वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 413
From जैनकोष
पाखंडीलिंगेसु ब गिहिलिंगेसु वि वहुप्पयारेसु।
कुव्वंति जे ममतिं तेहिं ण णायं समयसार।।413।।
द्रव्यलिंगव्यामोहियों की अज्ञातसमयसारता- -- जो जीव पाखंडी भेष में और बहुत प्रकार के गृहस्थ के भेष में ममता को करते हैं वे समयसार को नहीं जानते हैं। उन्होंने समयसार जाना ही नहीं है। पाखंडी नाम है साधु महाराज का, पर जैसे किसी कंजूस आदमी को कुबेर जी, कुबेर जी कहने लगें तो कुबेर शब्द भी गाली बन जाता है। इसी तरह मोही को पाखंडी पाखंडी कहो तो पाखंडी शब्द भी गाली बन जाता है। वहाँ पाखंडी शब्द का ऊँचा अर्थ है, साधु परमेष्ठी को पाखंडी कहते हैं। जो पापों के टुकड़े टुकड़े कर दे उसे पाखंडी कहते हैं, और गृहस्थ के लिड्ग हैं नाना प्रकार के। इन चिन्हों में, इन भेषों में जो ममत्व करते हैं उन्होंने समयसार को जाना नहीं।
परमार्थ की अनुपलब्धि से द्रव्यलिंग में ममकारता ― मैं श्रवण हूँ, मैं साधु हूँ, मैं श्रमण का उपासक हूँ, इस प्रकार द्रव्यलिंग ही में ममता कर करके, मिथ्या अहंकार कर करके यह मुग्ध प्राणी अपने को बरबाद कर डालता है। कई जगह तो इसी बात पर झगड़ हो जाता है कि देखने आया, मुझे नमस्कार करके नहीं गया। अरे तुम नमस्कार के योग्य ही कहाँ हो जो तुम्हारे यह परिणाम आया कि मैं साधु हूँ। जिस के यह बुद्धि लगी है कि मैं साधु हूँ उसने अपने समयसार स्वरूप को निगाह में ही नहीं लिया, फिर वह साधु कैसे? मैं श्रमण हूँ इस प्रकार का मिथ्या अहंकार अध्यवसायी को तत्त्वज्ञान से दूर रखता है। मैं पूजने के पद वाला हूँ और ये सब पूजने के पद वाले हैं, ऐसा जहाँ परिणम होता हैं वह तो अत्यंत मलिन परिणाम है। मेरा तो इन्हें सम्मान करना चाहिए। ठीक है, पर यह भी तो बतावो कि जिस से सम्मान चाहते हो कुछ आप से उस के आत्मा की भी सेवा बनती है या नहीं? नहीं बनती है। ज्ञानी संत की तो शांतिमुद्रा के दर्शन से भी सिद्धि होती है।
परमार्थदर्शन बिना मुक्तिमार्ग की अप्राप्ति ― मैं मुनि हूँ, मैं श्रमण हूँ, मैं ब्रह्मचारी हूँ, मैं क्षुल्लक हूँ ये सब विश्वास अज्ञान के विश्वास हैं। हां ये सब धर्ममार्ग में बढ़ते हुए इस जीव को एक गुजारे का साधन हैं आत्मसेवा के गुजारे का साधन और शरीरसेवा के गुजारे का साधन। उसमें यह अलंकार करना कि मैं त्यागी हूँ, मैं साधु हूँ, मैं क्षुल्लक हूँ, यह मिथ्या अलंकार है और ऐसा जिस का विश्वास बना है कि मैं आत्मा तो मुनि हूँ उसको जैन आगम में मिथ्यादृष्टि कहते हैं। उसने पर्याय बुद्धता अपनायी है, उसे रंच भी कभी यह अनुभव नहीं हुआ है कि मैं तो सर्वजीवों के सहजस्वरूप के समान शुद्ध ज्ञायकस्वरूप हूँ। इस कारण परमात्मतत्त्व के अनुभव बिना इस जीव को मोक्षमार्ग नहीं हो सकता है।
