वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 52
From जैनकोष
जीवस्स णत्थि वग्गो ण वग्गणा णेव फड᳭डया केई ।
णो अज्झप्पट्ठाणा णेव य अणुभागठाणाणि ।।52।।
163. वर्ग, वर्गणा, स्पर्द्धक आदि से जीव की विविक्तता―जीव के न तो वर्ग हैं, न वर्गणायें, न कोई स्पर्धक हैं, न अध्यात्म स्थान हैं और न अनुभाग स्थान हैं । जीव के वर्ग नहीं हैं । ये जो कर्म बताये गये हैं, ये अनेक कार्माण परमाणुओं के समूह हैं । अब उन परमाणुओं में कुछ ऐसा विभाग डाल दिया जाये जो बराबर-बराबर की शक्ति के परमाणु हैं वे वर्ग हैं । जितने कर्म बाँधे, उनमें परमाणु बहुत हैं । जो कर्म बाँधे हैं, मानो उनमें 10 नंबर की शक्ति से लेकर 100 डिग्री तक के परमाणु आ जाते हैं । उन सबमें वर्ग, वर्गणा आदि का विभाग है । वर्ग के समूह का नाम है वर्गणाएं । इसके बाद स्पर्द्धक हो जाते हैं । ऐसे अनेक स्पर्द्धकों के समूह कर्म कहलाते हैं । ये वर्ग, वर्गणाएं और स्पर्द्धक―इनमें से कुछ भी जीव के कुछ नहीं हैं । अध्यात्मस्थान भी जीव के नहीं हैं । आत्मा में उत्पन्न होने वाले जितने भी विभाव हैं, उनमें से जीव का कुछ भी नहीं है । जगत के पदार्थों में जो विश्वास रखता है कि मैं था, मैं हूँ, मैं हूंगा―इनका फल है डंडे । जैसे खाये बिना चैन नहीं पड़ती है अत: खालो, मगर यह मेरी है, इसके बिना तो गुजारा हो सकता है ना? तो फिर मेरा है, ऐसा क्यों भूत लग गया । बस यही तो संसार का कारण है ।
164. जीव के वर्गणादि का प्रतिषेध―जीव के वर्ग नहीं है । कर्मों में जो वर्ग होते हैं, वर्गणायें होती है, स्पर्धक होते हैं ये सब कुछ मैं नहीं हूँ । कर्मों का जो पिंड है उससे छोटी वर्गणा उससे छोटा वर्ग ये सब मुझ जीव के नहीं हैं । यह तो बात प्रकट सिद्ध यों हैं कि यह इसका उपादान भी निराला है । अध्यवसान आदिक भाव तो जीव नहीं हैं, ऐसा कहने में यह इसलिए आता है कि चूंकि ये कर्मों के उदय से उत्पन्न हुये हैं, मेरे सहजस्वभाव से नहीं चल पड़े हैं । हाँ उपादान तो मैं हूँ, लेकिन मेरे सहज स्वभाव से नहीं आये, इस कारण मैं नहीं हूँ अध्यवसान, पर ये वर्गणा स्पर्धक कर्म ये तो प्रकट परपदार्थ हैं । पुद्गल इनका उपादान है और उनकी ये सब स्थितियां हैं । हालांकि जैसे जीव के अध्यवसान होने में कर्म निमित्त होते हैं वैसे कर्म के कर्मत्व होने में जीव विभाव निमित्त है, पर निमित्तनैमित्तिक भाव होने पर भी चूंकि सभी पदार्थ अपनी परिणमन धारा में रहा करते हैं, दूसरे के परिणमन को लेकर अपनी अवस्था नहीं बनाते हैं, इतनी स्वतंत्रता तो उनके निमित्तनैमित्तिक भावों के प्रसंग में भी बनी हुई है । ये वर्ग वर्गणा स्पर्धक प्रकट पर हैं, भिन्न हैं, ये जीव के नहीं हैं, जीव के अध्यात्मस्थान नहीं और अनुभाग स्थान नहीं । अध्यात्म स्थान वे कहलाते हैं कि आत्मा में जो विभाव उठे हैं, जो नाना विकास चल रहे हैं । अन्य महान आदिक भेदों को लिए हुए वे सब साधन, वे सब विकास याने उतने ही रहना, वे परिणमन ही रहना, यह जीव का तत्त्व नहीं है, हुये जीव के ही परिणमन, लेकिन जीव का स्वभाव जीव का स्वतत्त्व, जीव का शाश्वत भाव स्वरूप नहीं है अतएव ये अध्यात्मस्थान भी जीव के नहीं हैं और अनुभागस्थान ये कर्म के होते हैं । कर्मबंध होते समय ही कर्म की स्थिति, कर्म का अनुभाग बंध जाता है । स्थिति तो कितने समय तक ये कर्म रहेंगे इसका नाम है और अनुभाग ये कर्म फल शक्ति से फल देने में कारण होंगे, इसमें फलदान शक्ति कितनी पड़ी है, इस प्रकार के जो शक्तियों के भेद हैं ये अनुभागस्थान कहलाते हैं । अनुभागस्थान कर्म में है । कर्म और जीव पृथक्-पृथक् पदार्थ हैं । अनुभागस्थान भी जीव के नहीं हैं ।
165. ज्ञानी की प्रत्यग्ज्योति की झांकी―भरत को कहते हैं कि घर में रहते हुए वैराग्य हो गया । घर में रहते हुए, राज्य को भोगते हुए भी उनके मन में यह नहीं था कि यह मेरा है । एक जिज्ञासु ने पूछा महाराज आप इतने ठाटबाट से तो रहते हैं, फिर लोग आपको वैरागी क्यों कहते हैं? मंत्रियों ने कहा हम समझाते हैं । एक तेल भरा कटोरा जिज्ञासु को दिया और कहा कि तुम पहरेदारों के साथ जाकर राजमहल का एक-एक विभाग खूब अच्छी तरह घूम आवो और तेल का कटोरा हाथ में लिये रखना, ध्यान रहे कि कटोरे में से तेल की एक भी बूंद जमीन पर न पड़ने पाये, नहीं तो शूट कर दिये जाओगे । अब वह जिज्ञासु पूरे राजमहल को देख रहा है, परंतु दृष्टि है उस तेल भरे कटोरे पर । जब वह पूरा राजमहल घूम आया, मंत्रियों ने पूछा तुमने क्या देखा ? जिज्ञासु ने कहा, महाराज, घूमा व देखा तो सर्वत्र, परंतु देखा कुछ नहीं, क्योंकि दृष्टि इस पर थी कि कटोरे में से कहीं तेल की बूँद न गिर जाये । मंत्री कहते हैं―इसी प्रकार महाराज भरत करते तो हैं राज्य, परंतु दृष्टि रहती है आत्मस्वरूप पर । राज्य करते हुए भी वे इन सब बाह्य वैभवों से विरक्त हैं, केवल अंतर्वैभव पर दृष्टि है । जैसे कोई कुटुंब में या दूसरे के घर में कोई मर गया हो, घर पर वह रोटी भी खाता है, मगर उपयोग उस मृत प्राणी की ओर ही जाता है । ऐसा तो कभी होता नहीं कि भोजन कर रहा हो, उपयोग अन्यत्र होने से कान से कौर देने लग जाये । इस भोजन करते हुए भी उसका चित्त भोजन करने में नहीं है । इस प्रकार सम्यग्दृष्टि की भीतरी प्रतीति शुद्ध स्वभाव पर रहती है, बाह्य में वह समस्त कार्य करता है । जैसे मुनीम है । वह दुकान की पूरी रक्षा करता है, मगर