वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 44
From जैनकोष
एए सव्वे भावा पुग्गलदव्वपरिणामणिप्पण्णा ।
केवलि जिणेहिं भणिया कह ते जीवो त्ति वुच्चंति ।।44।।
38. परभावों की पुद्गलपरिणामनिष्पन्नता―ये समस्त भाव पुद्गलद्रव्य के परिणाम से निष्पन्न हैं ऐसा केवली जिनेंद्र भगवान के द्वारा कहा गया है । अत: वे जीव हैं ऐसा कैसे कहा जा सकता है? कोई कहते हैं कि जो हम में राग-द्वेष उठ रहे हैं, वही जीव है । यदि राग-द्वेष ही जीव है तो राग-द्वेष ही करते रहो । यदि राग द्वेषादि को जीव न माना तो रागादि से छुटकारा मिल सकता है । जहाँ राग-द्वेष मैं हूँ, वहाँ “मैं” को कैसे मिटाया जा सकता है? इस प्रकार बंधन नहीं छूट सकता है । आत्मा के आश्रय से बंधन छूटता है, क्षणिक के आश्रय से बंधन नहीं छूटता है । इन परभावों में कुछ तो चीजें ऐसी हैं, जो पुदगल के निमित्त से हुई हैं और कुछ ऐसी हैं कि जो पुद्गल द्रव्य का परिणमन है । अज्ञानी इन दोनों को जीव मानता है । पुद्गल द्रव्य के निमित्त से राग-द्वेष, साता-असाता, शुभाशुभ भाव होते हैं, ये पुद्गल द्रव्य के निमित्त से हुए परिणमन हैं । पुद᳭गल द्रव्य के निमित्त से हुए वे भी जीव नहीं हैं । जो पुद्गल द्रव्य के परिणमन हैं, वे भी जीव नहीं हैं । सबसे पहले यह श्रद्धा करनी है कि शरीर मैं नहीं हूँ । यह बात जल्दी से सीखी जा सकती है, क्योंकि औरों के शरीर जलाते प्रतिदिन देखे जाते हैं । बहुत से लोगों को यह अनुभव होता है कि जैसी हमारी बुद्धि होती है, वैसी किसी की है ही नहीं । जैसा हमारा पुण्य है, वैसा किसी का है ही नहीं । मरने वाले तो और कोई होंगे मैं सदा जिंदा रहूंगा, परंतु यह सब अज्ञानी की कल्पना है । भिखारी भी यही मानते हैं कि जैसी हममें चतुराई है, वैसी किसी में है ही नहीं । जीव को अपने-अपने बारे में ऐसी श्रद्धाएं जमी हुई हैं । संभव है कि जिन में आज बुद्धि नहीं है वे इसी पर्याय में या किसी अन्य: पर्याय में हमसे अधिक ज्ञानी बन सकते हैं । राग में कोई सफल नहीं होता है, परंतु वह मानता है कि मैं राग से सफल हो गया ।
39. रागादि विकारों में स्वभावरूपता होने की अशक्यता―कितने ही लोग मानते हैं कि राग-द्वेष ही जीव है, क्योंकि जीव ने अपने को एक समय भी रागद्वेष से रहित अनुभव नहीं किया है । अत: अज्ञानी रागादि को ही जीव मानता है । अज्ञानी मानता है कि राग ही मैं हूँ, राग ही मेरा सब कुछ है और वह ऐसी श्रद्धा रखता है कि मैं राग से अलग नहीं हो सकता हूँ । जिन बच्चों के मन में यह भाव भरा रहता है कि मैं परीक्षा में सफल न हो पाऊंगा तो वह पास नहीं हो पाता है । राग-द्वेष मैं नहीं हूँ, क्योंकि ये पुद्गल द्रव्य के निमित्त से उत्पन्न होते हैं । जैसे दर्पण है, दर्पण में हरा रंग दिखाई देता है । ज्ञानी को यह पता है कि यह प्रतिबिंब दर्पण की चीज नहीं है । सामने निमित्त आया, हरा प्रतिबिंब हो गया । यह तो दर्पण का स्वभाव है कि निमित्त पाये इस रूप परिणम जाये । मलिन जीव की भी कुछ ऐसी आदत है कि निमित्त पाये रागद्वेष रूप परिणम जाये । अत: रागद्वेष मैं नहीं हूँ । ये रागादि चैतन्य स्वभाव रूप नहीं बन सकते हैं, क्योंकि रागद्वेष आदि का स्वभाव चैतन्य नहीं है । जब स्वानुभव होता है तब उपयोग आत्मा की ओर लगा रहता है, शुद्ध द्रव्यरूप आत्मा की ओर उपयोग लगता है । ऐसे उपयोग के समय भी रागादि द्रव्य चलते रहते हैं, परंतु उपयोग उन्हें नहीं पकड़ रहा है । ये रागादि भाव आत्मा में होते हैं, होने दो, इससे आत्मा का क्या बिगाड़? मैं तो चैतन्य मात्र ज्ञानवाला आत्मा हूँ । यदि आत्मा को चेतना आप दिख जाये तो रागादि अबुद्धिपूर्वक ही होते रहेंगे । जितनी भी बातें ऊपर बताई गई हैं, ये जीवद्रव्य के हो नहीं सकती । अत: रागादि जीव नहीं हो सकते हैं । रागादि को जीव मानने में आगम से बाधा, युक्ति से बाधा, स्वानुभव से भी बाधा आती है । इतना तो निश्चित है कि यदि यह जीव विषय कषाय की ओर उपयोग लगाता तो दुःखी होता और यदि चैतन्य स्वभाव की ओर ध्यान लगाता है तो सुखी होता है । यदि हम परपदार्थ की ओर उपयोग लगाते हैं तो उसका फल केवल आकुलता ही है । क्योंकि यदि इसमें ऐसा उपयोग लगाया तो ऐसा ही परिणम जाना चाहिये, लेकिन परिणमता नहीं है, किंतु अज्ञानी का इसकी ओर उपयोग है, अत: अज्ञानी को दुःख स्वयमेव होता है । यदि अखंड चित्स्वभाव की ओर दृष्टि लग जाये तो शांति मिलती है । हम वैसा विचार बना पायें, चाहे न बना पायें, लेकिन जीव के वह अनुकूल है । आगम, युक्ति आदि से बाधा होने के कारण शरीर रागादि को जीव मान लेना मिथ्यात्व है । जिन-जिनको मोही जीव ने आत्मा माना, वे चीजें या तो पुद्गल द्रव्य के परिणमन हैं या पुद्गल द्रव्य के निमित्त से हुई हैं, ये दोनों ही जीव नहीं हैं । मैं इनसे अलग एक शुद्ध आत्मा हूँ ।
