वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 361
From जैनकोष
जह परदव्वं सेडिदि हु सेडिया अप्पणो सहावेण।तह परदव्वं जाणइ णायावि सयेण भावेण।।361।।
दृष्टांत में निश्चय के अविरोधपूर्वक व्यवहार का प्रदर्शन―जैसे सेटिका अपने स्वभाव से भींतादिक परद्रव्यों को सफेद करती है। इस ही प्रकार यह ज्ञाता आत्मा अपने स्वभाव से परद्रव्यों को जानता है। जैसे वही खड़िया जिसको कि निश्चयदृष्टि से देखने पर इस प्रकार से देखा गया था कि यह खड़िया अपने आपको सफेद कर रही है। इस खड़िया का इस भींत के साथ स्वस्वामित्व संबंध नहीं है, उस ही खड़िया के संबंध में व्यवहारदृष्टि से यह तका जा रहा है कि खड़िया है तो अपने आप में सफेद गुणकर भरपूर स्वभाव वाली और इस स्थिति में जो कि भींत के ऊपर बहुत पतले रूप में फैली है यह भींतादिक परद्रव्यों के स्वभाव से नहीं परिणम रही हैं। यह सफेदी अपने ही श्वेत गुण के स्वभाव से परिणमी है, फैली है, भींत के स्वभाव को ग्रहण करती हुई नहीं फैली है और साथ ही इन भींतादिक परद्रव्यों को यह खड़िया अपने स्वभाव से नहीं परिणमा रही है अर्थात् श्वेतगुण से नहीं परिणमा रही है। फिर भी इतनी बात तो देखी जा रही है कि खड़िया जो इस प्रकार बहुत पतले रूप में ऐसी विस्तृत हो गई है भींतादिक परद्रव्यों का निमित्त पाये बिना तो नहीं हुई। भींत है तो उस पर खड़िया इतनी पतली फैल गई है।
दृष्टांत में व्यवहार का कथन―यह सेटिका अपने ही श्वेत गुणकर भरे हुए स्वभाव के परिणमन से उत्पन्न हो रही हुर्इ यह सेटिका परमार्थ से क्या कर रही है ? इसकी दृष्टि न करके व्यवहार दृष्टि से देखो भींत और सफेदी इन दोनों का संबंध निगाह में रखकर देखो तो यह खड़िया अपने स्वभाव से इस भींत को सफेद कर रही है ऐसा व्यवहार होता है क्योंकि सेटिका के निमित्त से इस भींत का ऐसा दिखावा बना हुआ है, इस प्रकार के निमित्तनैमित्तिक संबंध के कारण इस सेटिका को और भींत को सफेद करने का व्यवहार बनता है। निश्चय के अविरोधपूर्वक पर के ज्ञातृत्वरूप व्यवहार का प्रदर्शन―इस ही प्रकार इस ज्ञाता आत्मा के संबंध से भी देखो कि यह ज्ञाता आत्मा तो अपने ज्ञानगुण कर भरे हुए स्वभाव वाला है, जैसे खड़िया में सिवाय सफेदी के और कुछ नजर नहीं आता है इस ही प्रकार आत्मा में ज्ञानप्रकाश के अतिरिक्त और कुछ सिद्धि नहीं होती है। यह आत्मा ज्ञान गुणकरि भरपूर स्वभाव वाला है। लेकिन यह स्वयं पुद्गल आदिक परद्रव्यों के स्वभाव को नहीं परिणमा रहा है। जो खड़िया है उसकी यह खूबी है कि वा अपने सत्त्व के कारण निरंतर परिणमती रहती है, वह दूसरे पदार्थ के सत्त्व पर आधारित नहीं है। सो यह ज्ञान ज्ञेयभूत परद्रव्य के स्वभाव से नहीं परिणम रहा है। और इसके ज्ञेयभूत पुद्गल आदिक परद्रव्यों को देखो―यह ज्ञान अपने स्वभाव से नहीं परिणमा रहा है, फिर भी ज्ञान और ज्ञेयभूत परपदार्थ में परस्पर निमित्तनैमित्तिक संबंध है, वह कैसे कि परद्रव्य के निमित्त से आत्मा अपने ज्ञानगुण के स्वभाव के परिणमन से उत्पन्न हो रहा है। जहां निमित्त शब्द बोला जाय वहां शीघ्र ही यह धुनि मन में रहनी चाहिए कि यह पर का करने वाला नहीं है। वह ज्ञेयभूत परद्रव्य के आश्रय से अथवा निमित्त से आत्मा ज्ञान गुणरूप से परिणमा, सो यह व्यवहार किया जाता है कि ज्ञाता ने अपने भाव से