वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 343
From जैनकोष
जीवस्स जीवरूवं वित्थरदो जाण लोगमेत्तं खु।तत्तो सो किं हीणो अहिओ व कहं कुणदि दव्वं।।343।।
जिज्ञासा समाधान का उपसंहार―जिज्ञासु के अभिप्राय के अनुसार जीव न राग का कर्ता है, न ज्ञान का कर्ता है। यह प्रकट किया जा रहा है और साथ ही यह भी सिद्ध करना उसे आवश्यक हो गया है कि आत्मा कुछ न कुछ करता जरूर है। यदि यह सिद्ध करने का प्रयत्न न करें तो आत्मा का अभाव मानना पड़ेगा। इस कारण यह बात जिज्ञासु ने कही थी कि जीव तो जीव के स्वरूप को करता है। तब कहा गया कि जो नित्य असंख्यातप्रदेशी है उसको यह क्या करता है ? वह तो इतना ही अवस्थित है। तो अब वह यह बात रख रहा है कि जीव प्रदेश फैले तो लोक मात्र फैल जायें और संकोच भी करते हैं। जिंदा ही अवस्था में बिना समुद्घात के यह जीव चार हजार कोस लंबा, दो हजार कोस चौड़ा और एक हजार कोस मोटा इतने प्रमाण में रह सकता है। जैसे स्वयंभूरमण समुद्र में विशाल मत्स्य जीव है।
सम्मूर्च्छन जन्म में अत्यधिक अवगाहना की नि:संशयता―कितने ही लोग मन में इतनी आशंका रखते हैं कि कहीं जीव का शरीर इतना बड़ा भी होता है ? यह आशंका ठीक नहीं, क्योंकि यह जीव समूर्छन जन्म वाला है, समूर्छन जन्म का यह मतलब है कि मिट्टी कूड़ा सब कुछ चीजें पड़ी हुई हैं जो कि शरीर के योनिभूत हैं। जब वे योग्यभूत हो जाती हैं तो किसी जीव ने आकर उसको शरीररूप से ग्रहण कर लिया, अत: इतना बड़ा शरीर मानने में भी तो आपत्ति नहीं है। अभी जिसने 4-6 अंगुल की ही मछलियां देखी हो अपने गांव के तलैयों में या नदियों के किनारे में, उसे यह सुनकर अचरज होगा कि 2 मील की भी मछली होती है, और होती है, जाकर देख आवो जहां होती हैं और इतना तक हो जाता है कि दो चार मील की लंबी मछलियों पर कूड़ा जम जाय और उस पर घास जम जाय और कोई भारी टापू जानकर अपना पड़ाव उस पर डाल दे और मछली धीरे से जरा करवट ले ले तो सारा का सारा पड़ाव जलमग्न हो जाता है। समूर्छन जन्म वाले के शरीर प्रारंभ से ही बहुत बड़े होते है। जीव के प्रदेश विस्तार को प्राप्त हो तो उतने हो जाते है, और लोकपूरण समुद्घात में तो जीव सारे लोक को व्याप जाता है।
लोकपूरणसमुद्घात―कैसा होता है लोकपूरण समुद्घात ? अरहंत देव जिनकी आयु तो थोड़ी रह गयी और शेष के तीन अघातिया कर्मों की बहुत अधिक स्थिति है तो ऐसा तो होगा नहीं कि मोक्ष जायेगा तो पहिली आयु खत्म हो गयी, फिर और कर्म खत्म हो गये। चारों अघातियाकर्म एक साथ क्षय को प्राप्त होते है, तब होता क्या है कि केवली समुद्घात, अर्थात केवली के आत्मा के प्रदेश शरीर को न छोड़ते हुए शरीर से बाहर फैल जाय, इसका नाम है समुद्घात। केवली भगवान यदि खडगासन विराजे हो तो देह प्रमाण ही चौड़े वे आत्मप्रदेश नीचे से ऊपर फैल जाते हैं और पद्मासन से विराजे हों तो देह जितना मोटा है उससे तिगुने प्रमाण मोटाई को लेकर फैलता है। इसका कारण यह है कि पद्मासन में जितना एक घुटने से दूसरे घुटने तक प्रमाण हो जाता है वह देह की मोटाई से तिगुना हो जाता है, फैल गये प्रदेश नीचे से ऊपर तक। यह पहिले समय की बात है, इसका नाम है दंड समुद्घात।
इसके पश्चात् अगल बगल में प्रदेश फैलते हैं तो फैलते चले जाते है, जहां तक उन्हें वातवलय का आदि मिलता है। इसे कहते है कपाट समुद्घात याने किवाड़ की तरह मोटाई में नहीं बढ़ता किंतु अगल बगल फैल जाय। इसके बाद तीसरे समय में आमने सामने में फैलते हैं। इसका नाम है प्रतरसमुद्घात और चौथे समय में जो वातवलय छूट गये थे उन समस्त वलयों में फैल जाना इसका नाम है लोकपूरण समुद्घात। इस स्थिति में आत्मा के प्रदेश एक-एक बिखरे, हो जाते हैं और लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर आत्मप्रदेश एक-एक स्थित होते हैं, इसको कहते है समवर्गणा। इसके बाद फिर वे प्रदेश सिकुड़ते हैं ऐसे प्रतरसमुद्घात में फिर सिकुड़कर कपाटसमुद्घात, फिर दंड समुद्घात हुआ, फिर देह में पूर्ववत् हो गये, इतनी क्रियावों के परिणाम में तीन कर्मों की स्थिति आयु की स्थिति के बराबर हो जाती है।
केवलीसमुद्घात से कर्मस्थिति निर्जरा का समर्थन―जैसे धोती निचोड़ी और निचोड़कर ज्यों की त्यों धर दिया तो उसके सूखने में कहो दिन रात लग जायें। कहो 24 घंटे में भी न सूखे और उसे फटकार कर फैलाकर डाल दिया जाय तो 7 मिनट में ही सूख जाती है। इसी प्रकार यह कार्माणशरीर एक केंद्रित सा बना है, इसमें विषम स्थान है। जब यह कार्माण शरीर भी फैल जाता है तो एक दृष्टांत मात्र है कि जल्दी सूख जाता है। तो देखो आचार्यदेव किया ना आत्मा ने कुछ काम। फैल गया, सिकुड़ गया, इसलिए आत्मा अकारक बन जाय, यह आपत्ति न आयेगी। इसके उत्तर में आचार्यदेव ने बताया कि फैलने सिकुड़ने पर क्या वह प्रदेशहीन अथवा अधिक किया जा सकता है कभी ? तब द्रव्य का क्या किया ? और भी अपने पक्ष में दूषण देखो।