40. समस्त अनात्मतत्त्वों की पुद्गलमयता―कोई पुरुष कहता है कि रागद्वेषभावों को कलुषितपने का जो परिणाम है वह जीव है तो कोई कहता है कि रागद्वेषादिक क्रिया में अथवा ज्ञानावरण आदिक कर्म ये ही जीव हैं, तो कोई कहता है कि नहीं, उन अध्यवसान भावों में, उन रागद्वेषादिक परिणामों में जो तीव्रता मंदता की शक्ति पड़ी है उस तीव्र मंद अनुभाग में जो रह रहा है वह जीव है । तो किन्ही का कहना था कि शरीर ही जीव है । इस मान्यता वाले तो सभी हैं जितने मिथ्यादृष्टि हैं । जो कुछ विद्वान हैं, दार्शनिक हैं कुछ बोलने में चतुर हैं वे और-और तरह से जीव कहते हैं; पर शरीर को जीव कहने वाले तो सभी मिथ्यादृष्टि हैं । असंज्ञी भी शरीर को आपा मानते हैं, एकेंद्रिय आदिक भी । और ये मनुष्य भी सभी कहते हैं कि शरीर ही जीव है । तो कोई कहता है कि कर्मों ने जो विपाक पड़ा हुआ है कर्मों का उदय, कर्मों में होने वाले कर्म का उदय इनकी तो किसे खबर है? और कर्मों के उदय में उत्पन्न होने वाले जो विभावों का उदय है उन विभावों के उदय को जीव कहते हैं । कोई कर्मों की शक्ति को जीव कहते हैं । कोई कहते कि नहीं, जीव और कर्म दोनों का जो मिलावट है सो जीव है । कुछ जीव जैसी बात दिखें तो और कुछ जीव न हो, इस तरह की बात अपने में दिखें और सबका मिले दिखे तो कहते कि जीव और कर्म दोनों का मेल जीव है । तो किन्हीं का कहना है कि इन कलहों में क्या है ? आठ कर्मों का जो संयोग है वही जीव है । यह मानने वाला अज्ञानी बहुत बढ़िया सा रहा, सुनने में कहने में कि बताओ आठ काठ के सिवाय खाट क्या है, यों ही आठ कर्मों के सिवाय और जीव क्या ? इस प्रकार अनेक तरह से परतत्त्वों को जो जीव मानते हैं उनको समझाया जा रहा है कि ये सभी की सभी बातें जो कही गयी हैं वे तो पुद्गल के परिणाम से उत्पन्न हुए भाव हैं अर्थात् पौद्गलिक जितनी भी बातें अभी कहीं गई हैं अज्ञानियों से, वे सब पौद्गलिक बातें हैं, अर्थात् पुद्गल के परिणाम से उत्पन्न हुये हैं । उनमें से कुछ तो हैं पौद्गलिक भाव सीधे उपादान दृष्टि से और कुछ हैं जीवभाव, जैसे अध्यवसाय विकार, लेकिन ये पुद्गलकर्म के उदय के निमित्त से उत्पन्न हुये हैं इस कारण पौद्गलिक हैं । भाव यह है कि स्वयं के निज की चीजें नहीं हैं । जैसे कर्म शरीर ये स्वयं की चीज नहीं हैं, इसी प्रकार रागद्वेषादिक विकार ये भी स्वयं के तत्त्व नहीं हैं, हुये हैं स्वयं में, किंतु स्वयं की ओर से स्वयं के सहज स्वभाव के नाते हुए नहीं हैं, किंतु पुद्गल कर्म के उदय के निमित्त से हुये हैं ।
41. पौद्गलिकता के दो मर्म―जो पुद्गल का सीधा भावं है वह भी पौद्गलिक है और जो पुद्गल के निमित्त से उत्पन्न हुये परिणाम हैं वे भी पौद᳭गलिक हैं । पौद᳭गलिक शब्द के यों दो प्रकार के अर्थ होते हैं और दो अर्थों में से किसी न किसी अर्थ वाले ये भाव हैं जो अज्ञानियों के द्वारा अभी बताये गए । जब किसी में भेद करना होता है, दो बातों में भेद करना है तो उन दो का असाधारण स्वरूप जरूर जानना चाहिये । ये दो अंगुलियां अलग-अलग क्यों हैं ? यों कि इन अंगुलियों का द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव दूसरे में नहीं है । दूसरी अंगुली का द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव पहली में नहीं है । किसी छोटी अंगुली में कोई फोड़ा हो जाये तो उससे बड़ी अंगुली में कुछ नहीं है । जिसमें जो परिणमन हो रहा है वह उसमें है । इससे ये पृथक् दो चीजें हैं और यहाँ दो ही पृथक्-पृथक् क्या कहें―एक ही अंगुली में रहने वाले जो सूक्ष्म-सूक्ष्म स्कंध हैं वे पृथक्-पृथक् हैं । उन सूक्ष्म स्कंधों में रहने वाले जो एक-एक अणु हैं वे पृथक्-पृथक् हैं, अपना-अपना सत्त्व रखते हैं तो किसी जीव की ये दो चीजें अलग-अलग हैं, इससे जान जायेंगे कि इन दो का असाधारण लक्षण जान लें । तो यहाँ हमें जीव और अजीव में भेद करना है । जीव मायने अपने आपमें सहज अनादि अनंत अहेतुक शाश्वत जो स्वभाव है वह तो हूं मैं और जो ऐसा नहीं है और और कुछ है वह सब है पर । मैं जीव हूं, अनादि अनंत अहेतुक शाश्वत असाधारण चैतन्यस्वभाव हूं, और रागादिक अजीव हैं, अर्थात् यह अनादि अनंत अहेतुक चैतन्यस्वभाव नहीं है ।