पर्यायव्यामुग्धगेही व अनगारों में समानता ― वह जीव जो अपनी वर्तमान पर्याय में ममता रखता है उस के संबंध में बताया है कि अपनी पिछी को भी सजाकर रखना साधुपने का दोष है, अपने कमंडल को भी चिकना चुपड़ा चमकीला रखना और उसे बार-बार देखना ये सब साधुपने के दोष हैं। अपने शरीर को निरखकर यह मैं साधु हूँ सो थोड़ी ऐसी छाती उठ गयी जैसे धन के लाभ वाले धनिक पुरुष की अभिमान से कभी छाती ऊँची उठ जाती है। फिर उनमें और इसमें फर्क ही क्या रहा? इस द्रव्यलिंगी का कहीं वीतराग परिणम नहीं हो गया है, जो कोई पूजा स्तुति बड़ी ऊँची करता हो और उस के एवज में कभी भी ऐसी बात न आती हो, चेष्टा न होती हो, रहने दो भाई, बहुत हो गया और इतना ही नहीं किंतु अंतर में उसकी पूजा कराने का उपाय बने जो किसी पंडित से कुछ कह दिया कि तू मेरी पूजा बना देना या कोई मेरे नाम का ग्रंथ लिख देना आदि बातें ये तो द्रव्यलिंगयों से निकली बातें हैं।
अज्ञात विष का भी प्रभाव ― भैया ! ये सब तिकड़म क्यों होते हैं? मैं चिदानंद स्वरूप हूँ ऐसा भान नहीं है। मैं व्यक्ति संसार की घोर आपत्तियों में फंसा हूँ ऐसा उसे ज्ञान नहीं है अंतर में, इस कारण बाह्य में ऐसी चेष्टा हो जाती है कि जिस के बारे में छहढाला में दौलतराम जी ने स्पष्ट शब्दों में कहा है―जो ख्याति लाभ पूजादि चाह। धरि करन विविध विधि देहदाह ।। आत्म अनात्म के ज्ञानहीन, जे जे करनी तन करन छीन, ते सब मिथ्याचारित्र। तो दूर रहो, संयमरूप आचरण करते हुए भी, शत्रु पर रागद्वेष न करते हुए भी, उपसर्ग करने वालों पर द्वेष न करते हुए भी यदि यह परिणाम उठता है कि मैं तो साधु हूँ, मुझे द्वेष न करना चाहिए और अंतर में रागद्वेषरहित शुद्ध ज्ञायकस्वरूप का भान नहीं है तो वहाँ पर भी मोह और मिथ्यात्व बताया गया है।
अनादिरूढव्यवहारमूढता ― ऐसे पुरुष जो कि अपने को समाज और श्रमोणोपासक मानकर द्रव्यलिंग की ममता से मिथ्या अहंकार किया करते हैं वे अनादि काल से प्रसिद्ध चले आए हुए व्यवहार में मूढ़ होकर अपने वैभव को खोकर निश्चय से विमुख होकर इस भगवान परमार्थ सत् समयसार को नहीं चेतते उनके ममता का ढ़ंग ही बदला, किंतु उन्होंने ममता त्यागी नहीं है। पशु अपनी ममता का ढंग और रखते हैं, पक्षी और ममता का ढ़ंग रखते हैं, गृहस्थ लोग अपनी ममता का और ढ़ंग रखते हैं और साधुजन जो निश्चयतत्त्व से अनभिज्ञ हैं वे अपनी ममता का और ढ़ंग रखते हैं। मात्र ममता के ढंग में परिर्वतन है इस द्रव्यलिंगी साधु का, पर गृहस्थ में और साधु में भेद कुछ नहीं रहा। न संवर निर्जरा का पात्र अज्ञानी