उसे मन में प्रतीति यह है कि मेरा कुछ नहीं है, परंतु करता है वैसा, जैसे उसी का सब कुछ हो । फिर ज्ञानी के ज्ञान में ही क्यों संदेह ? उसकी प्रतीति आत्मा में ही है । माता जैसे बच्चे को “नाशगया, मरन जोग्गा, होते ही क्यों न मर गया था” आदि गाली देती है, परंतु उसके मन में उसके हित की इच्छा रहती है । कुछ ऐसी ही प्रेरणा होती है कि करना कुछ और पड़ता है और चित्त में कुछ और होता है । जिस वक्त ज्ञानी जीव को यह श्रद्धा हो जाती है कि मेरा वैभव मेरा गुण है, मेरा स्वामी मेरा आत्मा है, मेरा जनक मेरा आत्मा है, मेरा पुत्र मेरा आत्मा है, मेरा बंधु मेरा ज्ञान है, मेरी स्त्री मेरी अनुभूति ही है, सर्व परिवार मेरा मेरे में ही है, ऐसा जिसे प्रत्यय हो गया है, वह पुरुष सहज उदासीन हो जाता है ।
166. ज्ञानानंद प्रगट होने पर विषयानंद परिहार की अनिवार्यता―जो सुकौशल मुनि अभी खेल कूद रहे थे । थोड़ी देर बाद जब पिता के दर्शन हुए । मां ने पिता (मुनि) को निकालने का आदेश दिया, यह देख धाय रोने लगी । सुकौशल ने सानुरोध धाय से रोने का कारण पूछा । धाय कहती है कि बेटा, जो मुनि आये थे, ये तेरे पिता थे । तेरी मां ने घोषणा कर रखी है कि यहाँ पर कोई मुनि न आ पाये और जो आये उसे तत्काल भगा दिया जाये । यह सुनकर सुकौशल का मन विरक्त हो गया । लोगों ने बहुत समझाया कि तुम्हारी स्त्री के अभी गर्भ है, उसको तिलक करके विरक्त हो जाना । परंतु सुकौशल कह देता है कि गर्भ में ही मैं उसका राज्यतिलक करता हूं । और कहकर सुकौशल कुमार से सुकौशल मुनि बन जाता है । जैसे आपका कोई मित्र है । यदि आपको मालूम चल जाये कि वह आपके प्रतिकूल षडयंत्र रच रहा है तो आपका उसके प्रति मन खट्टा हो जाता है । यही हाल सम्यग्दृष्टि का है, उसका मन समस्त पदार्थों से विरक्त हो जाता है । सम्यग्दृष्टि कहीं भी चला जावे, मगर वह आत्मकोठी को कभी नहीं भूलता है । उसको ऐसे आनंद का अनुभव होता है कि जो आनंद कहीं नहीं है, जिसका मन संसार से विरक्त हो गया, फिर उसका मन संसार के भोगों में क्या लगेगा? जिसने एक बार ऊंचे आनंद का अनुभव कर लिया है वह कनिष्ठ आनंद का अनुभव क्यों करना चाहेगा? राग-द्वेष आदि मेरे कुछ नहीं है । मैं तो चैतन्यमात्र आत्मा हूँ ।
167. अलौकिक वैभव मिलने पर लौकिक वैभव का विलगाव―ऊंची से ऊंची बात का जिस काल में अनुभव किया, उसका स्मरण सदा आता ही है । सम्यग्दृष्टि को ऐसा विश्वास प्रतिसमय बना रहता है कि आनंद इस ही स्थिति में है, आत्मा न वैष्णव है, न बनिया है, न ब्राह्मण है, न ठाकुर है, न जैन ही है । वह तो जो है सो है । और जैसा वह है वैसा समझ में आता है । जिस किसी के समझ में यह आत्मा आ गया, समझो इसका कल्याण हो गया । मुझे इससे लाभ नहीं कि मैं दुनिया की दृष्टि में ब्राह्मण कहलाऊं या जैन कहलाऊं । मेरा लाभ, जैसा स्वरूप से मैं हूं, उसे पहचान जाऊं, इसमें है । इसके बाद मैं कुछ नहीं चाहता हूं । अपने आत्मा को पहचानने तक की देर है, जो होना होगा, वही होकर रहेगा । आत्मज्ञान तक का पुरुषार्थ किये जाओ, वह आत्मज्ञान सब विधियाँ लगायेगा । “आत्मज्ञानात्परं कार्य न बुद्धौ धारयेच्चिरम् ।” बहुत काल तक आत्मज्ञान के सिवाय अन्य बात धारण न करो । एक राजा था । वह घूमने जा रहा था । तालाब के किनारे पर जब नहाने उतरा तो संयोगत: उसकी मुद्रिका तालाब में गिर गई । और संयोग से वह कमल के बीच में आ गई । सायंकाल का समय था, कमल के बीच में वह भी मुँद गई । बहुत ढुंढ़वाया, नहीं मिली । राजा के मंत्रीगण एक अवधिज्ञानी मुनि के पास गये । उन्होंने बताया कि एक तालाब के कमल में बंद है । मंत्रियों ने वहाँ जाकर ढूंढ़ा, मिल गई । अब पुरोहित के मन में आया कि मैं इस विद्या को सीख जाऊं तो बड़ा आनंद रहे । मुनि के पास आया, सीखना प्रारंभ किया । जब उसे आत्मज्ञान हो गया, अब उसका मन उससे अलग नहीं हुआ । उसने सोचा, मुझे तो उससे भी अच्छी चीज मिल गई है ।
168 जैनी रीति स्वरूप परीक्षा की स्वतंत्रता―जैन शास्त्र कहते हैं कि चाहे जहाँ जाओ, सत्य का निर्णय स्वयं कर लेना । अन्य लोग तो कहते हैं कि ‘न गच्छेज्जैन मंदिरम्’ इसका कारण यह है कि लोगों को यह भय है कि यह जैन मंदिर में जायेगा तो यह भी जैन हो जायेगा । जैनदर्शन में आचार, वस्तुस्वरूप, भगवानस्वरूप, आत्मस्वरूप सबका वर्णन सुगम है और झट प्रतीति में आने वाली वस्तु स्वरूप के अनुकूल वर्णन है । उसको सुनकर वह इसका प्रत्यय प्राय: कर ही लेगा । अतएव उन्होंने ऐसी सूक्तियां गढ़ डाली हैं । जैन न्याय में ऋषियों ने अन्यमतों का भी वर्णन इस खूबी से किया कि आप कहेंगे, बस यही ठीक है । किसी-किसी बात में तो उन लोगों से भी अधिक तर्क दिया है । अन्य मतों का प्रतिपादन भी जैन न्यायों में किया गया है । तुम्हारा अनुभव कहे तो उन बातों को मानो । जैन शास्त्र कहते हैं कि अन्य शास्त्रों को भी खूब देखो, जो सत्य प्रतीत हो, उसे स्वीकार करो । सत्य को ग्रहण करो, धर्मविशेष को नहीं । वस्तु का जो स्वरूप है, उस पर ही दृष्टि दो, उस