42. जीव अजीव जानने का प्रयोजन अजीव से हटकर जीवस्वरूप में आना―यहाँ अजीव है, ऐसा कहने पर यह जोर देना जीव नहीं है और क्या है, इसके लिए जिज्ञासा न कीजिये । जिसको केवल जीवत्व स्वभाव के ग्रहण का प्रयोजन है वह केवल इतना ही जानना चाहेगा कि यह मैं जीव हूँ और ये सब मैं जीव नहीं, फिर है क्या? जैसे हैं यह जानने की जरूरत तो है क्योंकि उनका विशेष समझे बिना, उनका असाधारण स्वरूप जाने बिना हम स्पष्टतया उनसे विविक्त अपने को मान न सकेंगे पर जिस काल में एक अध्यात्मरूप अनुभव करने का प्रसंग हो उस काल में पर का केवल परत्व जानना इतना ही प्रयोजन रख करके आगे बढ़ा जाता है । निर्णय के काल में वह पर क्या है, किस उपादान से है आदिक सब कुछ जानना चाहिए । ये अध्यवसान आदिक भाव, ये राग-द्वेष कर्म शरीर आदिक पदार्थ जीव नहीं हैं । जीव तो एक अनादि अनंत असाधारण चैतन्यस्वभाव है । प्रयोजन परिज्ञान के आशयानुसार अलग-अलग होता है । सभी जगह व्यवहार क्षेत्र में व्यावहारिक शास्त्र में या व्यवहार में यह बात यदि कहने लगे कि ये सब कोई जीव नहीं हैं जो दिख रहे हैं । कीड़ा मकोड़ा पशु पक्षी मनुष्य । तो इसमें विडंबना बन जायेगी । पर अध्यात्म अनुभव के लिए तैयार हुये योगी निःशंकता से निरख रहे हैं कि ये सब कोई जीव नहीं हैं । पहिले तो इस अमूर्त स्वरूप से ही यह निर्णय हो जाता है कि जो-जो कुछ दिखते हैं वे भी सब जीव नहीं । तो व्यवहार क्षेत्र में यद्यपि यह बात युक्त नहीं बैठती कि यह कहने लगें कि ये मनुष्य पशु, पक्षी ये सब जीव नहीं हैं, किंतु जीव के असाधारण स्वभाव पर सहजस्वभाव पर दृष्टि देकर यह निश्चय रखकर कि स्वभाववान स्वभाव में होता है । फिर निरखा तो पहिले तो एक मोटे रूप से यही भेद आ गया कि जो दिखे वह जीव नहीं । जीव इंद्रिय से नहीं दिखा करता । इंद्रिय का विषय है रूप, और जीव काला, पीला, नीला, लाल, सफेद आदिक नहीं है वह तो ज्ञानभाव स्वरूप है । तो जो कुछ दिख रहा यह जीव नहीं । अब और अंदर चले तो जिसने स्वभावमात्र से जीव निरखने का आशय बनाया है―एक अध्यात्मयोग में बसने के लिए विशुद्ध दृष्टि बनाया है ऐसे पुरुष निरख रहे हैं कि ये रागद्वेष आदिक भाव ये पुद᳭गल के परिणाम से उत्पन्न हुए हैं, पुद्गल के निमित्त से उत्पन्न हुए हैं, अत: यह भी मैं नहीं हूँ । मैं हूँ अनादि अनंत अहेतुक शाश्वत असाधारण चैतन्यस्वभाव । ऐसा निर्णय जिस दृष्टि में बसा है उस दृष्टि का यह कथन चल रहा है ।
43. अध्यात्मयोगवृत्ति के प्रयोजन का प्रकरण―इस अधिकार में जिसका कि नाम जीवजीवाधिकार है, यह बताने का प्रयोजन है कि वास्तव में जीव क्या है, और जो यह नही है वह सब जीव नहीं है, अर्थात् अजीव है । अजीव होकर फिर हम उसे किस द्रव्य में डालें? उसे हम पुद्गल द्रव्य माने या अन्य कुछ मानें? धर्म आदिक मानें ― यह निर्णय करने का प्रसंग नहीं है । उसमें आशय जीव के शुद्ध स्वरूप को निरखकर जीव को ग्रहण करने के आग्रह का बनाया है । उस समय यह प्रश्न नहीं उत्पन्न होता कि रागादिक भाव यदि जीव नहीं हैं, अजीव हैं तो शेष 5 द्रव्यों में से कौनसा द्रव्य है? क्या धर्म अधर्मादिक? ऐसा प्रश्न उठाये जाने का प्रसंग नहीं है । यहाँ तो केवल जीव के स्वरूप को निरखकर उसके अतिरिक्त समस्त भावों का प्रतिषेध करके उस स्वभाव में उपयुक्त होने का प्रकरण है । निर्णय यदि करना है तो निर्णय में यह बात आयेगी कि रागद्वेषादिक परिणाम जीव के परिणमन हैं, किंतु पुद्गलकर्म के उदय का निमित्त पाकर हुए हैं । यहाँ एक स्वभावदृष्टि से जीव का स्वरूप कहा जा रहा है । चैतन्यशून्य जो-जो कुछ भी भाव हैं, जो-जो भी द्रव्य हैं उन सबसे निराला यह मैं चैतन्यस्वभाव जीवद्रव्य हूं, अन्यरूप मैं कैसे होऊंगा? जिन पुरुषों ने इस चैतन्यस्वभावरूप स्वतत्त्व का अनुभव किया है वे पुरुष समझ रहे हैं कि जैसे स्वर्ण किट्टकालिमा में रहकर भी उससे भिन्न है इसी प्रकार जीव का सहजस्वरूप इन अध्यवसान आदिक इन शरीरादिकरूप नहीं है । भले ही ये कर्म अनादिकाल से अब तक एक संसरण की धारा बनाये हुये आ रहे हैं और इस वजह से जीव धाराप्रवाह संसार भावों में चला आ रहा है, फिर भी स्वतत्त्व का अनुभव करने वाले जानते हैं कि उस संसरण से, उस क्रीडन से, उस कर्म से यह मैं पृथक् केवल चित्स्वभावमात्र हूँ । भले ही चढ़ाव उतार के साथ यह अध्यवसानों का संतान चला आ रहा है । रागद्वेष मोह आदिक परिणामों की संतति चढ़ाव उतार को लिए हुए है जिसका कि फल बहुत ही बुरा है । ये सब चले आ रहे हैं, पर यह मैं जीव नहीं हूँ, जिसने समस्त पर और परभावों से उपेक्षा करके एक सहज विश्राम लिया है और उस विश्राम में आत्मा के स्वभाव का दर्शन किया है, अनुभव किया है, उन्हें यह स्पष्ट विदित है कि यह सब बखेड़ा, ये सब औपाधिक भाव, ये सब उपाधियाँ, ये मैं नहीं हूँ । मैं तो एक चैतन्यमात्र जीव हूँ ।