परद्रव्य को जाना। ज्ञानविकल्प के विषयों की अनिवार्यता―भैया ! वह जानना क्या जिसमें कोई द्रव्य ज्ञेय न हो फिर तो सांख्य सिद्धांत की तरह आत्मा का निष्क्रिय परिणाम शब्दमात्र चैतन्यस्वरूप रह जावेगा। जैसे रागद्वेष परिणाम होने में कोई परद्रव्य आश्रयभूत हुआ ही करता है। यों ही यदि कुछ भी पदार्थ ज्ञेयभूत न हो तो ज्ञान का निर्माण ही क्या ? फिर अर्थ विकल्प नाम ही किसका हुआ ? जानन ही क्या कहलाया ? जहां ज्ञेयभूत कोई द्रव्य ही नहीं फिर जाननस्वरूप ठहर नहीं सकता। सो इस पुद्गलादिक परद्रव्य का निमित्त पाकर ज्ञान गुणकर भरा हुआ यह स्वभाव अपने स्वभाव से परिणम रहा है, लेकिन व्यवहार ऐसा होता है कि यह ज्ञान इन सब पदार्थों को जानता है। यह ज्ञाता आत्मा इन समस्त बाह्य पदार्थों का है क्योंकि ये पदार्थ जो ज्ञेय हुए हैं यह ज्ञान के विषय में उपचरित हैं। इस प्रकार इन बाह्य पदार्थों के संबंध में यह व्यवहार है कि आत्मा अपने स्वभाव से इन समस्त बाह्य पदार्थों को जानता है।
सर्वविशुद्ध तत्त्व के ज्ञान बिना अपनी ठगाई―भैया ! यह सर्व विशुद्ध अधिकार है जहां पूर्ण विशुद्ध तत्त्व दिखाना है। जो कर्तृत्व भोक्तृत्व से रहित, पर के संबंध से रहित अनादि अनंत ध्रुव अखंड स्वभाव है उस स्वभाव पर यहां दृष्टि दी जा रही है। जगत् के जीवों को बाहर-बाहर की बातें समझना तो बहुत आसान लग रहा है, घर कुटुंब धन वैभव आदि की बातें सब आसान लगती हैं और उनमें ही वे अपनी चतुरायी बनाए हुए हैं। पर यह सब चतुराई नहीं है, यह सब ठगाई है। एक आत्मतत्त्व को जाने बिना जो कुछ भी हम अपने में बड़प्पन समझते हैं, मेरे इतने मकान हैं, मेरी ऐसी दुकान है, मेरे ऐसा कुटुंब है, कुटुंब के लोग ऐसे विनयशील हैं, इन सब बातों से यह जीव जो अपना बड़प्पन मानता है सो समझते तो यह हैं कि बड़ी चतुराई का काम कर रहे हैं किंतु हो रही हैं अपनी प्रभुता की पूरी ठगाई।
हितमय चेतावनी―भैया ! क्या है यह वर्तमान का समागम ? चार दिन की चांदनी फेर अंधेरी रात। जब तक मिलन है जब तक राग भरी बातों का आदान प्रदान है तब तक यह जीव अंधेरी में भूला हुआ मस्त हो रहा है। पर पर ही रहेगा, पर त्रिकाल में भी निज का नहीं बन सकता है। स्वभाव ही ऐसा पड़ा है, तो पर का परिणमन उस पर के कारण पर का जैसा होना है होगा। परपदार्थ जो समागम में आए हैं वे सब बिछुड़ जायेंगे। वे ठहर न सकेंगे और यह संयोग का आकांक्षी पुरूष, संयोग का आसक्त मोही पुरूष उस समय जब कि वियोग होगा तो इतना दु:खी होगा, इतना अधिक पछतायेगा कि संयोग के उतने बड़े समय का जितना भी सुख पाया है उस सबके अनुपात से भी महान् क्लेश उसे बिछुड़ने के एक ही दिन में आ जायेगा। लेकिन यह मोही जीव हठी है, अज्ञानी है। यह अपना हठ कहां छोड़ने वाला है ? हठ छोड़ दे तो अज्ञानियों में नंबर न रहे। मोहियों की मोहियों में पोजीशन की निरर्थक चाह―जैसे छलबाज लोग छलवानों में छलबाजी में अपना पहिला नंबर रखना चाहते हैं और उसमें ही अपनी शान समझते हैं, जैसे चोरजन अनेक उपायों से चोरी करके चोरों में अपनी चोरी की कला को दिखाकर महान् बनना चाहते हैं, जैसे हिंसकजन साँपादिक परजीवों को बलपूर्वक मार कर मारने वालों की गोष्ठी में अपने को कलावान् बताकर महान् बनना चाहते हैं इसी प्रकार मोही जीव अपने धन घर परिवार इज्जत पोजीशन