स्वरूप में शुद्ध आत्मा नजर में आयेगा । आत्मा में जो भी भाव समझते आ रहे हैं वे औपाधिक हैं, पर्यायें हैं, अत: वे अध्यात्मस्थान भी आत्मा के नहीं है । आत्मा ध्रुव है ये सब अध्रुव हैं । वर्ग, वर्गणा, स्पर्द्धक तो प्रकट पुदगल द्रव्य हैं ही । किंतु इनके उदयादि अवस्था को निमित्त पाकर जो अध्यात्मस्थान होते हैं वे भी आत्मा के नहीं हैं अथवा वे आत्मद्रव्य नहीं हैं । आत्मा में जो संयोगी भाव हैं व जो संयुक्त पदार्थ हैं उनसे पृथक् चैतन्यमात्र निज सत्तामय अपने आपके परिचय से मोक्षमार्ग प्रगट होता है । सर्व क्लेशों से मुक्ति पाने के लिये निज परमात्मतत्त्व जानना अनिवार्य आवश्यक है । जिसने अपने आपको जाना उसको ईश्वर के गुणगान करना तथा सिर रगड़ना लाभदायक है । अपने आपको जाने बिना, सिर रगड़ने से गूमटे ही हो जावेंगे । आत्मा को जानने से ही ज्ञाता द्रष्टा बन सकता है ।
169. स्ववृत्ति से मुक्तिलाभ―जैसे रोटी बनाने वाले को शंका नहीं होती कि यह बनेगी अथवा नहीं, वैसे ही ज्ञानियों को शंका नहीं होती कि मुक्ति मिलेगी या नहीं । उन्हें तो यह सूझता रहता है, भक्ति यही है, मुक्ति इसी रास्ते से है, मैं पहुंचकर रहूंगा, वह दूर नहीं, मुझे जरूर मिलेगी क्योंकि मुक्ति कहीं अन्यत्र नहीं आत्मा में है, इस ही का शुद्ध विकास मुक्ति है । इसी तरह आत्मतत्त्व की बात समझने वाले को संदेह नहीं होता । उसे तो दृढ़ धारणा रहती है कि सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र मिलकर ही एक मोक्ष का मार्ग है । तीर्थकर मोक्ष नहीं देते, न शास्त्र देते हैं और न मुनि ही शिवदाता है । आत्मा के द्वारा आत्मा ही आत्मा को मुक्ति देता है । एक घड़े में लड्डू भरे रखे थे । बंदर ने आकर हाथ में 3-4 लड्डू भर लिये । अब हाथ नहीं निकलता, तो निकाले कौन, जब वह उन्हें छोड़े तब हाथ निकले । इसी तरह यह जीव अपने ही कारणों से संसार में भटक रहा है तथा उन कारणों को छोड़कर अपने ही द्वारा छूट सकता है । प्राय: मनुष्य मिथ्या का अर्थ झूठ करते हैं । किंतु ऐसा नहीं, मिथ्या शब्द मिथ धातु से बना है । मिथ् अर्थात् दो का संबंध । तो जहाँ मिथ्या कहा जाये वहाँ दो का संबंध जानना चाहिए । पर को अपना मानना यह हुआ मिथ्या, यह दृष्टि खराब हुई, जहाँ एक को ही माना जावे वह दृष्टि अच्छी । जैसे यह आत्मा अकेला ही सब कार्य करता है । तो भी परस्पर के संबंध को लगाकर जीव जाना करते हैं । आत्मतत्त्व जो है वह स्वसंवेदन से जाना जाता है । बाह्य से दृष्टि भिन्न न रखो ।
170. ध्रुवदृष्टि की कल्याणरूपता―सर्व पदार्थ भिन्न हैं, उनसे मेरा कोई हित नहीं होता । क्रोधरूप मैं नहीं, मानरूप मैं नहीं, मायारूप मैं नहीं और न लोभरूप मैं हूँ । निज का ध्रुव जो स्वभाव है वह अखंड, चिदानंदमयी, ज्ञाता द्रष्टा मैं हूं । ज्ञानरूप आत्मा मेरी अंत: दैदीप्यमान हो रही है, स्वभावत: स्वभाव जानने का उपाय देखो । आम छोटा रहने पर काला रहता है, कुछ बढ़ने पर हरा हो जाता है, फिर पीला, लाल रंग में परिणत हो जाता है । इसमें आम का रूप बदला है, आम तो वही है जो पहले था और रूप सामान्य भी वहीं है । बदला कौन? रूप । सो जो रूप नामक गुण प्रारंभ से सदा है वह है रूप-स्वभाव । यह तो आत्मस्वभाव जानने के लिये दृष्टांत है । अब आत्मा में देखो चैतन्य स्वभाव अनादि अनंत है किंतु प्रतिसमय ज्ञानोपयोग व दर्शनोपयोग के परिणमन हो रहे हैं । यथासंभव छद्मस्थों के क्रमश: व केवलियों के युगपत् । इसमें जो परिणम रहा वह तो है चैतन्य स्वभाव और जो उसकी परिणतियां हैं वे हैं पर्याय । चैतन्यस्वभाव ध्रुव है वह है आत्मस्वभाव । कहते हैं ना―आदमी बदल गया । यही आदमी पहले था, यही अब है । मनुष्य परिस्थितियों में पड़कर अन्य रूप हो गया है, न कि मनुष्य ही दूसरा हो गया है । रूप गुण ध्रुव है । काला पीला, नीला अध्रुव है । ज्ञान तो ध्रुव है, किंतु उसकी दशायें अध्रुव हैं । ध्रुव की दृष्टि कल्याणयुक्त है, अध्रुव की अकल्याणयुक्त है ।
171. ध्रुवस्वभाव के अपरिचय में धर्मवीरता पर आश्चर्य―जिनके ध्रुव आत्मस्वभाव का परिचय नहीं वे इस बात पर अचरज करते हैं, साधु जंगल में अकेले कैसे रहते होंगे, उन्हें भय नहीं सताता होगा । इस तरह की कल्पनायें आत्मस्वरूप-अनभिज्ञ मनुष्य किया करते हैं । इस तरह के मनुष्यों को बुद्धिपूर्वक यथार्थ बात सोचना चाहिए कि साधु जंगल में निरपेक्ष भाव का ध्यान करते हैं । जब वहाँ किसी की अपेक्षा ही नहीं तो भय किस वस्तु का ? कपड़ा गीला था, धूल में गिरने से धूल लग गई, सूख जाने पर धूल झर जाती है वैसे ही कर्म कषाय से बंधे थे, कषायें दूर हुई, कर्मों ने विदा ले ली । स्त्री मेरी है, पुत्र मेरा है, कुटुंबीजन मेरे हैं, यह मेरे आश्रित रहते हैं, मैं इनका भरण पोषण करता हूँ, ये मुझे सुख देते हैं, इस तरह की कल्पना से अशुभ कर्म बंधेगा । भगवान ! आप त्रिलोकीनाथ हैं, संसार के तारक हैं, मैं अज्ञानी हूँ, परपदार्थों में रमण कर रहा हूं, इस स्तुति से भी शुभकर्म बंधे लेकिन जहाँ एक निर्विकल्प, निरपेक्ष ध्यान है वहाँ कर्म नहीं आते, मार्ग कर्मों का अवरुद्ध हो जाता है । विकार सहित परिणाम करके कषाय बढ़ाकर निज स्वभाव का प्राणी घात करते हैं । जितनी आत्मायें हैं, उनमें परमात्मा का वास है लेकिन ऐसा नहीं कि परमात्मा छोटा या बड़ा किसी रूप हो और प्रत्येक में जुदा-जुदा ठहरा होवे । तात्पर्य यह है प्रत्येक आत्मा में परमात्मा होने की शक्ति है । परमात्मा तो आकर तुम्हारी आत्मा में नहीं समाया; तुम्हारा ही स्वभाव परमात्मतत्त्व है ।