44. ज्ञानमात्र अंतस्तत्त्व बोध का प्रताप―देखिये―यह अपना मूल मंत्र समझ लीजिये अपनी भाषा में । मूल उपासना यह ध्यान में रहे कि मैं सबसे निराला ज्ञानमात्र हूँ । अपने स्वरूप की परख करनी है ना, यह बात तो ध्यान में बनी ही रहना चाहिये, चाहे अपने रहने के स्थान पर कमरे में लिख भी लें, जिससे देखते हुए रहें कि मैं सबसे निराला ज्ञानमात्र हूँ । यह ध्यान रहेगा तो कितनी ही विपदाओं से, व्यसनों से, पापों से, दुष्कल्पनाओं से निवृत्ति उसकी झट हो जायेगी । मैं ज्ञानमात्र हूँ । जो ज्ञानस्वरूप है वह साधारण है अर्थात् व्यक्तिरूपता में नहीं आ पाता है कि जिसका नाम रखा जा सके । लोग नाम रखते हैं इस पर्याय का, वह व्यक्तिरूप बन जाता है, इस मूर्त का तो नाम रखा जाता है, किंतु जो ज्ञानस्वरूप हो ज्ञानभावमात्र, उसका नाम क्या? और कदाचित कुछ नाम भी रखा जाये तो उस नाम से यह भेद नहीं हो सकता कि इन अनंतानंत जीवों में से इस नाम के द्वारा केवल मुझको ही पुकारा गया है । ज्ञानस्वभावमात्र अंतस्तत्त्व का नाम आप क्या रखेंगे, ज्ञान रखें, आत्मा रखें, जीव रखें, जो यहाँ रखे जाते नाम अमुकचंद, अमुकलाल, अमुकप्रसाद आदिक । ये क्या इस ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व के नाम हैं? मैं ज्ञानमात्र हूँ ऐसा ध्यान जाते ही बहुत से अवगुण समाप्त हो जाते हैं । जिनको हित की लगन है, अपने को अविकार बनाने की बुद्धि लगी है और अभ्यास द्वारा बहुत कुछ निर्णय और साधन किया है वह एक ज्ञानमात्र मैं हूँ, इस अर्थ को जानकर इस शब्द को सुनकर वे अवगुणों से झट दूर हो जाते हैं । मैं ज्ञानमात्र हूं तो इस मुझ का फिर कोई क्या हो सकता है? यह घर इस ज्ञानमात्र का कुछ है क्या? प्रकट भिन्न है, देह तक भी मेरा नहीं हैं, फिर ये परिकर मेरे क्या होंगे? ज्ञानमात्र निज तत्त्व को जानने पर यह ममता सुगमता से मौलिक ढंग से हट जाती है कि इसके अतिरिक्त अन्य उपाय करने पर हटना कठिन हो जाता है ।
45. ममता दूर करने का उपाय―उपदेश होता है कि ममता दूर करो, ममता किस तरह दूर करें, कोई उपाय तो बताओ । अच्छा उन उपायों में चलिये । यह निरखते जावो कि कोई किसी का साथी नहीं है कोई किसी का कुछ चाहता नहीं है, सब स्वार्थ के गर्जी हैं, सब अपने भाग्य से उत्पन्न होते हैं, अपने ही भाग्य से चले जायेंगे, ऐसी सारी बातें भी समझ लें, लेकिन मोह की जड़ समाप्त नहीं हुई है, वह तो एक ऊपरी ही ज्ञानप्रकाश है और क्षण भर को संतोष करा देने वाला ज्ञान है । जहाँ मोह मूल से नष्ट हो और हमारी तृप्ति संतोष के लिए स्थिर रह सके ऐसा कोई उपाय है तो वह प्रकाश है । सबसे निराला मैं ज्ञानमात्र हूँ, ऐसा बोलते हुए भी यदि तृप्ति संतोष नहीं हो पा रहा, ऐसा सुनते हुये भी यदि कोई तृप्ति नहीं हो रही है तो समझना चाहिए कि इसका प्रयोगात्मक ज्ञान नहीं कर रहा हूँ, किंतु अब भी किसी परतत्त्व का राग लगा है, पर से परभाव से राग हुये बिना आकुलता नहीं होती । यदि सच्चाई से एक तान होकर लगन के साथ अपने अंतर्ज्ञान उपयोग को प्रवेश कराते हुए अपने आपके इस स्वरूप को तक लें, यह हूँ मैं ज्ञानमात्र―ऐसा तकते ही वहाँ भार नहीं रहता । कहाँ बोझ? आकाश में बोझ कहाँ, वह तो अमूर्त है, ऐसे ही आत्मा में बोझ कहाँ? वह तो अमूर्त है, ज्ञानभावमात्र है, जिसमें ऐसा सोचने में ही निर्भारता, ऐसा लखने में ही निर्भारता, और शांति उत्पन्न होती है । कभी दृढ़ अभ्यास के बल से ऐसी परिणति बन जायेगी, तब वहाँ व्यक्त निर्भार कृतार्थ हो जायेगा ।