गृहस्थ है और न संवर निर्जरा का पात्र यह अज्ञानी साधु है। जो चला आया है अनादि काल से उस ही व्यवहार में यह मूढ़ हो गया है। सो इस परमार्थसत् परमब्रह्मस्वरूप कारणसमयसार जो एक है इतना भी नहीं कह सकते हैं, किंतु है, ऐसा अनुभव के द्वारा ही गम्य है। एक अनेक के विकल्प से रहित केवल परमार्थ ब्रह्म ही जहाँ ज्ञानगोचर है ऐसी स्थिति वह प्राप्त नहीं कर सकता है।
कारणसमयसार के अपरिचितों का भ्रम, श्रम, और क्रम – भैया ! बड़े दुर्धर तप करते हुए भी जिस के आत्मसिद्धि नहीं, वहाँ हुआ क्या कि भाव लिंग नहीं मिला, वीतराग शुद्ध ज्ञायक जो स्वभाव है, स्वरूप है, उसका परिज्ञान नहीं हुआ। सो निर्ग्रंथ भेषरूप जो पाखंडी द्रव्यलिंग है, साधु का द्रव्यलिंग है, अथवा लंगोट चिन्ह आदिरूप जो गृहस्थ का द्रव्यलिंग है उसमें ममता ही की है, और में क्षुल्लक हूँ, मुझे इस तरह पहिनना ओढ़ना चाहिए, मैं ब्रह्मचारी हूँ मुझे इस तरहधोती चद्दर ओढ़नी चाहिए, ये कर्तव्य माने जाने लगे। अरे ज्ञानी पुरुष को तो इस ओर विकल्प भी नहीं होता है। ऐसे द्रव्यलिंगों में जो ममता करते हैं उन्होंने इस निश्चय कारणसमयसार को जाना ही नहीं है।
कारणसमयसार व कार्यसमयसार ― कारणसमयसार कार्यसमयसार को उत्पन्न करने वाला है, जिस कार्यसमयसार में अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत आनंद, अनंत शक्ति की व्यक्ति है, जो कारणसमयसार पूर्ण कलश की तरह भरा हुआ है, जैसे कलश में पानी भरा हो तो अंतर में कहीं पानी न हो ऐसा नहीं होता है। पानी जहाँ तक भरा है, वह ठसाठस भरा है, अंतर नहीं आता है। जैसे कलश में लड्डू भर दें तो उनके बीच सांस रहती है, पानी में कहीं सांस न मिलेगी। इसी तरह यह ज्ञान स्वभाव ज्ञान से लबालब भरा है, किसी जगह अंतर नहीं पड़ता।
समता व ज्ञातृत्व का परस्पर सहयोग ― यह ज्ञानस्वभाव परम समता भाव के परिणाम के द्वारा ही आश्रित किया जाता है। जहाँ चिदानंद एक स्वभाव शुद्ध आत्मतत्त्व का भली प्रकार श्रद्धान् है, ज्ञान है, अनुभवन है, ऐसी निर्विकल्प समाधि से जो अनुपम आनंद प्रकट होता है उस आनंद में जो एक साम्य अवस्था बनती है उसके द्वारा ही यह कारणसमयसार परिचय में आता है। जिस में किसी भी प्रकार का संकल्पविकल्प नहीं है कषायों से दूर है, ऐसा शुद्ध ज्ञायक स्वरूप ज्ञाता को ज्ञात ही होता है।