172. अपने परिणाम के अनुसार अपना अनुभवन―यह जीव जिस तरह के परिणाम करता है, उस तरह के सुख दुःख भोगता है । एक लड़का दूसरे लड़के को 20 हाथ दूर से चिढ़ाता है तो लड़का चिढ़ने लगता है, गाली बकता है, रोता है, क्रोध करके मारने को झपटता है । लेकिन क्या चिढ़ाने वाले की उंगली वहाँ गई, या जीभ, नाक, हाथ, पैर, वहाँ पहुंच गया । और देखो साथ के अन्य लड़के नहीं चिढ़ते हैं, तो इसमें अपने ही परिणामों के अनुसार चिड़ाना और दुःख उठाना मान रखा है । देखो, वे सभी बालक अपनी-अपनी योग्यतानुकूल अपना-अपना परिणमन कर रहे हैं । जगत के जीव जो भी सुखी होते हैं वे अपने ही भाव से सुखी होते हैं और अपने ही भाव से दु:खी होते हैं । एक घर में 6 आदमी हैं । उनमें दो सुखी हैं तथा 4 दु:खी हैं, तो उन चार को किसी ने दु:खी बनाया नहीं किंतु उन्होंने ऐसा मान रखा है, इसलिए उनके परिणाम ही उन्हें दुःख देते हैं । रामचंद्रजी ने क्या कम दुःख उठाये, कृष्णजी को आपत्तियों का सामना करना पड़ा, भरत, बाहुबलि को दुःख उठाना पड़ा । ये सब पुण्यवान जीव थे । फिर दुःखी क्यों? यथार्थ में असली परीक्षा की कसौटी आपत्तियों पर से ही कसी जाती है, उनमें जो खरा उतर गया, विषाद को पल्ले नहीं पड़ने दिया, इस तरह के जीव ने ही आत्मतत्त्व को समझने में सफलता पा ली ।
173. अपने भाव से अपनी परिणति―मैं एक आत्मा हूं―यह प्रतिभास जिसे हो गया, उसके आत्मा का ध्यान करने पर आत्मा में पूर्ण सुख की झलक आ जाती है । प्रत्येक आत्मा न्यारा-न्यारा है । किसी की परिणति किसी अन्य आत्मा में नहीं मिलती । प्रत्येक प्राणी अन्य की सेवा करने में तभी उद्यत होता है, जबकि उसे सेवाभाव में अंतरंग से सुख की झलक होती है और सेवा बिना आपको दु:खी पाता है । एक अध्यापक 10 छात्रों को पढ़ाता है । 1 बुद्धिमान निकलता है । क्या वह अध्यापक के पढ़ाने से ज्यादा समझ लेता है तथा बाकी मूर्ख रहते हैं तो क्या बाकी छात्रों के हृदय में पढ़ाना ठीक नहीं बैठता मास्टर का? उनमें अध्यापक ने न तो एक को बुद्धिमान बना दिया है और न 9 को समझाने में कमी की है, किंतु बुद्धिमान छात्र की ज्ञान योग्यता आत्मा में पहले से ही विद्यमान थी, वह ज्ञान कारण पाकर स्फुटित हो गया । आत्मा स्वयं ज्ञानस्वभाव है । ज्ञान पर पर्दा पड़ा हुआ है, वह अपना समय आने पर उस तरह की अवस्था में पा लेता है तथा ज्ञान विकसित हो जाता है । अंतरंग से ज्ञान का प्रस्फुटित होना स्वभाव है, वह बाहर से आकर न मिला है और न मिल ही सकता है । अनुभव का स्थान सर्वोपरि है । संसारी प्रत्येक आत्मा अपने भाव के अनुसार अपनी सृष्टि पाता है । अपने-अपने भाव के अनुसार स्नेह करता है एवं अपने परिणामों के अनुसार द्वेष करता है । जिससे हम राग करते हैं, हो सकता है वह हमारी कुछ भी परवाह नहीं करता हो, भले हम उसके लिये प्राणपण से हरदम तैयार रहें । द्वेष करने पर भी, जिस पर हम द्वेष कर रहे हैं, वह आनंद से झूम रहा है, उसे द्वेष करने वाले से कोई हानि नहीं हो रही । पर द्वेष करने वाला अपने में ही जल रहा है । पारलौकिक हानि तो है ही तथा द्वेषकर्ता को लौकिक हानि भी उठानी पड़ती है, पाचन शक्ति मंद पड़ जाती है, चेहरा विवर्ण हो जाता है आदि । राग करने पर भी अन्य का हित नहीं कर सकता । राग करने से यौवन को वृद्धावस्था से नहीं बचा सकते और न वृद्ध से पुष्ट ही कर सकता हूँ । हम जो कर सकते हैं वह अपने गुणों का ही परिणमन कर सकते हैं । इसके अतिरिक्त अन्य पदार्थ का कर्ता अपने को समझना यही संसारक्लेश की खान है । इस मिथ्याबुद्धि से बचकर अपनी रक्षा करें ।
174. यथार्थता के परिचय से उन्नति की ओर गति―आत्मतत्त्व का परिचय कर लेने वाले ज्ञानी आत्मावों की वृत्ति एकरूप होती है, किंतु यदि उपाधियों का उदय विशिष्ट आवे तो अंत: श्रद्धा सत्य होने पर भी वृत्ति विचित्र हो जाती है । एक सेठ के एक 3 वर्ष का बालक था । सेठ मरणासन्न था । उसने पाँच प्रमुखों को बुलाकर उन्हें जायदाद का ट्रस्टी बना दिया और कह दिया कि जब बालक बालिग हो जाये तब जायदाद सौंप देना । एक दिन ठग ने उसे सड़क पर अकेला खेलते हुए देखा और ठग उसे घर ले गया और ठगिनी को दे दिया । ठगिनी के पास बचपन से ही वह लड़का रहता है । ठगनी के कहने पर वह सब कार्य करता है । खेत की रक्षा करता है, पशुओं की देखभाल करता है । एक दिन वह लड़का अपने शहर पहुंचा । ट्रस्टियों ने समझाया कि तुम अपनी जायदाद संभालो । वह आश्चर्य करता रह गया । आखिर बोला कि हम 3 दिन बाद संभालेंगे । झौंपड़ी में जाकर वह ठगनी से पूछता है कि सच-सच बता दो मेरे माता पिता कौन हैं?? ठगनी ने सच-सच कह दिया । तुम एक सेठ के पुत्र हो जो कि गुजर चुके हैं । अब वह मानता है कि मेरे माता पिता वह थे जो गुजर चुके तथा ठगनी से भी मां कहे तो उस पर पूर्ण विश्वास नहीं करता । परवश होकर उसको ऐसा करना पड़ता है । इसी तरह कर्मों की पराधीनता से पर को अपना मान रहा है । कर्मों की पराधीनता भी जब जावे, जब परपदार्थों से मोह करना छोड़ दे । जब इस प्राणी को यह बोध हो जावे कि मैं अपने ही परिणमन से जन्मता हूँ तथा मरता हूँ, तब इसे निश्चय हो जावे, मैं ही पुत्र हूं, मैं ही अपना भाई हूँ, मैं ही अपना पिता हूँ, मैं ही अपना कुटुंबी हूँ तब वह यद्यपि अपने धन की चोरों से रक्षा करता है । उदरपोषण के लिए न्यायपूर्वक धन कमाता है, कुटुंबी जनों का निर्वाह करता है, दान देना, पूजन करना आदि नित्य कार्य भी करता है । यह सब होने पर ही पदार्थों को अपने से भिन्न अनुभव करता है, तथा इस फिराक में रहता है, कब निजात्मानंद को पान कर उसमें निमग्न हो जाऊं ।