लोगों में बहुत अधिक जताकर इन मोहियों में अपने को महान् कलाकार चतुर सिद्ध करना चाहते हैं। पर न यह महान् बनने वाला रहेगा और न जिनमें अपने को महान् बनाने का, बताने का श्रम किया जा रहा है न वे रहेंगे। सीधी तौर से यह अपने आपके अनुभव में लग जाय तो इसमें कुशल है। सीधा स्वाधीन काम करने में ही कुशलता―जैसे जिस चीज पर कोई अधिक प्रेम नहीं हैं उस चीज पर बालक किसलिए ख्याल करेगा ? वह प्रेम ही नहीं करना चाहता। उसे जो काम कहा जाय सीधा सा वह काम भी न करना चाहे तो उसका संरक्षक उस बालक को दंड देता है, पीटता है। जब वह बालक हैरान हो जाता है तो उसको कहते हैं कि सीधे से यह काम कर लो नहीं तो कुशल नहीं है, अभी पिटेगा। इसी प्रकार हे आत्मन् ! सीधे-सीधे सही रास्ते से चुपचाप अपनी ओर मुड़कर अपने स्वतंत्र अकिंचन ज्ञानस्वरूप से भेंट कर लो। इसके निकट बैठ जावो नहीं तो यह सारा जगजाल तुम्हें ही भोगना पड़ेगा। जगत् में सोते हुए जीवों में अन्य चीजों का समागम हो जाना बहुत सुगम बात है। होगा ही समागम जहां जायेगा कुछ न कुछ तो पुद्गल पड़े हुए मिलेंगे ही तो उन समस्त समागमों का मिलना तो सुगम है पर अपने सहज स्वरूप का श्रद्धान जो कि अनंत आनंद ज्ञान ऋद्धि सिद्धि से भरपूर है, जो स्वयं ही परम वैभव कर सहित है, उसका ज्ञान होना इस जीव को दुर्लभ हो रहा है।
स्वतंत्रता के अपरिचय में क्लेश―कैसा है स्वतंत्र यह ज्ञाता आत्मा ? जैसे दीपक अपने आपमें स्वतंत्रता से जगमग होता हुआ टिमिक रहा है, उसे दूसरे पदार्थ से कुछ मतलब नहीं, कोई पदार्थ सामने आए कोई पदार्थ सामने से हटे, कैसे ही रंग वाला आए, कैसी ही परिस्थिति वाला हो, उस दीपक का कुछ मतलब नहीं है। वह तो अपने स्वरूप से अपने में जगमग करता हुआ निरंतर टिमटिमा रहा है, उसी प्रकार यह ज्ञान प्रकाशमय ज्ञाता आत्मा इसको परद्रव्यों से कुछ प्रयोजन नहीं है। यह तो अपने में अपनी सत्ता के कारण जगमग होता हुआ अपने में ही निरंतर टिमटिमा रहा है, जाननवृत्ति से परिणम रहा है, इसे पर से कोई प्रयोजन नहीं है। कोई पर जानने में आए, कैसी ही परिस्थिति बाहर में हो इस ज्ञाता आत्मा को उन परवस्तुवों से कोई मतलब नहीं है। लेकिन अनादि से छाया हुए इस राग से, अज्ञान से अपनी ऐसी महिमा को दृष्टि से ओझल करके दीन भिखारी आशावान् बन-बनकर यह विभु क्लेश पर रहा है। असंभव की हठें―सहारनपुर में एक जैन बालक था। यह उस समय की घटना है जब जंबूप्रसाद जी जीवित थे, आमने सामने घर था, तो उनके हाथी को देखकर उस बालक का जी हो गया कि यह हाथी ले लें। जैसे बाजार में खिलौनों को देखकर बच्चा हठ कर जाता है―हमको यह खिलौना खरीद दो, तो उसने हठ कर लिया कि यह हाथी हमको ला दो। खैर बालक के पिता ने महावत को समझाकर हाथी दुकान के सामने खड़ा करा दिया। लो बेटा हाथी ले आए। तो वह लड़का कहता है कि ऐसे नहीं, इसे खरीद दो। यह तो थोड़ी देर को आया है फिर चला जायेगा। रोने लगा। तो महावत को समझाकर अपने बाड़े में खड़ा करा दिया, लो बेटा अब खरीद दिया है। तो अब वह बच्चा कहता है कि नहीं, इसे हमारी जेब में धर दो। अब धर दो जेब में। बुला ले आवो सब रिश्तेदार, उस बच्चे की मंशा को कोई पूरी कर दे। क्या कोई उस बच्चे की जेब में हाथी धर सकता है ? नहीं। तो जैसे बालक हाथी को जेब में धरने की हठ करता है और उसकी हठ की