व्यवहारव्यामोह में परमार्थ का अग्रहण – जिन जीवों की दृष्टि व्यवहार में मुग्ध हो गयी है वे अज्ञानीजन परमार्थ को ग्रहण कर नहीं सकते । जैसे कि छिलकों में ही जिन की बुद्धि मुग्ध हो गयी है वे पुरुष छिलके को ही ग्रहण करेंगे, चावल को ग्रहण नहीं कर सकते । यह देह मायामय है, परमार्थभूत नहीं है। यह आत्मा से भिन्न है, अचेतन है। खैर, अचेतन में ही देखो तो यह शुद्ध अचेतन द्रव्य नहीं है किंतु अनंत पुद्गल अचेतन द्रव्य का पिंड बना है, आना और बिखरना सदा बना रहता है फिर काष्ठ पाषाणों की तरह ठोस हो ऐसा भी नहीं है, किंतु अंदर में बाहर में, मिनट-मिनट में अपना रंग बदलने वाला है। ऐसी अचेतन देह से प्रकट हुआ जो द्रव्यलिंग है उसमें ही जिसकी बुद्धि मुग्ध हो गयी है वे परमार्थ सत्य को नहीं जानते हैं।
देहाश्रित दृष्टि में स्वत्व की असिद्धि ― कितने ही तो सोचते हैं कि बहुत भवों में मनुष्य भव मिला, अनंत काल में बड़ी दुर्लभता से मनुष्यभव प्राप्त हुआ, इस भव में मुनि तो बन ही लो, ऐसी वासना में भी उन की दृष्टि केवल देह पर है। ऐसा बन लो ऐसा बनना बताया है कि यह ऐसा साधु जितने बार हुआ है एक एक भव का एक एक कमंडल रखा जाय तो बताते हैं कविजनों का, लेखकजनों का, ऋषीजनों का, संतजनों का मेरुपर्वत के बराबर ढेर बन जाता है। इस बात पर जोर दिया है कि अरे निर्ग्रंथ पुरुषों ! तुम द्रव्यलिंग में ही मुग्ध मत होओ। यह तो ठीक है उत्कृष्ट साधना में द्रव्यलिंग तो होता ही है, जब ममता नहीं रही बाह्यपदार्थों में तो चरम साधना के समय द्रव्यलिंग तो हुआ ही करता है। कहीं परिग्रह के संचय के वातावरण में निर्विकल्प समाधि की पात्रता नहीं होती किंतु द्रव्यलिंग में ही मुग्ध हो जायेंगे तो परमार्थ की प्राप्ति न हो सकेगी।
ज्ञानी का लक्ष्य ― जैसे जानकार व्यापारी धान को खरीदता हो तो उसकी छिलकों पर दृष्टि मुग्ध नहीं होती किंतु भीतर में जो चावल रहता है उस चावल का लक्ष्य रहता है, इसही प्रकार जो ज्ञानी साधु हैं उनके इस नग्न और जो निर्ग्रंथ भेष है उसमें उन की बुद्धि मुग्ध नहीं होती, किंतु अंतर में जो शुद्ध ज्ञायक स्वरूप है इस स्वभाव का स्वरूप का जो कि अनादि मुक्त है ऐसे शुद्ध ज्ञायकस्वरूप का वहाँ लक्ष्य रहता है। जिसकी आँखे द्रव्यलिंग की ममता में ही मीच गयी है, द्रव्यलिंग ममता की नींद में ही सो गई हैं ऐसे पुरुष के द्वारा यह समयसार दृष्ट ही नहीं होता है।
द्रव्यलिंग व भावलिंग के उपादानों की भिन्नता ― अरे ! यह द्रव्यलिंग तो अन्य पदार्थों से हुआ है और मोक्ष का मार्गभूत जो ज्ञानतत्त्व है, वह ज्ञानतत्त्व स्वयं यह आत्मा ही है, द्रव्यलिंग उपादान क्या? एक शरीर उसही की अवस्था है और निर्विकल्प समाधिरूप ज्ञानरूप जो भावलिंग है उस लिंग का उपादान यह आत्मा है। तब द्रव्यलिंग में ममत्व न रखना। द्रव्यलिंग मोक्षमार्ग नहीं है, किंतु ज्ञानस्वरूप अंतस्तत्त्व को आत्मरूप अनुभव करना सो ही छुटकारे का मार्ग है। इस ही बात को इस प्रकरण में अंतिम गाथा द्वारा स्पष्ट किया जा रहा है।