175. परीक्षित धर्म के ग्रहण में लाभ―बालक, बालिकायें जहाँ पैदा होते हैं उनमें वैसे ही संस्कार घर कर लेते हैं । तथा उनके माता पिता जिसको देव मानते हैं उसी को वह पूजने लगते हैं । भगवान क्या है? कैसा है, यह जिज्ञासा से प्रतीति वे नहीं करते हैं । उन्हें जैसी धारणा शुरू में जम गई उसी पर विश्वास करने लगते हैं, अनेकों की दृष्टि में सब धर्म एक से मालूम पड़ते हैं । उन्हें नमक के ढेले एवं रत्न में अंतर ही मालूम नहीं पड़ता । दूध गाय का भी होता है, आक का भी, बड़ का भी दूध, पर अभी तक ऐसा कोई देखने में नहीं आया कि जो आक का दूध पीता हो । गाय का दूध सभी पीते हैं । इसी तरह धर्म तो अनेकों का नाम है किंतु उनकी असली परीक्षा करनी चाहिए । किससे हमारा हित हो सकता है, कौन-सा धर्म हमें संसाररूपी समुद्र से पार कर देगा? धर्म ध्रुवस्वभाव का उपयोग है । जैसे वस्तुतः मनुष्य उसे कहना चाहिए जिसका स्वरूप सदैव एक-सा रहें, सो तो आँखों से देखने में नहीं आता । कोई कभी बालक है, तो कभी युवा है, कभी वृद्ध है, यदि यह सब दशायें मनुष्य हैं तो दशा मिटने पर मनुष्य मिट जाना चाहिए । सदैव एक-सा रहे वह मनुष्य है । सो सदैव अवस्थायें एक-सी रहती नहीं । इसलिए सब दशावों में रहने वाला एक आधार मनुष्य है । यदि मनुष्य जीव है तो मनुष्य अवस्था मिट जाने पर जीव मिट जाना चाहिए! आंखों से आत्म निर्णय नहीं होता । जब आत्मा का ज्ञान होगा वह ज्ञान से ही होगा । आत्मा भी अपनी समस्त पर्यायों का आधारभूत एक द्रव्य है । बच्चे मिट्टी का भदूना बनाते हैं, वह थोड़े समय में गिर जाता है या वही बच्चा गिरा देता है, अथवा दूसरे बच्चे उसे गिरा देते हैं, वह अधिक समय नहीं ठहरता । उसी तरह मनुष्य या अन्य प्राणी के द्वारा जो सृष्टि चलती है, वह अधिक समय नहीं ठहरती, कुछ समय में वह नष्ट हो जाती है । मनुष्य निश्चय दृष्टि से सामान्यतया एक रूप ही है । मैं विद्वान हूँ, मैं सुखी हूँ, मैं दुखी हूँ, मैं मूर्ख हूँ, मैं मनुष्य हूँ, मैं राजा हूं―इस तरह की कल्पनायें अज्ञानी जीवों में उठा करती हैं ।
176. आत्मीय अंतर्मर्म के बोध से श्रमजालमुक्ति―एक आदमी एक साधु के पास पहुंचा और बोला साधु जी मुझे ऊंचा ज्ञान दो । साधु जी ने कहा “एक ब्रह्मास्ति, द्वितीयं नास्ति” एक आत्मा दूसरा कुछ नहीं है । इतने पर उसे संतोष नहीं हुआ तो कहने लगा और अधिक बताइये । तब साधु जी ने कहा―नगर में एक पंडित रहते हैं उनके पास जाकर अधिक ज्ञान सीखो । उस आदमी को मर्म की बात पर विश्वास नहीं हुआ और पंडितजी के पास जाकर पढ़ने लगा तथा विद्यादान के बदले में पंडितजी की गायों का गोबर उठाने लगा । इस तरह 12 वर्ष विद्या पढ़ते हो गये, अंत में बोला―‘पंडितजी विद्या पढ़ने की मर्म की बात तो बता दो ।’ तब उन्होंने कहा “एक ब्रह्मास्ति द्वितीयं नास्ति ।” तब फिर उस आदमी की समझ में आया कि यह तो सबसे पहले ही साधु जी ने पढ़ा दिया था, 12 वर्ष गोबर व्यर्थ में ढोया । ज्ञान के बिना आत्मा घर-घर दु:खी है, कोई किसी के प्रतिकूल है तो दु:खी है, कोई अनुकूल होने पर भी दु:खी है । यह आत्मा अजर अमर है, चैतन्ययुक्त है, इस पर विश्वास नही बैठता । आत्मा अनेक प्रकार का नहीं है, न कोई उपाधि उसमें है । भ्रम बुद्धि से जीव का उपयोग पर में लग रहा है । कभी परिणाम दुकान में, कभी घर में, कभी स्त्री पुत्रों की रक्षा में, कभी राजकथा में, कभी भोजन कथायें―इस तरह मन कुछ न कुछ सोचा ही करता है । तथा मन जब वश में हो जाता है तब परमात्मा के दर्शन हो जाते हैं । सोचने से परमात्मा नहीं दिखेगा, सोचना बंद करने पर ईश्वर के दर्शन हो सकेंगे । मुसलमान भाई कहते हैं, दो फरिश्ते कंधे पर बैठे हैं यह फरिश्ते राग और द्वेष ही हैं तथा चार पहरेदार इस मनुष्य के साथ लगे हैं । ये पहरेदार आहार, निद्रा, भय और मैथुन संज्ञायें ही हैं । इसी तरह यह जीव भ्रम से संसार में घूम रहा है ।
177. सद्बोध से बेसुधी का विनाश―एक आदमी जंगल में जा रहा था । रास्ते में देखता है, एक हाथी ने बच्चे को कुंड से पकड़कर मरोड़ डाला । वह आदमी हाथी द्वारा यह कृत्य देखते ही चिल्लाता है, अरे मेरा बच्चा मरा और बेहोश हो जाता है । वह बच्चा उसका नहीं था, अन्य मनुष्यों ने जब यह देखा तो उसका खास बच्चा बुलाया गया । उसे देखते ही वह होश में आ जाता है । यहाँ पर उस आदमी को सुख बच्चा देखने का नहीं हुआ, किंतु उसे सुख इसका हुआ कि हाथी के द्वारा मरोड़ा गया बच्चा मेरा नहीं है, यह ज्ञान हुआ । इसी तरह जब तक परपदार्थों में अपने की ममत्व बुद्धि रहेगी तब तक उसी मनुष्य के समान बेहोशी का नशा जाल छाया रहेगा और जहाँ अपनेपने की बुद्धि दूर हुई आनंद की सहजोत्पत्ति समझो । ममता पिशाचिनी ने कितनों को नहीं डुबोया, तथा उसी ममत्व का गुटका खाते फिर रहे हैं । मोही जीवों ने इस तरह अनंतानंत भव बिता दिये, फिर भी ममत्व बुद्धि नहीं जाती ।