पूर्ति न होने से रोता है, खेद करता है, इसी तरह यह मोही प्राणी अपना उपयोग परद्रव्यों में लगाता है और अपनी मंशा के अनुसार उनमें परिणमन करने का हठ कर रहा है। क्लेशजाल का विनाश करने वाला ज्ञान―भैया ! परपदार्थ की परिणति इसकी मंशा के मुताबिक हो ही नहीं सकती है। यह अपने घर का राजा है, तो क्या ये सब परपदार्थ अपने स्वरूप के राजा नहीं हैं। कोई परपदार्थ इसकी मंशा मुताबिक परिणम न सके तो यह रोता है, दु:खी होता है, कष्ट उठाता है। यदि यह समझ में आ जाय कि यह इतना बड़ा जानवर जेब में कैसे आ सकेगा, बालक की ही समझ भीतर में बन जाय तो उसका रोना बंद हो सकेगा। कहीं मारने पीटने से कि तू बड़ा हठी है, बड़ा मूर्ख है इससे उसका रोना नहीं बंद होगा। उसको ही समझ आ जाय तो उसका रोना बंद हो सकता है। इसी तरह इस मोही जीव को वस्तु के मर्म का पता नहीं है। किसी पर के स्वरूप से नहीं, अपने ही गुणों में त्रिकाल रहता है पर के गुणों में एक क्षण भी इस मर्म का परिचय हो तो क्लेशजाल समाप्त हो सकते हैं, अन्यथा नहीं।
शांति का उद्यम―भैया ! इन समस्त परपदार्थों में मेरे साथ क्या संबंध है, यह मैं स्वयं ज्ञान ज्योति करि भरपूर सबसे निराला हूँ। सो मेरे इस ज्ञातृत्व स्वभाव के कारण इन परपदार्थों का जानन हो रहा है। केवल ज्ञाता ज्ञेय संबंध है, मेरा इन सर्व परपदार्थों के साथ। किंतु अन्य कारण कार्य आदिक कोई संबंध नहीं है। तब फिर इन परपदार्थों के संबंध में किस पर की हठ करना, इससे क्या लाभ है ? मैं अपने ही स्वरूप को निरखूं, अपने निकट रहूं और समस्त व्यग्रतावों आकुलतावों से रहित होऊँ, ऐसी भावना जगे तो इस जीव को शांति का मार्ग मिल सकता है। ज्ञानी के अंतर्लक्ष्य की अविचलता―इस ज्ञाता आत्मा का ज्ञेयभूत परद्रव्य के साथ कोई संबंध नहीं है। इस प्रकरण से यह शिक्षा लेनी है कि जब इन पदार्थों से सीधा निश्चय से जानने तक का भी संबंध नहीं है तो और प्रकार का संबंध तो त्रिकाल भी नहीं है, सो सर्व परपदार्थों से असंबद्ध निज ज्ञाता आत्मा को अपने ज्ञान में लेना और इस ज्ञायकस्वरूप को ज्ञानरूप में ही अनुभव करना यही सर्व संकटों से मुक्त होने का सही उपाय है। इस उपाय को किए बिना अन्य दृष्टिरूप कुछ भी बात की जाय किंतु उन उपायों से, निरखने से मुक्ति नहीं हो सकती है। सो भाई वह ठीक है जो हमारे एकमात्र ज्ञानदृष्टि रूप के उपाय में सहायक हो सकता हो अर्थात् विरोधी न बने, इसीलिए बाह्य संयम तप, व्रत आदिक करते हुए भी अपने आपके ज्ञानरूप उपाय को कभी न भूलना चाहिए। ज्ञायक आत्मा का ज्ञेय परद्रव्य कुछ है या नहीं, इस संबंध में निश्चय और व्यवहार दोनों रीतियों से वर्णन किया जा चुका है। इस संबंध में कुछ खुलासा यों जानना कि यह आत्मा आत्मा का ही है, यह ज्ञायक ज्ञायक ही है और यह अपने आपको जानता है। तो क्या परद्रव्य के बारे में कुछ नहीं जानता ? परद्रव्य के विषय में जानता है, किंतु परद्रव्य के विषय में अपनी ही ज्ञानवृत्ति को ज्ञेयाकार परिणमा कर जानता है, परद्रव्य से तन्मय नहीं होता। इससे यह भी सही है कि यह ज्ञायक व्यवहार से परद्रव्य का ज्ञायक है। यह ज्ञायक निश्चय से अपना ही ज्ञायक है। अब ज्ञानतत्त्व के संबंध में व्यवहार का निश्चय करके दर्शनगुण के संबंध में व्यवहारनय क्या कहता है ? इस संबंध में बतलाते हैं