46. कृतार्थता का अंत: उद्यम―जीव ने अपने को कृतार्थ करने के लिए नाना उपाय किए । जैसे मनुष्य जीवन में जवानी में जो धनार्जन करते हैं उसमें वे यही भाव रखते हैं ना कि हम इतने वर्ष खूब उद्यम कर लेवें ताकि उसके बाद कृतार्थ रहें । जो प्रयोजन हैं वे सब सही सलामत मिलते रहेंगे । यही तो भाव रखते हैं । जो कोई भी जो उद्यम करते हैं उनके उद्यम का भाव है कृतार्थ होना, क्योंकि शांति कृतार्थता में ही है । जो प्रयोजन है वह पूरा हो चुका, बाद में कुछ करने को न रहे, ऐसी स्थिति को कृतार्थता कहते हैं । कृतार्थ होने के लिए सारे यत्न हैं, मगर कोई कृतार्थ न हो सका । सभी लोग कुछ न कुछ विकल्पों में, कल्पनाओं में समाये ही रहते हैं । कृतार्थ होने का उपाय तो यही है कि यह दृष्टि में आ जाये कि मैं यह ज्ञानस्वभावमात्र हूँ । इसको दूर करने को क्या पड़ा है? जो कुछ करने को पड़ा हुआ माना जा रहा था वह सब अज्ञान में भ्रम में माना जा रहा था । इस मुझ ज्ञानमात्र आत्मा का बाहर में है क्या? जो कुछ माना जा रहा था तो वह अज्ञान में माना जा रहा था । उसे ज्ञानस्वभावमात्र स्वतत्त्व की सुध हुई है । उस सुध में तत्काल ही अलौकिक स्वाधीन आनंद भी अनुभूत हो रहा है । तब मेरी यह कृतार्थता की ही स्थिति है । यह रहा-सहा जो कुछ भी अकृतार्थपन है या झंझट है वे सब इस ही के प्रसाद से दूर हो जाते हैं । अपने को ऐसा अनुभव करें कि मैं ज्ञानमात्र हूँ । भले ही कुछ लोग नया पुराना बन रहे शरीर को जीव मान रहे लेकिन तनिक भी बुद्धि का प्रयोग करने वाले समझ जाते हैं कि शरीर मैं नहीं हूँ । शरीर है जड़ पौद्गलिक विनश्वर । मैं हूँ चैतन्यस्वरूप अमर अविनाशीतत्त्व । भले ही लोग सुख दु:ख को कर्म के उदय को जीव रूप से मानें, किंतु जो विवेचक जन हैं ऐसे ज्ञानीजनों ने सुख दुःख परिणाम से निराला केवल ज्ञानानंद का अनुभव कर सकने वाले इस तत्त्व को स्वभाव से समझा है कि उन सुख दुःख परिणामों से यह निराला है । कुछ लोगों की समझ में आता होगा कि जीव और कर्म इन दोनों का जो उभय मेल है वह जीव है । लेकिन यह तो वस्तुस्वरूप ही नहीं । दो चीजें मिल कर एक बनें―यह वस्तुस्वरूप में नहीं पड़ा है । 8 कर्मों का संयोग भी जीव नहीं । वह तो जो कुछ है सो है, उससे भिन्न ज्ञानमात्र निज जीवतत्त्व का ज्ञानियों ने परिचय पाया है । अरे और कुछ नहीं करते तो पर को पर जानकर उससे उपेक्षा करके विश्राम से ही अगर बैठ जाये तो इन पौद्गलिक तत्त्वों से भिन्न चित्स्वभावमात्र मैं हूँ यह स्वयं तेरे अनुभव में आ सकेगा । जो चैतन्यस्वरूप है सो जीव है और जो चैतन्यशून्य है, सो जीव नहीं है ।
47. उत्तम लक्ष्य बनाने का ध्यान―जीवन का उत्तम लक्ष्य बनाना चाहिये कैसे ही बनें अपने उद्धार करने वाले अपने हम ही बनेंगे, अत: हममें आज यह बात आ जानी चाहिए कि हम विषय कषाय आदि में इच्छाएं कम करके ज्ञान की ओर झुकें । मान के लोभ में यदि आपकी अपनी सम्हाल न हुई तो बड़ी हानि है । मरण समाधि सहित हो जाये यह सबका लक्ष्य होना चाहिये । जब मैं मरूं तब मेरे में किसी प्रकार का विकल्प न उठे, मैं मरूं तो निर्विकल्प शांतिपूर्वक मरूं―यह भाव और काम मरते वक्त भी होना चाहिये । पांडवों ने क्या-क्या नहीं किया, किंतु उनके मरण समय इतने अच्छे परिणाम रहे कि तीन को मोक्ष मिला, दो सर्वार्थसिद्धि गये । अपना उत्तर जीवन सुधार लो पूर्व जीवन कैसे गुजरा, पूर्व जीवन में कैसे रहे ? इनका विकल्प भी करना लाभदायक नहीं है । आत्मा का स्वभाव मोक्ष है, कैसा यह जीव अपना उपयोग बनाता रहे, यही सबसे बड़ा सहायक है । आत्मा का साथ देने वाला स्वयं आत्मा का ज्ञान है, अत: ऐसा मत मानो कि रागद्वेष ही जीव है । किट्टकालिमा से जुदे सोने की तरह, रागद्वेष कर्म, नोकर्म आदि से जुदा आत्मा ज्ञानियों के उपयोग में आता है ।
48. आत्मा के उपयोग में चैतन्य आत्मा होने पर अपनी शोभा―सब कुछ कर लिया । रागद्वेष आदि के करने से कुछ नहीं मिल जायेगा । परिवार कुटुंब के बीच में रहकर भौतिक चीजों को बढ़ा लिया जाये, उनसे क्या होता है? आत्मा इतना ही मात्र तो है नहीं । आत्मा की शोभा तो ज्ञान और शील से है । ज्ञान प्राप्त करने के लिए चारों अनुयोग हैं । करणानुयोग तो इतना असीम है कि उसका ज्ञान प्राप्त करते-करते जिंदगी समाप्त हो जाती है । द्रव्यानुयोग के ज्ञान का तो ऊंचा मर्म है । इसका परिचय होने पर तो आत्मा जैसे आठ काठ से न्यारी कोई खाट नहीं है, उसी प्रकार आठ कर्म से न्यारा कोई जीव नहीं है । क्योंकि कर्म से भिन्न आत्मा ज्ञानियों की समझ में आया है । आठ काठ की खाट अवश्य होती है, किंतु उस पर सोने वाला तो उससे न्यारा है । उसी प्रकार कर्मों के ढेर कार्माण शरीर से न्यारा जीव है ऐसा ज्ञानियों की समझ से आया है । इस प्रकार नाना प्रकार की दृष्टि वाले मोही जीव आत्मा के बारे में विवाद कर रहे हैं कि पुदगल से न्यारा कोई जीव नहीं है, तो कहते हैं कि उन्हें शांति से इस प्रकार समझा देना चाहिए । विशेष कहने से कोई प्रयोजन नहीं है, विशेष से अर्थ की सिद्धि नहीं होती है ।