178. अनुभव से समस्या समाधान की सुगमता―भक्ति में भाव लगे तो श्रेष्ठ है, बिना भाव के छुटकारा नहीं । भक्ति की ओर अंतस्थल तक नहीं पहुंचे तो आत्मीक लाभ नहीं होने का । जब इस प्राणी के द्वारा निश्चय हो जाता है कि इन पदार्थों से मेरा निजी अहित हो रहा है, इनसे न आज तक कोई कार्य सिद्ध हुआ है और न आगे जाकर होयेगा, तब वह उन्हें तिलांजलि देकर आत्महित के पथ में अग्रसर होता है । जिनका उत्तर कठिन है वह अनुभव से सुगम हो जाता है । एक पुरुष की दो स्त्रियां थी । बड़ी स्त्री के कोई लड़का नहीं था, छोटी स्त्री के लड़का था । यह देखकर बड़ी को डाह पैदा हो गयी । तब उसने अदालत में केस दायर कर दिया कि लड़का मेरा है । जब बड़ी स्त्री के बयान लिये गये तो उसने कहा कि जो पति की जायदाद होती है, उसकी हकदार स्त्री हुआ करती है इसलिए लड़का मेरा है । छोटी से पूछा गया तो उसने भी कहा लड़का मेरा है । जब दोनों अपना-अपना कहें तो राजा ने एक उपाय सोच निकाला । राज्य के तलवार वाले सिपाहियों को बुलाया गया और कहा, इस लड़के को काटकर इन दोनों स्त्रियों को आधा-आधा दे दो । इस पर बड़ी स्त्री प्रसन्न हुई तथा छोटी चिल्लाकर बोली, महाराज पुत्र मेरा नहीं है, बड़ी का है उसी को दे दिया जावे। तब राजा यथार्थ बात समझ गया कि पुत्र छोटी स्त्री का ही है, वह किसी भी हालत से उसे जीवित देखने में सुखी है । इसलिए लड़का छोटी स्त्री को दे दिया गया ।
इसी तरह जो एक आत्मा है, उसका हल अपने अनुभव से निकलेगा । खुद के अनुभव बिना, मात्र शास्त्रों के सुनने से उसका हल नहीं निकलेगा, दूसरों के उपदेश से भी नहीं निकलेगा । पूरा तो पड़ना अपने से । दुनियाभर के पदार्थों को इकट्ठा करने से क्या मिलेगा ? मनुष्य भोजन करते हैं, पशु भी खाते हैं । किंतु पशुओं को कल के संग्रह की चिंता नहीं, उन्होंने खाया और चल दिये । पशु का मरने पर प्रत्येक हिस्सा काम आता है । पशु का चमड़ा, हड्डी, माँस, सींग, गोबर, पेशाब, बाल आदि सभी कार्य में आते हैं । मनुष्य की जब तारीफ की जाती है तो पशु पक्षियों से उपमा दी जाती है । जैसे अमुक व्यक्ति शेर के समान बलवान है । तो शेर श्रेष्ठ ठहरा । उसकी नाक तोते के समान है, आँख हिरण के समान हैं, बाल सर्प के समान हैं, चाल हाथी के समान है, बोली कोयल के समान है आदि । इस तरह पशु पक्षियों का स्थान श्रेष्ठ ठहरा । यदि मनुष्य में एक धर्म नहीं है तो उससे पशु ही श्रेष्ठ हैं । धर्म के होने से ही मनुष्य का स्थान पशुओं से ऊंचा हो सकता ।
179. व्यवहारशरण और परमार्थशरण―परात्मवादी जिन कुतत्त्वों को आत्मा मानता है वे कोई भी शरण नहीं है, शरण तो सहज निरपेक्ष सनातन आत्मस्वभाव की दृष्टि ही है । जब यह दृष्टि न हो तब इस दृष्टि के प्रसाद से जो परमोत्कृष्ट हो चुके हैं उनकी भक्ति है तथा जो इस मार्ग में लग रहे हैं उनकी भक्ति है एवं जो सद् वचन इस मार्ग के वाचक हैं उनका अध्ययन मनन विनय है । चत्तारिदंडक में जहां शरण बतलाया है, वहाँ पूर्व के तीन तो परपदार्थ हैं । धर्म निज-तत्त्व है । अरहंत, सिद्ध, साधु की जो भक्ति है, वह व्यवहार भक्ति है । उसकी बात अपने में उतारे तो लाभ है । अरहंत के जो गुण हैं मेरे गुण हैं, उनको प्राप्त करने में मैं समर्थ हूँ । सिद्ध का जो द्रव्य है वैसा मेरा है । सिद्ध के जो गुण हैं वैसे मेरे है तथा सिद्ध की जो पर्याय है वैसी पर्याय पाने में मैं समर्थ हूँ, इस तरह वह सिद्ध की शरण बना लेता । साधु का जो परिणमन है उसकी मैं भी शक्ति रखता हूँ । धर्म भक्ति कहो या उपासना वह निश्चय भक्ति है । मोह, राग, द्वेष से न्यारा जो परिणाम है वह धर्म है, वह धर्म आत्मा का खजाना है, उसे कोई चुराने में समर्थ नहीं, चुगलखोर बदनाम नहीं कर सकते, मायाचारी उस आत्मतत्त्व को मायाजाल में नहीं फंसा सकते । व्यवहारशरण लेकर पीछे व्यवहारशरण छोड़े तब आत्मबुद्धि पैदा होवे ।
180. धर्म के लक्षणों का विश्लेषण―धर्म पाँच तरह से बताया है । उत्तमक्षमादि दशलक्षण का नाम धर्म है । रत्नत्रय का नाम धर्म है । अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का नाम धर्म है । वत्थुस्वभावो धम्मो अर्थात् वस्तु का जो स्वभाव है उसका नाम धर्म है तथा दया धारण करना इसका नाम धर्म है । दशलक्षण धर्म में राग द्वेष मोह का अभाव कहा है । उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन, ब्रह्मचर्य प्रत्येक में यह अच्छी तरह ज्ञात होता है । जब तक रागद्वेष मोह का सद्भाव रहेगा तब तक दशधर्म नहीं ठहर सकते । सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र में राग, द्वेष, मोह रहित परिणाम हुए । अहिंसा में यही बात है, विषय कषाय का अभाव होगा तभी वह बन सकेगी । सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह भी रागद्वेष मोह से रहित होगा । वस्तु का स्वभाव ही धर्ममय है अर्थात् आत्मा का स्वभाव रागद्वेष मोह से रहित है । जीवों पर दया तभी की जायेगी जब न मोह मिश्रित राग होगा और न द्वेष । आत्मस्वरूप का परिचय नहीं है, शरीर को ही आत्मा मानने में अनादि काल से भूल की है और अब भी करने से नहीं चूका तो कोई हाथ पकड़ कर मुक्ति के पंथ में नहीं लगा सकता । संयोग बुद्धि अर्थात् मिथ्या बुद्धि को लेकर जो परिणाम होता है वह अनंतानुबंधी कषाय है । मोही जीव शरीर, स्त्री, पुत्र, पौत्र, सुवर्ण, जमीन सभी को अपने मान रहा है, थोड़ा इसका भी तो अनुभव कर कि मैं ध्रुव ज्ञानस्वरूप हूँ । मेरी बात अन्य ने नहीं मानी, मेरे विचार नहीं अपनाये, मेरा अपमान कर दिया, निश्चय से क्या यह तेरे हैं विचार तो कर । विचार कर तथा आत्मतत्त्व के मतलब की बात गांठ में बांध ले तो हठ बुद्धि छूटते देर नहीं लगेगी । इस मनुष्यपर्याय में ऐसा सोचते कि मेरी शान गिर गई, अवहेलना कर दी और वहाँ से कूच करने पर मनुष्य से तिर्यंच हो गया तब शान रह जायेगी क्या? क्षणिक इज्जत के प्रलोभन को त्यागने से असली एवं स्थायी शान बना सकता है, जो आज तक प्राप्त नहीं हुई ।
