रहती है और जो निरपराध पुरुष है वह निःशंक रहता है । मैं न बंधूगा―इस प्रकार का उसका शुद्ध प्रवर्तन रहता है । स्पष्ट बात यह है कि इस लोक में परायी चीज को ग्रहण कर लेना परस्त्री स्नेह करना आदि यह हुआ एक अपराध । इस अपराध को कोई करना है तो उसको बंधने की शंका हो जाती है और जो अपराध नहीं करता उसको बंधने की शंका नहीं होती है । इसी तरह जो भी आत्मा अशुद्ध होता हुआ परद्रव्य को ग्रहण करनेरूप अपराध को करता है उसके बँधने की शंका हो जाती है और जो अपने को उपयोग में लेता हुआ केवल निजस्वरूप मात्र ग्रहण करता हुआ जो किसी भी परद्रव्य को ग्रहण नहीं करता, अपराध नहीं करता तो सर्वप्रकार के परकीय भाव के त्यागपूर्वक उसका शुद्ध आत्मा ही ग्रहण में आता है ।
निरपराधता―एक चैतन्यमात्र यह आत्मा अपने ग्रहण में आए तो इसको ही निरपराध कहते हैं । यहाँ बात यह चल रही है कि यह जीव बंध में जो पड़ता है सो खुद ही अपने आपको रागद्वेषमोह भाव को उत्पन्न करके पड़ता है । कोई पुरुष राग नहीं करता, परवस्तुविषयक द्वेष नहीं करता, मोह नहीं करता, फिर भी बंध जाता हो सो कोई उदाहरण बतलावो । जो कोई बंधता है, दुःखी होता है सो अपनी इस करतूत के कारण होता है । सब जीव एक समान है तो इन जीवों में से एक दो तीन जीवों को ही क्यों छांट लिया गया कि ये मेरे सब कुछ है और बाकी समस्त जीवों की उनके स्वरूप की अवहेलना क्यों की जा रही है? यह ही इस जीव का महान् अपराध है जो अपने आपको भूलकर परवस्तुवों में राग, द्वेष, मोह करता है । जो इतना महान् अपराध करता है अपने चैतन्य महाप्रभु का तिरस्कार करता है उसको कितना बंधन होना चाहिए, कितना उसे दंडित होना चाहिए, इसका अनुमान कर सकते हो ।
मान्यता की सावधानी―जो जीव रागादिक भावों को स्वीकार करता है कि यह मैं हूँ, वह तो बंधता है और जो अपने को यह स्वीकार करता है कि चेतन स्वभाव मात्र हूँ, वह संकटों से छूटता है । अपने आपके बारे में हम कैसे मानें कि हम बँध जायें, संकटों से घिर जायें और अपने आपके बारे में हम अपने आपको कैसा मानें कि संकटों से मुक्त हो जाएँ । ये दोनों ही बातें अपने आपके निर्णय पर निर्भर है । अब देख लीजिए कि कितना सुगम उपाय है संसार के संकटों से मुक्त होने का । न इसमें बड़ा कहलवाने की आवश्यकता होती है, न इसमें बड़े समारोहों की आवश्यकता होती है । यह तो केवल अपनी दृष्टि पर निर्भर है । मैं अपने को कैसा मानूं, बस इस ही निर्णय पर सारे निश्चय है ।
नि:संकट स्थिति―जो पुरुष इन इंद्रियों के द्वारा देखेगा, शरीररूप अपने को मानता है, मैं यह मनुष्य हूँ अथवा मैं परिवार वाला हूँ, धन वाला हूं, इस प्रकार जो अपने आपको मानता है उसके नियम से अनेक कल्पनाएं जगेगी । और उन कल्पनाओं से संकट पाना होगा और जिसको अपने आपका ऐसा श्रद्धान है कि मैं एक चैतन्यमात्र पदार्थ हूँ, मूल में जिसे अपने आपके सहज चैतन्यस्वरूप का अनुभव है वह पुरुष संकटों से नहीं घिरता, वह निरपराध होता है । उसे कर्मबंध नही होता, अथवा किसी प्रकार का संक्लेश नहीं होता । जिनके भोगों की आकांक्षा बनी हुई है उनको अनेक प्रकार की शंकाएँ होती है और जिनके कुछ निदान नहीं होता है, अपने आपके कर्तृत्व और भोक्तृत्व से रहित केवल चैतन्यमात्र ही निरख रहा हो उसके लिए न संकट हैं, न बंधन है ।
इच्छा के अभाव में सर्वसिद्धि―भैया ! आत्मानुशासन में लिखा है कि ये कर्म किसके लिए कर्म है? जो जीने की आशा रखते हो, धन की आशा रखते हों उनके लिए ये कर्म कर्म है और जो न धन की आशा रखते हों, न जीवन की आशा रखते हों, तो कर्म तो ज्यादा से ज्यादा यहाँ तक ही तो पहुंच पाते हैं वे धन और जीवन में बाधा डाल दें, पर जो धन जीवन की आशा ही नहीं रखते हैं अब उनके लिए कर्म क्या करेंगे? अपने स्वरूप की परिचय की अपूर्व महिमा है । कहीं भी डाली-डाली पत्ते-पत्ते कहीं भी डालते जाये, कितना ही ज्ञान करते जायें । जब तक अपने मूल का अपने को परिचय न हो तब तक जीव को शांति नहीं मिल सकती । अपराध करता है ना जीव तो उन अपराधों से मुक्त होने के लिए प्रतिक्रमण प्रायश्चित आलोचना आदि अनेक तप करना होता है और जहां इस व्यवहार धर्म के प्रसाद से अशुद्ध भावना ही नहीं, परस्वरूप में अपना गिरना ही नहीं है वहाँ तो यह बिना ही श्रम, बिना ही अन्य योजना के सिद्ध ही होता है । उसको किसी भी प्रकार का बंधन नहीं है ।
इच्छा की हानि वृद्धि का परिणाम―कोई बच्चा है, जब तक छोटा है, शादी नहीं हुईं है, स्वतंत्र है, सुखी है, निर्दोष है, पर जैसे ही उसका पाणिग्रहण होता है कल्पनाएँ नई-नई विचित्र-विचित्र दौड़ती है और व्यर्थ ही अपने को क्लेशमय बनाता है और बड़ा हुआ तो भले ही अभ्यास होने के कारण यह जीव अपने को सुखी मानता, चैन में मानता, बेचैनी का अनुभव न रखे पर स्वरूप से चिगकर किन्हीं परजीवों में लगना यह केवल आकुलता का ही कारण होता है । तो जो अपनी ओर रत होते हैं वे आकुलतावों से दूर रहते हैं । जो पर में निरत होते हैं उनके आकुलता ही आकुलता रहती है, ऐसा जानकर ज्ञानी संत अपने स्वरूप से नहीं चिगते और पररूप में निरत नहीं होते । अपराधी बनना अच्छा नहीं । अपराधी न बनोगे तो कोई संकट न होगा । अपराधी होगे तो संकट होगा । वह अपराध क्या है? उसका इन दो गाथावों में वर्णन है ।