49. विसंवादकों को शांति से समझाने को अनुरोध―अभी-अभी तो प्रकरण निकला था । मोही लोग कैसी-कैसी कल्पना कर भटक रहे थे? अनेक बातें मोहियों की निकली और अंत में तो कुछ मोहियों ने यह बताया । क्या? कोई मोही कह रहा था कर्मों का अनुभवन जो कि तीव्र साता, तीव्र असाता; मंद साता, मंद असाता के उदयरूप होती थी, वही जीव है । आचार्य कहते हैं ऐसा नहीं है । सुख दु:ख के अलावा भी कोई जीव है, ऐसा ज्ञानियों ने समझा है । इस पर कुछ मोहियों ने यह कहा कि जैसे दही और बूरा मिल जाने पर तीसरी अवस्था होती है, उसे श्रीखंड कहते हैं । इसी प्रकार जीव और कर्म का मिश्रण ही जीव है ऐसा हम जानते हैं । उत्तर―कर्मों से भिन्न कोई जीव है, ऐसा ज्ञानियों ने समझा है । भौतिक पदार्थों में जैसे साइन्स काम करती है । अग्नि का निमित्त पाया और पानी गर्म हो गया । अग्नि का निमित्त हटने पर पानी ठंडा हो जाता है । पर ये दृष्टि देने से विह्वलताएं उत्पन्न होती हैं । आत्मा की ओर दृष्टि देने से निराकुलता प्राप्त होती है । कर्म से भिन्न आत्मा को ज्ञानियों ने पहिचाना है । कोई लोग मानते कि इससे तुम्हें क्या मिलेगा? सुख दुःख मिटाने का उपाय अनुभव करना, यह उद्देश्य तो किन्हीं अंशों में ठीक है । हम मलिन है, संसारी हैं, कर्म से ढके हैं, इसका उपाय समझना है अतएव हम मंदिर में जाते हैं, ऐसा समझने से तो कल्याण है । तत्त्व निकलता है, किसी निश्चित उद᳭देश्य से । इस प्रकार बड़ी शांति से आचार्य महाराज ने उन मोहियों को समझाया । यदि समझाने पर कोई नहीं माने तो लो ऐसा उपाय करो कि न तुम अपने को हिंदू मानो और न हम अपने को जैन समझें, ऐसा निष्पक्ष हो करके आत्मध्यान में बैठ जाओ तो देखो छ: माह में ही सिद्धी होती है या नहीं? और यह जानोगे कि दुःख से छूटने का उपाय क्या है? छ: माह इस प्रकार करके देखो तो जान जाओगे कि आत्मा क्या है? जिन्हें आत्मा व अनात्मा का परिचय नहीं है ऐसे पर्यायमुग्ध पुरुषों ने जिस-जिस चीज को आत्मा मान डाला है उनके बारे में जरा ध्यान तो दो, वे क्या हैं? वे सारे भाव पुद्गलद्रव्य के परिणाम से निष्पन्न हैं अर्थात् पुद्गलद्रव्य के परिणाम हैं और ऐसा ही विश्वसाक्षी अर्हंत देवों के द्वारा प्रज्ञप्त है, उनकी दिव्यध्वनि में भी बड़े-बड़े महर्षियों, ज्ञानियों तक ने ऐसा ही जाना ।
50. व्यर्थ का शोर खतम करके आत्मा में सत्य आराम पाने का अनुरोध―आचार्य महाराज मोहियों से कहते हैं कि हे भाई ! जरा आराम लो, तुम बहुत थक गए होगे । वस्तुस्वरूप के विरुद्ध विचारों में थकान आ ही जाती है । व्यर्थ के कोलाहल से कोई लाभ नहीं है । तुम स्वयं ही अपने अंदर स्वतंत्र होकर देखो, उस एक आत्मा को । अपने हृदय सरोवर में छ: माह उसे देखो तो सही, फिर तुम्हें आत्मा मिलता है या नहीं? वह आत्मा पुद्गल से न्यारा है । ऐसा आत्मा अपने अंदर देखने से अवश्य प्राप्त होगा । अनंतानुबंधी कषाय छ: माह से ऊपर भी फलती है यदि छ: माह विशुद्ध उपयोग रहे तो अनंतानुबंधी समाप्त हो जाये । मान लिया किसी की आयु 60 वर्ष की है 1 वर्ष में प्राय: 3 घंटे रोज धर्म ध्यान में लग जाते हैं । इस प्रकार 60 वर्ष में 7।। वर्ष तुम्हारे धर्म ध्यान में निकले । उस साढ़े सात वर्ष में बजाय प्रतिदिन तीन घंटे के 2 घंटा धर्मध्यान कर लो और कभी निरंतर तुम छ: माह ऐसे व्यतीत करो कि जहाँ वातावरण अच्छा हो और उद्देश्य आत्मसिद्धि का हो तो अधिक लाभ है । मोह को छोड़कर छ: माह ही तो धर्मध्यान करो, इष्टसिद्धि होती है या नहीं, यह तुम स्वयं जान जाओगे । व्यर्थ के कोलाहल से क्या फायदा किसी भी धर्म का हो, अपने कुल धर्म का पक्ष भी भुलाकर मानों मान लिया कि तुम इस कुल में उत्पन्न ही नहीं हुए हो ऐसा समझ करके सर्व आग्रह छोड़ आत्मा में व्यवस्थित रहो । फिर इतना जानो कि मैं क्या हूं? अन्य सबके सहारे छोड़कर खुद समझो कि मैं आत्मा क्या हूं? आपको इस प्रकार एक दिन सत्य मिल ही जावेगा । आत्मा स्वयं प्रभु है । स्वयं भीतर से निर्णय उठता आयेगा कि हम क्या हैं?