रागद्वेषरहित परिणाम धर्म है । मंदिर आना धर्म तो तब जब वहाँ रागद्वेष का अभाव होवे, वहाँ वैसी सामग्री उपस्थित है इसलिए धर्म का स्थान होने से परिणामों की निर्मलता कर सकता है । पूजा भी इसलिए की जाती है तथा राग द्वेष रहित अवस्था होने से उनकी सत्य स्थायी कीर्ति बन जाती है । गुरुओं की सेवा भी रागद्वेष रहित उद्देश्य को लेकर की जानी चाहिए । संयम भी पल सकता है जब राग द्वेष का अभाव हो । इंद्रिय संयम में राग का अभाव होगा तभी पल सकेगा तथा प्राणी संयम के होने के लिए द्वेष का अभाव होना आवश्यक है । द्वेष तभी पैदा होता है जब किसी विषय में राग हो । दान धर्म क्यों कहलाता है इसलिए कि धन से राग घट गया । उत्सव धर्म के इसलिए हैं कि राग द्वेष रहित होकर उपदेश सुनेंगे । शास्त्र सुनने इसलिए जाते हैं कि वहाँ राग द्वेष से छूटने की कथा मिलेगी । रागद्वेष का चक्र अनादि से चल रहा है तभी अनंत संसार में भटकना पड़ा है । संसार से छूटने की यदि कोई औषधि है तो राग, द्वेष, मोह का अभाव होना । धर्म भी इतना ही है कि रागद्वेष मोह का अभाव होना । राग, द्वेष, मोह से दूर रहने का उपाय रागद्वेष मोह रहित चिन्मात्र आत्मतत्त्व की उपासना करना है । प्रिय आत्मन् ! पर्यायबुद्धि छोड़ । पर्याय जब जो होना होगा उस अध्रुवतत्त्व का आलंबन संसार ही बढ़ायेगा, अत: पर्यायमात्र अपने आपको न विचार कर चैतन्य प्रभु की उपासना करो । संसार का जितना भी दुःख है उसका मूल कारण शरीर में आत्मबुद्धि है । निर्धनता का दुःख क्यों सताता है कि शरीर में आत्मबुद्धि है, आत्मा तो निर्धन नहीं है । सभी दु:खों का मूल कारण शरीर में आत्मबुद्धि है । किसी सभा में अपमान हुआ, मेरी इज्जत गिर गई, इन सबका मूल कारण शरीर में आत्मबुद्धि है । भूख का दुःख क्यों हुआ शरीर और आत्मा का संबंध है, उसमें आत्मबुद्धि है । मेरा अमुक व्यक्ति चला गया, मेरा इष्ट वियोग हो गया, इन सबका मूल कारण शरीर में आत्मबुद्धि है । इस तरह के भोले प्राणी को थोड़ा आत्मा का भी भाव करके देखना चाहिए, मैं चिद्रूप, चैतन्य पुंज का समूह हूँ ।
181. निर्भ्रांतता का बल―अन्य व्यक्ति आश्चर्य करते हैं, जैन साधु एक बार खाकर कैसे रह जाते हैं? इसलिए कि उनकी शरीर में आत्मबुद्धि नहीं है । शरीर में आत्मीयता का विचार नहीं मिलता तो शरीर का सहवास भी नहीं रहेगा कभी । जब तक आत्मा में से शरीर बुद्धि का भ्रम न निकल जावे तब तक शांति नहीं मिलेगी । मैं सेठ हूँ, व्यापारी हूँ, बड़ा आफिसर हूँ अध्यापक हूँ आदि के विकल्पजाल छोड़ दिये जावें तो कुछ सुखानुभव होवे । रागद्वेष आदि पर भाव हैं, रागद्वेष, मोहादि कर्म का निमित्त पाकर आते हैं । रागद्वेष में मति को लगाना अशांति का कारण है । इनसे निवृत्त रहे तो शांति में वृद्धि होगी । परवस्तुविषयक भाव में व परपदार्थ में शांति नहीं मिल सकती । इंद्रियों का व्यापार बंद किया जाये तो शरीर में आत्मबुद्धि दूर होवे । एक सुई दोनों तरफ नहीं सी सकती, उसी तरह उपयोग दोनों कार्य नहीं कर सकता, संसार भी बस जावे और मोक्ष भी मिल जावे । दानियों के दान पर कंजूसों को आश्चर्य होता है । ज्ञानियों की कृतियों पर एवं विरागियों के वैराग्य पर मोहियों को आश्चर्य होता है । आलसियों को सेवाभावियों में आश्चर्य होता है कि इन्हें ऐसा क्या भूत सवार हो गया जो सदैव दूसरों की सेवा ही करते फिरते हैं । ममता के छोड़ने से और ज्ञान के बनाये रहने से दो लाभ हैं या तो मुक्ति मिलेगी या करोड़ गुनी संपत्ति मिलेगी । एक भिखारी 3-4 दिन की बासी सूखी रोटी लिये जा रहा है, उससे एक सेठ ने कहा इन रोटियों को तू फेंक दे तथा ताजी पूड़ी साग खा ले तो उसे विश्वास नहीं होगा । उसी तरह परद्रव्य के भिखारी को विश्वास नहीं होता कि निज में स्वयं आनंद है वह परद्रव्य के ममत्व परिणाम को छोड़कर स्वद्रव्य पर दृष्टि नहीं जमाता । यह जीव पशु हुआ, तो वहाँ देखो पशुओं को परिग्रह जोड़ने की ममता नहीं होती है, उन्होंने खाया पिया और चल दिये । पर मनुष्य सदैव परिग्रह इकट्ठा करने की चिंता में संतप्त रहता है । किंतु जिसकी दृष्टि में शरीर भी अपना नहीं है वह क्या मकान आदि को अपना मान सकता है? जब शरीर में आत्मबुद्धि हुई तो आत्मानुभव से गिर गया । सब दुःखों की जड़ शरीर में आत्मबुद्धि है ।
182. शरीर से आत्मबुद्धि हटाने का उपाय―शरीर से आत्मबुद्धि हटाने का उपाय क्या है? मन, वचन और काय―ये 3 कारण लगे हैं । ये तीनों चंचल हैं, शरीर चंचल है उससे ज्यादा चंचल वचन है तथा वचनों से ज्यादा चंचल मन है । सबसे प्रथम शरीर के व्यापार को रोको, शरीर के व्यापार को रोकने के बाद मूलवचन के व्यापार को रोको । वचन दो तरह के होते हैं (1) बहिर्जल्प और (2) अंतर्जल्प । बाहरी वार्तालाप को बंद करना बहिर्जल्प को रोकना हुआ । अंत:शब्दरूप कल्पना को मेटना अंतर्जल्प का रोकना हो सकता है । जब बाह्य पदार्थों को भिन्न मान उनसे रुचि हटावे । मन का व्यापार रोकने के लिए परपदार्थों को अहितकर मानना होगा । जब मन का व्यापार रुक गया तो संकल्प विकल्प चल ही नहीं सकता । ज्ञान तो परिणमन करता है । वह आत्मा का परिणमन करता है । मैं ज्योतिमात्र हूँ, ज्ञानमात्र हूँ, शुद्धचैतन्य द्रव्य स्वरूप हूँ । यह अनुभव तभी हो सकता है जब शरीर से आत्मबुद्धि छूटे । कोई किसी की आत्मा में विघ्न कर ही नहीं सकता, क्योंकि बाह्य पदार्थों में मेरी आत्मा ही नहीं है इसलिए वह रुकावट के कारण नहीं हो सकते । आत्मा त्रिकाल अबाधित है, अखंड है, आनंदमय है, चैतन्यमात्र है, अतएव बाहरी बाधा आ ही नहीं सकती । मानता है मुझे उक्त व्यक्ति ने विघ्न डाल दिया, यह मात्र सोच रखा है । यथार्थ में विघ्नकर्ता तु ही स्वयं है ।