51. सत्य का आग्रह होने पर आत्मा की समझ―मैं कौन हूँ, यह मैं अपने आप समझूंगा, यह सत्याग्रह करके अपने को देखो । इस प्रकार वह आत्मा अपने आप नजर आ जायेगा । इस शैली से जो समझ में आयेगा वही जैन शास्त्रों में पहले से ही वर्णित है । परंतु जैन शास्त्रों में लिखा है, इस पराधीनता को भी छोड़ो । फिर देखना तुम्हें आत्मा को उपलब्धि होती है या नहीं? हम जैन हैं, इसलिए हम जिनमंदिर में दर्शन करने जाते हैं, सर्वस्व सार प्राप्त कर लेता है । जितना भी ज्ञान करते जाओ आनंद ही बढ़ता जायेगा । ज्ञान के सिवाय शांति कहीं नहीं है । रागद्वेष से न्यारा ज्ञानी जीव ने अपने आत्मा का अनुभव किया है । ऐसा अनुभव होने पर थोड़ी ही दृष्टि में पूरा का पूरा आत्मा समा जाता है । जिसने बंबई देखी है, उसके सामने बंबई की बात की जाये तो उसके सामने सारे बंबई का चित्र-सा खिंच जाता है । हमने इस आत्मा के अतिरिक्त बहुत से आनंद लिए, परंतु एक बार सब कुछ भूलकर केवल आत्मीय तत्त्व का अनुभव करो तो जीवन का उद्धार हो जाए । यदि लक्ष्य नहीं बनाया तो जैसे नाव पर तैर रहे हो, कभी इस तरफ आओगे, कभी उधर जाओगे, लक्ष्य बन जाने पर पहुंच ही जाओगे । अपना लक्ष्य बन जाये, यही सबसे बड़ी चीज है । आत्मा का काम सब विकल्पों को दूर करके अपने को निर्विकल्प स्थिति में अनुभव करना है ऐसे आत्मा के अनुभव से शाश्वत सुख की प्राप्ति हो जाती है । यह भी मत सोचो कि हम निर्विकल्प समाधि में आ गए, कोई भी विकल्प नहीं आना चाहिए । मन वचन काय तो जीव के निमित्त से पैदा हुए हैं, धन तो जीव का कुछ है ही नहीं । हमें मरना है, यहाँ तो ठीक है, परंतु इसके लिए यह करना, इसके लिए यह करना―ये सब व्यर्थ के झंझट हैं । अत: अपना यह लक्ष्य बने कि हमें अपने को ज्ञानमय अनुभव करना है । इसके लिए एक दो घंटा प्रतिदिन अध्ययन मनन करो तो लाभ होगा । अपने भीतरी भाव उठने में जो समय लगाओ, वह बहुत लाभदायक है । समय ऐसा होना चाहिए कि कुछ मुमुक्षु मिलकर आत्मा के विषय में चर्चा करें । धर्म की ओर दिलचस्पी है तो आत्मा का उद्धार हो ही जायेगा अन्यथा मोहियों की गोष्ठी में आकुलता का उपहार मिलता रहेगा ।
52. विकारों की पुद्गलपरिणाममयता―परिणाममय के दो अर्थ होते है―(1) परिणामस्वरूप फलस्वरूप, (2) परिणमनरूप । जैसे शुभ भाव अशुभभाव, सुखानुभाव, दुःखानुभाव राग, द्वेष, मोह आदि भाव ये सब पुद्गलद्रव्य के परिणामस्वरूप हैं अर्थात् पुद्गल कर्म के उदय का निमित्त मिला तो उसका परिणाम जीव में यही निकला कि जीव में वे विभाव व्यक्त हुए । इस प्रकार परिणाममय का अर्थ नैमित्तिक भाव हैं, यह निकला । परिणमनरूप का अर्थ तो प्रकट ही है कि शरीर, कर्म आदि पुद्गल के ही परिणमन हैं । फिर तो अध्यवसानादिक समस्त भाव चैतन्यशून्य पुद्गलद्रव्य से विलक्षण चैतन्यस्वभावमय जीव द्रव्य रूप होने का उत्साह भी नहीं करते अर्थात् उनमें जीवत्व की संभावना की तो बात भी नहीं चल सकती । अरे यह बतंगड़ा मोहियों ने कैसा बना दिया? देखो तो मोहियों का ऊधम, भगवान से भी बढ़कर जानकार बनना चाहते हैं । भगवान के तो कल्पना भी नहीं उठती, ज्ञान में भी नहीं है कि ये परद्रव्य जीव हैं । भगवान तो समस्त विश्व के साक्षी हैं, ज्ञाता द्रष्टा हैं, जिसका जो स्वरूप है उसी रूप से उसके ज्ञाता है । किंतु इस मोही को बहुत-सी विकलायें याद हैं ।
53. व्यर्थ कोलाहल का परिहार करके अंतस्तत्त्व के दर्शन के लिये आत्मविश्राम की सलाह―हे आत्मन् ! व्यर्थ का कोलाहल छोड़ दो, व्यर्थ की कलकल करना छोड़ दो । कल मायने शरीर है, जो शरीर शरीर ही वर्राना है वही तो कलकल करना है । आप स्वयं ज्ञानमय हैं तो आप क्या अपने को नहीं जान सकोगे? अपना जानना तो अति सरल है, किंतु आत्मा को जानने के लिए तैयार हो जीव तभी तो सरल है । जो आत्मा को जानने के लिए तैयार होता है वह पर में उपयोग लगाने का रंच भी उत्साह नहीं रखता । पर की रुचि हटे तो आत्मा के ज्ञान में फिर देर क्या है ? यह आत्मा तो सनातन ज्ञानस्वभाव ही है । अहो! जिसके ज्ञानोपयोग की ज्ञानस्वभाव में एकता हो जाती है वह आत्मा धन्य है । ऐसी स्थिति पाने लिए वस्तुस्वरूप का यथार्थ दर्शन करो । मोह के रंग विवेकज्योति के आगे टिक सकते नहीं हैं । मोही अज्ञानी राग-द्वेष, शरीर व कर्मों को ही जीव मान रहा था परंतु पुद्गल कर्म के परिणमन और पुद्गल कर्म के निमित्त होने वाला वह सब जीव नहीं है । मोटे रूप से देहाती भी जानते हैं कि वेदना होने पर जिसे तुम पुकारते हो, वह परमात्मा है और जिसमें वेदना हो रही है, वह आत्मा है । ये मोही जीव इस आत्मा के विषय में कई प्रकार से विवाद कर रहे थे । कोई रागादि भावों को आत्मा कहता था, कोई कहता इन आठ कर्मों