183. पर की दृष्टि में जीवन का अपव्यय―पर को अपराधी मान रखने की बुद्धि त्याग दे । कौन तेरा हाथ पकड़कर कहता है कि आत्मद्रव्य की रक्षा मत करो । स्वयं की ही भ्रम बुद्धि से ही आत्मा को भूलकर परपदार्थों से प्रीति कर रहा हूँ । ताला डालकर भी तुझे बंद कर देवें तो क्या किसी की सामर्थ्य है जो आत्महित से च्युत कर सके । अगर तुम स्वयं न चले तो दूसरे की क्या सामर्थ्य है जो आगे बढ़ा सके । बुरा भी इसका कोई नहीं करता अच्छा भी कोई नहीं करता । जो शरीर में आत्मबुद्धि करते हैं वे दु:खों के पात्र हैं । जब शरीर में आत्मा की कल्पना हुई तब रिश्तेदारों की प्रतीति हुई और उन्हें अपना मानने लगा । यह मेरी संपत्ति है, मैं इसका संरक्षक हूँ, इसके द्वारा मेरा कार्य चलता है यह भ्रम बुद्धि है । किसी ने प्रशंसा नहीं की, निंदा कर दी, किसी ने कहना नहीं माना तो तेरा क्या नुक्सान कर दिया? निंदा शरीर की ही तो की, तेरी आत्मा की तो नहीं की क्योंकि लोगों को शरीर ही दिखता है । यदि दुःख मिटाना है तो व्यापार में ज्यादा ध्यान देने की अपेक्षा, मित्रों से ज्यादा परिचय बढ़ाने की अपेक्षा, कुटुंबियों से अधिक स्नेह करने की अपेक्षा उतने अधिक समय आत्मद्रव्य को जाना जाये । उस आत्मा को जानने का एक ही उपाय है, शरीर, वचन, मन के व्यापार को रोका जाये । यहाँ वहाँ की बातों पर ध्यान ही नहीं दिया जावे । परपदार्थों में जब तक रमा जायेगा तब तक निज कार्य का विस्मरण ही रहेगा ।
184. आत्मज्ञान के अभाव में बेसुधी की दशा―यदि आत्मज्ञान नहीं है तो उसे सुप्त समझो । जब तक बड़े-बड़े रोग नहीं आ पावें, इंद्रियाँ स्वस्थ हैं, जरा ने नहीं घेरा है तब तक आत्मकल्याण कर लो । सच्चा ज्ञान तो अपने अंदर रहना चाहिए । कुपथ्य सेवन से बीमारी बढ़ती है, बीमारी में शरीर अशक्त हो जाता है । तब कुपथ्यसेवन छोड़ने में हित है सच्चा ज्ञान हमेशा हृदय में रहना चाहिए । केवल उपवास आदि क्रियाओं से प्राणी संसार से पार नहीं होता है । जितना छुटकारा है वह सब भीतर के भाव से होता है । ज्ञानी जीव को बार-बार खाने का प्रयोजन नहीं है । ज्ञान की कमाई सबसे मूल्यवान है । ज्ञान का ऐसा ही स्वभाव है, ज्ञान का ऐसा प्राकृतिक परिणाम है कि जितने कर्म करोड़ों जन्म में अज्ञानी के तप तपने से खिरेंगे वह ज्ञानी के एक क्षण में खिर जाते हैं । जिन लड़के लड़कियों की सेवा करते हो उनके पुण्य से तुम्हें कमाना पड़ता है, वह आगे जाकर उनके कार्य आवेगा । कमाने वाला सोचता है हमारी स्त्री एवं पुत्र को थोड़ा भी परेशान न होना पड़े, अतएव अपनी परवाह न करके जी-जान से धन कमाने में परिश्रम करता है । आत्मज्ञान का अभाव है तो वह सोने को ही सुख मान रहा है, सोने को ही बाहरी चोर चुरा ले जाते हैं । जिसे आत्मा का ज्ञान हो उसे हम जाग्रत अवस्था में कहेंगे । कितना ही कोई किसी से प्रेम करे तो क्या प्रेम करने वाला उसका धर्म निभा देगा तथा उसका फलप्राप्तिकर्ता वह हो जायेगा? इस ‘मैं’ का भान जब तक शरीर में है तब तक रागद्वेष आयेगा । इसका तो भान करो मैं तो अमूर्त ज्ञानमात्र हूं, मैं तो ज्ञानस्वरूप हूं । आत्मा कैसी विलक्षण है कि इसकी उपमा भी नहीं दी जाती है । जहाँ रागद्वेष की सामग्री मौजूद हों उसकी उपमा दी जाती है । शत्रु मानने में भी दुर्गति है । जगत के इन जीवों ने क्या मुझे देखा है, जब मेरी आत्मा अमूर्तिक है तो दूसरे क्या देखेंगे, मेरे तो कोई शत्रु मित्र नहीं है ।
185. आत्मत्रैविध्य के अवगम में कर्तव्य का भान―जीव की तीन दशायें होती हैं―(1) बहिरात्मा, (2) अंतरात्मा, और (3) परमात्मा । देह और जीव को एक मानने वाला बहिरात्मा है । देह से भिन्न जो अपनी आत्मा को जाने वह अंतरात्मा है, तथा जिसमें राग नहीं, द्वेष नहीं, मोह नहीं वह परमात्मा है । बहिरात्मापने को छोड़ने से लाभ है तथा अंतरात्मा होकर परमात्मा का ध्यान करना चाहिए । परमात्मा होने का ही उपाय है । एक राजमहल में साधु रहता था, उसी में एक राजा रहता था । एक दिन साधु और राजा दोनों की मौत हो जाती है । तब जंगल में यह समाचार किसी ऋषिराज के पास भेजा गया । तो ऋषिराज ने कहा कि राजा स्वर्ग में गया है और साधु नरक में गया, क्योंकि साधु को तो राजा की संगति मिली और राजा को साधु की संगति मिली । प्रश्न―सम्यग्दृष्टि यहाँ के मनुष्यभव से मरकर कहा उत्पन्न होंगे ? उत्तर―सम्यक्त्वसहित मरण होने पर कर्मभूमि का मनुष्य देवगति में जायेगा या भोगभूमिया मनुष्य, तिर्यंच में । पर सम्यक्त्व रहित मरण होने पर विदेह क्षेत्र में जा सकता है, यह शास्त्रों का नियम है । वहां से दीक्षा धर मोक्ष भी जा सकता है ।
जीव के कषाय भाव को निमित्त पाकर कर्म प्रकृतियां बंधती हैं । वे कर्म प्रकृतियां आत्मा की नहीं हैं । तब शरीर के जो और अवयव हैं वे आत्मा के कैसे हो सकते हैं? वर्ग, वर्गणायें और स्कंध भी आत्मा के नहीं हैं । इनका उपादान पुद्गल है । उसी तरह आत्मा में आने वाली तरंगे भी आत्मा की नहीं हैं । शुद्ध आत्मा परद्रव्यों से रहित होता है। जिसने इस आत्मतत्त्व को समझा उन्हीं के अनुभव में वह आता है । अब आगे कहते हैं कि योगस्थानादिक के भी आत्मा नहीं हैं ।