से भिन्न कोई जीव नहीं है, कोई मानता कि पौद्गलिक शरीर ही जीव है । ऐसे नाना प्रकार की मान्यता वाले इस मोही जीव को, जो पुद्गल से न्यारा जीव नहीं मानता उसे शांति से इस प्रकार समझा देना चाहिए । हे आत्मन् ! जिन्हें तू आत्मा मानता, वे या तो पुद्गल के विकार हैं, या पुद्गल के निमित्त से पैदा हुए हैं । अब आचार्य मोहियों के प्रति कहते हैं कि व्यर्थ में चिल्लाने से क्या फायदा? तुम अपने आपमें स्वतंत्र होकर उस आत्मा को एक बार देखो तो सही । अपने ही अंदर छ: मास तो देखो, जीव मिलता है या नहीं ? प्रत्येक आत्मा जिस वातावरण में पैदा हुआ है उसी को जीव मान लेता है । यदि यह आत्मा एक बार भी अपना भरोसा करके चाहे किसी भी धर्म को न मानकर अर्थात् धर्मों को भुलाकर कि मैं जैन हूँ, बौद्ध हूं―इसे भुलाकर इस आत्मा का ध्यान करे, स्वयं समझे कि मैं क्या हूँ, तो वास्तविक तथ्य की प्राप्ति हो सकती है । मजहबों को भुलाकर सब विकल्पों को छोड़कर फिर बुद्धि से निर्णय करे । वहाँ सब विकल्प शांत होते और निर्विकल्प परिणमन होता है । यही सम्यग्दर्शन का कारण है । हम अमुक धर्म में पैदा हुए अतः हमें यही धर्म चलाना है यही ठीक है, अन्य सब मिथ्या है―ऐसी मान्यता से वास्तविक सत्य की अनुवृत्ति नहीं हो सकती ।
54. निज आत्मतत्त्व को समझे बिना धर्मलाभ का अभाव―समस्त धर्म को गौण करके, मैं क्या चीज हूँ, इसका एक बार अपने आपमें निर्णय कर लेना चाहिए | ऐसी दृढ़ प्रतीति बनाओ कि मैं स्वयमेव अनुभव करूंगा कि मैं कौन हूँ । हम कैसे जानें कि परंपरा का चलाया हुआ धर्म सत्य है अथवा नहीं है । सब विकल्पों को दूर करो । विकल्पों को छोड़कर सब पक्षों को भुलाकर स्वतंत्र रूप से यह निर्णय करो कि क्या हम अपने को अपने आपमें नहीं जान सकते? जान सकते हैं अवश्य, परंतु उसके जानने का उपाय यह है कि अपने में यह लगन लगा लो कि मैं आत्मा क्या हूं? इस अपने आत्मा को समझे बिना धर्म हो ही नहीं सकता । अत: धर्म सेवन की इच्छा करने वाला जीव सब मजहबों को भुलाकर अपने आत्मा को एक बार जाने । आत्मा के जानने के पश्चात् अपने आप स्पष्ट हो जायेगा कि मैं आत्मा क्या हूँ ?
55. आत्मलक्षण का दिग्दर्शन―जरा ठहरो, विराम लो । हे मोहियों! जिस-जिस चीज को तुम आत्मा मानते आये हो, उन भ्रमों को छोड़ो । जिन-जिन चीजों में तुम आत्मा का भ्रम करते हो, विवाद करते हो, उनमें आत्मा का लक्षण नहीं है । लक्षण वह होता है जो अनादि से लेकर अनंतकाल तक साथ बना रहे । परंतु आत्मा में सदा राग नहीं बना रहता है । राग क्षीणकषायों में नहीं पाया जाता है, अत: राग आत्मा का लक्षण नहीं हो सकता है । सिद्ध आत्मा में राग बिल्कुल भी नहीं पाया जाता । हाँ, यदि सभी आत्माओं में राग पाया जाता तो राग को हम आत्मा का लक्षण मान सकते हैं । परंतु राग प्रारंभ से अंत तक जीव के साथ नहीं रहता है अत: राग आत्मा का लक्षण कैसे हो सकता है ? जो चीज पर के निमित्त से होती है और घटती बढ़ती रहे, उसका सर्वथा कहीं न कहीं नाश अवश्य हो जाता है । राग किसी जीव में अधिक देखा जा सकता है―किसी जीव में उससे कम पाया जाता है, किसी जीव में उससे भी कम राग की मात्रा होती है तो फिर राग सदा बना रहे, वह भी नहीं हो सकता है । राग परवस्तु को निमित्त पा करके होता है, और घटता बढ़ता रहता है अतएव राग मूलत: नष्ट भी हो जाता है । अत: कोई आत्मा ऐसा अवश्य है, जिसमें राग का लेश भी नहीं है । राग किसी न किसी तरह नष्ट हो जाता है, अत: राग आत्मा का लक्षण नहीं हो सकता है । शरीर भी जीव का लक्षण नहीं है, क्योंकि शरीर को हम लोग नष्ट होता देखते हैं । अपना शरीर भी किसी न किसी दिन नष्ट हो जायेगा, फिर शरीर आत्मा का लक्षण कैसे हो सकता है? अमूर्तपना भी जीव का लक्षण नहीं है । अमूर्त कहते हैं, जिसमें रूप, रस, गंध, स्पर्श न पाया जाये । अमूर्त तो धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्य भी हैं । यदि अमूर्तपना जीव का लक्षण होता तो धर्मादि भी जीव कहलाने लग जायेंगे । यद्यपि जीव में रूप नहीं है, रस नहीं है, स्पर्श नहीं है, गंध नहीं है, शब्द नहीं है तो भी अमूर्तपना होने से जीव का लक्षण नहीं हो सकता है । क्योंकि अमूर्तत्व लक्षण लक्ष्य और अलक्ष्य दोनों में पाया जाता है । अत: उसमें अतिव्याप्ति दोष का प्रसंग आता है । इस प्रकार राग, मोह, शरीर व अमूर्तत्त्व जीव का लक्षण नहीं है । जीव का लक्षण है ज्ञान, चेतना । चेतना के बिना कोई भी जीव नहीं पाया जाता । चेतना को जीव को लक्षण मानना चाहिए ।
प्रश्न―रागादिक भाव आत्मा में ही होते हैं, फिर उस राग को पुद्गल का स्वभाव क्यों कहते हो ? रागादिक भाव भी आत्मा के स्वभाव माने जाने चाहिए । उत्तर―